सोमवार, मार्च 29, 2010

सरकारी जादू की झप्पी


आप नरेगा के बारे में कितना जानते हैं? जो खबरें छप रही हैं उतना ही उससे ज्यादा कुछ। जिस इलाके में मैं घूमकर मैं आया हूं, वहां जमीनी हकीकत कुछ और है। दरअसल सरपंच समेत गांव के आम लोगों ने यह समझ लिया है कि नरेगा या महानरेगा का पैसा सरकार बांट रही है लिहाजा जरूरी नहीं कि इस पैसे के बदले काम किया जाए। सरकारी नियमों के मुताबिक एक तयशुदा काम होना चाहिए। कुछ समय पहले सवाई माधोपुर जिले के गांवों में मैं नरेगा कार्यों की जांच करने गए एक इंजीनियर मित्र के साथ था। वहां हमने देखा कि मस्टर रोल संबंधी औपचारिकताएं पूरी हैं लेकिन मिट्टी की खुदाई वाले स्थान पर जेसीबी मशीन के दांतों के निशान थे। जब जांच में उन्होंने आपत्ति जताई तो सरपंच ने कहा, आपको क्या तकलीफ है, जब लोगों को पैसा मिल रहा है। लोगों को दिक्कत ही नहीं है कि उन्हें काम किए बिना ही पैसा मिल रहा है। भले ही इसमें सरपंच और सरकारी अफसरों ने अपना कमीशन काट लिया है। सरकार का काम तो हो ही रहा है। फिर वो चाहे आदमी खुदाई करे या मशीन बात तो एक ही है। सच्चाई यह है कि मशीन की खुदाई वाले काम में मजदूर और सरकारी कारिंदों के बीच सौदेबाजी की सदैव आशंका है।दूसरी बात यह है कि नरेगा के दौरान कराए जा रहे कार्यों में बहुत सारे इतने अप्रासंगिक और गैर-जरूरी हैं। मसलन किसी भी जोहड़ में मिट्टी खोदना। गांव के सामूहिक चरागाह के चारों ओर खाई देने का तुक समझ में नहीं आता। खासकर राजस्थान के उस मरूस्थलीय हिस्से में, जहां हर मई जून में चलने वाली आंधियों से उस खाई में फिर मिट्टी भर जाती है। सवाल है कि ऐसे काम क्यों हो रहे हैं, जवाब वही है कि सरकारी आदमियों को ऐसे ही कामों में पैसा डकारने की छूट मिलती है। वे कह सकते हैं कि खुदाई तो करवा दी थी लेकिन आंधियों ने सब खराब कर दिया। एक गांव में मैं गया, वहां गांव के भीतर ही पूरा मार्ग ऐसा है कि आपकी कार या बाइक को चलने में तकलीफ होती है। मैंने पूछा, यहां नरेगा के कोटे से आप लोगों ने पत्थर या सीमेंट की सडक़ क्यों नहीं बनाई? खुलासा हुआ कि इस मोहल्ले के लोगों ने उस आदमी को वोट नहीं दिया, जो इस बार सरपंच जीत गया। पिछली बार भी यह हादसा इसी मोहल्ले के साथ हुआ। सत्ता के साथ नहीं रहने की अपनी तकलीफें हैं। सरपंच अपनी पूरी दादागिरी कर रहा है। खुद मेरे गांव में मुझे यह जानकर ताज्जुब हुआ कि गांव के इतिहास में पहली बार सात आदमी सरपंच के लिए मैदान में थे। वरना समझा बुझाकर दो और तीन आदमी ही मैदान में रह जाया करते थे। इस बार सरकारी धन का लालच चरम पर था। अघोषित तौर पर लोगों ने माना कि कोई 25 से 30 लाख रुपए का खर्च सरपंच के चुनावों में हो गया है। इसमें बड़ी रकम शराब पर खर्च की गई। आदरणीय चाचाओं ने मुझे गर्व के साथ बताया कि पिछले तीन महीने कितने हसीन गुजरे हैं, जब मैखाने की धार गांव से गुजर रही थी और मनचाहे ढंग से लोग उसमें डुबकी लगाकर पुण्य कमा रहे थे। नरेगा के बाद गांव में मजदूर अब खेतों में अपनी नियमित मजदूरी नहीं करना चाहते। खतरनाक ढंग से सरकारी पैसे ने उनकी श्रम करने की नीयत तेजी से बदली है। वे अब बिना काम किए सब कुछ चाहते हैं। वे खेतों में मजदूरी नहीं करना चाहते क्योंकि वहां पैसा देने वाला सीमांत किसान है और वह अपने पैसे की पूरी वसूली चाहता है। सरपंच या सरकारी अफसरों की तरह उसके खेत में कमीशन खोरी नहीं चल सकती। मैं नरेगा की आलोचना करते हुए गैर सरकारी संगठनों के उस अभियान को भी हवा नहीं देना चाहता जिनकी तकलीफ है कि सरकार सीधे गांवों में पैसा क्यों बांट रही है? इतनी बड़ी रकम में उनको भी मलाई मिलनी चाहिए। पैसा बांटने का मौजूदा सरकारी ढांचा ही ठीक है। मैंने नॉर्थ ईस्ट के अराजकताग्रस्त राज्य मणिपुर में भी नरेगा का काम देखा। वहां काम कर रहे मजूदरों से बातचीत की। सचमुच नरेगा ने गांवों के आम लोगों की जिंदगियों को बदल दिया है। उनके पास पैसा पहुंच रहा है। जरूरत इस बात की है कि इस पैसे पर नजर रहे। सरकार की, हम सबकी। उसे बांटने के ढंग पर सरकार सोचे। देश की तकदीर तेजी से बदल सकती है। लेकिन मुझे सबसे बड़ा खतरा यह दिख रहा है कि गांवों में तेजी से जा रही यह पूंजी उन लोगों की श्रम करने के जुनून, अपने हक के लिए जूझने की आदत, क्रांतिचेतना को कुंद कर रही है। सरपंच और सरकारी तंत्र मिलकर पूरी कोशिश में है कि आदमी बिना काम किए पैसा लेने की आदत बनाए ताकि उनका फायदा हो। यह आम आदमी को अपनी ही नजरों में गिराने की एक साजिश जैसा है। क्योंकि भूखे आदमी को पहले भरपेट रोटी चाहिए। उसके बाद वह सच झूठ, नैतिक अनैतिक चीजों के बारे में सोचता है। मुझे डर है कि आने वाले दस साल में गांव वालों के पास पैसा बहुत आने वाला है लेकिन वे गांव वाले नहीं बचेंगे। छल कपट, बेईमानी और भ्रष्टाचार उनकी नसों में दौड़ेगा। मैं दुआ करता हूं, ऐसा नहीं होगा। लोग अपने श्रम की अहमियत समझेंगे। नरेगा जैसी सरकारी जादू की झप्पी को शायद वे ठीक से महसूस कर पाएंगे।

मंगलवार, मार्च 16, 2010

कुतिया की नानी, बारिश का पानी



आइपीएल के मैच प्रसारण के दौरान सिनेमा और टेलीविजन के निर्माताओं को पसीना आने लगता है। सारा देश क्रिकेट देख रहा है। टीवी की यह क्रांति महज एक दशक पुरानी है। इसका सबसे बड़ा खमियाजा बच्चे भुगत रहे हैं। दो ढाई दशक पहले जिन भारतीय लोगों ने अपना बचपन बिता दिया उनके लिए निंजा हथौड़ी, कितरेत्सु, कैनी जी, लोबिता, परमैन आदि की जादुई और गैर तार्किक सी दुनिया नहीं थी। उनकी कल्पनाओं में चंदा मामा के बीचों बीच चरखा कातने वाली बुढिया थी, जो किशोर होते होते समझ में आती थी कि चंद्रमा ने एक ऋषि की पत्नी के साथ भेष बदलकर दुराचार किया था। जब चंद्रमा अपना काम तमाम करके निकल रहा था तो सामने नदी से नहाकर आए ऋषि दिख गए। वह भागने को ही था कि कंधे पर रखी गीली धोती से ऋषि ने चंद्रमा को मारा। ये उसी गीली धोती के दाग हैं। जब युवा हुए, पढ लिख गए तो सब धरा रह गया। नील आर्मस्ट्रॉन्ग चांद पर पहुंच ही गया। उसने बताया कि यहां कोई बुढिय़ा चरखा नहीं कात रही। ना ही ऋषि से दुश्मनी का जिक्र चांद ने किया है। यहां तो ऊबड़ खाबड़ गडढे हैं। कल्पना से हकीकत तक आते आते यह पूरी यात्रा है। बहुत अफसोस होता है कि मेरे बच्चे कल्पना की इतनी लंबी यात्रा नहीं कर रहे। वे रिमोट के बटन से किड्स चैनल बदलने में अपना समय गंवाते हैं। टीवी और क्लासरूम तक हमारे बहुसंख्यक बच्चों की दुनिया सिमट गई है। वे हवा में तैरते बादलों में डायनासोर, मोर, ऊंट, चिडिय़ा, सांप की छवियां नहीं टटोल सकते। कब बादल का ऊंट करवट लेकर डायनासोर जैसी शक्ल बना लेता है कोई नहीं जानता। उन्हें हम तर्क से यह जरूर पढ़ा रहे हैं कि बादल का बनना और बिगडऩा एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है।
टेलीविजन के खबरिया चैनलों पर भी भूत है और टीवी सीरियल में भी भूत। दादी के किस्सों में आने वाला भूत तर्क के जरिए गायब कर दिया गया। पर्दे पर दिखने वाला भूत डरावना ही नहीं है। हम बच्चों को समझाते हैं कि भूत कुछ होता ही नहीं, यह सब मेक-अप और स्पेशल इफेक्ट का कमाल है। हम उन्हें निडर बनाना चाहते हैं लेकिन भूल जाते हैं कि किसी भी समाज में अनुशासित करने में कितनी मदद करता है? दादी नानी के किस्सों में आने वाले भूत से राजकुमारी शादी कर लेती थी और उस भूत के चेहरे को कल्पनाओं के जरिए कोई आकार देने की कोशिश करते थे। कभी तार पर सूखते हुए सफेद कपड़े को रात को देखकर भूत समझते, तो कभी दूर बाड़ में खींफ, आक, कीकर के पेड़ में भूत देखते। कभी पीपल के पेड़ पर रहने वाले बूढे शरीफ भूत की कल्पना करते। सब कुछ इक्कीस, उनतीस, बत्तीस इंच के स्क्रीन का शिकार हो गया है। हमारे दौर के बच्चों के साथ यह बड़ा हादसा है।
स्कूल से घर लौटते हुए पंद्रह बीस बच्चों का झुंड अक्सर उस खुले मैदान के किनारों पर बने कुत्तों के घूरे में बीतता था। कुतियाएं सात-सात पिल्ले जनती थीं। बच्चे उनके पंजे गिनते थे। अपने टिफिन से उन्हें खिलाते थे। कुतिया अपने पिल्लों को तो प्यार करती ही थी, इन बच्चों के प्यार को भी मानती थी। वे कुतियाएं नई मां थी। वो किसी को काटती नहीं थी। घरवालों की हिदायत के बावजूद बच्चों का समय वहीं बीतता था। वे सब एक दूसरे से रिश्ते जोड़ लेते थे। असली बचपन, जो टीवी का शिकार नहीं था। गांव में कुत्ते बढ़ गए थे। वे मवेशियों के बाड़े पर हमले करने लगे थे। गांव वालों ने बंदूक वाले शिकारियों को किराए पर लिया। रोज धमाकों की आवाज होती थी। सारे कुत्ते मार दिए। वे सब भी जिनके साथ बच्चों की दोस्ती थी। स्कूल से लौटते हम खाली घूरों के पास बैठकर रोते थे। अपने ही बुजुर्गों को कोसते थे कि उन्होंने हमारे दोस्तों को मरवा दिया। घरों में सारे बच्चे मुंह फुलाए घूमते थे। उस साल गांव में एक बूंद पानी नहीं बरसा। गांव वाले समझते रहे कि यह महज एक प्राकृतिक आपदा है लेकिन मुझे लगता है जिन बादलों को रातभर जागकर हम घूरते हुए कई चेहरे तलाशते थे, उनसे से भी हमारी दोस्ती हो गई थी। बादलों ने अपना पानी हम बच्चों को उधार दिया था ताकि रोने से हमारी आंखों को नुकसान ना हो। बादल, कुत्ते, चांद, बारिश सब हमारी मदद को आते थे। क्या हमारे बच्चों की मदद के लिए लोबिता, कितरेत्सु, परमैन आएंगे? कहां से आएंगे? वे सिर्फ रेखाएं हैं, कार्टून हैं, जिन्हें बाजार ने ईजाद किया है। बाजार की ईजाद की हुई चीजें बचपन को तो नुकसान ही करती हैं। जिन वैज्ञानिकों ने चांद को प्रयोगशाला बना दिया, क्या वे ऐसा ही एक और चांद हमारे बच्चों को दे सकते हैं, जिसे देखकर वे खूबसूरत कल्पनाएं कर सकें? ऐसा नहीं होगा। मुझे इस दौर के बच्चों से सहानुभूति है। वे नहीं जानते कि वे कितना कुछ खो रहे हैं।

शुक्रवार, मार्च 12, 2010

घर में ठीक, घाट भी साफ

निर्देशक शंकर अग्रवाल की फिल्म ना घर के ना घाट के इसी हफ्ते रिलीज हुई है और एक साफ सुथरी कॉमेडी फिल्म है। वेलकम टु सज्जनपुर की तरह यहां गांव की वापसी हुई है। पिछले कुछ समय से नए फिल्मकारों ने गांव को फिल्मों में वापस लाने की कोशिश की है। टीवी पर तो गांव बिक ही रहा है। गांव के एक युवक की नौकरी मुंबई में लगी है। वह पहली बार मुंबई जा रहा है। वहां उसे एक लोकल गुंडे के साथ रहने को जगह मिलती है। धीरे धीरे दोनों में समझदारी बढती है। गुंडा मराठी है, गांव का युवक उत्तर भारतीय। दोनों की यारी दिखाकर निर्देशक यह बताने की कोशिश कर रहा है कि मुंबई किस तरह सब भारतीयों की है। नौकरी कर रहा देवकी नंदन त्रिपाठी जब गांव वापस पहुंचता है कि मां बाप को उसके दुबलेपन की चिंता है और उसकी शादी तुरंत कर दी जाती है। उसके पिता उसकी दुल्हन को लेकर मुंबई जाते हैंं। फिल्म एक दिलचस्पी को लगातार बनाए रखती है। अचानक मुंबई में गांव की दुलहन पुलिस के हत्थे गलती से चढ जाती है और नायक, उसका गुंडा दोस्त और पूरा गांव अब उसकी बीवी को पुलिस से छुड़ाने में लग जाते हैं।फिल्म की कहानी दिलचस्प तरीके से कही गई है। निर्देशक शंकर अग्रवाल खुद ही लीड रोल में हैं ओर आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने ठीक अभिनय किया है जबकि पोस्टर और प्रोमोज में दिख ही रहा है कि उनकी शक्ल सूरत नायक के परम्परागत चेहरे जैसी नहीं है। सिर के बाल भी लगभग उड़ ही गए हैं लेकिन यह उत्साही युवक अमीर कमाल खान से कहीं ज्यादा बेहतर और संवेदनशील ढंग से फिल्म को बना गया है। इंटरवल के बाद में हिस्से में फिल्म की गति थोड़ी धीमी होती है। ओम पुरी संकटा प्रसाद त्रिपाठी की भूमिका में जमे हैं। परेश रावल पुलिस वाले हैं और रवि किशन ने लाउड ही सही, एक मराठी गुंंडे को किरदार ठीक निभा दिया है। निश्चित रूप से फिल्म ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों जैसी प्रतीत होती है लेकिन अफसोस की बात यह है कि हमारे दर्शकों को आजकल नए किस्म की कॉमेडी और भारी भरकम सितारों वाली फिल्में देखने की आदत हो गई है। फिल्म के गीत संगीत भी अच्छे लगते हैं। बोर्ड के इम्तहान और आइपीएल सब फिल्मों पर इस समय भारी है।

थोड़ी राइट, थोड़ी रॉन्ग

फिल्म समीक्षा

मुक्ता आर्ट्स की ओर से रिलीज निर्देशक नीरज पाठक की फिल्म राइट या रॉन्ग एक थ्रिलर है। एक ऐसा थ्रिलर है जिसकी शुरुआत धीमी है लेकिन धीरे धीरे कहानी खुलने लगती है। यह दो पुलिस अफसर दोस्तों की कहानी है जो अपने ढंग से एक सच और झूठ के साथ जी रहे हैं। एक दोस्त एनकाउंटर में हादसे का शिकार होता है और अपाहिज हो जाता है। अपने अच्छे दिनों को याद करते हुए वह अवसाद का शिकार है और अपनी ही बीवी और भाई को कहता है कि वे उसका मर्डर कर दें। कहानी यहां से करवट लेती है। कुछ चीजें बिलकुल ही खोलकर बता ही गई हैं जैसे पुलिस अफसर की बीवी का उसके भाई के साथ अफेयर है। बाद में थ्रिलर इस बात पर जाकर टिक जाता है कि वह मर्डर था कि हादसा। लेकिन इससे पहले दर्शक सब कुछ जान जाते हैं कि वह सचमुच क्या था। जो अभियुक्त है, वो किस तरह खुद को बचा रहा है।
फिल्म में सन्नी देओल और इरफान खान लीड रोल में हैं तो ईशा कोप्पिकर और कोंकणा सेन भी हैं। कहानी इतनी ज्यादा थ्रिलिंग नहीं है कि आप पहले से अंदाजा ना लगा सकते हों। इस लिहाज से यह एक औसत फिल्म है। एक्शन दृश्य अच्छे हैं। कहानी कहने की पुरानी अदा, जैसे कोर्ट में गवाही, वकीलों की जिरह जैसे पुराने पड़ चुके दृश्यों को नया रंग देने की कोशिश की गई है। गीत संगीत औसत हैं और गैर जरूरी भी लगते हैं। ईशा कोप्पिकर पर फिल्माए गए बैडरूम दृश्य कुछ ज्यादा ही बोल्ड हैं और अनावश्यक लंबे किए गए हैं, जाहिर है, फिल्म को उत्तेजक दृश्यों के सहारे नहीं बेचा जा सकता। टाइमपास के लिए ठीक ठाक फिल्म है।

शनिवार, मार्च 06, 2010

अतिथि तुम कब जाओगे:

यहां अतिथि भगवान माना गया है लेकिन इस फिल्म का शीर्षक ही यह दुआ कर रहा है कि अतिथि घर छोड़कर जाए। मुंबई में फिल्म राइटर पुनीत के घर उनके दूर के रिश्तेदार लंबोदर चाचा आए हैं। पुनीत और उसकी कामकाजी पत्नी मुनमुन ने शुरुआती दिनों में आदर भाव दिखाया लेकिन धीरे धीरे इस अतिथि की वजह से उनकी निजी जिंदगी में भूचाल आ गया। माता पिता के कामकाजी और शहरी जीवन शैली से अकेलेपन से जूझ रहा उनका छह साल का बच्चा लंबोदर चाचा से घुलमिल गया है। लंबोदर चाचा के पास मुंबई में आस पास के गांव के परिचित लोगों की सूची हैं जिन्हें उन्होंने याद किया है। कुल मिलाकर लंबोदर चाचा गांव के हैं और पुनीत और उसकी पत्नी पर शहरीकरण का पूरा रंग है। उन्हें अतिथि बोझ ही लगता है। सबके पास अपनी थोड़ी सी स्पेस है और दिल बुरी तरह संकरा। दोनों पति पत्नी हर मुमकिन कोशिश करते हैं कि वे लंबोदर चाचा को वहां से निकालें लेकिन लंबोदर चाचा है कि धीरे धीरे मोहल्ले में लोगों और बच्चों के भी प्रिय बन गए हैं। वे जाने का नाम ही नहीं ले रहे। आखिरकार एक मामूली घटनाक्रम के बाद वे स्वयं ही उनका घर छोड़कर जाने की बात करते हैं। फिल्म की पटकथा में लोकजीवन की छोटी छोटी कथाओं को पिरोया गया है। लंबोदर चाचा द्वारा बार बार गैस निकालने की ध्वनि एक स्तर पर आकर थोड़ी ऊब पैदा करती है लेकिन कुल मिलाकर फिल्म एक स्वस्थ पारिवारिक मनोरंजन करती है। खासकर महानगर में रहने वाले लोग लंबोदर चाचा जैसे अतिथि का कभी ना कभी सामना तो करते ही हैं। फिल्म बिना कुछ कहे गांव और शहर के लोगों की मन:स्थिति के बुनियादी फर्क को भी रेखांकित करती है कि घर बड़े बनाकर और दौलत कमाने वाला मध्यवर्गीय आदमी में शहर में आकर कैैसे अपनी प्राथमिकताएं बदल देता है। फिल्म में लंबोदर चाचा बने परेश रावल अदभुत लगे हैं। अजय देवगन ओर कोंकणा ठीक हैं। चौकीदार बने संजय मिश्रा का काम भी काबिले तारीफ है। गीत इरशाद कामिल के हैं और बीड़ी जलाइले की धुन पर माता की आरती ठीक लगती है। संगीत प्रीतम और अमित मिश्रा का है। कबीर और रहीम के दोहों को अच्छे से इस्तेमाल किया गया है। निर्देशक अश्विनी धर ने एक मनोरंजक फिल्म रची है। फिल्म खत्म होते होते अतिथि देवो भव ही स्थापित होता है।

फागुन घुस गया है जहन में

फरवरी का आखिरी और मार्च का पहला पखवाड़ा उत्तरी भारत में एक खुशनुमा मौसम का होता है। बसंत पंचमी अक्सर सर्दी के बीचोंबीच आती है लेकिन होली आते आते मौसम एक करवट लेता है। ठिठुरन से रजाई में दुबके रहने और लू के थपेड़ों से बचकर घर में पड़े रहने जैसे अकर्मण्य अहसासों से मुक्ति दिलाने वाले ये महीने उल्लेखनीय हो जाते हैं। यही वे दिन होते हैं, जब हमारा सर्जन उफान पर होता है। काम करने की इच्छा होती है। लोगों से मिलने की इच्छा होती है। एक दूसरे को छेडऩे की इच्छा होती है। बरसाने में इसी छेड़छाड़ में लट्ठमार होली होती है तो शेखावाटी में धमाल और गींदड़ के साथ लोग झूमते हैं।
मेरे गांव के कई लोग ऐसे हैं, जिनके बारे में मैं पूरे साल कुछ नहीं जान पाता था। जैसे बिड़दाराम। बिड़दाराम पूरी साल खेती बाड़ी करके, मेहनत मजूरी करके इज्जत से अपने परिवार को पालता है। सामान्य दिनों में वह इतना दिलचस्प इंसान नहीं होता लेकिन होली के दिनों में गींदड़ में सबसे बेहतरीन स्वांग करता है। पिछले साल की बात है, वे लोग एक आदमी को गधागाड़ी में पटक के लाए। पूरे जिस्म पर प्लास्टर किया हुआ। सिर्फ नाक खुला था। गधे के सिर पर उन्होंने टॉर्च लगाई। एक हरा चमकीला कागज बांधकर एंबुलेस की शक्ल दी थी। गाड़ी की तरफ उन्होंने स्विच लगाया था। उससे वो हरी बत्ती बिल्कुल जलती बुझती दिख रही थी। एक टेपरिकॉर्डर से एंबुलेस के सायरन की ध्वनि निकाली गई। साल भर गंभीर रहने वाला सुल्तान यहां एक कॉमिक डॉक्टर था। आंख पर एक चश्मा, जिस पर एक तरफ का कांच था ही नहीं। सफेद एप्रिन और स्टेथेस्कोप गांव की प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से जुटाया गया। क्लिनिक में गांव के एक बढ़ई के घर से मांग कर लाई गई करोत, बसौला, हथौड़ा, छैनी, आरी जैसे ऑपरेशन के औजार थे। लोग हंस हंस के लोट पोट थे। डॉक्टर ने कहा, मरीज की सर्जरी होगी, क्योंकि उसके पास मरीज आते ही नहीं है और कई दिन से उसने आपरेशन किया नहीं है। उसकी आपरेशन करने की दिलीतमन्ना है, वरना एमबीबीएस की पढ़ाई बेकार जाएगी। उसने ईमानदारी से यह भी बताया कि आजतक जिस मरीज का आपरेशन उसने किया वह जिंदा नहीं बचा। मरीज के परिजन अपनी गधा एंबुलेस को लेकर आगे भाग रहे थे कि मरना मंजूर लेकिन ऑपरेशन नहीं कराएंगे। होली ने मेरे गांव में नाटक को अब तक बचाकर रखा है। वह उन मेहनतकश लोगों को साल भर की यंत्रणा और थकान से मुक्ति देती है। एक तरह से रिचार्ज करती है। वे अपनी ही व्यथा कथाओं पर तंज करते हुए खुद पर हंसते हैं।

हमारे यहां एक मुहावरा चलता है कि इसमें फागुन घुस गया है। इसके माने है कि जिसमें फागुन घुस गया दुनिया उसके जूते की नोंक पर है। मस्त रहो, खुलकर कहो। आप कुछ भी पूछिए, कोई बात का सीधा जवाब नहीं देता। वह तुक मिलाएगा। अश्लील या शालीन हास्य टिप्पणी करेगा। जब मै स्कूल के दिनों में हॉस्टल में था तो तीसरी क्लास में पढऩे वाले अमित ओर सुमित नाम के जुड़वा भाई भी हॉस्टल में रहते थे। एक सुबह किसी ने सुमित से कह दिया कि यार तेरे में फागुन घुस गया है। वह दौड़कर कमरे में गया। कपड़े उतारे, झाड़े लेकिन फागुन दिखाई नहीं दिया। वह मेरे पास आया। रोने लगा कि मेरे कपड़ों में फागुन घुस गया है। दिख भी नहीं रहा। वह मुझे काट लेगा। हॉस्टल के बच्चे हंस हंस के लोटपोट थे। अब उस बच्चे को यकीन दिलाना मुश्किल हो गया कि फागुन कुछ होता ही नही। सुमित का रोना नहीं थमा। वार्डन को उसने शिकायत की। वार्डन ने उसकी निशानदेही पर हम सबको हॉस्टल के बरामदे में कतार लगाकर खड़े होने को कहा ओर चपरासी से डंडा लाने को। दस मिनट बाद हम सबका फागुन वार्डन ने निकाल दिया था। सुमित को अब भी शक था कि उसके कपड़ों से फागुन अभी तक निकला नहीं।

बुधवार, मार्च 03, 2010

हुसैन के बहाने सर्जन की दुविधा


चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन यदि कतर के नागरिक होने जा रहे हैं। दोहरी नागरिका का प्रावधान नहीं होने की वजह से क्या वे भारत के नागरिक नहीं रहेंगे? इससे बड़ी शर्मनाक बात किसी सरकार के लिए नहीं हो सकती कि उनका एक विख्यात और संवेदनशील कलाकार को लगातार अपमानजनक ढंग से अपने देश से बाहर निर्वासित रहना पड़े। खासकर तब, जब वहां एक लोकतांत्रिक सरकार चल रही हो। दुनिया में बहुत से लेखकों और कलाकारों को निर्वासन की पीड़ा झेलनी पड़ी ही है। यह हमारे समय की सबसे बड़ी पीड़ा है कि समाज विज्ञानों, इतिहास और सांस्कृतिक विरासत को हमने ताक पर रख दिया है? बहुसंख्यक लोगों को यह मानने के लिए बाध्य कर दिया गया है कि गलती हुसैन की ही थी। उन्होंने ऐसा क्यों किया? ऐसी पेंटिंग्स क्यों बनाई जिनकी वजह से लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंची। क्या हम जानते हैं यह लोग कौन हैं? क्या ये लोग जानते हैं कि हमारी सांस्कृतिक विरासत से ही हुसैन की चित्रकला प्रभावित रही है। उसी को उन्होंने नए आयाम दिए हैं। उन सबका उल्लेख मेरे खयाल से बेमानी है कि हुसैन से पहले और हुसैन के समकालीन कई चित्रकारों ने देवी देवताओं की ऐसी तस्वीरें बनाई हैं लेकिन उन पर इन सांस्कृतिक झंडाबरदारों की नजर ही नहीं गई। क्या ये लोग कला का इतिहास पढते हुए उन सब लोगों की सूची तैयार करेंगे और उन्हें भी देश निकाला देंगे? क्या ये लोग खजुराहो की मूर्तियों को भी ऐसे ही तोड़ देंगे जैसे तालिबान ने बामियान की बुद्ध की मूर्तियां तोड़ दी थी? ऐसा मुमकिन नहीं है। यह हमें समझना चाहिए ये मुट्ठी भर लोग सत्ता और प्रचार की भूख में ऐसे विरोध प्रदर्शन खड़े करते हैं और उसका खमियाजा कलाकार को उठाना पड़ता है। ऐसा नहीं है कि हुसैन सिर्फ हिंदू रूढिवादियों के ही शिकार हुए हैं। मुस्लिम प्रतिरोध भी उन्हें सहने पड़े हैं। उनकी फिल्म मीनाक्षी में एक गाने के बोलों को लेकर लोगों ने आपत्ति जताई थी कि पवित्र कुरान से ली गई हैं और उन्हें ऐसे इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। हमारे यहां प्रचार का सॉफ्ट टारगेट कलाकार, खिलाड़ी या वो गैर राजनीतिक लोग होते हैं जिनके पास इन कट्टरपंथियों का मुकाबला करने के लिए बेरोजगारों की फौज नहीं होती। क्योंकि ये लोग सर्जन कर रहे होते हैं। टेनिस कोर्ट पर कामयाबी की इबारतें लिख रही सानिया मिर्जा के स्कर्ट की साइज में किसी को क्या दिलचस्पी या आपत्ति होनी चाहिए, लेकिन यहां होती है। सचिन तेंदुलकर के इस बयान में कि मुंबई सब भारतीयों की है, क्या आपत्ति होनी चाहिए लेकिन यहां होती है? क्या आज तक करोड़ों डकारने वाले मधु कोड़ा के खिलाफ कोई प्रदर्शन ये लोग कर रहे हैं? दरअसल देश की बुनियादी समस्याओं पर जो चिंतन लेखक कलाकार कर रहे हैं, उन्हें प्रताडि़त कर वे सत्ता में बैठे गैर जिम्मेदार लोगों का बचाव कर रहे होते हैं। क्योंकि विरोध करने वालों का असली मकसद लोगों का ध्यान आकर्षित करना और उसे भुनाकर सत्ता की सीढिय़ों के रूप में इस्तेमाल करने करने तक में ज्यादा रहता है। सच्चाई यह है कि एक लेखक, चित्रकार या सर्जक अपने लोकप्रिय होने की कीमत चुकाता है। माइ नेम इज खान का विरोध सिर्फ इसलिए हुआ कि शाहरुख खान ने ऐसा क्यों कहा कि आइपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ी खेलने चाहिए। हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जहां लोकप्रिय होने के बाद आप वो नहीं कह सकते जो आप सोचते हैं।आमतौर पर सतही सोच वाले ये लोग यह प्रचारित भी करते हैं कि लोकप्रियता हासिल करने के लिए लेखक और कलाकार जान बूझकर विवादित विषयों को उठाते हैं। उससे वे जल्दी लोकप्रिय होते हैं। क्या किसी को यह समझाया जा सकता है कि कला और सर्जन से प्रेम करने वाला इतना शातिर हो ही नहीं सकता कि वह जोड़ बाकी गुणा भाग लगाना जानता हो। इतना सब उसे आता हो तो सर्जन से बेहतर तो राजनीति है। सर्जन की एक अपनी विचारधारा होती है। आप उससे असहमत हो सकते हैं लेकिन उसे खारिज नहीं कर सकते। आप अपना विरोध व्यक्त कर सकते हैं लेकिन किसी पर हमला नहीं कर सकते। किसी की बरसों की मेहनत पर पानी नहीं फेर सकते। उसकी पैंटिंग को जला नहीं सकते। आने वाली नस्लों के पास इस दौर की कला, साहित्य और सांस्कृतिक विरासत ही प्रेरणास्पद रहेगी। राजनीति को तो हमने गंदा कर ही दिया है। वहां कोई विचारधारा है बची ही नहीं। सत्ता और धन की जोड़ तोड़ रह गई है। यह दुर्भाग्यपूर्ण समय है जब एक कलाकार निर्वासन से पीडि़त है। वह अपने घर लौटने को तरस गया और हमारे नेता जश्न मना रहे हैं। जनता को दहाई के आंकड़े में विकास दर होने का छद्म आश्वासन दे रहे हैं। जिनकी राजनीतिक विरासत में लालच और भ्रष्टाचार की बदबू आ रही है। यह समस्या केवल यहीं नहीं है। सलमान रश्दी और तस्लीमा नसरीन ने निर्वासन झेला ही है। आज अमेरिका के बड़े आलोचक होकर नौम चौमस्की अमेरिका में रह ही रहे हैं। उन पर आज तक कोई जानलेवा हमला नहीं हुआ। सभ्य समाजों की पहचान यही है कि आप लेखक और कलाकार को आजादी देंगे। उसकी आजादी पर कम से आप उन लोगों को पाबंदी लगाने का हक नहीं, जिन्हें उस विधा से कोई लेना देना ही नहीं। उन्हें राजनीतिक लाभ लेने से मतलब है। कला, साहित्य और सांस्कृतिक विरासत हमारी सरकारों के एजंडे में ही नहीं है। आज कितने साल हुए, देश के सांस्कृतिककर्मी लगातार वकालत करते रहे हैं कि हुसैन को भारत लाने के लिए सरकार को पहल करनी चाहिए। लेकिन कुछ हुआ नहीं। आज हुसैन कतर के नागरिक बन रहे हैं तो यह हमारी उस सरकार के मुंह पर तमाचा है। अब भी सरकार को कोशिश करनी चाहिए कि हुसैन भारत आएं। सरकार उन्हें हिफाजत का आश्वासन दे। सिर्फ यह कहकर काम नहीं चलाए कि हुसैन प्राइड ऑव इंडिया हैं और भारत में उनका स्वागत है। इन सारे तमगों से ज्यादा उन्हें सचमुच इज्जत देने की है। भारत लाने की है।