शुक्रवार, अगस्त 13, 2010

कड़वी गोली, मिश्री के साथ


फिल्म समीक्षा: पीपली लाइव



आमिर खान प्रॉडक्शन्स की अनुषा रिजवी निर्देशित फिल्म पीपली लाइव में शुरू से अंत तक आप हंसते ज्यादा हैं। लेकिन यह खिसियानी हंसी है। हंसी लगभग वैसी है जैसे शायर ने कहा कि तुम इतना जो मुस्करा रहे हो, क्या गम है जिसको छुपा रहे हो।
कहानी में बुधिया और नत्था नाम के भाई किसान है, जो पुरखों की जमीन बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। इलाके के नेता ने उन्हें किसी आत्महत्या की योजना की बारे में बता दिया है कि ऐसा करने से एक लाख रुपए मिलेंगे। बड़ा भाई बुधिया कहता है कि उसका वश चलता तो पुरखों की जमीन बचाने के लिए वह अपनी जान दे देता। उसके बार बार के उलाहने सुनकर छोटे नत्था ने कहा, तुम क्यों दोगे भैया, मैं जान दूंगा। बात एक स्थानीय पत्रकार के कान में पड़ती है, लोकल अखबार में छपती है। नेशनल चैनल में पहुंचती है और भेड़चाल वाले मीडिया के दर्जनों पत्रकार नत्था के गांव पीपली में डेरा जमाते हैं। चुनाव का वक्त है। एक पार्टी को नत्था के मरने से फायदा है, दूसरे को नत्था के जीने से। राजनीति शुरू होती है। गांव में मेला लग गया है। इसी कहानी में सरकारी योजनाओं का खोखलापन भी दिखता है, जब लालबहादुर योजना का हैंडपम्प जिलाधीश की ओर से भेज दिया जाता है, एक स्थानीय नेता की ओर से रंगीन टेलीविजन भेंट किया जाता है। दोनों उस मरते किसान के लिए गैर जरूरी हैं। केंद्रीय कृषि मंत्री राज्य सरकार पर आरोप लगा रहे हैं और राज्य केंद्र पर। अतिरिक्त सुरक्षा से घिरे, बार बार पाखाने जाते नत्था का क्या होता है, यह फिल्म में देखने की बात है। लगे हाथ मीडिया की टीआरपी की भी खबर निर्ममता से ली गई है, जब अंग्रेजी पत्रकार नंदिता मलिक से राकेश बुनियादी सवाल पूछता है कि मीडिया को नत्था की मौत में ही क्यों दिलचस्पी है? और भी किसान मर रहे हैं, तो नंदिता कहती है, यदि वह इतना सोचता है तो उसे अपने लिए कोई और काम ढूंढऩा चाहिए।
तमाम हास्य के बीच व्यंग्य के तीखे तीर हैं। कृषि भवन में बैठा अंग्रेजीदां बंगाली अफसर दार्जिलिंग की चाय सुड़क रहा है और नत्था की हालत से चिंतित अपने युवा अफसर को कहता है कि तुम बहुत जल्दी घबरा जाते हो। यह गैंडे के खाल वाली नौकरशाही है। नत्था के गायब होने के बाद नौकरशाह, नेता, मीडिया सब अपने ठिकाने पर हैं। किसान के घर की हालत वैसी की वैसी है्र। जो पत्रकार संवेदनशील था, उसकी जान चली गई है। इस क्रूर दौर में संवेदनशील लोगों का यही हश्र हो रहा है। पीपली लाइव एक कड़वी दवा है, जिसमें मिश्री मिली हुई है तो निगलने में आसानी होती है। उस हंसी के पीछे बीमारी का दर्द,्र एक तंत्र की सड़ांध को कब तक छुपाया जा सकता है?
कहानी अच्छी है, संवाद चुटीले हैं। तंज है और शुरू से अंत तक बांधे रखने की क्षमता भी। रघुवीर यादव तो अच्छे अभिनेता हैं ही नत्था की भूमिका में ओंकार दास माणिकपुरी का काम काबिले तारीफ है। संगीत एकदम ताजातरीन है। जिसमें महंगाई डायन तो है ही। देश मेरा रंगरेज में इंडियन ओशियन बैंड का खूबसूरत म्यूजिक है। आमिर खान हैं तो इसका प्रचार भी है, वरना श्याम बेनेगल की फिल्म होती तो इतना स्टारडम कैसे आता? आमिर के बहाने ही सही, फिल्म देखने जरूर जाएं। आप निराश नहीं होंगे। परिवार के साथ जाने के इच्छुक दर्शकों के लिए सूचना है कि फिल्म में गालियां ठीक ठाक हैं, जो गांव की जुबान का ही हिस्सा हैं।

शनिवार, अगस्त 07, 2010

हौले हौले चलती प्रेम कहानी

फिल्‍म समीक्षा-आयशा
अनिल कपूर फिल्म कंपनी की फिल्म आयशा इस हफ्ते रिलीज हुई है। इसमें सोनम कपूर और अभय देओल लीड में हैं। फिल्म प्रेम कहानी है लेकिन इतनी धीमी है कि दो घंटे की फिल्म यूं लगती है, जैसे बहुत लंबी चल रही है।

आयशा एक अमीर घर की लड़की है जो मिडिल क्लास टाइप कुछ नहीं करती। उसे चलते फिरते लोगों की जोडियां बनाने में बड़ी दिलचस्पी है। उसकी सबसे खास दोस्त पिंकी उसके साथ है और बहादुरगढ से आई शेफाली के लिए वे लड़का ढूंढ रही हैं। इस भागदौड़ में शेफाली को वे आधुनिक बनाने पर तुली हैं।

अंतत: आयशा के आदतों से ऊब कर उसकी खास दोस्त उसी आदमी को प्यार करने लगती है जिसका वो अक्सर अपमान करती रहती थी। आयशा अब भी कन्फ्यूज्ड है कि वह किससे प्यार करती हैं। सोनम कपूर, इरा दुबे और आरती पुरी ज्यादातर समय स्क्रीन पर मौजूद रहती हैं और इनके बीच अभय देओल, साइरस साहूकार ओर अरूणोदय सिंह जरूरत के हिसाब से आते हैं।

निर्देशक राजश्री ओझा ने जीन ऑस्टिन के उपन्यास ऎम्मा के कथा सूत्रों से प्रेरित यह फिल्म खड़ी करने की कोशिश की है लेकिन अव्वल तो इस किस्म की पारिवारिक फिल्मों की भारतीय दर्शकों को आदत नहीं है। दूसरे, उन्होंने फिल्म को बहुत अच्छा नहीं बनाया है।

देविका भगत के स्क्रीनप्ले में झोल नहीं है लेकिन उसकी गति ही उसे कमजोर कर देती है। खासकर इंटरवल से पहले तक तो कहानी कुछ आगे बढती नहीं है। इंटरवल के बाद घटनाएं कुछ होती हैं तो एक लंबे क्लाइमैक्स ने सारी गड़बड़ कर दी। फिल्मांकन अच्छा किया गया है। जावेद अख्तर के ठीक ठाक से गीतों पर अमित त्रिवेदी का संगीत और पाश्र्व संगीत ज्यादा अच्छा है।

कुछ रूमानी क्षणों को निर्देशक ने बहुत अच्छे से हैंडल किया है लेकिन ओवरआल इसकी धीमी गति सपाट कथानक ही मारक है। आपको पता है कि रिलेशनशिप किस किस में विकसित हो सकती है लेकिन वह विकसित होने के दौरान के दृश्य गायब हैं।

कॉलेज गोइंग यूथ और किशोर यदि इसे पसंद करें तो बेहतर हैं। हमारी फिल्मों की प्रेम कहानियों को कालखंड भी छोटा सा होता है। लड़का लड़की मिलना, तनाव और प्यार हो जाना। सब कुछ सतही सा। सोनम कपूर अच्छी लगी हैं। उनके पिता की भूमिका में एमके रैना को देखना सुखद है। अभय देओल ने अंडरप्ले किया है लेकिन अपने रोल में वे फिट हैं।

और अब एक स्टुपिड बात। खबर प्रचारित की गई थी कि सोनम कूपर ने पहला ऑन स्क्रीन किस दिया है। क्लाइमैक्स से ठीक पहले अभय देओल सोनम के पलकों के ऊपरी हिस्से के चूमते हैं। फिर अपनी चुटकी में पकड़कर उसकी नाक हिलाता है, होठों के करीब आने से पहले कैमरे की आफसाइड अपना मुंह ले जाते हैं। बार बार लॉरेल का मेकअप करती सोनम के होठों पर कोई छुअन तक नहीं हैं। आप इसे किस मानें तो मान लीजिए। एक युवा दर्शक की टिप्पणी सुनिए, यार, इमरान हाशमी और अभय देओल में कुछ तो फर्क होगा ही।