शनिवार, मार्च 06, 2010

अतिथि तुम कब जाओगे:

यहां अतिथि भगवान माना गया है लेकिन इस फिल्म का शीर्षक ही यह दुआ कर रहा है कि अतिथि घर छोड़कर जाए। मुंबई में फिल्म राइटर पुनीत के घर उनके दूर के रिश्तेदार लंबोदर चाचा आए हैं। पुनीत और उसकी कामकाजी पत्नी मुनमुन ने शुरुआती दिनों में आदर भाव दिखाया लेकिन धीरे धीरे इस अतिथि की वजह से उनकी निजी जिंदगी में भूचाल आ गया। माता पिता के कामकाजी और शहरी जीवन शैली से अकेलेपन से जूझ रहा उनका छह साल का बच्चा लंबोदर चाचा से घुलमिल गया है। लंबोदर चाचा के पास मुंबई में आस पास के गांव के परिचित लोगों की सूची हैं जिन्हें उन्होंने याद किया है। कुल मिलाकर लंबोदर चाचा गांव के हैं और पुनीत और उसकी पत्नी पर शहरीकरण का पूरा रंग है। उन्हें अतिथि बोझ ही लगता है। सबके पास अपनी थोड़ी सी स्पेस है और दिल बुरी तरह संकरा। दोनों पति पत्नी हर मुमकिन कोशिश करते हैं कि वे लंबोदर चाचा को वहां से निकालें लेकिन लंबोदर चाचा है कि धीरे धीरे मोहल्ले में लोगों और बच्चों के भी प्रिय बन गए हैं। वे जाने का नाम ही नहीं ले रहे। आखिरकार एक मामूली घटनाक्रम के बाद वे स्वयं ही उनका घर छोड़कर जाने की बात करते हैं। फिल्म की पटकथा में लोकजीवन की छोटी छोटी कथाओं को पिरोया गया है। लंबोदर चाचा द्वारा बार बार गैस निकालने की ध्वनि एक स्तर पर आकर थोड़ी ऊब पैदा करती है लेकिन कुल मिलाकर फिल्म एक स्वस्थ पारिवारिक मनोरंजन करती है। खासकर महानगर में रहने वाले लोग लंबोदर चाचा जैसे अतिथि का कभी ना कभी सामना तो करते ही हैं। फिल्म बिना कुछ कहे गांव और शहर के लोगों की मन:स्थिति के बुनियादी फर्क को भी रेखांकित करती है कि घर बड़े बनाकर और दौलत कमाने वाला मध्यवर्गीय आदमी में शहर में आकर कैैसे अपनी प्राथमिकताएं बदल देता है। फिल्म में लंबोदर चाचा बने परेश रावल अदभुत लगे हैं। अजय देवगन ओर कोंकणा ठीक हैं। चौकीदार बने संजय मिश्रा का काम भी काबिले तारीफ है। गीत इरशाद कामिल के हैं और बीड़ी जलाइले की धुन पर माता की आरती ठीक लगती है। संगीत प्रीतम और अमित मिश्रा का है। कबीर और रहीम के दोहों को अच्छे से इस्तेमाल किया गया है। निर्देशक अश्विनी धर ने एक मनोरंजक फिल्म रची है। फिल्म खत्म होते होते अतिथि देवो भव ही स्थापित होता है।

2 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

कल ही देखी ठीक ठाक ही है

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा…

मुझे तो यह फिल्म ठीक् लगी. इधर जैसी बेसिर पैर की फिल्में आ रही हैं, उनकी तुलना में यह काफी बेहतर है. अभिनय सभी का अच्छा है. बस, इतना ज़रूर है कि अगर इसका अंत आदर्शवादी न होता तो बेहतर रहता.