गुरुवार, फ़रवरी 25, 2010

सलाम सचिन



जीत हार के गुणा भाग लगाने वाले अंकशास्त्री भी मान ही गए होंगे कि जब एक जुनूनी खिलाड़ी इतिहास बनाने के लिए जूझ रहा होता है तो वह अंकों और ज्योतिष का मोहताज नहीं रहता। सृष्टि के सारे अंक ही ये कोशिश करते हैं कि सचिन के साथ हो लेने में शायद उनकी भी इज्जत बढ़ जाए। सारे ग्रह एकमुश्त सचिन के साथ चलने की गुहार कर रहे थे। पचासवें ओवर की तीसरी बॉल दुनिया में वन डे क्रिकेट के इतिहास की सबसे भाग्यशाली बॉल थी। लैंगवैट वो बॉलर है जो याद रखेगा कि उसकी बॉल को सचिन तेंदुलकर के बल्ले ने छुआ था।

तीन दिन पहले निर्णय में पल भर की देरी ने उन्हें चार रन पर आउट किया था। यह एक चीते की वापसी थी।
जब मैच का 48वां ओवर था तो एक छोर पर टिके कप्तान धोनी चौके छक्के बरसा रहे थे। यह पहली बार था कि भारतीय दर्शक उसे कोस रहे थे। दूसरे छोर पर खड़े सचिन 47 वां ओवर खत्म होने तक198 रन के साथ सईद अनवर का वन डे में 194 रन बनाने का तेरह साल पुराना रिकॉर्ड ध्वस्त कर चुके थे । लोग बेसब्र थे। धोनी से टैलीपैथी आग्रह था कि स्ट्राइक छोड़ें, सचिन को दें। 48वां ओवर । पहली बॉल पर कोई रन नहीं। दूसरी बॉल, एक रन। तीसरी बॉल। सामने सचिन। कोई रन नहीं। चौथी बॉल। दौड़कर एक रन पूरा किया। दूसरा रन धोनी नहीं चाहते। सही भी है। पांचवी बॉल। धोनी का कोई रन नहीं। ओह नो। स्ट्राइक सचिन को दो।

ओवर की आखिरी बॉल। एक रन। ओह नो। क्यों लिया। स्ट्राइक सचिन को दो। ओवर बदला। धोनी फिर सामने। 49वां ओवर। पहली बॉल खाली। दूसरी बॉल, धोनी का छक्का। तीसरी बॉल, फिर खाली। चौथी बॉल, चौका। धोनी चाहते क्या हैं? हे धोनी, सचिन को खेलने दो। पांचवी बॉल, धोनी का फिर छक्का। क्या खेल है? छक्कों पर दर्शकों को मजा नहीं। यह एक रन बनाकर हट क्यों नहीं रहा। सचिन को खेलने दो। ओवर की आखिरी बॉल, अब एक रन ले लिया। धोनीजी ऐसा क्यों कर रहे हो?


आखिरी ओवर करोड़ों सांसे थमी हैं। स्ट्राइक पर फिर धोनी है। यह तो चिपक ही गए हैं। छोड़ो जगह। सचिन को आने दो। पहली बॉल, धोनी का छक्का। यह सचिन को दो सौ पूरे नहीं करने देगा। दूसरी बॉल। धोनी रन के लिए दौड़े। एक पूरा। दूसरे के लिए मुड़े। अमला फील्डिंग में चूके। ले सकते थे। सचिन धोनी की आंखे मिली। तय हुआ, अब मेरी बारी। दर्शकों ने तालियां बजाई कि धोनी दूसरा रन नहीं ले सके। कप्तान के रन बनाने से दर्शकों को शायद पहली बार तकलीफ हो रही थी। पारी की आखिरी चार बॉल फेंकी जानी है। बॉल के सामने सचिन है। एक रन लिया और दो सौ पूरे। वन डे इतिहास की किस्मतवाली बॉल। आखिरी तीन बॉल में भी धोनी दो चौके लगा ही आए यानी यह सब सचिन से स्पर्धा नहीं थी। खेल में डूबने की यह एक कप्तान की भी अदा थी।

ग्वालियर के स्टेडियम में जादुई कलाइयां कमाल कर रही थीं। जब सहवाग जब नौ रन के निजी स्कोर पर आउट हुए तो सचिन पर एक जिम्मा था कि पारी संभाली जाए। शुुरुआती खेल से ही सचिन लय में थे और यह यादगार पारी थी। अब तक सचिन अपनी पारियों में क्रिकेट के प्रतिबद्ध कवि की तरह दोहे, लघु कविताएं, खंड काव्यों का सर्जन करते आए। इस पारी में उन सबको मिलाते हुए उन्होंने एक महाकाव्य रच दिया। दुनिया के खिलाडिय़ों के सामने एक चुनौती के साथ कि आओ, खेलो और जुनून है तो इससे बेहतर सर्जन करके दिखाओ। जियो सचिन।

सोमवार, फ़रवरी 22, 2010

अपनी जुबान के सुख


जब अंडमान की 85 साल की बुजुर्ग महिला बोआ सर की मौत की खबर पढ़ी तो यह झटका देने वाली बात थी कि हम कितने सहज तरीके से अपनी परंपरागत जुबानों की उपेक्षा करते हुए एक लालची और स्वार्थी दौड़ के शिकार हो गए हैं। पूंजी ने हमारी संवेदनाओं को खोखला कर दिया है। भाषा हमारे समय में बजाय संरक्षण के एक बौद्धिक विमर्श का शगल बनकर रह गई है। पिछले ही हफ्ते देश के गृहमंत्री पी.चिदम्बरम अपनी प्रेस कांफ्रेस में पत्रकारों के आग्रह को ठुकराते हुए यह कह चुके कि वे हिंदी नहीं बोल सकते।
यह सब इसलिए याद आ रहा है कि अंडमान में बोआ सर की मौत के साथ ही दुनिया की सबसे पुरानी भाषाओं में एक 'बोÓ हमेशा के लिए खत्म हो गई। यह उस जनजाति की यह भाषा जानने वाली आखिरी महिला थी जो 65 हजार साल पहले अफ्रीका से देशांतर करते हुए अंडमान आकर बस गए थे।


भाषा का इतिहास अपने आपमें एक दिलचस्प अध्ययन है। मुनष्यों ने अपनी बात संप्रेषित करने के लिए इसे ईजाद किया। नदियों की कल-कल, पत्थरों पर गिरते झरने की ध्वनि, ऊंचे पहाड़ों, आग की तपिश, बर्फीली हवाओं से निकलने वाली सी सी जैसे अनगिनत खजाने प्रकृति में रहे हैं, जिन्हें देखते हुए मनुष्य ने अपने संवाद की शैली विकसित की होगी और आज उसे परिपक्वता तक ले आया है लेकिन मेरी पीढ़ी के ज्यादातर लोगों के लिए भाषा और संवेदना का यह इतिहास बेमानी है। उन्हें अपने बच्चों के लिए नौकरी में बेहतर भविष्य चाहिए। अंग्रेजों के उपनिवेश रह चुके दुनिया के ज्यादातर देशो की तरह भारत में भी अंग्रेजी पूरे तांडव के साथ अपना काम कर रही है। हम सबके बच्चे सामथ्र्य के हिसाब के अंग्रेजी मीडियम के स्कूलों में पढऩे लगे हैं। हिंदी मीडियम के सरकारी स्कूल भारी भरकम सरकारी तंत्र के बावजूद दिनोंदिन गर्त में जा रहे हैं। निजी शिक्षा में कारोबार का ऐसा तंत्र खड़ा हो गया है। सरकारों की कोई इच्छाशक्ति ही नहीं है कि सरकारी स्कूल उम्दा तरीके से काम करें और निजी स्कूलों को चुनौती दे। मुझे ऐसा लगता है कि किसी भाषा या बोली को बचाने में शिक्षा अहम भूमिका कतई नहीं निभाती है। हमारी शिक्षा प्रणाली ने स्पष्ट तौर पर स्थानीय भाषाओं और बोलियों पर निर्मम तरीके से प्रहार किया है। अनपढ़ लोगों ने हमारी बहुत सी स्थानीय जुबानों को आज भी बचाए रखा है।


फिल्मकार जगमोहन मूंदड़ा ने कबूल किया कि राजस्थानी मूल के होने के बावजूद वे पहली बार करीब पचास साल की उम्र में राजस्थान तब आए, जब उन्हें अपनी फिल्म बवंडर के लिए लोकेशन्स देखने थे लेकिन आश्चर्यजनक रूप से वे सारा संवाद राजस्थानी में कर रहे थे। उनके पूर्वज बीकानेर के रहे और मूंदड़ा के मुताबिक उनकी दादी से उनका संवाद हमेशा राजस्थानी में होता था। लिहाजा कोलकाता, मुंबई, लॉस एंजेल्स और लंदन में रहते हुए भी मंूदड़ा की संवेदनाओं में उनकी मातृभाषा जिंदा है। उनकी अगली पीढ़ी में क्या यह परंपरा कायम रहेगी? आजकल बहुसंख्यक महानगरीय बच्चों की परवरिश दादा दादी और नाना नानी से दूर होती है। यहां तक कि दादा दादी भी शर्म के बजाय गर्व महसूस करते हैं कि उनके बच्चे तो बातचीत ही अंग्रेजी में करते हैं। यह बहुत खतरनाक स्थिति है कि एक बड़ी पीढ़ी को हम भाषा के संवदेना व अर्थ से परिपूर्ण परंपरागत अतीत के बजाय एक थोपा हुआ भविष्य देने की कोशिश कर रहे हैं।


दुनिया भर की हजारों छोटी भाषाएं और बोलियां अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही हैं। स्पेन के एक छोटे से हिस्से में कातलान एक प्रमुख बोली है। सांस्कृतिक और साहित्यिक रूप से सचेत बहुत कम लोग कातलान के जानकार हैं। वे अब उसके प्रचार प्रसार में जुटे हैं। जयपुर में ही एक कातलान कवि को सुनते हुए मैंने इस भाषा के दर्द और हौसले को सलाम किया। बेहतरीन सर्जन भाषाओं और बोलियों को बचाने में अहम भूमिका निभाएगा। हमारे पास विजयदान देथा हैं तो मैं सरकारों की चरण वंदना नहीं कर सकता कि वे राजस्थानी को बचाएं। हमारी सरकारें ठेकों, पुलों, सड़कों, इमारतों की कमीशनखोरी में इतनी उलझी हुई हैं कि भाषा और बोलियां उनकी प्राथमिकता में नहीं हैं। जो अकादमियां बनाई गई हैं, वहां काम से ज्यादा राजनीति हावी है। सत्ता पाने के बाद हर कोई अपनी कुर्सी बचाने के दाव पेंच में लगता है। स्थानीय बोलियां नेताओं के लिए सिर्फ वोट मांगने की जुबान भर रह गई हैं।
धन कमाने के लिए अपने बच्चों को अंग्रेजी पढाइए लेकिन उन्हें अपनी मातृभाषा से वंचित मत करिए। उन्हें वो जुबान सिखाइए जो पिछले सैकड़ों सालों से उनके पुरखे बोलते आए हैं। इससे वे धन भले ही ना कमाएं लेकिन बेहतर इंसान जरूर बनेंगे। एक राजस्थानी को कोई न्यूयॉर्क की सड़क पर टकराए और कहे, 'राम राम साÓ, इस ध्वनि से होने वाले सुख को क्या आप हजारों डॉलर खर्च करके अपने बच्चों के लिए खरीद पाएंगे? मादरी जुबानें यही सुकून देती हैं।


मातृभाषा की अहमियत समझते हुए दागिस्तान के रसूल हमजातोव फिर याद आते हैं। अवार बोलने वाला एक आदमी बरसों पहले दागिस्तान छोड़कर फ्रांस में बस गया। वहीं शादी कर ली। रसूल जब वहां थे तो वह मिलने आया। उस आदमी की मां जिंदा थी। रसूल ने दागिस्तान लौटकर उसकी बूढ़ी मां को उसके बूढे होते जा रहे बेटे के जिंदा होने की सूचना दी तो वह खुशी से झूम उठी। अचानक मां ने पूछ लिया, 'क्या उसने तुमसे अवार में बात की?Ó रसूल बोला, 'नहीं, मैं अवार बोल रहा था और वो फे्रंच में बात कर रहा था।Ó उस आदमी की बूढ़ी मां ने ऐसी मुद्रा बना ली, जैसी कोई मौत होने पर बनाते हैं। फिर बोली, 'तुम गलत हो रसूल, वो मेरा बेटा नहीं हो सकता। वो अपनी जुबान भूल गया, वो मेरे लिए मर गया।Ó

गुरुवार, फ़रवरी 18, 2010

निरीह लेखक और ताकतवर निर्माता

कॉपीराईट एक्ट में संभावित संशोधन को लेकर इस समय इंडस्ट्री की असंगठित सी लेखक व गीतकारों की बिरादरी मजबूत तथा संगठित निर्माताओं से अपने हक और रॉयल्टी के लिए संघर्ष कर रही है। जावेद अख्तर और आमिर खान के आमने सामने होने के प्रकरण मात्र से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि लेखक एक बार फिर बैकफुट पर हैं। नए संशोधन के बाद अगर मोटा मुनाफा कमाने वाले निर्माताओं को अपनी कमाई से एक हिस्सा लेखक को देना पड़े तो क्या बुरा है? लेकिन आमिर खान आज के स्टार भी हैं और निर्माता भी। वे लेखक का हक मारने के मामले में अघोषित तौर पर आरोपी भी रहे हैं। उनकी निर्देशित फिल्म तारे जमीन पर के प्रारंभिक निर्देशक उनके पुराने मित्र अमोल गुप्ते रहे और दबे मुंह लोग यह मान भी रहे हैं कि गुणवत्ता और परफेक्शन का बहाना लेकर अमोल को किनारे कर आमिर निर्देशक की गद्दी पर जा बैठे। लिहाजा मुझे उनसे सहानुभूति होने की कोई वजह नहीं है। आमिर खान का यह तर्क कि हमारे यहां फिल्म को सितारे चलाते हैं, लेखक नहीं। इसलिए निर्माता जो चाहे अनुबंध लेखक के साथ रख सकता है। जाहिर है, जो ताकतवर है, वह कमजोर को दबाएगा। निर्माता के पास पैसे हैं, तो उसके पास सितारे भी हैं। पूरी फिल्म इंडस्ट्री का तंत्र भाई भतीजावाद के भारी भरकम कारोबारी संयंत्र के रूप में तब्दील हो चुका है। वहां इमरान खान, रणबीर कपूर, अभिषेक बच्चन की सितारा छवि गढऩे के लिए सारे निर्माता अपने करोड़ों दांव पर लगाने को तैयार हैं। क्योंकि आप इमरान को मौका देंगे तो आपके पास आमिर खान हैं। आप अभिषेक को मौका देंगे तो आपके पास अमिताभ बच्चन हैं। शाहरुख खान भी बीस साल पहले इंडस्ट्री में आ गए। आज मुझे कोई उम्मीद नहीं है कि गैर सितारा छवि वाला और बिना फिल्मी पृष्ठभूमि वाला आदमी आने वाले बरसों में सुपर स्टार बनेगा। मनोज बाजपेयी, आशुतोष राणा, इरफान खान जैसे पचासों नाम आप गिना सकते हैं जिनके अभिनय की आप तारीफ कर सकते हैं लेकिन उनके नाम से वितरक फिल्म खरीदते नहीं। निर्माता अपना धन नहीं लगाते। उनके पास सारा पैसा रणबीर कपूर पर लगाने के लिए है।

सितारों और निर्माताओं के इस गठजोड़ में पटकथा लिखने वाले और गीतकारों की हालत खराब है। क्योंकि पूरी इंडस्ट्री में यही एक ऐसा काम है, जिसके लिए सितारों के घर में पैदा होना जरूरी नहीं। पैदा हो भी जाएं तो यह बस की बात नहीं। आप सलीम खान के बेटे हो सकते हैं लेकिन वीर की कहानी का आडडिया और पटकथा को श्रेय लेने मात्र से फिल्म को नहीं चला सकते। फिल्म को चलाने के लिए सबसे बुनियादी चीज पटकथा है। यदि वही खराब है तो सितारों के बुरे दिन आते देर नहीं लगती। अक्षय कुमार आजकल इसी संकट से जूझ रहे हैं। अमिताभ बच्चन एक बहुत बुरा दौर झेलकर बाहर निकले हैं। मुमकिन है आमिर खान को देर सबेर यह बात समझ में आएगी। जिस दिन फिल्म पिटती है, उस दिन कोई यह नहीं कहता कि इसके लिए अभिनेता या निर्देशक जिम्मेदार थे। निनानवे फीसदी मामलों में हार का ठीकरा लेखक के माथे पर फूटता है, तो ऐसी कौनसी आफत है कि लेखक को फिल्म से पहले भी उसका तय शुल्क नहीं देना चाहते और फिल्म चल निकले तो भी उसके लिए कोई रहम नहीं है।

सितारों को सिरफिरा बनाने का यह तंत्र हॉलीवुड से हमने लिया है लेकिन वहां भी लेखक के लिए फिल्म के बजट का पंद्रह से पच्चीस प्रतिशत तय है। वहां लेखकों का संगठन भी मजबूत है। दो साल पहले जब अपने हकों को लेकर लेखक हड़ताल पर चले गए थे तो निर्माताओं की हालत पतली हो गई थी। अफसोस की बात है कि मुंबई में फिल्म लेखकों का संगठन इतना मजबूत है ही नहीं। यहां तक कि उनकी कहानियां भी उतनी ही चुराई हुई होती हैं लेकिन वहां भी निर्माता का दबाव ज्यादा होता है कि फलां डीवीडी काट दो। वहां फिल्म राइटर्स एसोसिएशन है, जो मुसीबत के वक्त एक एजेंट की तरह तो काम सकती है कि वह लेखक और निर्माता में कोई समझौता करवा दे लेकिन उसके पास कानूनी हक नहीं है। यदि लेखक अपने असली हक की मांग करे तो उसे कोर्ट ही जाना पड़ता है। वहां कॉपीराइट कानून की उलझनें ही उसकी मदद करती हैं। तो कोई संशोधन ऐसा है कि उससे लेखक को उसका वाजिब हक मिले तो इसका स्वागत होना चाहिए। ना केवल फिल्म-लेखकों को बल्कि आम लेखकों को भी इसकी वकालत करनी चाहिए। हिंदी के मुख्यधारा के कितने ही लेखक सिनेमा के लिए भी लिखते रहे हैं और निर्मातओं और सितारों के इस चक्रव्यूह में उनका अनुभव बुरा ही रहा है। चाहे वो उदयप्रकाश हों या बोधिसत्व। लेखकों के साथ ही गीतकार इस बात से जूझ रहे हैं कामयाब गानों से करोड़ों कमाने वाले निर्माताओं को उनका हक भी मिलना चाहिए। क्या किसी खूबसूरत गाने को सितारों पर फिल्माए जाने की कोई मजबूरी हो सकती है?आमिर खान यदि कॉपीराइट संशोधन की बैठक में भारत सरकार के मंत्री का यह समझाने में कामयाब हो जाएं कि भारत में फिल्म तो सितारों की वजह से ही चलती है तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ नहीं हो सकता। क्योंकि हमारे पास रामगोपाल वर्मा हैं जिन्होंने सत्या के जरिए एक नई पहचान भारतीय इंडस्ट्री को दी। एकदम ताजा मनोज वाजपेयी को उन्होंने रातों रात सितारा बनाया। लेखक वैसे भी भावुक होता है। अनुराग कश्यप से जब रामू ने जब सत्या की स्क्रिप्ट की कीमत पूछी तो अनुराग ने कहा था, मेरी तो सिर्फ यह इच्छा है कि इस कहानी पर फिल्म बन जाए। फिल्म बनी और हम सबने बिना सितारों वाली फिल्म की कामयाबी देखी। अनेक उदाहरण भरे हैं। महेश भट्ट आज भी सितारों की छवि से परे सिनेमा बनाने में यकीन करते हैं। यह बात और है कि उनकी ज्यादातर फिल्में हॉलीवुड के सिनेमा से चुराई हुई होती हैं। उनके यहां भी मूल लेखक की इज्जत नहीं है।

दुनिया में क्लासिक सिनेमा बनाने वाले इरानी फिल्मकार सितारों के बोझ से आजाद हैं। फ्रांस के सिनेमा में भी ऐसा ही है। लेकिन हॉलीवुड के फार्मूले ने पूरे यूरोपीय सिनेमा को तबाह कर दिया। हमारी इंडस्ट्री में भी सितारों के दबाव ने घटिया फिल्में देखना हमारी मजबूरी बना दी है। प्रयोगधर्मी फिल्मकार नया सिनेमा रचने से ही डरते हैं। खोसला का घौंसला बनाने वाले दिबाकर बनर्जी को दो तीन साल लग गए, जब वे अपनी फिल्म बेच पाए। भेजा फ्राय ने यह मिथक तोड़ा कि बिना सितारों की फिल्म नहीं चलती। सितारों की फिल्म कमबख्त इश्क डूब ही गई। कहानी नहीं होगी तो सितारों की कामयाबी खतरे में होगी। जेम्स कैमरून ने अपनी अवतार में एनिमेटेड चेहरों को ही सितारा छवि दे दी। आमिर खान को भविष्य की आहट देखनी चाहिए और लेखकों को अपना भविष्य देखते हुए संघर्ष और तेज करना चाहिए।

सोमवार, फ़रवरी 15, 2010

प्रेम कि नैया है राम के भरोसे

तपती धूप के बाद हवाओं के साथ तैरते बादल पहाड़ पर टिक जाते हैं। आंखें अभिभूत होती हैं। टिप टिप सी बूंदें बदन को छूती हैं। रोम रोम में सिहरन होती है। बादलों की गरज से कानों में संगीत बजने लगता है। बूंदें तेज होती हैं तो जीभ अनायास बाहर निकलती है। एक बूंद उस पर गिरती है। शुक्रिया कायनात का कि उसमें नमक पूरा है। तड़ातड़ बूंदें मिट्टी पर हैं। वहां खुशबू की फसल उगती हैं। चारों ओर मिट्टी में फैली गंध नाक से घुसकर पूरे जिस्म में घुलती है। सुख देती है, जिसके बखान के लिए शब्द बने ही नहीं हैं। शायद इसी महक से अभिभूत मैं बचपन में मिट्टी खाना सीख गया था। वरना आज उसे चखते हुए ही सोचता हूं कि किसी बच्चे को इतनी फीकी और बेस्वाद चीज खाने में क्या मजा आता होगा? मौसम की पहली बरसात पर हमारी पांचों इंद्रियां बौराई हुई एक अनिर्वचनीय सुख महसूस करती हैं। प्रेम जिंदगी में ऐसे ही आता है। जैसे पहली बारिश आती है।
मुझे लगभग ऐसा ही अहसास होने का था, दो पुलिसवालों ने हमें अपने पास बुला लिया था। वे नाम पता पूछने में जुटे थे। हमारे घरवालों को फोन करने की धमकी देने लगे थे। पुलिसवालों ने पर्स भी निकलवाया। तब उसने हिम्मत दिखाई थी कि हम सिर्फ टहलने आए थे। तुम मेरे बाप को क्या फोन करोगे? तुम्हारा भी तो कोई बाप होगा, मैं उससे जाकर मिलती हूं। उसकी हिम्मत से मुझमें भी हिम्मत थी। मैं उसे दिल की कह नहीं पाया था। आज भी वह दोस्त जरूर है, लेकिन जब उस दिन की बात याद करते हैं तो हंसी थमती नहीं। मन में घुसा हुआ डर निकलता नहीं। मैं उन प्रेमियों को सलाम करता हूं, जिनके मन से यह डर निकल गया। उन्हें देखकर ही मेरा अधूरापन पूरा होता है।
पुलिस और परिजनों ने यह मान लिया है कि बच्चे जवान हो गए तो तय है कि बिगड़ गए हैं। सांस्कृतिक ठेकेदार प्रेमियों को सरेआम पीटकर यह स्थापित करते हैं कि उनके इस धरती पर पैदा होने में प्रेम तत्व की ही कमी रह गई थी। क्या आपने कभी किसी प्रेमी को डकैती के आरोप में पकड़ा है? क्या किसी प्रेमी ने बैंक लूटा है? हां, प्रेमियों के हत्या करने की खबरें यदा कदा आती हैं। क्या वे सचमुच प्रेमी होते हैं? बारिश का फायदा उठाकर वे एक लहलहाती फसल के बीच में उगी खरपतवार हैं। एक ही वक्त में कई साथियों के साथ प्रेम में डूबने की आजादी चाहने वाले लम्पट होते हैं। उन्हें प्रेमियों की दुनिया से बाहर धकेलिए। प्रेम हमारे यहां स्वीकार्य नहीं। कोई उसे कोई संरक्षण नहीं है। उनकी नैया राम के भरोसे है। यहीं क्यों? दुनिया के कई समाजों में प्रेमियों पर बंधन के किस्से यहां करने का क्या औचित्य? सिनेमा के पर्दे पर हम चाहते हैं कि दो हंसों का जोड़ा मिल जाए तो ही कहानी पूरी होती है। असल जिंदगी में हमारे ही घर में ऐसा हो तो उस जोड़े को अलग करने में हम सारा श्रम और दिमाग लगा देते हैं। अच्छी बात है कि हरियाणा पुलिस ने थानों में ऐसे आवास बनाने की पहल की है, जहां घर से भागकर शादी करने वाले लोगों को सुरक्षा और आवास दोनों मिलेगा।
सच तो यह है कि हमें जश्न मनाना चाहिए कि किसी को प्रेम हुआ है। किसी ने यह अहसास किया है, जैसे पहाड़ से टपकती बारिश की बूंदें हमारी इंद्रियों को झंकृत करती हैं। जैसे स्टेशन पर आती हुई रेल अच्छी लगती है। जैसे दूर मरूस्थल में टीले पर उगे रोहिड़े के सुर्ख फूल अच्छे लगते हैं? कोई पूछे ये सब क्यों अच्छा लगता है तो इसका एक ही जवाब है, 'मुझे प्रेम हो गया है।Ó फूल पर बैठी तितली को देखते हुए, पहाड़ पर संतुलन बनाकर चरती हुई बकरी को देखते हुए, आसमान में स्वच्छंद उड़ रही चिडिय़ा को देखते हुए क्या हम उन्हें अपराधी मानते हैं? तो फिर प्रेम में लिप्त कॉफी हाउस की एक मेज पर या पार्क की बेंच पर दुनिया से निर्लिप्त दो प्रेमियों ने क्या अपराध किया है? केदारनाथ सिंह की कविता 'हाथ याद आती है-
'उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए

शुक्रवार, फ़रवरी 12, 2010

हम होंगे कामयाब एक दिन


करण जौहर अपनी प्रेम मुहब्बत, रोने धोने वाले फार्मूले से मुक्ति की छटपटाहट से बाहर आने की कोशिश कर रहे है। उन्हें हमारे हौसले की जरूरत है। माय नेम इज खान के जरिए वे यह बताना चाह रहे हैं कि दुनिया मे सिर्फ दो ही किस्म के इंसान होते हैं, अच्छे और बुरे। यहां नायक सेलफोन भी इस्तेमाल नहीं करता क्योंकि उसके सिगनल से मधुमक्खियों को दिक्कत होती है। तीसरी बात यह कि वह अमेरिका के राष्ट्रपति से मिलना चाहता है। यह कहना चाहता है कि माइ नेम इज खान एंड आय एम नॉट अ टेरेरिस्ट। अमूमन लोग उम्मीद कर रहे हैं कि फिल्म की तुलना आमिर सलमान अक्षय कुमार के अनुपात में हो तो यह निहायत ही गलत तरीका है। यह फिल्म थ्री इडियट नहीं है। यह फिल्म हमारे भीतर छुपे शैतान को पत्थर मारने में हमारी मदद करती है जहां बाल ठाकरे या बजरंग दलियों ने यह मान लिया है कि खान सरनेम का अर्थ ही धोखेबाज और आतंकवादी होना है। यह एसपर्जर सिंड्रोम से पीडित रिजवान खान की कहानी है, जिसे नई जगह, पीले रंग और तेज शोर से डर लगता है लेकिन वह बहुत ही समझदार और ज्ञानी भी है। धुन का पक्का है। मानवीय नजरिया उसे उसकी मां, उसके टीचर वाडिया और इस्लाम से उसे विरासत में मिला है। वह अमेरिका में एक लड़की मंदिरा के सैलून मे अपने ब्यूटी प्रोडक्ट बेचने जाता है और उसी से प्यार कर बैठता है। मंदिरा तलाकशुदा है और उसके पहले से एक बच्चा है। शादी के बाद उसका सरनेम मंदिरा खान और उसके बेटे का नाम समीर खान हो जाता है। 9/11 से पहले सब कुछ ठीक था लेकिन उसके बाद पूरी दुनिया ने करवट ली खान सरनेम की वजह से एक हादसा होता है। दोनों पति पत्नी अलग हो जाते हैं। मंदिरा उसे चुनौती देती है कि किस किस के सामने वह बेगुनाही का सबूत देगा कि तुम्हारा नाम खान है और तुम टेरेरिस्ट नहीं हो। यहां से खान अमेरिका के प्रेसीडेंट से मिलने की यात्रा शुरू करता है। जहां जहां राष्ट्रपति को जाना होता है, वहां वह पहुंचता है, लेकिन मिल नहीं पाता। फिल्म इसी यात्रा को आगे बढाती है और अंजाम तक पहुंचती है। इस यात्रा में रिजवान खान एक नायक बनकर उभरता है। जॉर्जिया में छोटे से गांव के लोगों को बचाने में रिजवान खान अकेला जुटा तो उसके पीछे सैकड़ों लोग राहत सामग्री लेकर आए हैं। जहां वह काउंटर पर कमरे की सिर्फ जानकारी लेने गया था वहां भी होटल मालिक ने बोर्ड टांग लिया है कि यहां खान ठहरा था।


कहानी में बीच में कहीं ठहराव और एकरसता आती है लेकिन सारे नंबर शाहरूख खान को इसलिए जाते हैं कि वह अभिनय के एक नए अवतार में सामने है। क क किरण से, राज और राहुल को पछाड़ते हुए आप आने वाले समय में रिजवान को याद रखेंगे। काजोल तो उम्दा है ही। एक मुद्दत बाद हम होंगे कामयाब अपनी पूरी ताकत के साथ सिनेमा में आया है।करण जौहर वैसे भी अपने सिनेमा में खूबसूरत लोेकेशन्स की सैर कराते हैं। यहां भी उनके डीओपी रवि के. चंद्रन कैमरे से कविता लिख रहे हैं। सैन फ्रांसिस्को की एक ऎसी जगह दिखाते हैं कि सिनेमाघर में उस खूबसूरती पर तालियां बजती हैं। माइ नेम इज खान की तारीफ इसलिए करना और भी मौजूं है कि हमारी राजनीति और आदमी की लिप्साओं ने जो भेदभाव का जो अमानवीय चेहरा हमारे सामने बना लिया है उसे चुनौती दी जा सके। गीत तेरे नैना और सजदा पहले से काफी लोकप्रिय हो चुके हैं।

सोमवार, फ़रवरी 01, 2010

दिल तो बच्चा है जी

बीते सप्ताह के पंाच दिन कब गुजर गए, पता नहीं चला। जयपुर साहित्य उत्सव अंतरराष्ट्रीय पहचान बना चुका है। शुरूआती सालों के तीन-चार आयोजनों में स्थानीय प्रतिनिघित्व की उपेक्षा, शराबनोशी और अंग्रेजी वर्चस्व जैसी टिप्पणी करने वाले ज्यादातर लोग पस्त नजर आए। हालांकि ये तीनों मुद्दे वैसे ही खड़े हैं। मुद्दा उठाने वाले कुछ लोग तो खुद ही फेस्टिवल के पाले में जाकर बैठ गए। उनसे पूछो तो खिसियाकर कहते हैं, यार, अब फेस्टिवल ही चल निकला है, तो समर्पण में भलाई है। बाजार बहुत क्रूर होता है। निजी मुनाफे के जीवन मूल्य हर आंदोलन पर भारी पड़ते हैं। फेस्टिवल की खूबी यह थी कि देशभर से युवा फिल्मकार, पाठक और साहित्य के विद्यार्थी शामिल हुए। किताबों के काउंटर पर भीड़ थी और ठीक-ठाक बिक्री भी। फेसबुक पर मेरी टिप्पणी से कुछ मित्रों को बुरा लगा। राजस्थानी के सत्र में हिंदी और अंग्रेजी ज्यादा बोली जा रही थी। राजस्थानी अपने ही घर में मेहमान की तरह थी। श्रोताओं को आसानी से समझाने के लिए ऎसा किया गया। तो रसूल हमजातोव को अंग्रेजी में क्यों नहीं लिखना चाहिए था। एक छोटी सी जगह "दागिस्तान" की "अवार" जुबान में लिखी उनकी रचना दुनिया की श्रेष्ठ किताबों में शुमार होती है। पाठकों को पढ़नी होती है तो वे उसके उपलब्ध अनुवाद ढूंढ़ लेते हैं या खुद करते हैं। शेक्सपियर की अंग्रेजी या कालिदास की संस्कृत आप नहीं पढ़ सकते, तो दोनों महान लेखकों को रत्तीभर फर्क नहीं पड़ता।हिंदी प्रेमियों के "दंभी" वक्तव्यों से भावुक होकर मैंने अंग्रेजी साहित्य के बजाय हिंदी पढ़ने को प्राथमिकता दी थी। बाजार के नियम के अनुसार मुझे नुकसान हुआ। मुझे पछतावा नहीं है। मुझे हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले छात्रों से सहानुभूति है। लेकिन ज्यादा सहानुभूति राजस्थानी साहित्य के छात्रों से है जो ऎसे ही किसी मोहपाश में पड़कर इन्हें पढ़ते हैं। वे राजस्थानी का पर्चा इसलिए लेते हैं कि परीक्षा में अंक अच्छे आते हैं। राजस्थानी एक "हाई स्कोरिंग" विषय है। विद्यर्थियों और इसे मान्यता दिलाने वालों के लिए भी। अकादमियों के पुरस्कारों पर बात बेमानी, जहां हरीश भादानी पिछड़ जाते हैं। "मायड़" भाषा का झंडा बुलंद करने वाले आपस में एक मत नहीं है। सांविधानिक मान्यता मिलने से क्या राजस्थानी की चुनौतियां खत्म हो जाएगी? मराठी सिनेमा ऑस्कर तक जाता है। मराठी फिल्मकारों के हौसले की वजह यह है कि एक निश्चित अवघि तक कोई मराठी फिल्म हर सिनेमाघर के लिए चलाना कानूनी अनिवार्यता है। पिछले आठ साल में क्या कोई राजस्थानी फिल्म जयपुर के किसी मल्टीप्लेक्स में चली? वहां तो समोसा बेचने वाला भी अंग्रेजी बोलता है।

हमारी कला-संस्कृति मंत्री बीना काक खुद फिल्मों से जुड़ी रही हैं। क्या वे समझती नहीं है कि किसी जमाने की भरी-पूरी राजस्थानी फिल्म इंडस्ट्री लगभग खत्म हो गई। जब भोजपुरी फिल्में हिट हो सकती हैं, तो राजस्थानी क्यों नहीं? कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में ही शिक्षकों के लिए होने वाली भर्तियां ही क्या राजस्थानी में रोजगार का माध्यम हैं। सिनेमा, संगीत और नाटक में कितनी अकूत संभावनाएं हैं। अनिल मारवाड़ी का नाटक "जयपुर की ज्यौणार" क्या राजस्थानी वालों ने देखा है? ढूंढाड़ी के इस नाटक के सामने जयपुर के रंगकर्मियों का हिंदी नाटक नहीं ठहर सकता। "सफेद ज्वारा" भी उसका ऎसा ही ढूंढाड़ी नाटक है।

हिंदी की चुनौती को गीतकार प्रसून जोशी ने विज्ञापन और फिल्मी दुनिया में महसूस कर कहा कि इस क्षेत्र में लेखकों का घोर अभाव है। इस क्षेत्र में अंग्रेजी पढे-लिखे लचर और छिछले ज्ञान वाले लोग भरे पड़े हैं। मैं खुद भी अंग्रेजी लेखकों को सुनने-समझने ही गया, लेकिन राजस्थानी के सत्र में मंच से जब अंग्रेजी बोली गई, तो मुझे भी बहुत बुरा लगा। दिल तो बच्चा है जी। उसे बुरा लगा, तो लगा।