बुधवार, जुलाई 27, 2011

सिंघम: हिंदी सिनेमा की दबंग धारा

निर्देशक रोहित शेट्टी की पहचान कॉमेडी फिल्मों से है और हमेशा यह कहते रहे हैं कि वे असल में एक्शन फिल्में बनाना चाहते थे। सिंघम के जरिए उनकी यह मंशा पूरी हुई है और पर्दे पर दिख रहे क्रेडिट्स के मुताबिक एक्शन डिजायन खुद रोहित ने किए हैं। 

सिंघम हिंदी फिल्मों में इन दिनों चल रही दबंग धारा की फिल्म है और यह एक ईमानदार पुलिस अफसर की कहानी है जो भ्रष्ट नेता से लड़ता है। ऎसी सैकड़ों फिल्में हम कई बार देख चुके हैं जिसमें इंस्पेक्टर विजय ईमानदार होता है लेकिन सिंघम समकालीन फिल्म है और उसमें समकालीन मसाले हैं। उसमें रोहित शेट्टी का कामयाबी वाला स्पर्श है, जहां वे हंसी में एक्शन और एक्शन में हंसी का घालमेल बहुत जोरदार ढंग से करते हैं। 

कहने को यह साउथ की फिल्म सिंगम को रीमेक है लेकिन हिंदी के आम दर्शक इसे देखते हुए अपनी कुर्सी नहीं छोड़ते। यह दरअसल हिंदुस्तानी आम जनता का सिनेमा है, जिसे एक नायक चाहिए जो बुराइयों से लड़ता है। यहां उनका नायक बाजीराव सिंघम है, जो छोटा सा इंस्पेक्टर है लेकिन उसके काम करने के अलग ढंग से एक दिन पूरा पुलिस महकमा उस पर गर्व करता है। इसमें कुछ प्रयोगशील और क्रांतिकारी नहीं है लेकिन जब नायक लाइट का पोल उखाड़ता है और जीप के समांतर दौड़ते हुए गुंडों की पिटाई करता है या जब मंत्री को उसके ही कमरे में घुसकर पिटाई करता है तो आम दर्शक के भीतर भरे गुस्से का विरेचन होता है, मनोरंजन तो खैर होता है ही। 

फिल्म की पटकथा बांधे रखने वाली है। इंटरवल तक नायक और खलनायक की कोई सीधी टक्क्र नहीं है लेकिन वह भूमिका जरूर तैयार हो रही है। बाजीराव अपने ही गांव की चौकी में इंस्पेक्टर है और लगभग एक पंचायत की तरह से ही काम करता है। वह पूरे गांव का चहेता है और गांव के मूल्यों में ईमानदारी और अपनों के काम आने की आदत उसमें हैं लेकिन उसी सिंघम का मुकाबला जब एक भ्रष्ट माफिया से होता है और उसका तबादला दंड स्वरूप जब शहर में कर दिया जाता है तो बाजीराव एक बार टूटता है लेकिन जो एक चेहरा बार बार रोहित पर्दे पर दिखाते हैं, वह उस ईमानदार इंस्पेक्टर का पंाच साल का बच्चा है जिसने माफिया जयकांत शिक्रे के दबाव में आकर आत्महत्या कर ली थी। उसी बच्चे के संवाद पर बाजीराव टिकता है और फिर मुकाबला शुरू होता है। 

अजय देवगन की शुरूआत एक्शन फिल्म से ही हुई थी और यहां वे पूरे रंग में हैं। लेकिन एक अलग चरित्र और जोरदार भूमिका प्रकाश राज की भी है। जयकांत शिक्रे कुछ सनकी, एक ईगोइस्ट नेता कारोबारी के रूप में वे हंसाते भी हैं और थ्रिल भी करते हैं। अभिनेत्री काजल अच्छी ही लगी हैं। बहरहाल रोहित पूरी फिल्म में कॉमेडी का दामन नहीं छोड़ पाए हैं। यहां तक की पूरे क्लाइमेक्स में भी हंसने के पर्याप्त अवसर हैं। पटकथा सचमुच मनोरंजक है और विटी संवादों की वजह से फिल्म पैसा वसूल है। आप एक्शन फिल्मों के शौकीन हैं, अजय देवगन के फैन हैं और सिस्टम पर अपना गुस्सा अंधेरे में बैठे हुए निकालना चाहते हैं तो यह फिल्म आपके लिए है।

जिंदगी मिलेगी ना दोबारा

निर्देशक जोया अख्तर की फिल्म जिंदगी मिलेगी ना दोबारा एक खूबसूरत फिल्म है। अगर आप पुरानी फिल्मों से तुलना करने के आदी हैं तो इसमें दिल चाहता है और थ्री इडियट का मिश्रण है। गोया कि इसमें जिंदगी को देखने का एक आभिजात्य नजरिया है, लेकिन इसे आप जहां से खड़े होकर देखेंगे, खूबसूरत ही नजर आएगी।

कबीर (अभय देओल) की शादी होने वाली है। वह अपने दो पुराने दोस्तों के साथ स्पैन की बैचलर ट्रिप पर जाना चाहता है। दूसरे दोस्त हैं कॉपी राइटर और कवि इमरान (फरहान अख्तर) और फाइनेंशियल ब्रेाकर अर्जुन (रितिक रोशन)। इमरान के पास भी स्पैन जाने का मिशन है लेकिन हरदम पैसे कमाने में लगे हुए और चालीस के बाद रिटायर होने की प्लानिंग कर चुके अर्जुन को मनाने में जोर आता है। 

तीनों दोस्त एक यात्रा पर निकलते हैं। यह यात्रा उनके बीते हुए दिन लौटाती है और जब वापस लौटते हैं तो उनकी जिंदगी एकदम से बदल गई है। असल में यह केवल इन तीन दोस्तों की नहीं, बल्कि दर्शकों की भी एक तरह से स्पैन की यात्रा है। करीब पौने तीन घंटे की इस यात्रा में दर्शक स्पैन की अनछुई लोकेशन्स का आनंद लेते हैं और एक जीवन दर्शन तो साथ चलता ही है। कथा प्रवाह की सहजता और संवादो में विट आनंददायी हैं। 

जिंदगी से उठाए किस्से और कुछ जिंदगी में वांछित रोमांच सिनेमा के पर्दे पर है। दरअसल पूरी कहानी के अन्तप्रüवाह में प्यार, पैसा और खुद की तलाश में सारे पात्रों का एक समानांतर संघर्ष है लेकिन वह ऊबाऊ नहीं लगता और सारे पात्र युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि चरित्रों की तरह उभरकर आए हैं। चूंकि निर्देशक एक लड़की है, तो लड़कियों के दोनों ही चरित्र कटरीना और कल्कि में जो खूबसूरती और उनके भीतर की लड़की को दिखाया है, वह इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि हमारे यहां बहुत कम फिल्मों में लड़कियां अपने पूरे ख्वाबों के साथ के मौजूद होती हैं। 

आप मानें तो फिल्म की एक खूबी यह भी है कि नए सिनेमा और नई जुबान के सिनेमा के नाम लगातार आ रही एडल्ट फिल्मों से इतर यह एक ऎसी फिल्म है जिसे आप सपरिवार देख सकते हैं। फिल्म के भीतर इस्तेमाल जावेद अख्तर की कविताएं अच्छी लगती हैं। एक तरह पूरी फिल्म की कविता की तरह बहती है। एक खूबसूरत कहानी के खूबसूरत और ईमानदार फिल्मांकन के लिए यह फिल्म आप देखें। थोड़ी देर के लिए ही सही, फिल्म जिंदगी जीने का एक नया नजरिया देती है

शनिवार, जुलाई 09, 2011

मर्डर 2: गोवा की पृष्ठभूमि में रचा थ्रिलर





मर्डर की कामयाबी से उत्साहित महेश भट्ट और निर्देशक मोहित सूरी मर्डर 2 को पर्दे पर लेकर आए हैं। फिल्म की कहानी पुरानी मर्डर से अलग है। असल में यह एक रिलेशनशिप से ज्यादा एक थ्रिलर फिल्म है जिसमें एक साइको किलर लड़कियां उठाता है और उनकी हत्या कर देता है। अर्जुन (इमरान हाशमी) एक पुराना पुलिसवाला है लेकिन आजकल वह दलाली और दूसरे धंधे कर रहा है। यह उस रहस्य को सुलझाने में लगा है लेकिन सरकार के कहने से नहीं बल्कि एक लोकन दलाल से पैसे लेकर बदले में यह काम कर रहा है।

कहानी गोवा की पृष्ठभूमि में है और फिल्म देखते हुए यूं लगता है जैसे गोवा कोई डरावनी जगह है। अर्जुन की एक दोस्त है प्रिया (जैकलीन फर्नाडीस) जो मॉडल है और कैमरे और कमरे दोनों में निर्बाध रूप से कपड़े खोल रही है, अुर्जन और प्रिया के बीच होने वाले संवाद नकली और बनावटी प्रेम संवाद हैं। एक बानगी देखिए, लड़की पूछती है कि मैं तुम्हारी मोहब्ब्ात हूं या जरूरत? तो लड़का तुक मिलाते हुए संक्षिप्त में कहता है, आदत। ऎसे दृश्यों और संवादों पर युवाओं की तालियां पड़ रही हैं। पर्दे पर गाली और थियेटर में ताली इस दौर की फिल्मों का नया मुहावरा हो गया है और यह कोई अच्छा संकेत नहीं।

लेकिन इस सिनेमाई मुहावरे से इतर मर्डर एक थ्रिलर है और इसकी खूबी यह है कि यह दर्शक को बांधकर रखती है। कहानी में बहुत ज्यादा नयापन नहीं है लेकिन फिल्म के कुछ दृश्य सचमुच डराते हैं और कुछ दृश्य गैर जरूरी से हैं जहां सेक्स को बेचा गया है। शुरूआत के आधे घंटे की फिल्म में पर्दे पर ज्यादा देर इमरान और जैकलीन की उपस्थिति है और चुंबन और बैडरूम दृश्य हैं। लेकिन मर्डर 2 में दर्शनीयता लगातार बनी रहती है और इसकी वजह है कि पटकथा का प्रवाह। इमरान हाशमी को एंग्री यंग मैन की छवि देने की कोशिश की गई है।

खासकर दीवार के अमिताभ से प्रेरित वे दृश्य जिसमें पहले वह चर्च में जाने से इनकार करता है और ईश्वर से अपना छत्तीस का आंकड़ा बतााता है और फिल्म खत्म होने तक अपनी घायल टांग घसीटते हुए वह चर्च तक जाता है। फिल्म में सबसे काबिले तारीफ और सहज काम लगा प्रशांत नारायण का जो एक साइको किलर की भूमिका निभा रहे हैं। गीत और संगीत औसत हैं। उनमें मर्डर जैसी शब्दावली और कर्णप्रियता का अभाव है। सिनेमाटोग्राफी ठीक है। कुल मिलाकर मर्डर 2 थ्रिलर के शौकीन लोगों के लिए है। यह कोई रोमांटिक फिल्म नहीं है, लेकिन रोमांस में जिस्म नुमाइश की जितनी गुंजाइश होती है उससे भी ज्यादा बेचने का काम मोहित सूरी ने किया है और लग रहा है कि यह बिकेगा