सोमवार, दिसंबर 01, 2008

ग्रासरूट पॉलिटिक्स: कुछ नोट्स

देश के कुछ हिस्सों में चुनाव हो रहे थे, और हम लोकतंत्र में यकीन करने वाले लोग अपने कथित जिम्मेदार नेताओं को चुनने में जुटे थे तो मुम्बई में हमारे जवान आतंकियों से युद्ध लड़ रहे थे। टीवी पर जनता के चेहरे कैमरे में थे और नेताओं को बेशुमार गालियां थी। यह कौनसी जनता थी, मेरे लिए समझना जरा मुश्किल था। ठीक उसी वक्त मैं राजस्थान के कुछ हिस्सों का चुनावी माहौल देखने निकला। एक पत्रकार की हैसियत से नहीं, बस यूं ही लोगों की भावनाओं का समझने के लिए। मैंने लोगों से पूछा कि मुम्बई में हुए हमले से क्या वे प्रभावित होंगे? कुछेक मतदाताओं ने यह अनभिज्ञता जताई कि हमला कितना बड़ा है। कुछ ने कहा, जो हुआ है, वह बहुत बुरा है लेकिन हम वोट उसी को देंगे जिसे पहले देने वाले थे। क्योंकि हमले का सरकार से संबंध ही नहीं है, सब के सब नेता बदमाश हैं। अपनी राजनीति करते हैं। तो फिर वे नेता को चुनने के लिए वोट क्यों डाल रहे हैं? लोग निरीह भाव से कहते हैं, जो सामने हैं, उसमें से किसी एक को चुनना ही होगा। एक सांप है्र, दूसरा नाग है। तो अच्छे लोगों का क्यों नही खड़ा करते? बात लोगों को चुभी और जवाब मिला, चुनाव लडऩे के लिए बेशुमार पैसा चाहिए। क्या आपको लगता है कि इस देश में वैध ढंग से इतना पैसा कोई भी अच्छा आदमी कमा सकता है, कि वह राजनीति कर सके।
बात में सच्चाई थी। करोड़पति लोग चुनाव लड़ सकते हैं, वह जनसेवक नहीं, जनता का बाप बनकर आना चाहते हैं ताकि करोड़ों की संपत्ति को अरबों में तब्दील किया जा सके। मैंने कई प्रत्याशियों के चुनाव कार्यालय देखे और पाया कि वहां हरदम कोई तीस से ज्यादा ऐसी कारें खड़ी हैं जिनमें हरेक की कीमत कम से कम सात लाख से ऊपर ही है। दस साल पहले के चुनाव और आज के चुनाव में फर्क यही आया है कि मतदाता को अब भी चुनाव से ठीक पहले शराब की थैली देकर वोट हासिल किया जा सकता है लेकिन चुनाव लडऩे वाले प्रत्याशी की सम्पत्ति में हर चुनाव के बाद इजाफा हो जाता है। वह जीत रहा है तो कई गुना और यदि हार भी गया तो भी उसके पास धन की कमी नहीं रहती। अचार संहिता कागजी है। मैंने देखा कि एक जगह मतदाताओं ने वोट मांगने गए प्रत्याशी से मांग रखी कि उनके हैण्डपम्प का पानी खारा है, उसने तुरंत इशारा किया। काम शुरू हो गया, मीठे पानी के कुएं से उनकी कॉलोनी तक पाइपलाइन लाने का।मुझे गैर कानूनी होने के बावजूद अच्छा लगा कि किसी स्तर पर हमारा मतदाता भी नेता को ब्लैकमेल कर सकता है। उसे समझ में आ गया है चुनाव के बाद तो वही आश्वासन मिलने हैं लिहाजा चुनाव से पहले ही नेता की जेब ढीली करवा ली जाए। ऐसा मैंने कई गांवों में देखा है कि एक लाख से पचास हजार तक के काम लोग ऐसे निकलवा रहे हैं कि बहती गंगा में हाथ धोने में हर्ज क्या है? नेता वोटों के अनुपात में यह काम सहर्ष करवा रहे हैं, क्योंकि पिछले सात आठ साल में जिस किस्म से बिना मेहनत के धनवानों के और धनवान होने का सिलसिला शुरू हुआ उसमें चुनाव लडऩे के लिए आया पैसा यूं ही लगता है। एक गांव में मैं गया, लोगोंं ने बताया कि हमने प्रत्याशी से कहा, हमारे घरों के रास्ते में मिटïï्टी बहुत है। उनके सहयोगी ने नोट किया, अगले ही दिन चार ट्रक पत्थर के आए और रास्ते में जमा दिए गए। मोहल्ले के कुल सौ वोट अब इकतरफा ट्रकवाले प्रत्याशी को गिरेंगे।
ऐसे कई प्रत्याशी हैं जिनका मूल रूप से भू माफियागिरी से सीधा संबंध है। कुछ के पास अपने रसूखात और ताकत के बल पर हासिल की गई जमीन जायदाद हैं। कोई हवाला कारोबार से जुड़े हैं, स्थानीय पुलिस की कमाई को बड़ा हिस्सा देकर अपने सारे गुनाहों पर पर्दा रखते हैं। कुछ मिलाकर ग्रासरूट लेवल पर निहायत ही निराशाजनक लोकतंत्र का माहौल है। मैं एक पूर्व विधायक से मिला जो आज चुनाव लडऩे की हालत में नहीं हैं। उनके कारोबारी नुकसान और आंशिक ईमानदारी ने उनका राजनीतिक करियर खत्म कर दिया और उनकी पीड़ा हद दर्जे तक यातनाप्रद है। उन्हें अफसोस है कि वे अब निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं, और उन्हें यकीन है वे इस चुनाव में हार जाएंगे।मैं विधायक की टिकट के दावेदार एक पूर्व प्रधान से मिला, जिसने गर्व पूर्वक बताया कि उसने प्रधान का चुनाव किस तरह जीता था? किस तरह मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण हो गया था और मैंने जाटों को जाति के लिए जीत की दुहाई दी और दलित वोटों को जरूरत से ज्यादा शराब वितरित की। उन्हें अफसोस इस बात का था कि उनके सामने जो प्रत्याशी था, वह उनके मुकाबले कम धनवान था। प्रधान कहते हैं, मेरी जीत तय थी लेकिन मैंने फिर भी दलितों और कुछ गांवों एक निश्चित राशि शराब की थैलियों के लिए बढ़ा दी थी। उनके सहयोगियों ने कहा कि क्यों पैसा खराब कर रहे हो? प्रधान ने कहा, मैं ऐसा इसलिए कर रहा हूं कि अगली बार जब कोई इन वोटों को खरीदने जाए तो सिर्फ दो दिन का नहीं बल्कि एक महीने की शराब का को कोटा लेकर आए। इशारा साफ है कि आप अमीर हैं तो चुनाव महंगा करने की कोशिश करो ताकि अगली बार कोई कमजोर प्रत्याशी सामने टिका ही न रह सके। मैंने कुछ दलित बस्तियों के कुछ वोटरोंं से भी बात की कि क्या जिस आदमी की शराब पीते हैं, उसी को वोट डाल सकते हैं, तो उनका कहना था कई बार डालते हैं और कई बार नहीं। हां, उनकी दी हुई शराब पीने में कोई हर्ज नहीं। ज्यादातर वोट अपने मन से ही डालते हैं। कुछेक मतदाता हंसते हुए बोले, अपन तो दोनों ही तरफ से आजकल पहले ही अपने कोटे की पूरी शराब मांग लेते हैं।
कुछेक मजेदार वाकये सुनने को मिले-एक गांव में प्रत्याशी वोट मांगने गया। सभा को संबोधित करते हुए लोगों से कहा, वोट दें और बगल में घंूघट में बैठी महिलाओं की ओर से इशारा करते हुए कहा, इन्हें भी समझाएं कि वोट कहां देना है? अचानक दो महिलाएं खड़ी हुई और बोली, गांव के पुरुषों को एक स्थानीय गाली देकर कहा, इनके कहने से हम वोट नहीं देने वाली। इनके पास कहां वोट हैं, ये तो शराब पीकर दिनभर पड़े रहते हैं, हमारा वोट चाहिए तो सीधे हमसे बात करो। प्रत्याशी ने महिलाओं की तरफ हाथ जोड़ लिए और माफी मांगी। यह घंूघट में छिपी नारी चेतना है जो मेेरे खयाल से अगले दस साल में और मुखर होगी।एक मुस्लिम बहुल गांव में बीजेपी के प्रत्याशी का अप्रत्याशित स्वागत देखकर मैं चकित था। लोगों ने मंच से ही उर्दू में सलामवालेकुम किया। ऐलान किया कि कांग्रेस ने हमें ठगा है। ये हमारे बीजेपी के नेता ने ही गांव में सडक़ बनाई है। हमें विकास का साथ देना है। इनकी ही सरकार ने मदरसों के सरकारी मदद दी है। शिक्षक भर्ती किए हैं आदि कई गुणगान मंचीय वक्ता ने किए। लौटते में मैंने गांव के परिचित एक मुसलमान साथी से पूछा, क्या सच है कि आप अबकी बार बीजेपी को एकतरफा वोट डाल रहे हैं? उसने मुस्कुरा कर कहा, अभी तो डाल रहे हैं लेकिन चुनाव से ठीक पहले ऐलान हो जाए कि इस्लाम खतरे में है और हम गांववाले अपना इरादा बदल दें। मेरे खयाल में किसी निष्कर्ष के बिना आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हमारे मतदाता और कितने बदले हैं? और हमारा लोकतंत्र मजबूत क्यों है?