मंगलवार, नवंबर 13, 2007

मेरे गांव में सेलफोन

जब मैं बच्चा था मेरे पिताजी मेरी पढाई को लेकर चिंतित थे ताे वे मेरे लिए एक लैंप लेकर अाए। मुझे याद है माेहल्ले के सारे बच्चे यानी मेरे दाेस्त मेरे साथ ही पढने के िलए अाए। एक लकड़ी के तखत के बीच में हम लैंप रखते थे तथा उसी पर किताबें रखकर पढते थे। मैंने सपने में भी नहीं साेचा था कि एक दिन मेरे गांव में बिजली अाएगी। यह सन ८३-८४ की बात है। इदिरा गांधी की हत्या हाे गयी थी या हाेने वाली थी। वक्त बदलते देर नहीं लगती। अब गांव में बिजली ताे है ही लगभग सभी सेलफाेन कंपनियाे के टावर बन गए हैं या बनने वाले हैं। मेरे गांव की महिलाएं भले ही पढी लिखी नहीं हैं लेकिन विदेश मजदूरी करने वाले अपने पति से सेलफाेन पर बात करती हैं। वे मिस काल का मतलब भी जानती हैं अाैर गाहे बेगाहे मिस काल देती भी हैं् कभी अपने पति काे ताे कभाी अपनी सहेली काे। इस चमत्कार काे देखकर मैं बहुत खुशा हूं। इस दिवाली में जब मैंने पिताजी काे सेलफाेन दिया ताे मुझे उम्मीद थी कि वे मेरी तारीफ करेंगे अाेर मुझे सपूत हाेने का अाशीरवाद देंगे कि मैंने उन्हें हरदम सम्परक में रहने का यंञ दिया लेकिन एेसा नहीं हुअा। पिताजी बाेले- यार मैं ही बचा था बिना माेबाइल के। अबकी बार नहीं लाते ताे मैं खुद अपने लिए खरीद लाता। अब ताे िजसे देखाे माेबाइल लिए घूम रहा है।

रविवार, नवंबर 04, 2007

वरना हम भी आदमी थे काम के

हाल ही मैंने एक फिल्म जब वी मेट देखी और उस पर रिव्यू लिखा। फिल्म तो रद्दी ही थी।मुझे अफ़सोस था कि मैंने दो ढाई घंटे खराब किये। लेकिन ताज्जुब हुआ कि दूसरे समीक्षकों को वह पसन्द आयी और दर्शकों को भी। असल में ऍफ़ टी आई से फिल्म एप्रिशियेशन कोर्स के बाद मैं लोकप्रिय सिनेमा का खराब समीक्षक हो गया हूँ।