मंगलवार, अक्तूबर 02, 2012

मेरी नई कहानी बाचीज: ए अत्‍फाल का एक छोटा अंश

हाल ही नई कहानी लिखकर पूरी की है। उसके कुछ अंश आप प्रिय पाठकों के लिए प्रस्‍तुत हैं। पूरी कहानी के लिए आपको एक बार इंतजार करना होगा। 



"" एक दिन बूढे़ प्रधानमंत्री ने लाल किले से खुश होकर कहा कि चूंकि अब हमारा पेट ऊपर तक भर गया है। इसलिए सीधे सीधे कुछ खाना मुमकिन नहीं है। अब दूसरे तरीके से कुछ और खाएंगे और जनता को खिलाएंगे। अब हर स्‍कूल आने वाले बच्‍चे को हर महीने दस सेर गेहूं मिलेगा। वो पढाई के लालच में भले ही ना आए लेकिन उसके घर वाले गेहूं के लालच में जरूर पढ़न
े भेजेंगे। सरकार की ओर से बंटने वाली इस ‘खैरात’ में पहले बच्‍चे को तौलकर अनाज दिया जाने लगा। इस तुला में भी वही खूबी थी, जो इस देश के बनियों, ठेले, सब्‍जीवालों की सारी तुलाओं में होती थी। यह कमबख्‍त कम तौलती थी। दस सेर की जगह आठ सेर तौल दिया। बच्‍चे तो बच्‍चे थे, शिकायत करते तो यह तुला उन्‍हें डांट देती थी कि जितना मिल रहा है, उतना क्‍या कम है? यह तो मुफ्त का माल है और इसमें भी तुम्‍हें पूरा तौल चाहिए। बच्‍चे चुप करा दिए गए। बचा हुआ गेहूं विद्यालय के अध्‍यापकों के घर जाने लगा। जब उनकी पत्नियों ने आपत्ति जताई कि इस गेहूं की रोटियां बनने के बाद ज्‍यादा काली दिखती है तो मेघ सिंह ने अपने उपलब्‍ध ज्ञान के आधार पर कह दिया कि यह सरकारी गेहूं है। इसमें आयरन ज्‍यादा है।
सच बात तो यह थी कि इस देश में खूब भुखमरी के बावजूद सरकार के पास गेहूं इतना ज्‍यादा हो गया था कि रखने के लिए जगह ही नहीं बची थी। वह धूप में तपता था। बारिश में भीगता था। बाढ में बहता था। आग में जलता था। इसके बावजूद सरकारी अफसरों ने सरकार तक यह खबर भिजवाई कि सब हादसों और आपदाओं के बावजूद गेहूं बहुत बच गया है। हम भी कितना खाएंगे। हमारा भी पेट भर गया है। यह गेहूं भीग भी गया है। इसे अब देश के स्‍कूलों में बंटवा दो।
मेघ सिंह की आयरन वाली दलील को पहले तो उसकी पत्‍नी ने मान लिया लेकिन जब रोटियों में स्‍वाद ही गायब मिलता रहा तो उस गेहूं का दलिया पीसकर उसने अपनी बकरियों का खिलाना शुरू कर दिया। बकरियां मौन थी। वे ना प्रधानमंत्री को शिकायत कर सकती थीं ना मेघ सिंह को। बस चबर चबर गेहूं का दलिया चबाती।
उस दौर में गांव में सबसे ज्‍यादा खुश वे बकरियां ही थीं जिन्‍हें सरकारी गेहूं भी खाने को मिलता था और पढ़ना भी नहीं पड़ता था।
एक दिन खेत में चरते हुए सरपंच की बकरियों से मेघ सिंह की ब‍करियों की मुलाकात हुई। उनकी खूबसूरती देखकर सरपंच की भूरती बकरी ने मेघ सिंह की चितकबरी बकरी से पूछा,
‘बहन, बहुत सुंदर हो गई हो इन दिनों। राज क्‍या है ?’
चितकबरी ने कहा, ‘क्‍या बताऊं बहन, आजकल चारे के साथ जोरदार अनाज भी मिलता है। तुम जानती हो, खेत में उगने वाले गंवार से तो मुझे मोटे होने का खतरा था लेकिन यह तो सरकारी गेहूं है, धुला हुआ एकदम। इसमें प्रोटीन कुछ ज्‍यादा ही लगता है। फिर मुफ्त का है तो जब त‍क मेरा पेट नहीं भर जाता तब तक मालकिन बर्तन हटाती नहीं है। मुझे तो खेत में सिर्फ चहलकदमी के लिए आना होता है। वरना खाने पीने की तो घर में कमी नहीं है बहन। मैं तो दुआ करती हूं कि अगले जन्‍म में भी भगवान अगर ठीक समझे तो मुझे सरकारी मास्‍टर के यहीं बकरी बनाकर भेजे।’ ""


शुक्रवार, सितंबर 07, 2012

मेरा गांव जो मेरी रूह में जो बसा हुआ है


साहित्यिक पत्रिका कुरजां का दूसरा अंक गांव पर केंद्रित है और बाजार में आ गया है। इसमें मैंने मेरे गांव के बारे में एक लेख लिखा है। यहां उपलब्‍ध है, आपका मन हो तो पढें। 

                                             पिताजी  के साथ मैं अपने गांव के घर में

बात उस समय की है जब मैं चौथी क्लास में था। अपने चचेरे भाई गोकुल के साथ खेत से लौट रहा था। पीठ के थैले पर झाड़ी के बेर थे जो हम अकसर अपनी जेबों में भरकर स्कूल में ले जाया करते थे। घर पहुंचने से ठीक पहले ही गायों के एक झुंड से एक गाय तेजी से हमारी तरफ दौडऩे लगी। मैं छोटा था, गोकुल ने हाथ पकडक़र मुझे खूब दौड़ाया लेकिन उसी समय गाय की भेठी उसकी पीठ पर थी। मेरा हाथ छूटा। मैं झटके से आगे गिरा। गोकुल गाय की टांगों में गिरा और वहां से उठकर निकल भागा। अब मैं पूरी तरह गाय के हवाले था। वह शेरनी की तरह मुझ पर टूट पड़ी थी। जैसे तैसे बचा गोकुल मदद के लिए चिल्ला रहा था। जब तक पड़ोस में रहने वाली सुबीरा गोकुल की आवाज सुन मदद के लिए लाठी लेकर आई, गाय ने मेरा कचूमर निकाल दिया था। मेरे रोम रोम से लहू बह रहा था। सिर फट गया था। जिसने मुझे पकड़ा वही खून में रंग गया। घर लाकर पानी से मुझे धोया जा रहा था और रिसाव वाली जगहों पर कपड़े बांधे गए और सब दौड़ पड़े गांव के अस्पताल की तरफ। सारा गांव इकट्ठा था। गांव वालों में मेरे पिता की उम्र के भल्लू राम भी थे। वे गांव की सारी उपलब्ध गालियां गाय के मालिक को दे रहे थे। मां बहन एक कर दी थी उन्होंने गाय के मालिक की। मैं इकलौता बच्चा था और सारे गांव वालों समेत भल्लूराम को भी लग रहा था कि मैं बचूंगा नहीं, लिहाजा उन्होंने गालियों का डोज बढा दिया था। वे गालियां देते हुए थककर चुप होते इससे पहले ही अपराधी गाय की छानबीन करने गए आदमी ने आकर कहा, यार भल्लू गाय तो तेरे वाली है जिसने मारा है। भल्लू राम अचानक चुप हुए। फिर धीरे से बोले, आ कैंया होगी, म्‍हारळी गाय तो मारया ही कोनी करै।(यह कैसे हुआ, मेरी गाय तो मारती ही नहीं है।)
इस घटना के बाद स्कूल में जब भी मास्टर जी बोलते थे कि गाय हमारी माता है। तो कभी उनसे सहमत नहीं होता था।
यह मेरा गांव बिरानियां है। राजस्थान के सीकर जिले में फतेहपुर के पास। जिसमें पैदा होने और होश संभालने के बाद मेरी पहली ख्‍वाहिश थी कि अपने घर में नल होना चाहिए क्योंकि स्कूल के ठीक सामने कुंआ था। मां पिताजी खेत में हुआ करते थे। यह मेरी ही नहीं मेरे जैसे कई बच्चों की परेशानी थी कि कुएं पर हलचल दिखते ही हमें लगता था कि गुरुजी से आधे घंटे की छुट्टी लेनी पड़ेगी। हमें पानी भरना होता था। पांच लीटर का डिब्बा लेकर हम घर से कुएं के बीच चक्कर लगाते थे। कई बार नन्हे हाथों से वह छूटकर गिरता था और पीछे से आ रहे बुजुर्ग गुस्से से गाली देते थे कि पानी व्यर्थ बहा दिया। वे यह नहीं पूछते थे कि गिरने से चोट तो नहीं लगी। यानी गांव में जीने का पहला सबक यही है कि जितने जल्दी स्वावलंबी बनो अच्छा है और नंबर दो बात जब संसाधनों की दुरुपयोग की है तो आपसे कोई सहानुभूति नहीं। आपकी चोट तो ठीक हो सकती है लेकिन आपकी लापरवाही से जो पांच लीटर पानी चला गया, वह तो व्यर्थ ही हुआ ना।
इसका मशहूर किस्सा भी है। गांव की बस से शहर जा रहे ताऊ बस की खिडक़ी में पैर टिकाकर खड़े थे कि सामने आ रही कंटीली झाड़ी देखकर कंडक्टर ने चेताया कि ताऊ, थोड़ा तिरछा रहणा वरना पीठ फट जाएगी और ताऊ का जवाब आता है, पीठ फट जाए दुख नहीं यार, कमीज नहीं फटणी चाहिए

गाय के हमले से घायल होने के बाद मैं फतेहपुर के अस्पताल से लगभग मौत के मुंह से निकलकर आया था तो जिस ऊँटगाड़ी में मैं गांव लौटा था उसी में कुछ पाइप जैसा कुछ सामान था और गांव पहुंचने पर पता चला कि पाइपलाइन डल गई है। नल अब हर घर में होगा। मुझे अब पानी भरने के लिए कुएं पर नहीं जाना होगा। यह सन 1984 की बात है।
चूंकि यह पानी की सप्लाई ट्यूब वेल से हुई थी तो गांव के एक हिस्से में बिजली भी घुस गई थी और उसका सीधा संबंध मेरी दूसरी इच्छा से था।
पिताजी ने एक लैंप लाकर दी थी। मिट्टी का तेल उन शायद आसानी से मिल जाता था। राशन में आता था। लैंप की रोशनी चिमनी से बेहतर होती थी और मैं ही नहीं मेरे आस पास के पड़ोसी बच्चे भी उस बेहतर रोशनी के लालच में मेरे यहीं पढऩे आते थे। गर्मियों में घर की छत पर बीचों बीच लैंप रखी जाती और उसे चारों और हम लोग घेरा बनाते थे, जब तक मन होता पढते थे और उसके बाद वहीं सो जाते थे। गांव के दूसरे हिस्से के कुछ बच्चों के घर में बिजली आ गई थी हालांकि बहुत से परिवार अब भी ऐसे ही थे कि वे बिजली का खर्च वहन नहीं कर सकते थे इसलिए तार खंभे से डालकर चोरी करते थे। उनके बच्चे थोड़ी हेकड़ी से हमारे मोहल्ले वाले बच्चों को देखते और यह रौब झाड़ते कि वे अब बिजली में पढ़ते हैं। हमने अपने हीनताबोध से निकलने का उपाय यह निकाला था कि सरकारी मेहरबानी से बिजली बहुत ही कम आती थी। उन बच्चों को बिजली के टाइमटेबल के हिसाब से चलना होता था। हम अपना टाइमटेबल खुद बनाते थे जिसमें सबसे ऊपर यह लिखा जाता था कि प्रात: साढे पांच बजे उठना। पांच से साढे पांच नित्य कर्मों से निवृत्ति (हालांकि ऐसा कभी होता नहीं था, इतनी सुबह हाजत ही नहीं होती थी लेकिन गुरुजी का दबाव ऐसा था कि उठने के बाद शौचादि से निवृत्त होने के बाद ही अध्ययन करो तो याद रहता है) और बाद में जो भी गणित अंग्रेजी विज्ञान आदि पढने का कार्यक्रम बनाते थे। बिजली बाले बच्चे हमारी तरह स्वतंत्र नहीं थे। हम जब भी जागें तभी लैंप जलाएं और पढना चालू।
इसी के समांतर मेरी तीसरी इच्छा जुड़ी हुई थी। जब भी मुझे ननिहाल जाना होता था तो गांव से तीन किलोमीटर दूर से एक बस पकडऩी होती थी। बचपन में मां गोद में लिए चलती थी लेकिन जब वजन कुछ भारी हुआ तो पैदल ही चलाती थी। बहुत जोर आता था बस तक पहुंचने में। मेरी इच्छा यह थी कि फतेहपुर जाने के लिए गांव से ही बस जानी चाहिए लेकिन मैं इच्छा ही रख सकता था। सरकार या प्राइवेट बस आपरेटर्स को यह ज्ञापन नहीं दे सकता था कि हमारे गांव से बस चलनी चाहिए।
और वे सचमुच सुकून देने वाले दिन थे जब एक दिन ट्रेक्टर में भरकर सफेद लंबे बिजली के खंभे हमारे मोहल्ले में उतरे। बिजली विभाग वाले लोगों का इंतजार किए बिना गांव के युवाओं ने अपने हिसाब से नापकर गड्ढ़े खोदे। हमारे गांव के हनुमान बिजली विभाग में लाइन मैन थे और उन्हीं के सलाह मशवरे से खंभे खड़े हो गए। बिजली वाले उन पर तार खींच गए। बिजली के कनेक्शन हुए और घर के कमरे में जब पहला लट्टू जला था तो मैं बहुत खुश हुआ था।
उसी दौरान हमारे पड़ोसी गांव के एक आदमी ने बस खरीदी थी और उसे भैरजी नामक ड्राइवर चलाते थे। उनकी प्रतिष्ठा ऐसी ही थी जैसे वे बोइंग विमान चला रहे हों। और तो और हममें से ज्यादातर बच्चों ने अपने करियर का पहला सपना देखा था कि हम बड़े होकर बस ड्राइवर बनेंगे। क्योंकि यह सबसे आनंददायी काम लगता था। हम बच्चे रोज सवारियां गिनते थे क्योंकि बस ट्रायल पर चली थी कि पंद्रह बीस दिन में यदि सवारियों से खर्चा ना निकला तो बस बंद हो जाएगी। हम बच्चे दुआ करते थे कि ऐसा ना हो। हम लोग बनावटी ड्राइवर कंडक्टर को खेल खेलते थे। कागज की पन्नियां फाड़क़र किराया वसूलते थे और चूंकि हमें सुबह शाम एक बार बस देखने को मिलती थी तो हम इंतजार करते थे कि कब आएगी और उसे देखने के लिए उतने ही उत्सुक रहते थे जैसे कोई चिडिय़ाघर में पहली बार शेर देखने के लिए उत्सुक रहता है।
बस में सवारियां होने लगी थी और तय हो गया कि बंद नहीं होगी। बल्कि उसके फेरे एक से दो हो गए।
लेकिन फिर भी एक दिक्कत थी। मई जून में तेज आंधियां चलती थी। बस के रास्ते खोखले से हो जाते थे। उसके पहियों वाली जगह मिट्टी भर जाती थी। उन दिनों बस नहीं चला करती थी। दिन इतने गर्म हुआ करते थे कि शरीर में खून तक उबलने लगता था। शामें ठीक होती थीं और रातें बेहद शीतल अहसास देने वाली। इन्हीं दिनों में मूंज की कुटाई होती थी और मोहल्ले के बीचों बीच रखी एक चौकी पर कोई ना कोई छोटी छोटी पूळियों को कूटता था और भरी दोपहर मोगरी की आवाज आती रहती थी। एक आदमी को दिन भर मेहनत के बाद कोई एक या दो पूळी कूट पाता था जिसमें वह पसीने से लथपथ हो जाता था। फिर एक दिन दूसरे गांव से आए एक मेहमान ने बताया कि सडक़ आने के बाद से उनके गांव में यह आराम हुआ कि बारहों महीने बस चलती है। मिट्टी में लोकल गाडिय़ां भी नहीं फंसती। गांव का दूध और अन्य सामग्री शहर में बेची जा सकती है और तो और मूंज कूटने की जरूरत नहीं पड़ती। बस सडक़ पर पूळी डाल दो और बार बार आती जाती बसों और गाडिय़ों के पहियों के नीचे वह वैसे ही तैयार हो जाएगी। मेरी चौथी इच्छा अब ये हो गई थी कि गांव में सडक़ आ जाए।
देखते ही देखते गांव के एक हिस्से में सडक़ का शुरू हुआ लेकिन फतेहपुर बारह किलोमीटर था और सडक़ बनने के बाद वह अठारह किलोमीटर दूर हो गया क्योंकि सडक़ कई गांवों से घूमते हुए हमारे गांव में पहुंची थी। लिहाजा उस सडक़ का इस्तेमाल बहुत ही कम होता था।
एक दिन हमारे इलाके के सांसद गांव में किसी के यहां आए। यह जून की कोई दोपहर थी। वे शहर से सीधे लग रहे रास्‍ते से आ रहे थे, जहां सड़क नहीं थी। उनकी कार एक टीले में फंस गई। उनके साथ मौजूद चार पांच लोगों ने लाख कोशिश कर ली गाड़ी टस से मस नहीं हुई। उसी समय शहर से गांव आने वाली बस आई और लोगों ने देखा कि सांसद की गाड़ी फंसी है। सबने कहा, आप बस में बैठिए, आपकी गाड़ी को गांव के युवा लोग निकाल लाएंगे। इनका अभ्‍यास है। प्यास से बेहाल और पसीने से लथपथ एमपी साब ने गांव वालों से शिकायत की कि ये रास्ते की क्या हालत कर रखी है? तो उल्टे गांव वालों ने कि रास्ता खराब कहां है? आपने कितनी अच्छी सडक़ बनवाई है? हम तो रोज ऐसे ही आपकी बनवाई सडक़ का सुख लेते हैं? आप एक दिन में ही उकता गए़? सांसद बेहद शर्मिन्दा थे और अगले पंद्रह दिन में गांव से शहर को जोडऩे वाली सीधी सडक़ का काम शुरू हो गया था। फिल्‍म भोभर में एक दृश्‍य भी हमने ऐसा ही रचा था जिसमें एमएलए की जीप मिट्टी में फंस जाती है।

और सडक़ बनने के बाद तो वहां सब कुछ तेजी से बदलने लगा। उस गांव में जहां मैं पैदा हुआ, लगभग वो सब अब आने लगा जो शहर के लोगों को नसीब था। कुछ दुकानों पर ताजा सब्जियां और फल, लोगों के घरों में अपने निजी वाहन। युवाओं में खासकर मोटर साइकिल लोकप्रिय होने लगी। धीरे धीरे गांव की दुकानों में बाजार घुसने लगा। दही और छाछ से सिर धोने वाली गांव की नव यौवनाएं अब शैम्‍पू की मांग करने लगीं। दूध ओर छाछ पीने वाले किशोर और युवा दुकानों से पेप्सी और कोका कोला पीने लगे। कुर्ता पायजामा और गांव के दर्जी से कपड़े सिलवाकर पहनने वाले युवा अब जींस की पेंट और टी शर्ट के उपभोक्ता हो गए। उनके मुंह में गुटखा आ गया और जेब में सिगरेट को पैकेट। शाम ढलते ढलते वे ठेके की तरफ जाते थे और देसी शराब से इतर वे अंग्रेजी पीने लगे। यह उनके जेब के बूते की बात नहीं थी लिहाजा कोई नहीं जानता था कि उनके पास यह पैसा आ कहां से रहा है। मैंने लगातार देखने की कोशिश की लेकिन समझना मुश्किल था। वे छोटे मोटे अपराध करने लगे। कुछेक लोग हरियाणा से शराब लाकर बेचने लगे ओर मैंने देखा पहली बार हमारे गांव को कोई युवक चोरी के आरोप में भी पकड़ा गया। बाद में एकाध लोग अवैध शराब के धंधे को लेकर भी पकड़े गए। अपने गांव को लेकर इस तरह की इच्छाएं कभी नहीं की थीं।
बारिश के दिनों में जब गांव भर का पानी बहकर एक जगह तालाब सा बना लिया करता था, वह जगह हम किशोरों और गांव की भैंसों में समान रूप से लोकप्रिय थी। बेखौफ वहां स्‍नान होता था। अब बहते नाले में नहाना मुमकिन नहीं। वो गंदा हो गया है। उसमें प्‍लास्टिक और कांच की बोतलें इतनी होती है कि घायल होने के खतरे हैं। हमारे दौर के कितने ही बच्‍चे नंगे पांव स्‍कूल जा सकते थे लेकिन अब रास्‍ते सुरक्षित नहीं है। हां, गंदगी शहरों के मुकाबले अब भी कम है।

मुझे याद है फागुन के दिनों में लगभग पूरे महीने ही जश्‍न का माहौल होता था। बाद में वह सिमटकर पंद्रह दिन पर आया और एक दौर ऐसा आया जब वह लगभग बंद ही हो गया था। पिछले तीन चार साल में युवाओं ने एक नवयुवक मंडल बनाया और होली के आयोजन को वापस एक हफ्ते के जश्‍न तक ले आएं हैं लेकिन आश्‍चर्यजनक रूप से गांव को सबसे बड़ा निवेश इन दिनों में एक मंदिर पर हुआ। लोग कहते हैं करीब डेढ करोड़ रूपए इसमें खर्च हुए हैं। मैंने जब भी अपने परिवार से इतर इस निवेश को लेकर लोगों से बात करने की कोशिश की तो लोग नाराज हुए। यह एक दुर्गा मंदिर है और ग्रामीण इलाके में सबसे भव्‍य दुर्गापूजा हमारे गांव में होने लगी है। मैंने कितनी ही बार कहा कि ये पैसा सबको मिलकर एक लाइब्रेरी में लगाना चाहिए, जो गांव के युवाओं के काम आएगा। लेकिन कोई नहीं सुनता। ऐसी अंधी आस्‍था बुजुर्गों में कभी नहीं थी। हां, मंदिर थे। एक पुजारी पूजा भी करता था लेकिन दो चार पांच लोगों के अलावा कोई भी मंदिर जाता नहीं था। सिर्फ त्‍योहार के वक्‍त ही भीतर जाना होता था लेकिन अब यह बढ गया है।
गांव के बहुत से युवा कमाने के लिए गांव छोड़ रहे हैं। ज्‍यादातर लोग खाड़ी देशों में काम कर रहे हैं। जो पढ लिख गए वे अध्‍यापक हो गए हैं और कुछ लोग सेना में नौकरी कर रहे हैं। सारे समर्थ लोगों में आजकल एक ही होड़ है कि वे निकटवर्ती कस्‍बे में प्‍लॉट खरीद लें। उन्‍हें रहने के लिए अब शहर की जरूरत होने लगी है जबकि अब गांव में सब कुछ है। सड़क, पानी, टेलीफोन, इंटरनेट ब्रॉडबैंड, डीटीएच आदि। एक अस्‍पताल भी है और वहां डॉक्‍टर के रहने का दबाव गांववालों ने ही बनाया है। कुछ लोग निवेश के लिए शहरों में जमीनें खरीद रहे हैं।
जब से नरेगा नाम की सरकारी योजना आई है तो चीजें और भी स्‍पष्‍ट हो गई हैं। अब गांव में ही रहने वाले के लिए रोजगार उपलब्‍ध है। मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि पढाई लिखाई और जागरूकता चीजें ठीक करती हैं और लोग अपने हक के लिए खड़े होने लगे हैं। पूरे पांच साल चुनाव में शक्‍ल ना दिखाने वाले एमएलए या एमपी से वे सीधे जबावतलब करते हैं। अपनी जरूरत के मुताबिक अपने गांव में काम कराते हैं। हालांकि इस प्रक्रिया का बहुत बड़ा नुकसान भी राजनीति ही करती है। अगर आपकी पार्टी का सरपंच नहीं है तो आपके काम होने में जोर आता है ओर आपका सरपंच आ गया तो आप दूसरों को कीड़ा मकोड़ा समझने लगते हैं।
बहरहाल तमाम गुण दोषों के बावजूद मैं याद करता हूं एक ऐसे गांव को जहां सब चेहरे एक दूसरे के जाने पहचाने हैं। जहां जन्‍म, शादी और मरण तक सब आपके साथ खड़े नजर आते हैं। उन लोगों की महत्‍वकांक्षाएं बहुत बड़ी नहीं हुई हैं। हां, मेरे गांव के लोग अब हिरण नहीं है जिनका आसानी से शिकार किया जा सके, लेकिन वे भेडि़ए भी नहीं बन पाएं हैं कि बेगुनाहों का बेहिचक शिकार करें। मेरे जीने का आदर्श और जो सबसे बड़ी इच्‍छा यह है कि उस गांव के लिए कर सकूं, जिसने मुझे पाला पोषा, प्‍यार दिया। मैं उन बड़े होते बच्‍चों को वही मासूमियत बख्‍श सकूं जो मेरे बुजुर्गों ने मुझे बख्‍शी। मैं उनको उसी समर्पण भाव से पढा सकूं जैसे सरकारी स्‍कूल के शिक्षक पढाया करते थे। अब तो पूरे गांव के लोगों में यही भाव आ गया है कि जो ज्‍यादा पैसा लेता है, वह ज्‍यादा अच्‍छा पढाता है, जबकि मैं यह जानता हूं कि यह सच नहीं है। पूरे खराब शिक्षा तंत्र की कीमत मेरा गांव भी चुका रहा है। मैं इतना समर्थ बन सकूं कि मैं अपने गांव को बचा सकूं। हालांकि यह उतना ही मुश्किल है जितना बाजार से खराब हुई दुनिया को बचा पाना। लेकिन उम्‍मीद मेरी टूटी नहीं है, क्‍योंकि करीब दो दशक एक बड़े शहर में रहने के बावजूद मेरी रंगों में मेरा गांव ही बहता है। वह मेरी रूह में बसा हुआ है। मेरी सारी ऊर्जा का स्रोत वही है। वही मेरा सूरज है। वह डूब भी रहा है तो मुझे यकीन है एक दिन फिर उगेगा। आमीन।




गुरुवार, मई 03, 2012

हमारी फिल्‍में, हमारे दर्शक


हिंदी सिनेमा के लिए आज सौवां साल लग गया है। अब भी ये उतना ही ताजा और जवान लगता है। हमारे सिनेमा और हमारी जिंदगी का रिश्‍ता क्‍या है।


-रामकुमार सिंह
हॉलीवुड की नकल पर बॉलीवुड कहे जाने वाले हमारे हिंदी सिनेमा की लोकप्रियता की कहानी अजब गजब है। फ्रांस के लुमियर बंधुओं की बनाई दुनिया की पहली फिल्‍म के करीब डेढ दशक बाद भारत में दादा फाल्‍के ने भारत की पहली फिल्‍म बनाई। जिस फ्रांस से फिल्‍में बनाना दुनिया ने सीखा, अब वह दुनिया की फिल्‍म इंडस्‍ट्री का केंद्र नहीं है लेकिन जिस मुंबई में भारत की पहली फिल्‍म बनी वह फिल्‍म इंडस्‍ट्री का महत्‍त्‍वपूर्ण केंद्र है। संख्‍यात्‍मक लिहाज से हम हॉलीवुड से भी ज्‍यादा फिल्‍में बनाते हैं। हॉलीवुड ने पूरी दुनिया के सिनेमा पर हमला करते हुए अपना वर्चस्‍व बनाया, लेकिन हमारे यहां आज भी ब्लॉकबस्‍टर होने वाली फिल्‍म तो भारतीय ही होती है।
हम भारतीयों के लिए सिनेमा का मतलब है,‍ कथा ि‍फल्‍में यानी ि‍फक्‍शन। हमारे यहां डॉक्‍यूमेंट्री या सिनेमा की दूसरी विधाएं मुख्‍यधारा में लोकप्रिय हो ही नहीं पाईं। हमारी फिल्‍मों में नाच गाना भी एक मौलिक खोज है। हमारा नायक एक तरफ अन्‍याय के खिलाफ संघर्ष की आवाज बुलंद करता है, दूसरे ही दृश्‍य में वह अभिनेत्री के सामने ठुमके लगाते हुए प्रेम गुहार कर रहा होता है। हॉलीवुड स्‍टार ब्रेड पिट ने अपने एक साक्षात्‍कार में कहा कि मुझे भारतीय अभिनेताओं से ईर्ष्‍या है क्‍योंकि वे इतना सब कुछ एक ही फिल्‍म में कर सकते हैं जो करने में अभिनेता होने के नाते वे खुद को अक्षम महसूस करते हैं।
हिंदी के मशहूर अभिनेता और निर्देशक राजकपूर कहा करते थे कि हिंदी सिनेमा के लिए गीत संगीत जरूरी है क्‍योंकि लोगों के जीवन में इतना रुखापन है कि वे उनके लिए नाच गाना एक बेहतर मनोरंजन का जरिया है।
इसमें सच्‍चाई भी है, हिंदी सिनेमा ने प्रारंभिक दिनों में केवल मौलिक कहानियां रची और बेहद लोकप्रिय हुई। जब बोलती फिल्‍में नहीं आई थीं तब भी थियेटर में संगीतकार लोग दृश्‍य की जरूरत के हिसाब से लाइव संगीत बजाया करते थे। सत्‍तर के दशक में समांतर सिनेमा के दौर के बावजूद बहुसंख्‍यक भारतीय दर्शकों का व्‍यावसायिक सिनेमा के साथ अंतरंग जुड़ाव रहा। साथ ही एक पूरी पीढ़ी सिनेमा को हिकारत के भाव से देखती रही है। वे अपनी संतानों को सिनेमा दिखाने से परहेज करती रही है। प्रारंभिक दिनों में तो लड़कियों का सिनेमा में काम करना तक वर्जित रहा है और महिलाओं के पात्र पुरुष ही अदा करते थे। दरअसल सिनेमा भारतीय समाज के स्‍वयं के अंतरविरोधों का ही प्रतिबिंब है। आईने के सामने माताएं मधुबाला की तरह दिखने की कोशिश करती रहीं और अपनी लड़कियों को सिनेमा देखने से रोकती रहीं। हमारी सरकारों का रवैया तो अब तक भी यही है। जो फिल्‍म श्रेष्‍ठ अभिनय का राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार हासिल करती है, उसे टीवी पर दिखाए जाने से रोक देती है। आज भी हमारे स्‍कूली बच्‍चे कक्षाएं बंक करके सिनेमाघरों में स्‍कूल बैग लटकाए पाए जाते हैं क्‍योंकि उनके लिए सिनेमा देखना एक तरह से विद्रोह का प्रतीक है। आज भी हमारे स्‍कूली पाठ्यक्रमों में कविता, कहानी, चित्रकला, संगीत आदि जरूरी हिस्‍से हैं लेकिन फिल्‍म रसास्‍वाद का कोई पाठ्यक्रम नहीं है। नतीजा यह है कि सिनेमा के बारे में आज भी एक पूरी पीढ़ी आधा अधूरा सा ज्ञान रखती है। आज भी हमारे सुपर सितारे अर्थहीन सिनेमा बनाकर करोड़ों कूटते हैं, आज भी सिनेमाघरों की बत्तियां बंद होते ही भारतीय दर्शक यह अपेक्षा करता है कि फिल्‍म में कुछ ऐसा आ जाए कि पिछले छह महीने से महंगाई के दौर में जूझते हुए उसकी यातनाओं को वह भूल जाए। कुछ कॉमेडी हो, कुछ नाच हो, आयटम सॉन्‍ग हो, एक आध धमाकेदार दृश्‍य हों। दो ढाई घंटे बाद थियेटर में जब वापस बत्तियां चालू हों तो उसके चेहरे पर सिर्फ इतनी ही तृप्ति आ जाए कि फिल्‍म पैसा वसूल थी। हालांकि इस भारतीय दर्शक की भीतरी तृप्ति को पकड़ पाने में सौ साल बाद भी हमारा सिनेमा कामयाब नहीं हुआ। पता नहीं वह कौनसा अचूक रामबाण फॉर्मूला है, जिसके मिश्रण से भारतीय दर्शक अपने आपको मनोरंजित और विरेचित महसूस करता है। 

शनिवार, मार्च 03, 2012

पान सिंह तोमर: यह वंचितों और पीडि़तों की कविता है





पान सिंह तोमर के शुरुआती दृश्य में एक पत्रकार को दिखाया गया है जो बागी (डकैत नहीं, क्योंकि बकौल पान सिंह बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत तो पार्लियामेंट में होते हैं) पान सिंह से बात कर रहा है। खुद कुर्सी पर बैठा पान सिंह उसे नीचे बैठने का इशारा करता है। वह दीवार का सहारा लेकर बैठता है। एक पत्रकार को इस तरह दिखाए जाने के कारण मुझे शायद खीझ होनी चाहिए लेकिन पता नहीं क्यों, बुरा नहीं लगा। कई बार जख्मी जगह को बार बार छूकर देखना भी अच्छा लगता है। पानसिंह और पत्रकार का इंटरव्यू शुरू होता है। परतें खुलनी शुरू होती हैंं। आप सिनेमा में डूबना शुरू होते हैं।

पान सिंह तोमर सेना में भर्ती हुए और एक दिन स्टीपलचेज दौड़ में राष्ट्रीय रिकॉर्डधारी बने। लेकिन जब अपने गांव लौटे तो उनकी जमीन पर चचेरे भाई ने कब्जा कर लिया था। अनुशासित सैनिक होने के नाते पान ङ्क्षसह नियम कायदों से चक्कर लगाते रहे। उस इलाके का गैर जिम्मेदार और गैर-जरूरी सा सारा प्रशासन उन्हें टरकाता रहा। अंतत: पान सिंह बागी बने। अब सब लोग पान सिंह को ढूंढ़ रहे हैं। पान सिंह की यह पीड़ा भी है कि जब देश के लिए मैडल लाए तो कोई नहीं पूछता था लेकिन बागी बने हैं तो सब नाम ले रहे हैं।

दरअसल फिल्म पान सिंह तोमर तीन स्तर पर ताकतवर है। एक तो सच्ची घटना पर आधारित होना उसे बेहद विश्वसनीय बना देता है। दूसरा, वह बहुत खूबसूरती से लिखी गई है, जिसके लिए संजय चौहान और तिग्मांशु धूलिया जितनी तारीफ की जाए कम है। तीसरे, इरफान की मौजूदगी उसे सम्पूर्ण सिनेमाई अनुभव बनाती है, जो हर हाल में देखी जानी चाहिए।

पान सिंह तोमर सच्ची घटनाओं से लेकर बुना गया जिंदगी का एक रूपक है, जिसे देखते हुए आपका मनोरंजन भी होता है, उसके भीतर एक तंज लगातार चलता है, एक महान त्रासदी भी हम समांतर देखते हैं, जो बागियों के अपराध को महिमामंडित करने से ज्यादा उन सारे चेहरों को रेखांकित करती हैं जो इन बागियों को पैदा करते हैं। पान ङ्क्षसह ने तय कर लिया है कि बागी होना है और बेटा हनुमंता फौज की नौकरी में जाने से मना करता है तो वह चिल्लाता है। पूरी फिल्म में इरफान का कोई दूसरा संवाद इतना लाउड नहीं है। यह अपने आप में संकेत है कि किसी भी नई पीढ़ी के लिए बागी होना कोई समाधान नहीं है। समाधान यह भी नहीं है कि वह उस पुलिस वाले इंसपेक्टर को मार दे जिसने उसकी एफआईआर तक दर्ज करने से मना किया था और उसका जीता हुआ मैडल फेंक दिया था। आप उस इंसपेक्टर से इतनी नफरत कर रहे होते हैं और इच्छा होती है कि पर्दे पर उसे मार दिया जाए लेकिन पान सिंह उसे सिर्फ इतना कहते हैं कि वर्दी के सामने झुककर माफी मांग कि तू इसके लायक नहीं है। इसके बाद कच्छे में भागते हुए वह अपनी जान बचाने का जश्न मना सकता है लेकिन असल में वह मरा हुआ ही है। एक मरा हुआ लोथड़ा पर्दे पर भाग रहा है।

पान सिंह का नायकत्व इस तरह के ग्रे शेड वाले सारे नायकों से ऊपर है। वह एक जिम्मेदार पिता, जिम्मेदार भाई, चाचा, एक अनुशासित सिपाही अपनी टोली के लोगों के लिए समर्पित लीडर। उसके भीतर एक खालीपन है। उसके भीतर एक आग है। उस आग को बुझाने के बाहरी जतन करता है। वह गुलाबजामुन में आइस्क्रीम मिलाकर खाने के स्वाद को नहीं भूला है। वह विदेश का हवाला देता है और जब उसे पता चलता है इतने बरसों बाद अब ग्वालियर में भी वैसी ही आइस्क्रीम मिलने लग गई है तो यह संकेत मात्र है कि समय किस तरह बदल गया है। कर्नल के घर चार मिनट में बिना पिघले आइस्क्रीम पहुंचाने वाले पान सिंह की जिंदगी की आइस्क्रीम इस पूरी यात्रा में पिघल गई है लेकिन वह तब भी फिनिश लाइन तक पहुंचना चाहता है। वह जानता है कि इन लोगों से जीतना उसके लिए नामुमकिन है, तो भी वह अपना सफर नहीं छोड़ता। वह अपने पुराने कोच के घर से ड्राइ फ्रूट्स उठाकर अपनी जेबों में भर लेता है और उसे चंबल किनारे इंतजार कर रहे अपने परिवार में बांट देता है। यह वंचितों और पीडि़तों की कविता है। यह उन सब लोगों के पक्ष में फिल्म है, जो न्याय के लिए लड़ते हैं। जिन्हें पता है कि वे जब तक लड़ेंगे नहीं, तब तक सत्ता उन्हें न्याय नहीं देगी।

जिस चचेरे भाई की वजह से वह बागी बना है, जब वही उसके सामने गिड़गिड़ा रहा है और कह रहा है कि पान सिंह तू मेरा भगवान है तो पान सिंह कहता है, क्या करोगे उस जमीन का अब, जो तुमने दबाई थी।

नए फिल्मकारों की जमात में तिगमांशु एक संवदेनशील फिल्मकार हैं। संजय चौहान की बेहतरीन लेखक हैं ही। हम उन्हें आय एम कलाम, साहब, बीवी और गैंगस्टर समेत दूसरी कई महत्त्वपूर्ण फिल्मों से जानते हैं। फिल्म के संवाद और पटकथा इसे बिना चूके देखने के लायक बनाते हैं। इरफान के साथ तिगमांशु की अंडरस्टेंडिंग इस फिल्म को एक ऊंचाई तक ले जाती है।
और हां, इरफान को भी यह फिल्म नायकत्व की उस श्रेणी में ले जाती है, जिसके नाम से भारतीय बॉक्स आफिस पर टिकट बिके। मुमकिन है यह मेरा और मेरे शहर के दर्शकों का जयपुर प्रेम हो लेकिन कैमरा पैन होते हुए पैरों से ऊपर उठकर धीरे धीरे एक ओट से जब इरफान की पहली झलक दिखाता है तो थियेटर में सीटियां बजती है। यह गैर परम्परागत नायक है। इसके अपने दर्शक हैं और पर्दे पर पहली झलक हीरो की आए और दर्शक सीटी बजाए तो समझिए, इस हीरो में बॉक्स ऑफिस वाली बात है। आरती बजाज के संपादन, अभिषेक रे के संगीत और साथी कलाकारों के अभिनय समेत सिनेमा का जरूरी साजो सामान सब है। आप देखेंगे तो आपको अच्छा लगेगा।