गुरुवार, जुलाई 31, 2008

पॉलिटिक्स अनिलिमिटेड

अहमदाबाद के धमाके से ठीक एक दिन पहले बंगलौर में धमाके हुए और उससे दो दिन पहले भारतीय संसद में एक भयानक धमाका हुआ। विपक्षी पार्टी की एक खास नेता सुषमा स्वराज की तरफ से सोचा समझा बयान भी आया कि धमाके संसद में हुए कांड से ध्यान हटाने कोशिश हो सकते हैं। साठ बरस की आजादी के बाद हम राजनीति के ऐसे दलदल में खड़े हैं, जहां आतंकवाद, जातीय संघर्ष, भ्रष्टाचार जैसी तमाम बुराइयां वर्चस्व की लड़ाई के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं लिहाजा इनसे लड़ने के तौर तरीके और प्राथमिकताएं पिछड़ रही हैं। हम भूल चुके हैं कि हमें एक राष्ट्र के रूप में किस तरह काम करना चाहिए। गौर से देखिए तो यह निष्कर्ष आसानी से निकाले जा सकते हैं, हमारे नेताओं की पिछले साठ बरस से चल रही मूल्यहीन नौटंकी ने हमें इस मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है कि हर साइकिल पर लटके टिफिन बॉक्स में बम ही नजर आता है।
बाईस जुलाई को संसद में जो कुछ हुआ, उसमें हम दिल खोलकर बीजेपी की बुराई कर सकते हैं लेकिन क्या यह सच नहीं कि कुल मिलाकर संसद में दिख रहा राजनीति का वह चेहरा हमारी जनता की सोच और नैतिक मूल्यों का एक प्रतिबिंब था। हम सब कुछ जानते हैं कि सांसद खरीदे और बेचे जा सकते हैं। हमें पता है कि सांसद सवाल पूछने के लिए भी पैसे ले लेते हैं, हम जानते हैं हमारे राजनेता जातीय, क्षेत्रीय और हर उस आधार पर राजनीति करते हैं, जो स्पष्ट तौर पर अनैतिक है। वे हर हाल में वर्चस्व के लिए लड़ते हैं और हम अपना कीमती वोट उन्हें देते हैं। हर बार लोग कहते हैं, जनता सुधार चाहती है? अपने गिरेबान में झांकिए, अपने तबादले के लिए, अपने रिश्तेदार की पोस्टिंग के लिए, मुकदमे में फंसे अपने परिचितों के लिए हम सब नेताओं के मार्फत यथासंभव सत्ता का उपभोग करने की कोशिश करते हैं। यदि हमारे पास वो जुगाड नहीं है तो हम पैसे के बल पर अपने काम निकलवाना चाहते हैं। कुछेक आबादी को छोड़ दें तो कुल मिलाकर यह मान लिया गया है कि आपके पास सत्ता है तो आप सुखी हैं, अन्यथा आपके पास सिस्टम से लड़ने का कोई ठोस उपाय नहीं है।

यह निहायत बचकाना लग सकता है कि बम धमाकों, राजनीतिक भ्रष्टाचार और आम आदमी के चरित्र के अंतर्सबंध क्या हैं? लेकिन मुझे अक्सर यह लगता है कि पूरे तंत्र को खोखला करने में हम सामूहिक रूप से काम कर रहे हैं और उसका सर्वाधिक फायदा अलगावादी ताकतें उठाती हैं, अन्यथा सौ करोड़ आबादी में मुट्ठी भर अलगाववादियों की बिसात नहीं कि वे एक दो महीनों और एक दो दिनों के अंतराल के बाद जहां चाहें वहां धमाके कर दें। उससे ठीक पहले उसका वीडियो भी बना लें और फिर धमकी भरा ई मेल भी भेज दें कि अभी और किन शहरों में वे धमाके करने वाले हैं।
सबसे बड़ा मुद्दा खुफिया तंत्र और पुलिस की विफलता की उठाया जाता है। आप पुलिस की हालत देखिए। उनके काम करने के तौर तरीके देखिए। उनके आधुनिकीकरणा की गति देखिए। सब कुछ जर्जर है। इसे जर्जर करने वाला कौन है? हमारा राजनीतिक तंत्र। आप जैड प्लस में चलेंगे। आप गुजरेंगे तो आम जनता चौराहों पर जाम में फंसी खड़ी रहेगी। उसके साथ आपकी सुरक्षा में लगी पुलिस का व्यवहार इस तरह होगा जैसे जनता ही हत्यारी है और उसने आपको मारने की सुपारी ली है। फिर पुलिस तंत्र में पोस्टिंग का मामला मलाईदार और ठंड का है। राजनीतिक मुंहलगे अफसर और पुलिसवाले मलाईदार पद पाएंगे। मलाईदार पद का अर्थ साफ है कि आप उन्हें बेशुमार रिशवत और भ्रष्टाचार से कमाने का खुला अवसर देते हैं। जिन पुलिसवालों पर रिशवत और हरामखोरी की चर्बी बुरी तरह चढ़ चुकी हो, उनसे आप क्या उममीद करेंगे कि वे बम धमाकों या दूसरे समाजकंटकों से अपने नागरिकों की रक्षा करेंगे। यही हाल आपकी खुफियागिरी का है। वे लोग इस बात की रिपोर्ट ज्यादा करते हैं कि इस बार कौनसी पार्टी चुनाव जीतेगी। सरकारी तंत्र उसे पूरी तरह अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए इस्तेमाल करता है।

फिल्मकार गुलजार ने 1975 में फिल्म बनाई थी- आंधी। राजनीतिक रूप से महत़वाकांक्षी पिता अपनी बेटी को सत्ता में देखना चाहता था और इसी वजह से उसके पति से उसके संबंध खराब हुए लेकिन जब चुनाव में लोग उस पर कीचड़ उछालने लगे तो पति नैतिकता की लड़ाई में उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हुआ। वहां सत्ता पाने की राजनीतिक उठापटक तो थी लेकिन नैतिकता के प्रति यह आग्रह उस दौर की राजनीति में लगता था। गुलजार ने ही 1995 में माचिस बनाई। आतंकवादियों को पकड़ने में पुलिस तंत्र के अत्याचार और नए बदमाश पैदा करने में पुलिस की भूमिका साफ दिखती है। 1999 में वही फिल्मकार हु तु तु बनाता है। कहानी का ताना बाना आंधी जैसा ही है लेकिन वहां वर्चस्व की लड़ाई में नैतिकता खत्म हो गई है। हत्या, भ्रष्टाचार और निजी स्वार्थ केंद्र में आ गए हैं। लिहाजा यहां जब नायिका सत्ता का निणायक लड़ाई लड़ रही होती है तो उसका पति उसे छोड़कर गांव चला गया है। उसकी बेटी ही उसकी हत्या में भागीदार बनती है। हालांकि यह गुलजार का फिल्मी इंटरप्रेटेशन कमजोर था लेकिन इस रूपान्तरण के भी दस बरस बाद आज नेताओं की अगली पीढ़ी को देखिए। उनकी संतानें दलालों की तरह काम करने लगी हैं। यह हम देख ही चुके हैं कि अर्थव्यवस्था के उभरते क्षेत्रों में नेताओं की संतानें किस तरह अपने पिताओं और आकाओं की सत्ता का इस्तेमाल करते हुए एक भ्रष्ट तंत्र की जड़ें सींच रहे हैं। पेट्रोल पंप, रियल एस्टेट, शॉपिंग मॉल्स, एजेंसियां, सरकारी ठेके मुनाफे के बड़े कारोबारों में मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और उनकी संतानों या रिश्तेदारों की भागीदारी मिलेगी।

सत्ता का दुरुपयोग कर आप एक पूरे तंत्र को खोखला करने में जुटे हैं। संस्थानों की विश्वसनीयता खत्म कर रहे हैं। आप विश्वसनीय नहीं है, आपकी पुलिस विश्वसनीय नहीं है, आपका खुफिया तंत्र भरोसे के काबिल नहीं है, आपकी राजनीतिक प्रतिबद्धताएं स्वहित पोषक हैं। इन सबसे बचने की कोशिश करती हुई जनता हरेक चुनाव में संसद या विधानसभाओं में आपराधिक छवि वाले नेताओं की तादाद बढ़ा देती है। अपने मानवीय होने का सबूत देती है कि देखो, बम धमाके में लोग मरे हैं और रक्तदान करने वालों की तादाद इतनी बढ़ गई है। यह छदम राष्ट्रप्रेम बहुत दिन नहीं चलेगा। मुसीबतें देखकर आंख मूंदने से वे खत्म नहीं होती। इस देश के दर्द को महसूस कजिए। राजनेतओं को जवाबदेह बनाइए।