सोमवार, मई 18, 2009

दो कवि‍ताएं

पि‍छले दि‍नों से कवि‍ताएं लि‍खने का शौक चढा है। फुरसत है तो आप भी भुगतें। खुदा खैर करे। मेरी और मेरे पाठकों की।


स्पर्श


मैं कुछ बोलना चाहता हूं

कि‍ तुम्हारी एक अंगुली,

मेरे होठों पर आकर टिकी है

हटाओ इसे,

इसके बोझ तले दबा जा रहा हूं,


आखिर कि‍तनी बार,


बोलने से रोका है मुझे


कि‍ तुम्हें शक है,


मैं बोला तो यह रिश्ता तार-तार हो जाएगा

मैं तुम्हारे जिस्म के रोम रोम में,

एक जुंबिश चाहता हूं

पर खुद स्पंदनहीन हो गया हूं

कि‍ मेरे होठों पर टि‍की एक अंगुली

उन्हें सिल गई है,

एक सन्नाटा

दोनों के बीच पसरा है,

तुम सहलाओ इस सन्नाटे को

अपने मुलायम हाथों से,

मैं तुम्हारे स्पर्श का सुख चाहता हूं

कि‍

सिर्फ एक बार

अपने मुलायम हाथ

रख दो मेरे माथे पर,

अंगुलियां मेरे बालों में पिरोकर

सहलाओ धीरे धीरे

मैं तुम्हारे स्पर्श का सुख चाहता हूं।




वजूद


अगले बरस पैंतीस का हो जाऊंगा,


जिंदगी का मिड वे,

मुडक़र देखता हूं,

संघर्ष, गरीबी, लाचारी है,

सामने देखता हूं तो

संघर्ष अब भी तरोताजा

तंदुरुस्त है,


गरीबी और लाचारी का हिलता सा अक्स है,

जैसे सदानीरा नदी के कि‍नारे कोई


नार्सिस्ट बैठा है

डर है,

पानी ठहरा


तो चेहरा उभरेगा

वो कैसा होगा?

हालांकि‍ मैं जानता हूं

मेरे जीते जी


नदी नहीं थमेगी,

हिलता हुआ अक्स,

चेहरे में तब्दील नहीं होगा,

फिर भी मुझे चिंता खाए जा रही है

अपने वजूद की।