सोमवार, नवंबर 23, 2009

ठिठुरती यादों की गुनगुनी परछाईंयां

अपनी ही सांसों से फंूक मारक हथेलियों को गर्म करने की कोशिश। नाक में जलती हुई लकडिय़ों का धुंआ घुस रहा है। चूल्हे के पास यूं बैठने को तीन चार लोगों की ही जगह दिखती है लेकिन 'थोड़ा और आगे सरक।Ó कहते हुए रसोई के चूल्हे के पास दस लोग जमा हो गए। चाचा दूलसिंह ने एक जलती लकड़ी चूल्हे से उठाई और अपनी बीड़ी के मुंह से टोचन करने लगे। धुएं में बीड़ी का धुंआ भी घुल गया है। मां चूल्हे पर रखी 'राबड़ीÓ को 'चाटुÓ से हिला रही है। गांव में सर्दियों का सबसे बड़ा पेय। जिस राबड़ी को मैं कभी पसंद नहीं करता था। सर्दियों में वह अमृततुल्य लगती थी। चूल्हे से उतरी नहीं कि 'सबड़केÓ मार मार के पूरा कटोरा पी गया। शरीर का तापमान बढ़ा। चूल्हे के सामने मां, बापू, चाचा, मौसी सब जमे हैं। दिसम्बर की सर्द रात है। आग अपनी शक्ल बदल रही है। कभी 'धपड़बोझÓ, कभी 'खीरेÓ तो कभी 'भोभर।Ó चूल्हे की चौपाल लंबी चलेगी। मुझे मेरे चचेरे भाई गोकुल के साथ हिदायत दी जाती है कि चुपचाप जाकर रजाई में घुस जाऊं। हम दस मिनट तक यही बहस करते हैं कि पहले तुम घुसो। रजाई इतनी ठंडी है। बर्फ सी लगती है। जो पहले घुसेगा वो गर्म तो पता नहीं कब होगा लेकिन ठिठुर जरूर जाएगा यह तय है। आखिरकार बीच का रास्ता मां ने तय किया था। एक दिन तुम घुसोगे, एक दिन गोकुल। मैं घर में सबसे छोटा था। मेरी मासूमियत गोकुल को अक्सर पिघलाती थी। वह पूरा पिघल ही नहीं जाए इससे बचने के लिए ठंडी रजाई में राहत पाता था।
सुबह कोहरा है। जैसे रात भर सूरज ने और सारे तारों ने सर्दी से बचने के लिए जैसे गीली लकडिय़ां जलाई हों। उसका फैल गया है। मजा आ गया। हम से मुंह से फूंक मारते हैं, मुंह से भी धुंआ निकल रहा है। जैसे पेट में कुछ सुलग रहा है। रात को चूल्हे में 'भोभरÓ ओटी गई थी। चिंगारी अभी बाकी है। चूल्हा जला है। कोयलों पर बाजरे की रात की बची हुई रोटी 'कुरकुरीÓ सेंक दी गई है। दोनों हथेलियों के बीच 'मरोड़ीÓ देकर उसे कांसे के कटोरे में 'चूराÓ गया है। गाढ़ा सा जमा हुआ हमारी लंबे सींग वाली भैंस का दही डाला गया है। हाथ की चारों अंगुलियां भूख के इशारे समझते हुए एक बड़े चम्मच में तब्दील हो गई हैं। सुबह के 'सबड़केÓ के साथ दही रोटी खा ली गई है। जो मटका पुराना हो गया उसी में पानी भरकर चूल्हे पर रख दिया गया है। गर्म पानी बाल्टी में डालकर चेतावनी के साथ मुझे कच्ची ईंटों से बने बाथरूम में घुसा दिया गया है। मैं मन ही मन उस आदमी को कोसता हूं जिसने मेरी उम्र के बच्चों के लिए स्कूल जाने का रिवाज बनाया।
मैं नंग-धड़ंग ठिठुरता हुआ बाथरूम में हूं। मुंह धोया। आंखें धोयी। 'तागड़ीÓ गीली कर ली है। ताकि मां की जांच में खरा उतरूं कि नहाकर आया हूं। कड़ाके की सर्दी ने हफ्ते में छह दिन सबको धोखा देना सिखा दिया है। संडे को मां खुद मोर्चा संभालती है। ठिठुरते हुए रोना धोना जारी है। पैरों पर जमी मैल की परतें, वो बिना साबुन ही रगड़ रही है। खाल खिंच रही है। ज्यादा शोर मचाना मना है, वरना दो चांटे तैयार हैं।
'टोपलाÓ लगाए गांव के सरकारी स्कूल में बैठा हूं। दरी बिछी है। आधे से ज्यादा बच्चों की नाक तार-सप्तक की तरह बज रही है। बीच में छींक और खांसी की लगातार आवाजें पूरी कक्षा में 'फ्यूजनÓ पैदा कर रहे हैं। आज बाहर धूप भी नहीं है। स्कूल की बिना किवाड़ वाली खिड़कियों पर दरी के ही पर्दे लटकाए हैं लेकिन छन छन के शीत लहर आ रही है। समवेत ध्वनियां हैं, जोर जोर से, 'एक एक ग्यारहा, एक दो बारहा, एक तीन तेरहा, एक चार चौदह, एक पांच पन्द्रह।Ó बहाना है कि रटा लगा रहे हैं। सच्चाई है कि जोर-जोर से बोलने में सर्दी कम लग रही है।

8 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत प्रवाहमय और सुन्दर संस्मरण है शुभकामनायें

समयचक्र ने कहा…

सुन्दर संस्मरण ...

Udan Tashtari ने कहा…

बेहतरीन!

Udan Tashtari ने कहा…

गांव की भाषा और दृष्यांकन -लाजबाब!!

प्रवीण त्रिवेदी ने कहा…

सुन्दर संस्मरण !!!!!!!1

अपूर्व ने कहा…

हम दस मिनट तक यही बहस करते हैं कि पहले तुम घुसो। रजाई इतनी ठंडी है। बर्फ सी लगती है। जो पहले घुसेगा वो गर्म तो पता नहीं कब होगा लेकिन ठिठुर जरूर जाएगा यह तय है। आखिरकार बीच का रास्ता मां ने तय किया था। एक दिन तुम घुसोगे, एक दिन गोकुल।

क्या बात है सर जी..पूरा नॉस्टाल्जिक अत्याचार कर दिया आपने तो..उफ़!!

काशीराम चौधरी ने कहा…

sir, aapke bachpan ki yaden padhkar, me bhi apne atit me pahunch gaya hu. Lagbhag saman sa hi raha hai mera bhi bachpan. great presentation.

अनिल कान्त ने कहा…

क्या बात है ज़नाब मेरी आँखें तो आपकी लेखनी में जैसे एकदम ज़म सी गयीं, लगा सर्दियों और इस पोस्ट का पूरा असर है, मेरी भी तमाम यादें बुलबुले बन बन कर दिमाग़ के उपरी हिस्से में पहुँच रही हैं.