शुक्रवार, मार्च 12, 2010

घर में ठीक, घाट भी साफ

निर्देशक शंकर अग्रवाल की फिल्म ना घर के ना घाट के इसी हफ्ते रिलीज हुई है और एक साफ सुथरी कॉमेडी फिल्म है। वेलकम टु सज्जनपुर की तरह यहां गांव की वापसी हुई है। पिछले कुछ समय से नए फिल्मकारों ने गांव को फिल्मों में वापस लाने की कोशिश की है। टीवी पर तो गांव बिक ही रहा है। गांव के एक युवक की नौकरी मुंबई में लगी है। वह पहली बार मुंबई जा रहा है। वहां उसे एक लोकल गुंडे के साथ रहने को जगह मिलती है। धीरे धीरे दोनों में समझदारी बढती है। गुंडा मराठी है, गांव का युवक उत्तर भारतीय। दोनों की यारी दिखाकर निर्देशक यह बताने की कोशिश कर रहा है कि मुंबई किस तरह सब भारतीयों की है। नौकरी कर रहा देवकी नंदन त्रिपाठी जब गांव वापस पहुंचता है कि मां बाप को उसके दुबलेपन की चिंता है और उसकी शादी तुरंत कर दी जाती है। उसके पिता उसकी दुल्हन को लेकर मुंबई जाते हैंं। फिल्म एक दिलचस्पी को लगातार बनाए रखती है। अचानक मुंबई में गांव की दुलहन पुलिस के हत्थे गलती से चढ जाती है और नायक, उसका गुंडा दोस्त और पूरा गांव अब उसकी बीवी को पुलिस से छुड़ाने में लग जाते हैं।फिल्म की कहानी दिलचस्प तरीके से कही गई है। निर्देशक शंकर अग्रवाल खुद ही लीड रोल में हैं ओर आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने ठीक अभिनय किया है जबकि पोस्टर और प्रोमोज में दिख ही रहा है कि उनकी शक्ल सूरत नायक के परम्परागत चेहरे जैसी नहीं है। सिर के बाल भी लगभग उड़ ही गए हैं लेकिन यह उत्साही युवक अमीर कमाल खान से कहीं ज्यादा बेहतर और संवेदनशील ढंग से फिल्म को बना गया है। इंटरवल के बाद में हिस्से में फिल्म की गति थोड़ी धीमी होती है। ओम पुरी संकटा प्रसाद त्रिपाठी की भूमिका में जमे हैं। परेश रावल पुलिस वाले हैं और रवि किशन ने लाउड ही सही, एक मराठी गुंंडे को किरदार ठीक निभा दिया है। निश्चित रूप से फिल्म ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों जैसी प्रतीत होती है लेकिन अफसोस की बात यह है कि हमारे दर्शकों को आजकल नए किस्म की कॉमेडी और भारी भरकम सितारों वाली फिल्में देखने की आदत हो गई है। फिल्म के गीत संगीत भी अच्छे लगते हैं। बोर्ड के इम्तहान और आइपीएल सब फिल्मों पर इस समय भारी है।

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