हिंदी सिनेमा के लिए आज सौवां साल लग गया है। अब भी ये
उतना ही ताजा और जवान लगता है। हमारे सिनेमा और हमारी जिंदगी का रिश्ता क्या है।
-रामकुमार सिंह
हॉलीवुड की नकल पर बॉलीवुड कहे जाने वाले हमारे हिंदी
सिनेमा की लोकप्रियता की कहानी अजब गजब है। फ्रांस के लुमियर बंधुओं की बनाई दुनिया
की पहली फिल्म के करीब डेढ दशक बाद भारत में दादा फाल्के ने भारत की पहली फिल्म
बनाई। जिस फ्रांस से फिल्में बनाना दुनिया ने सीखा, अब वह दुनिया की फिल्म इंडस्ट्री
का केंद्र नहीं है लेकिन जिस मुंबई में भारत की पहली फिल्म बनी वह फिल्म इंडस्ट्री
का महत्त्वपूर्ण केंद्र है। संख्यात्मक लिहाज से हम हॉलीवुड से भी ज्यादा
फिल्में बनाते हैं। हॉलीवुड ने पूरी दुनिया के सिनेमा पर हमला करते हुए अपना वर्चस्व
बनाया, लेकिन हमारे यहां आज भी ब्लॉकबस्टर होने वाली फिल्म तो भारतीय ही होती
है।
हम भारतीयों के लिए सिनेमा का मतलब है, कथा िफल्में
यानी िफक्शन। हमारे यहां डॉक्यूमेंट्री या सिनेमा की दूसरी विधाएं मुख्यधारा
में लोकप्रिय हो ही नहीं पाईं। हमारी फिल्मों में नाच गाना भी एक मौलिक खोज है। हमारा
नायक एक तरफ अन्याय के खिलाफ संघर्ष की आवाज बुलंद करता है, दूसरे ही दृश्य में
वह अभिनेत्री के सामने ठुमके लगाते हुए प्रेम गुहार कर रहा होता है। हॉलीवुड स्टार
ब्रेड पिट ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि मुझे भारतीय अभिनेताओं से ईर्ष्या
है क्योंकि वे इतना सब कुछ एक ही फिल्म में कर सकते हैं जो करने में अभिनेता
होने के नाते वे खुद को अक्षम महसूस करते हैं।
हिंदी के मशहूर अभिनेता और निर्देशक राजकपूर कहा करते
थे कि हिंदी सिनेमा के लिए गीत संगीत जरूरी है क्योंकि लोगों के जीवन में इतना
रुखापन है कि वे उनके लिए नाच गाना एक बेहतर मनोरंजन का जरिया है।
इसमें सच्चाई भी है, हिंदी सिनेमा ने प्रारंभिक दिनों
में केवल मौलिक कहानियां रची और बेहद लोकप्रिय हुई। जब बोलती फिल्में नहीं आई थीं
तब भी थियेटर में संगीतकार लोग दृश्य की जरूरत के हिसाब से लाइव संगीत बजाया करते
थे। सत्तर के दशक में समांतर सिनेमा के दौर के बावजूद बहुसंख्यक भारतीय दर्शकों
का व्यावसायिक सिनेमा के साथ अंतरंग जुड़ाव रहा। साथ ही एक पूरी पीढ़ी सिनेमा को
हिकारत के भाव से देखती रही है। वे अपनी संतानों को सिनेमा दिखाने से परहेज करती
रही है। प्रारंभिक दिनों में तो लड़कियों का सिनेमा में काम करना तक वर्जित रहा है
और महिलाओं के पात्र पुरुष ही अदा करते थे। दरअसल सिनेमा भारतीय समाज के स्वयं के
अंतरविरोधों का ही प्रतिबिंब है। आईने के सामने माताएं मधुबाला की तरह दिखने की
कोशिश करती रहीं और अपनी लड़कियों को सिनेमा देखने से रोकती रहीं। हमारी सरकारों
का रवैया तो अब तक भी यही है। जो फिल्म श्रेष्ठ अभिनय का राष्ट्रीय पुरस्कार
हासिल करती है, उसे टीवी पर दिखाए जाने से रोक देती है। आज भी हमारे स्कूली बच्चे
कक्षाएं बंक करके सिनेमाघरों में स्कूल बैग लटकाए पाए जाते हैं क्योंकि उनके लिए
सिनेमा देखना एक तरह से विद्रोह का प्रतीक है। आज भी हमारे स्कूली पाठ्यक्रमों
में कविता, कहानी, चित्रकला, संगीत आदि जरूरी हिस्से हैं लेकिन फिल्म रसास्वाद
का कोई पाठ्यक्रम नहीं है। नतीजा यह है कि सिनेमा के बारे में आज भी एक पूरी पीढ़ी
आधा अधूरा सा ज्ञान रखती है। आज भी हमारे सुपर सितारे अर्थहीन सिनेमा बनाकर
करोड़ों कूटते हैं, आज भी सिनेमाघरों की बत्तियां बंद होते ही भारतीय दर्शक यह
अपेक्षा करता है कि फिल्म में कुछ ऐसा आ जाए कि पिछले छह महीने से महंगाई के दौर
में जूझते हुए उसकी यातनाओं को वह भूल जाए। कुछ कॉमेडी हो, कुछ नाच हो, आयटम सॉन्ग
हो, एक आध धमाकेदार दृश्य हों। दो ढाई घंटे बाद थियेटर में जब वापस बत्तियां चालू
हों तो उसके चेहरे पर सिर्फ इतनी ही तृप्ति आ जाए कि फिल्म पैसा वसूल थी। हालांकि
इस भारतीय दर्शक की भीतरी तृप्ति को पकड़ पाने में सौ साल बाद भी हमारा सिनेमा कामयाब
नहीं हुआ। पता नहीं वह कौनसा अचूक रामबाण फॉर्मूला है, जिसके मिश्रण से भारतीय
दर्शक अपने आपको मनोरंजित और विरेचित महसूस करता है।