गुरुवार, दिसंबर 31, 2009

साल का विदाई गीत

यह शहर है और मैं मुसाफिर
मेरी पीठ पर लदे बैग में,
एक लड़की की मुस्कुराहट,
थोड़ी सी भूख,
थोड़ा सा लालच,
कुछ खंडित से ख्वाब,
थोड़ी सी शराब
लिए घूम रहा हूं।
एक ही शहर में
अठारह बरस जवानी के चले गए,
लड़कियां मिली पर एक भी ऐसी नहीं
कि दिल से कहूं, हां, यही है।
फाके के दिनों से निकलकर
ढाबों पर दाल फ्राई खाते हुए
पंचतारा होटलों में
चिकन, मटन, फिश चरता रहा
भूख मिटी नहीं
जेब के चंद सिक्के,
बदल गए नोटों की गड्डियों में,
अब भी उतना ही लालची हूं,
टटोलकर देखता हूं
पीठ पर लदे बैग में
सब कुछ उतना ही सुरक्षित बचा है
लेकिन जो टूटा फूटा सा ख्वाब रखा था
वो गायब है कई साल से,
एक साल और बीत गया
यकीन से कह सकता हूं
शहर में, जिसे अठारह साल से अपना समझता हूं,
ख्वाब ही बहुत जल्द खो जाते हैं
वासना, भूख, लालच, नशा सब कुछ सुरक्षित बचा हैं,
मैं इन सबका बोझ ढो रहा हूं।

रविवार, दिसंबर 27, 2009

गुजरते साल के अंतिम दिनों में

लेखक गुरूचरण दास की नई किताब "द डिफिकल्टी ऑव बीइंग गुड" पर चर्चा थी। धर्म का सूक्ष्म चेहरा क्या है? पांडव तो अच्छे थे, लेकिन उन्हें जुए में धोखे से हराया गया। राजपाट गया। जंगल में रहना पड़ा। द्रोपदी अपनी शंका युघिष्ठिर से पूछती है, "दुर्योधन तो दुष्ट है फिर भी सारे सुखों का उपभोग कर रहा है। आप भले हैं और जंगल में यातनाएं सहते हुए भटक रहे हैं। जाइए और उनसे युद्ध करके अपना साम्राज्य हासिल कीजिए।" युघिष्ठिर धर्मराज हैं। बोले, "मैंने वचन दिया है। इसे मैं नहीं तोड़ सकता। यह धर्म कहता है।" इस तमाम मक्कारी के बावजूद दुनिया की भीड़ में हम "कोई नहीं" हैं और "कोई" होने के लिए संघर्ष करते हैं। चाहते हैं, लोग हमें जाने। हम मनमोहन सिंह हों, राहुल हों, प्रियंका हो, आमिर हों, शाहरूख हों, सचिन हों। "रंगीला" फिल्म का वो गाना याद आता है, "बड़े-बड़े चेहरों में अपने भी चेहरे की पहचान तो हो।" हम सब भला-बुरा करते हुए अपनी अलग "आइडेंटिटी" के लिए जूझ रहे हैं, लेकिन गौतम बुद्ध और गांधी को भी याद करें, जिन्होंने "साधन" और "साध्य" दोनों की समान शुचिता को अहमियत दी। लोग उन्हें जानते भी हैं। क्या ये सब बातें किसी को भला बनाने में मदद करती हैं जबकि वहां से भौतिक सुख गायब है? ओह, कैसी दुविधा है? सब कुछ त्यागना भी चाहता हूं, सब कुछ हासिल करना भी।

मेरी गाड़ी लाल बत्ती पर रूकी। कुछ बच्चे लाचार-सा चेहरा लिए भीख मांगने आते हैं। कुछ के हाथ में कपड़ा होता है। कार का शीशा साफ करते हैं। आजकल ऎसा भी होता है कि दो लड़के छोटी ढोलक बजाते हैं और एक लड़की लोहे की रिंग से अलग-अलग मुद्राएं बनाते हुए निकल जाती है।विस्मयकारी लचीलापन। अगले पल मेरा मन वितृष्णा से भर जाता है। अंगुलियां कार के डैश बोर्ड में कुछ सिक्के टटोल रही होती हैं, जो मेरे बच्चों के चॉकलेट, बिस्किट खरीदे जाने के बाद बचे रहते हैं। वे सिक्के यूं ही लापरवाही से कार में पड़े होते हैं, इस यकीन के साथ कि इन सिक्कों से अब स्वतंत्र रूप से कुछ नहीं खरीदा जा सकता। वे ही सिक्के उन मैले कुचले, निरीह और अनाथ दिखने वाले बच्चों का पेट भरते हैं। कभी-कभी वे अखबार बेचते हैं इस आग्रह के साथ कि आप खरीद लेंगे, तो उसे खाना मिल जाएगा। महाशक्ति भारत के इस चेहरे से मैं अंदर तक हिल जाता हूं। मुझे अफसोस है कि मेरी कार में पड़े चंद सिक्के उन लाखों फुटपाथी बच्चों की भूख नहीं मिटा सकते। क्या आपको भी यह अफसोस है? हां, तो दिल से बुरा कहिए सरकारी नीति-नियंताओं को, इन बच्चों का दिखावटी भला सोचने वाले गैर जिम्मेदार समाजसेवी संस्थाओं को, जो बच्चों का पेट भरने के नाम पर करोड़ों डकार गए हैं...और अपने आपको भी कि आज भी उनका पेट खाली है। हम सब उसी "सिस्टम" में शामिल हैं और उसका पोषण कर रहे हैं।

जेबकतरे भी मुस्कराते
swine फ्लू से आंशिक बचाव के लिए बेटी के स्कूल वालों ने साधारण मास्क पहनकर आने को कहा था। पहली बार मैं मेडिकल स्टोर पर गया, तो उसने चार रूपए एक मास्क के लिए। दूसरी बार गया तो पांच रूपए। तीसरी बार एक दूसरे मेडिकल स्टोर पर गया, तो उसने दस रूपए मांगे। वही मास्क था। मैंने विरोध किया तो उसने देने से मना कर दिया। मुझे लेना ही पड़ा। दो महीने में चौथी बार खरीदने पहुंचा, तो भी दस रूपए लिए। मैंने कहा, "भाई, ये तो पांच वाला ही है?" उसने मुस्कराते हुए कहा, "सर, स्वाइन फ्लू की वजह से कीमतें बढ़ गई हैं।" मैंने मुस्कुराता हुआ जेबकतरा पहली बार देखा है।

published in daily news jaipur on 27 december 2009

शुक्रवार, दिसंबर 25, 2009

film review: 3 idiots


यह एक अद्भुत अनुभव है। 'मुन्नाभाई एमबीबीएसÓ और 'लगे रहो मुन्नाभाईÓ की कामयाबी से विचलित हुए बिना 'थ्री इडियट्सÓ जैसी और भी खूबसूरत और सार्थक फिल्म बनाकर राजकुमार हिरानी ने संकेत दिया है कि दिल और दिमाग के समन्वय वाले सिनेमा का यह दौर थमेगा नहीं। डेविड धवन को पछाडऩे वाले प्रियदर्शन अपनी छिछोरी कॉमेडी 'दे दना दनÓ की कामयाबी की खुमारी से निकलकर आतंकित होंगे कि सामने राजकुमार हिरानी खड़े हैं। हिरानी हंसाते हैं, रुलाते हैं और चुपके से आपकी वो नस दबा देते हैं, जहां अचानक आपको अहसास होता है कि आप गाल को सहला रहे हैं। हिरानी ने वो चांटा सिस्टम के गाल पर मारा। दर्द हमें हो रहा है क्योंकि हम सब उसी सिस्टम का हिस्सा हैं। सबसे ज्यादा युवाओं वाले इस देश में युवा अपने पिता की इच्छाओं को पूरा करने के लिए अपनी आत्मा का गला घोंटते हैं। यह कहानी दिल्ली, पुणे या बंगलौर, मुंबई से होते हुए जयपुर को भी उतनी ही शिद्दत से छूती है, जहां आए दिन हम लोग अखबार में इंजीनियरिंग छात्रों की आत्महत्या की खबरें पढ़ते हैं।
कहानी मीडिया में इतनी प्रचारित हो ही चुकी है लेकिन फिर भी संदर्भ के लिए जरूरी है। यह इंजीनियरिंग पढ़ रहे तीन ऐसे दोस्तों की कहानी है जो चाहते हैं कि जिंदगी में जो करना है अपने मन का करना है, लेकिन भारतीय युवा के लिए यह ख्वाब ही खतनाक है, जहां उस पर परिवार, सोशल स्टेटस और जिम्मेदारियों जैसी गैर जरूरी चीजों का इतना बोझ लदा होता है कि वह गधा बन जाता है। रट्टू तोता बन जाता है। रैंचो, रस्तोगी और फरहान ऐसा नहीं करते हैं। उनके सामने अपनी मुश्किलें हैं, अपने द्वन्द्व हैं लेकिन वे आपको बोझिल नहीं करते। मैसेज नहीं देते अपनी बहती हुई मस्ती में कह जाते हैं कि अब भी वक्त है। जैसा कि निदा फाजली कहते हैं, 'धूप में निकलो, बारिश में नहाकर देखो, जिंदगी क्या है किताबें हटाकर देखो।Ó
फिल्म सहज भाव से यह बात कह जाती है कि हमारी शिक्षा प्रणाली की चूहा दौड़ कितनी नाटकीय और आधारहीन है। पूरी ग्रेडिंग प्रणाली किस तरह मनुष्य को मनुष्य होने के हक से ही वंचित कर देती है। लेकिन यह सब बताने के लिए हिरानी किसी संत की तरह प्रवचन नहीं देते। बात कहने की उनकी शब्दावली है। यहां मिलीमीटर, वायरस जैसे नाम उनके पात्रों के हैं। उनका हर पात्र आपको याद रहता है। वे सार्वजनिक मूत्र विसर्जन करते हैं, खुले में नहाते हैं और इतनी शरारत करते हैं कि 'चमत्कारीÓ आदमी को 'बलात्कारीÓ और 'धनÓ देने वाले को 'स्तनÓ देने वाला बना देते हैं।निस्संदेह विधु विनोद चौपड़ा के लिए गर्व की बात है कि उनके साथ राजकुमार हिरानी हैं। फिल्म के हर दृश्य पर कितने बेहतर ढंग से सोचा जा सकता है, यह हिरानी दिखाते हैं। लोगों को हंसाने के लिए छिछोरे चुटकुलों की जरूरत नहीं होती, रुलाने के लिए पर्दे पर लाशें गिराने की जरूरत नहीं होती यह भी हिरानी बताते हैं।
आमिर, माधवन और शरमन जोशी ने उम्दा ढंग से काम किया है। आमिर अपनी उम्र से छोटे दिखे ही हैं। करीना ठीक है। वीरु सहस्रबुद्धे की भूमिका में एक बार फिर बोमन इरानी ने कमाल किया है। मुन्नाभाई के डा. अस्थाना के मुताबिक लेकिन इस वायरस की बात ही कुछ और है। यह कहानी मुन्नाभाई के मेडिकल रूप से अलग इंजीनियरिंग रूप की है लेकिन बात बहुत गहरी कहती है। स्वानंद किरकिरे के गीत पहले से ही चर्चित हैं और शांतनु मोइत्रा का संगीत भी सहज और जादुई, जो किसी की नकल सा प्रतीत नहीं होता। लिहाजा, आपकी कसम साल में एक ही फिल्म देखने की है तो दिसंबर बीत रहा है, 'थ्री इडियटÓ जरूर देखिए और कहिए ऑल इज वेल।

शनिवार, दिसंबर 19, 2009

अवतार : "इको फे्रंडली" विज्ञान फंतासी


बारह सौ करोड़ रूपए की लागत और पंद्रह साल की मेहनत के बावजूद जेम्स कैमरून की फिल्म "अवतार" आपको चमत्कृत ना करे, यह कैसे मुमकिन है। भावना और तकनीक की सिनेमाई यारी-दुश्मनी के बावजूद "अवतार" एक खूबसूरत फिल्म है। यह हमारे समय से आगे की फिल्म है। हम खुशकिस्मत हैं कि अपने समय में यह फिल्म देख रहे हैं। एक सौ बारह साल के सिनेमा के इतिहास में यह गर्व करने का भी मौका है कि चामत्कारिक कथा कहने की कला हमारे पास हजारों सालों से हैं, लेकिन उसी को आंखों से पर्दे पर देखने का सुकून भी अब हम ले सकते हैं।कथानक के लिहाज से अवतार बहुत चामत्कारिक फिल्म नहीं है। यह धरती के मनुष्यों के लालच की पोल खोलती है और सही मायनों में एक इको फ्रेंडली साइंस फैंटेसी है। यह मनुष्य और एक दूसरी दुनिया के नेवीज की रिश्ेतों की कहानी है। वैज्ञानिक ग्रेस आगस्टीन ने इन लोगों की जमीन पैंडोरा को खोज की है और मनुष्यों का एक पूरा दल इनकी जमीन के भीतर छुपे खनिज पर नजर गड़ाए है। जैक सुली को अवतार के जरिए इनकी दुनिया में भेजा जाता है। वह उनकी आदतों, रहन सहन को समझता है। उनकी "इको फें्रडली" जीवन शैली और मां ऎवा में उनकी आस्था से अभिभूत हो जाता है। उसे उसी दुनिया की लड़की नेतिरि से प्यार हो जाता है। इधर, आदमियों ने अपने गोला बारूद के साथ उन पर हमला कर दिया है। जैक सुली चूंकि मनुष्यों के लालच से वाकिफ है और नेवीज के प्रकृति प्रेम और सादगी से भी। वह मध्यस्थ बनने की कोशिश करता है लेकिन अब ना तो मनुष्य उसकी बात मानने को तैयार हैं और ना ही अपनी असलियत बताने के बाद नेवीज उस पर भरोसा करना चाहते हैं। बेहतरीन दृश्यों और भावनाओं के साथ वह अंतत: वह नेवीज का भरोसा जीतता है और मनुष्यों के खिलाफ युद्ध करने में वह नेवीज की मदद करता है। एक रोमांचक और रोंगटे खड़े कर देने वाली जंग में मनुष्य का लालच पराजित होता है। जैक सुली का अवतार एक "नेवी" के रूप में हो जाता है।तकनीक तो बेमिसाल है ही। हवा में लटकती विशाल चट्टानें। विमानों से भी तेज उड़ते शिकारी पक्षी। लंबी थूथन वाले नेवीज के वफादार घोड़े। उनकी नई भाषा और व्याकरण। मनुष्यों के अत्याधुनिक युद्धक विमान। सब कुछ एक जादुई दुनिया है। कैमरून के कथा कहने के जादुई अंदाज में ही दर्शक होने के नाते हम नेवीज की दुनिया में इतने घुल मिल जाते हैं कि आखिरी लड़ाई में हम मनुष्यों की हार पर जश्न मना रहे हैं।यह "टर्मिनेटर" के उस विस्मयकारी अहसास से बिल्कुल अलग है जब मशीनों से मनुष्य हार रहा है। यहां वह प्रकृति से हार रहा है और इस हार पर दर्शक अभिभूत होता है। धरती के खत्म होने की आशंका में कोपेनहेगन की माथापच्ची से कहीं ज्यादा आतंकित कर देने वाले अहसास से हम रूबरू होते हैं। नेवीज अपनी दुनिया पर हो रहे हमले को आसमानी मुसीबत कहते हैं। उन्होंने अपनी जमीन को बहुत खूबसूरत बनाया है। पहाड़, झरने, जानवर, देवी ऎवा के विशालकार पेड़। आत्माओं से संवाद करने का जादुई अहसास। सब कुछ हिंदुस्तानी लगता है। नाम तो है ही। इतना धन खर्च करने और सिनेमा के प्रति अटूट धैर्य के लिए जेम्स कैमरून को सलाम किया जाना चाहिए।

सोमवार, दिसंबर 14, 2009

वल्र्ड क्लास के सपने

किसी शहर को "वल्र्ड क्लास" बनाने के लिए मुझे नहीं लगता कि जेडीए, नगर निगम या सरकार जैसी गैर-जिम्मेदार संस्थाओं की कोई बड़ी भूमिका होती होगी। मुझे "वल्र्ड क्लास" शब्द से आपत्ति है। यह "थर्ड क्लास" जैसा ध्वनित होता है। केंद्र, राज्य और अब शहर की महापौर को भी शामिल करें, तो सारी कवायद एक राजनीतिक भाषण की परिणति है। तो "वल्र्ड क्लास" का मतलब मैं यहां एक "आदर्श, आधुनिक, वैज्ञानिक और मानवीय सोच वाले शहर" से जोड़कर देखता हूं, उसमें सड़कें और पुल तो बहुत मामूली चीजें हैं। सुख-सुविधाओं का संबंध भी आपके पास उपलब्ध धन से है। मॉल का क्या फायदा, अगर आपकी जेब में खरीदारी का पैसा ही ना हो। तो किसी भी शहर को वल्र्ड क्लास बनाते हैं वहां की संस्कृति, विरासत, शहर में रहने वाले लोग, खाने-पीने की स्वस्थ आदतें, प्रदूषण रहित वातावरण, शिक्षा का स्तर, विज्ञान, संगीत और दूसरी कलाओं के लोगों की शहर में दिलचस्पी। नौकरशाहों को कमीशन खिलाने वाली ढांचागत विकास की ज्यादा से ज्यादा योजनाओं की घोषणा करके ये मान लिया गया है, इनके पूरा होते ही शहर "वल्र्ड क्लास" हो जाएगा।शहर की यूनिवर्सिटी में अध्यापकों की बेहद कमी, अस्पतालों में डॉक्टर नहीं, सरकारी स्कूलों में शून्य पढाई। निजी जेबकतरे स्कूलों पर सरकारी वरदहस्त और पढ़ाई का स्तर गिरा हुआ। कॉलोनियां अस्त-व्यस्त और ट्रेफिक दिनोंदिन होता बेकाबू। प्रदूषण बढ़ गया है। लोग सड़क पर पान मसाला पीक थूकते हुए चलते हैं। बदतमीजी से हॉर्न बजाते हैं। मासूम स्कूली बच्चे सड़कें पार करने से डरते हैं। यूरोप में ऎसे समय टे्रफिक रूक जाता है। कभी अजमेर रोड, तो कभी कानोता और कभी जगतपुरा। सरकारें नया जयपुर बसाने की ऎलान करती हैं और भू-माफिया सक्रिय हो जाते हैं। 84-85 में मैं गांव के सरकारी स्कूल में चौथी कक्षा में था। अखबार में पढ़े एक लेख में था कि जयपुर में नई रिंग रोड बनेगी और उसके बाद शहर का नक्शा बदल जाएगा। लेख में वह नक्शा छापा भी गया था। मैंने रिंग रोड शब्द पहली बार सुना था। उसके बाद अठारह साल से इस शहर में रहते कितनी ही बार अखबारों में रिंग रोड के बारे में पढा। लेकिन वो नक्शों में ही चल रही है। कभी दो किलोमीटर पीछे, और कभी चार किलोमीटर आगे। इसे कछुआ चाल कहना भी बुरा है, क्योंकि कछुआ हमारी सरकारों, नीति नियंताओं से कहीं अघिक जिम्मेदार प्राणी है। तो शहर "वल्र्ड क्लास" कैसे बनेगा? जब निगम के ट्रक या तो कचरा गलियों से उठाते नहीं हैं। उठाया तो उसे सड़कों पर फैलता जाता है। आवारा कुत्ते, मवेशी तो बोनस हैं। पांच साल पहले जयपुर आए एक विदेशी फिल्मकार की याद है जिसने यादराम नाम के ट्रेफिक सिपाही से जौहरी बाजार में पूछा कि क्या मैं अपनी कार "नो पार्किग" में खड़ी कर सकता हूं? उसने मना कर दिया था। "पार्किग" की तरफ इशारा करके समझाया कि वह उधर है। विदेशी ने देखा कि जहां "कार पार्किग" लिखा है वहां एक मोटा-तगड़ा सांड बैठा था। उसने सिपाही से सांड को हटाने का आग्रह किया। टूटी फूटी अंग्रेजी में जवाब आया, "दिस इज नोट माई डूटी, दिस वर्क बिलोंग्स टू नगर निगम।" विदेशी को बाद में जयपुर घूमते हुए हर जगह जानवर नजर आए। उसने यादराम को धन्यवाद कहते हुए एक डॉक्यूमेंट्री बनाई, जिसका नाम है, "द एनिमल सिटी।" घटना के पांच साल बाद भी शहर में कुछ नहीं बदला है। यहां सब जानवरों के लिए जगह दिखती है लेकिन आदमी के पैदल चलने के रास्ते पर अतिक्रमण है। इस फिल्म की सीडी फिल्मकार के इस आग्रह के साथ जयपुर आई कि इसे यादराम को जरूर दिखाइएगा, लेकिन यादराम तब तक जीवित नहीं था। एमआई रोड पर ड्यूटी करते समय एक पेड़ के टूटकर गिरने से उसकी मौत हो गई थी।

शुक्रवार, दिसंबर 11, 2009

रॉकेट सिंह : ईंधन कम, आवाज ज्यादा


'अब तक छप्पनÓ और 'चक दे इंडियाÓ की कामयाबी के बाद शिमित अमीन से उम्मीदें बढ़ती है। जब फिल्म यशराज बैनर की हो और लेखक जयदीप साहनी तथा लीड में रणबीर कपूर हों तो ये उम्मीद और ज्यादा बढ जाती हैं। पोस्टर और प्रचार देखकर यूं लगता है कि रॉकेट सिंह एक हास्य फिल्म है लेकिन ऐसा नहीं है। निर्देशक शिमित अमीन और लेखक जयदीप साहनी ने जो जादू हॉकी के मैदान में एक कोच को लाकर अपनी पिछली फिल्म में किया ऐसा ही वे बिजनेस के मैदान में करने के इरादे से एक सेल्समैन को बिजनेसमैन बनाने की कहानी का ताना बना बुनते हैं लेकिन सीधी सपाट कहानी में बीच बीच में इसके वृत्त चित्र जैसा आभास होने लगता है।कहानी हरप्रीत सिंह बेदी यानी रणबीर कपूर की है। पढाई में कमजोर है लेकिन उसका कहना है कि दिमाग उसका कमजोर नहीं है। कैट का इम्तहान देने के बजाय वह तय करता है कि वह सेल्समैन बनेगा। उसके दिमाग में ईमानदारी का कीड़ा है। वह 'कारपोरेट जंगल में एक महात्माÓ है। उसके बॉस पुरी के मुताबिक उसमें वो काबिलियत है कि वह ऊपर भी जा सकता है और एकदम नीचे भी। लगातार नाकामी से उसके ऑफिस में ही उसका मजाक उड़ाया जाता है। उस पर कागज के रॉकेट फेंके जा रहे हैं। उसका बॉस सार्वजनिक रूप से उसकी तौहीन करता है। हरप्रीत को एहसास होता है कि उसे कुछ नया करना चाहिए। उसने उसी ऑफिस में रहते हुए यह एहसास होता है कि ग्राहकों के रिश्ते में ईमानदारी और उनका भरोसा जीतना महत्त्वपूर्ण है। उसने अपनी ही कंपनी रॉकेट सेल्स कारपोरेशन अपने ही ऑफिस से चलानी शुरू कर दी। एक से दो, दो से तीन, तीन से चार, चार से पांच और पार्टनर्स यह संख्या क्लाइमेक्स तक आठ हो जाती है। इस कंपनी के बनने, फिर बिगडऩे और फिर बनने की कहानी में ही बिजनेस करने के उसूलों पर एक लंबी चौड़ी पढ़ाई दर्शकों की हो जाती है। सेल्समैन की पीड़ा फिल्म में है लेकिन वह मेहमान की तरह है। मूल सूत्र है कि हर आदमी महत्त्वपूर्ण है, बशर्ते उसे सपनों और समर्पण पर यकीन हो।तकनीकी तौर पर फिल्म समृद्ध है। सेल्स बाजार की धोखाधड़ी पर तंज भी है। लेकिन बीच बीच में कहानी की रफ्तार धीमी हो जाती है। इंटरवल तक तो यह और भी धीमी है। सलीम-सुलेमान का संगीत ठीक ठाक है। वेक अप सिड और अजब प्रेम की गजब कहानी की कामयाबी के बाद रणबीर की स्टार वैल्यू का लाभ फिल्म को मिले तो अच्छा है। क्योंकि अब उनमें अभिनय का आत्मविश्वास दिखता है। बाकी यह एक औसत मनोरंजक फिल्म है। इससे अब तक छप्पन जैसी संवेदना और चक दे इंडिया जैसा जुनून तो दिखता ही नहीं है।

गुरुवार, नवंबर 26, 2009

चाह नहीं कि नेताओं के माइक पर गाया जाऊं

यह तय बात है कि जिंदगी में कभी फिल्म बनाई तो मैं उसमें देशभक्ति का कोई गाना नहीं रखूंगा। इसलिए नहीं कि इस देश का सम्मान नहीं करता, बल्कि इसलिए कि जब भी चुनाव होंंगे, हमारे नेता उन गानों का दुरुपयोग करेंगे। वे हर चुनाव में ऐसा करते हैं और हमारे मरहूम भले गीतकार प्रदीप, साहिर, मजरूह, कैफी की आत्माएं दुखती होंगी।जिन लोगों की बुनियाद ही जोड़-तोड़, बेईमानी पर टिकी हो वे लोग जनता की सेवा का दावा कैसे कर सकते हैं। हर चुनाव की तरह नगर निकायों के चुनाव में भी इन्हीं गानों का दौर लौट आया है।हमारी कला और सिनेमा के बिंबों का यह दुरुपयोग क्यों नहीं रोका जाना चाहिए? अमरीका की जूतों की कोई कंपनी गणेश का प्रतीक इस्तेमाल करती है तो हम इतना हंगामा खड़ा कर सकते हैं। वंदेमातरम कहा जाए या नहीं, यह बहुत बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा बन सकता है तो क्या हमारी सांगीतिक धरोहरों के दुरुपयोगों पर भी कोई रोक होनी चाहिए। माना कि यह संगीत लोकप्रिय संगीत की श्रेणी में है, लेकिन याद रखें कि जब कांग्रेस ने 'जय होÓ गाने के अधिकार खरीदे थे तो गुलजार साहब ने अपनी आपत्ति दर्ज कराई थी। हम सब इस बात से आहत होते हैं कि 'मेरा रंग दे बसंती चोलाÓ जैसा गाना बजना शुरू होने के साथ हमें भगतसिंह का बिंब दिखता है लेकिन दुर्भाग्य से अगले ही क्षण माइक यह बोलता है कि अमुक नाम के अमुक जाति वाले आदमी को आप वोट दें, क्योंकि यह गाना अब अगली बार पांच साल बाद सुनेंगे। भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि में बनी 'हकीकतÓ फिल्म का गाना 'अब तुम्हारे हवाले वतन साथियोÓ को जब भी मैं अपने म्यूजिक सिस्टम में सुनता हूं, तो मेरी आंखें नम होती हैं, लेकिन यही गाना जब चुनावी मौसम में एक रिक्शे पर बजता है तो मेरी आंखें सवाल पूछती है, ये धूर्त लोग कौन हैं जो एक बार फिर इस बात के लिए झूठ बाले रहे हैं कि वे जान-ओ-तन फिदा कर रहे हैं। ये तो वो लोग हैं जो नामांकन के दिन छह घंटे तक आम लोगों को जाम में फंसा सकते हैं क्योंकि उन्हें शक्ति प्रदर्शन करना है। ये वो लोग हैं जो पैसा खर्च कर पार्टी की टिकट खरीद लाते हैं। इन्हें इस वतन, इस शहर की मिट्टी से क्या लेना देना?देशभक्ति के गीतों के एलबमों की हालत तो यह हो गई है, जैसे ये इन नेताओं के लिए ही खैरात की तरह बनाए गए हैं। ये हमारे महान गीतकारों की विरासत हैं। संगीतकारों की साधना का फल है। उन्होंने इस देश को अपनी साधना से याद किया है।दुर्भाग्य से हमारे यहां कॉपीराइट एक्ट में इतने लोचे हैं कि इन लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई भी नहीं होती।हम सबने बचपन में राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी की एक कविता 'पुष्प की अभिलाषाÓ पढ़ी है, जिसमें फूल यह कहता है कि उसकी इच्छा सुरबाला के गहनों में गूंथे जाने या देवताओं की मूर्तियों पर चढ़ाए जाने की नहीं। उसे तो देश की सेवा में जाने वाले लोगों के रास्ते में फेंक दिया जाए ताकि वह उनके पैरों तले कुचले जाने का सौभाग्य मिले। हमारे इन गानों की खुद जुबान होती तो ये यही कहते, 'चाह नहीं कि नेताओं के माइक पर गाया जाऊं।Ó

मंगलवार, नवंबर 24, 2009

कुर्बान- ऊंची दुकान,सादा पकवान

करण जौहर खेमे के निर्देशक रेन्सिल डिसिल्वा की पहली बहुप्रचारित फिल्म "कुर्बान" की टैगलाइन है कि कुछ प्रेम कहानियां खून से लिखी जाती हैं लेकिन इस फिल्म एक बड़ा हिस्सा "फना" और पिछले साल आई "न्यूयॉर्क" से हूबहू मिलता है। हां, इसमें नया सिर्फ इतना है कि करीना कपूर ने सैफ अली के साथ टॉपलेस अंतरंग दृश्य दिए हैं और फिल्म के प्रचार में इसे भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा है। यह कहानी अवंतिका और अहसान की है जो शादी करके अमरीका में काम कर रहे हैं। यह भूमिका करीना और सैफ कर रहे हैं। अचानक अवंतिका को पता लगता है की उसे इस्तेमाल किया जा रहा है। जो रोल "न्यूयॉर्क" में नील नितिन का है, वह यहां रियाज की भूमिका में विवेक ऑबेरॉय का है, जो एक चैनल में रिपोर्टर है। लेकिन सैफ को अधिक दिखाने की गरज में आधी से ज्यादा फिल्म आतंककारियों का न्यूज लेटर सी लगती है,। बच्चा बच्चा जानता है और यहां दुबारा बताया गया है कि किस तरह से गोरों ने तेल के नाम आतंकवाद पैदा कर दिया है। इस तथ्य में कोई बुराई नहीं है लेकिन दूसरा पहलू फिल्म में बहुत ही दबा हुआ चल रहा है। इस विषय पर पहले से ही इससे इतनी बेहतर फिल्में बन चुकी हैं, चाहे वह "खुदा के लिए" हो या "न्यूयॉर्क।" इस क्रम में कुर्बान तीसरे नंबर पर है।कहानी को जिस तरह आगे बढाया गया है वह सहज नहीं है। जब रियाज को यह पता चलता है कि उसकी प्रेमिका रेहाना के कत्ल में आतंकवादियों का हाथ है तो वह बजाय पुलिस को बताने के बजाय खुद ही उनकी गैंग में शामिल होेने का ढोंग करता है। यह अटपटा लगता है। एक जगह उसे अवंतिका मिलती है ओर आग्रह करती है कि वह उसे इन लोगों के दलदल से निकाले तो बजाय उसे बचाने के वह वापस घर भेज देता है। आखिरकार बम भी फट जाते हैं। लोग भी मरते हैं। आधी फिल्म बीत जाने के बाद यदि करीना का टॉपलेस दृश्य नहीं आ जाता, तब तक एक अजीब सा सन्नाटा दर्शकों में महसूस किया जा सकता है, जैसे वे "आतंकवादी कैसे बनते हैं" विषय पर बुलाई गई एक सेमिनार में बिठा दिए गए हों। लिहाजा आप सोचते हैं कि एक प्रेमकहानी देखने जा रहे हैं तो निराश होंगे। हां, एक पिटे पिटाए से कथानक पर आतंकवाद के मुद्दे पर आपको एक औसत सी फिल्म देखनी है, तो बुरी नहीं है। गाने ठीक हैं और फिल्माए ढंग से गए हैं। फिल्म की कहानी के अलावा फिल्मांकन में कोई कमी नहीं है। बहुत अच्छे से फिल्माया गया है और इसे एक हॉलीवुड थ्रिलर की तरह आप देख सकते हैं। बेशक खूबसूरत अमेरिकन लोकेशन्स और करीना-सैफ की पर्दे से बाहर की इश्किया समीकरणों से फिल्म को प्रांरभिक लाभ मिलेगा लेकिन यह आतंकवाद पर एक सतही सी सोच रखने वाली फिल्म है। आतंकवाद पर एक अधूरी कहानी और प्रेम कहानी तो वैसे भी अधूरी है, क्योंकि प्रेम वो नहीं जिसमें आप अपनी पीठ को नंगा दिखाएं। सैफ-करीना ठीक लगे हैं। ओमपुरी उम्दा हैं। किरण खेर सामान्य हैं।

सोमवार, नवंबर 23, 2009

ठिठुरती यादों की गुनगुनी परछाईंयां

अपनी ही सांसों से फंूक मारक हथेलियों को गर्म करने की कोशिश। नाक में जलती हुई लकडिय़ों का धुंआ घुस रहा है। चूल्हे के पास यूं बैठने को तीन चार लोगों की ही जगह दिखती है लेकिन 'थोड़ा और आगे सरक।Ó कहते हुए रसोई के चूल्हे के पास दस लोग जमा हो गए। चाचा दूलसिंह ने एक जलती लकड़ी चूल्हे से उठाई और अपनी बीड़ी के मुंह से टोचन करने लगे। धुएं में बीड़ी का धुंआ भी घुल गया है। मां चूल्हे पर रखी 'राबड़ीÓ को 'चाटुÓ से हिला रही है। गांव में सर्दियों का सबसे बड़ा पेय। जिस राबड़ी को मैं कभी पसंद नहीं करता था। सर्दियों में वह अमृततुल्य लगती थी। चूल्हे से उतरी नहीं कि 'सबड़केÓ मार मार के पूरा कटोरा पी गया। शरीर का तापमान बढ़ा। चूल्हे के सामने मां, बापू, चाचा, मौसी सब जमे हैं। दिसम्बर की सर्द रात है। आग अपनी शक्ल बदल रही है। कभी 'धपड़बोझÓ, कभी 'खीरेÓ तो कभी 'भोभर।Ó चूल्हे की चौपाल लंबी चलेगी। मुझे मेरे चचेरे भाई गोकुल के साथ हिदायत दी जाती है कि चुपचाप जाकर रजाई में घुस जाऊं। हम दस मिनट तक यही बहस करते हैं कि पहले तुम घुसो। रजाई इतनी ठंडी है। बर्फ सी लगती है। जो पहले घुसेगा वो गर्म तो पता नहीं कब होगा लेकिन ठिठुर जरूर जाएगा यह तय है। आखिरकार बीच का रास्ता मां ने तय किया था। एक दिन तुम घुसोगे, एक दिन गोकुल। मैं घर में सबसे छोटा था। मेरी मासूमियत गोकुल को अक्सर पिघलाती थी। वह पूरा पिघल ही नहीं जाए इससे बचने के लिए ठंडी रजाई में राहत पाता था।
सुबह कोहरा है। जैसे रात भर सूरज ने और सारे तारों ने सर्दी से बचने के लिए जैसे गीली लकडिय़ां जलाई हों। उसका फैल गया है। मजा आ गया। हम से मुंह से फूंक मारते हैं, मुंह से भी धुंआ निकल रहा है। जैसे पेट में कुछ सुलग रहा है। रात को चूल्हे में 'भोभरÓ ओटी गई थी। चिंगारी अभी बाकी है। चूल्हा जला है। कोयलों पर बाजरे की रात की बची हुई रोटी 'कुरकुरीÓ सेंक दी गई है। दोनों हथेलियों के बीच 'मरोड़ीÓ देकर उसे कांसे के कटोरे में 'चूराÓ गया है। गाढ़ा सा जमा हुआ हमारी लंबे सींग वाली भैंस का दही डाला गया है। हाथ की चारों अंगुलियां भूख के इशारे समझते हुए एक बड़े चम्मच में तब्दील हो गई हैं। सुबह के 'सबड़केÓ के साथ दही रोटी खा ली गई है। जो मटका पुराना हो गया उसी में पानी भरकर चूल्हे पर रख दिया गया है। गर्म पानी बाल्टी में डालकर चेतावनी के साथ मुझे कच्ची ईंटों से बने बाथरूम में घुसा दिया गया है। मैं मन ही मन उस आदमी को कोसता हूं जिसने मेरी उम्र के बच्चों के लिए स्कूल जाने का रिवाज बनाया।
मैं नंग-धड़ंग ठिठुरता हुआ बाथरूम में हूं। मुंह धोया। आंखें धोयी। 'तागड़ीÓ गीली कर ली है। ताकि मां की जांच में खरा उतरूं कि नहाकर आया हूं। कड़ाके की सर्दी ने हफ्ते में छह दिन सबको धोखा देना सिखा दिया है। संडे को मां खुद मोर्चा संभालती है। ठिठुरते हुए रोना धोना जारी है। पैरों पर जमी मैल की परतें, वो बिना साबुन ही रगड़ रही है। खाल खिंच रही है। ज्यादा शोर मचाना मना है, वरना दो चांटे तैयार हैं।
'टोपलाÓ लगाए गांव के सरकारी स्कूल में बैठा हूं। दरी बिछी है। आधे से ज्यादा बच्चों की नाक तार-सप्तक की तरह बज रही है। बीच में छींक और खांसी की लगातार आवाजें पूरी कक्षा में 'फ्यूजनÓ पैदा कर रहे हैं। आज बाहर धूप भी नहीं है। स्कूल की बिना किवाड़ वाली खिड़कियों पर दरी के ही पर्दे लटकाए हैं लेकिन छन छन के शीत लहर आ रही है। समवेत ध्वनियां हैं, जोर जोर से, 'एक एक ग्यारहा, एक दो बारहा, एक तीन तेरहा, एक चार चौदह, एक पांच पन्द्रह।Ó बहाना है कि रटा लगा रहे हैं। सच्चाई है कि जोर-जोर से बोलने में सर्दी कम लग रही है।

सोमवार, अक्तूबर 19, 2009

हंसो और कहो आल दा बेस्ट

यह तो अब माना ही जा सकता है कि मोहित शेट्टी का कहानी कहने का अपना तरीका है और उसमें वे लोगों को हंसाने की ताकत रखते हैं। दीवाली के मौके पर रिलीज उनकी फिल्म ऑल द बेस्ट में गोलमाल जैसा जादू तो नहीं है लेकिन वह गोलमाल रिटन्र्स के आसपास जरूर ठहरती है। खासकर इंटरवल के बाद कहानी में तेजी आती है और जब आप सिनेमाघर से बाहर निकलते हैं तो मुस्कान आपके चेहरे पर रहती है।ऑल द बेस्ट कॉमेडी ऑव एरर्स जैसा ही मसला है जब एक म्यूजिक बैंड को कामयाब करने के लिए एक स्ट्रगलर भाई ने अपने अमीर एनआरआई भाई को झूठ बोल दिया है कि उसने शादी कर ली है और भाई ने उसकी पॉकेट मनी बढा दी है। एक दिन अचानक भाई की लोशोटो जाने वाली फ्लाइट की इमरजेंसी लेंडिग गोवा हो जाती है और उनका भाई बेवक्त उनके घर पहुंच जाता है। उसने अपने छोटे भाई की पत्नी से मिलने की इच्छा व्यक्त की है, उसे अपराधबोध है कि वो शादी में नहीं आ पाया था। लेकिन गलती है वह दूसरी लड़की को अपने भाई की पत्नी समझ लेता है। जबकि उसने शादी ही नहीं की है और एक लड़की सिर्फ उसकी गर्लफे्रंड है। एक झूठ को छुपाने के लिए सैकड़ों झूठों का सहारा लेना पड़ता है और हर झूठ के साथ लेखक और निर्देशक ने आपके हंसने का मसाला गुण ओर मात्रा के लिहाज से बढ़ा दिया है लिहाजा इंटरवल तक धीमी गति से चलने वाली कामेडी एक्सप्रेस उसके बाद थोड़ी गति पकड़ती है और गंतव्य तक जाती है। बीच बीच में मोहित शेट्टी ने अपनी चिरपरिचित अदा में फिल्म को नॉन लीनियर भी करते हैं, मसलन, एक एक्शन दृश्य की शुरूआत से पहले संजय को गुंडा पूछता है, ए अंकल, कॉमेडी कर रहे हो क्या? तो संजय का जवाब है, बेटा, कॉमेडी तो अब शुरू की है, एक्शन तो तीस साल से कर रहा हूं। कुल मिलाकर ऑल द बेस्ट मोहित शेट्टी की परम्परा की फिल्म है और उस पर लिखने से ज्यादा वह आपको देखने से समझ में आएगी।

ब्लू - समंदर में डूबी कहानी

आपने आज से पहले भारतीय फिल्मों में ऎसे दृश्य नहीं देखे होंगे। फिल्म ब्लू का प्रचार करने वालों ने ऎसा कहा है तो जाहिर है उन्होंने झूठ नहीं बोला है। यह सचमुच रोमांचित करने वाला अनुभव है। खासकर हिंदी फिल्मों में लेकिन सौ करोड़ रूपए को पानी में इस तरह बहाया जाएगा, इसका अंदाजा नहीं था। किसी भी एक्शन भी बिना किसी कहानी या घिसी फिटी एक फार्मूला कहानी के आधार पर यदि आप ज्यादा खींचेंगे तो वह फिल्म को खराब करेगा। ब्लू इसका अपवाद नहीं है।

नए निर्देशक एंथनी डिसूजा की तारीफ करिए कि उन्होंने अपना सिनेमाटोग्राफर पीटर को चुना जो दुनिया में अंडरवाटर स्टंट फिल्माने के लिए जाना माना नाम है। आरव मल्होत्रा यानी अक्षय कुमार एक बिजनेसमैन है और सागर यानी संजय दत्त एक फिशरमैन या गोताखोर है। सिर्फ सागर को पता है कि लेडी इन ब्लू नाम का एक जहाज समंदर में किस जगह डूबा था। उसमें बेशुमार दौलत थी। आरव उस खजाने को हासिल करने के लिए सागर से दोस्ती करता है लेकिन कोई वजह है जो उसे खजाने तक जाने से रोकती है। आखिरकार सागर के छोटे भाई समीर यानी जाएद खान की वजह से सागर को खजाना ढूंढ़ लाने के लिए मजबूर होना पड़ता है और वे इसे ले आते हैं। बीच में एक विलेन भी है और काम चलाऊ टि्वस्ट भी लेकिन ब्लू की तारीफ आपको सिर्फ इसलिए करनी होगी कि उसमें अद्भुत दृश्य है, जिन्हें पानी में फिल्माया गया है। पानी में फिल्माए जाने की थकान के साफ शिकार अभिनेता दिखते हैं और संजय और अक्षय वैसा अभिनय नहीं कर रहे हैं जैसा वे आमतौर पर भी करते हैं। जाएद खान को खैर अभिनय आता ही कहां है। लारा दत्ता ने बिकनी पहनकर पर्याप्त अंग प्रदर्शन किया है लेकिन यह कामयाबी की गारंटी नहीं है। आप ब्लू देखना चाहते हैँं समंदर के बेहतरीन दृश्यों के लिए बेशक देखने जाएं, कहानी से निराश होेगे। दूसरे काइली की चिगी विगी गाना भी आपको अच्छा लग सकता है।

गुरुवार, सितंबर 10, 2009

आगे से राइट- कल्‍टी मारो निकल भागो

श्रेयस तलपड़े देश के कई शहरों में पुलिस की वर्दी पहनकर घूमे थे और जयपुर के शॉपिंग मॉल्स में लोगों की खूब तलाशी ली थी कि उनकी पिस्तौल खो गई है। श्रेयस यह समझदारी अपनी फिल्म "आगे से राइट" की कहानी ढूढ़ने में लगाते तो शायद लेखक व निर्देशक को कोई सलाह दे पाते। उनकी सारी तलाशी के बावजूद "आगे से राइट" में हंसी और मनोरंजन गायब रहता है। हां, वह है जरूर लेकिन वह सब टीवी के कॉमेडी सीरियल जैसा ही है।

कहानी दिनकर वाघमारे नाम के एक सब इंस्पेक्टर के इर्द गिर्द है, जो बाघ तो दूर किसी को थप्पड़ नहीं मार सकता। डयूटी च्वाइन करने के साथ ही उसकी गन खो गई है। वह उसे ढूंढ़ रहा है। तलाश में वह ऊपरी तौर पर मुसीबतों में फंसता है लेकिन संयोग से वह हीरो बनकर निकलता है। इतना निरीह पुलिस सब-इंस्पेक्टर हिंदी फिल्मों में अब तक शायद नहीं दिखाया गया। कथा का दूसरा सूत्र एक पाकिस्तानी आतंकवादी के इर्द गिर्द है जिसकी भूमिका में केके मेनन हैं। वह भारत में "जंग-ए-आजादी" के नाम पर बम फोड़ने और तबाही मचाने आया है लेकिन उसकी हवा पर्ल नाम की डांसर ने निकाल दी है। उसका दिल खो गया है। उसे उससे प्यार हो गया है। वह नफरत के बजाय मोहब्बत का मसीहा बनने को चला है। यानी एक गन खोए सब इंस्पेक्टर और दिल खोए आतंकवादी की यह कहानी सिर्फ टुकड़ों में अच्छी है। मुंबई को सबसे बड़ा हथियार सप्लायर और आतंकवादियों का लोकल एजेंट राघव भाई भी एक मामूली सी घटना के बाद भला आदमी बन गया है। सबका आपस में कोई बहुत च्यादा लेना देना नहीं है, सिर्फ इतना सा है कि वह गन अलग अलग मौकों पर इन लोगों के पास से गुजर रही है। फिल्म की कहानी में बीच के हिस्से में इतना लोचा रह गया है कि एक ठीक ठाक क्लाइमेक्स भी लोगों को हंसाने के लिए पात्रों के साथ दर्शकों को रिश्ता जोड़ने में नाकामयाब रहता है, जैसा कि प्रियदर्शन की फिल्मों में अमूमन होता है। निर्देशक इंद्रजीत नटूजी की पहली फिल्म है और निराश करती है। गीत संगीत कामचलाऊ है।

श्रेयस तलपड़े ने ठीक काम किया है। केके मेनन जैसे अच्छे अभिनेता की प्रतिभा जाया की गई है। शेनाज टे्रेजरी वाला को एक्टिंग नहीं आती। देव डी से चमकी माही गिल एक आघ और ऎसे रोल कर लेंगी तो काम खल्लास समझो। विजय मौर्य ने राघव भाई के रोल में अच्छा काम किया है। शिव पंडित बोरिंग है। सीरियल जैसा ही सुख लेना है तो आगे से राइट जाकर हॉल में घुसें। वरना सीघे चलते रहें और अपना एक घंटा तिरेपन मिनट का समय किसी और नेक काम में लगाएं।

थ्री- लव लायज एंड बिट्रायल

आपने अंग्रेजी फिल्म "द परफेक्ट मर्डर" देखी है क्या कहा, अंग्रेजी नहीं आती हिंदी में डब की हुई डीवीडी और सीडी बाजार में है। हिंदी में अब्बास मुस्तन की "हमराज" देखिए। विक्रम भट्ट के सहयोगी रहे विशाल पंड्या की निर्देशित फिल्म "थ्री: लव, लाय एंड बिट्रायल" एक खराब नकल है और कमजोर सस्पेंस थ्रिलर है। एक नाकाम सॉफ्टवेयर इंजीनियर राजीव दत्त की अमीर पत्नी अंजनी दत्त का खूबसूरत घर बिकने को आ गया है लेकिन वह अपनी पुश्तैनी सम्पत्ति का हवाला देते हुए उसे बेचने से रोकती है। बच्चों की वायलिन टीचर है और च्यादा कमाई के लिए एक पेइंग गेस्ट रख लिया है। पति पत्नी में बनती नहीं और पेइंग गेस्ट ने यह पहचान लिया है। वह तुरंत घर की मालकिन से जिस्मानी रिश्ते बनाता है। यह सब कहानी में इतना तेजी से होता है, जैसे उस घर की मालकिन इसी बात का इंतजार कर रही है कि कब कोई उनके घर रहने आए और कब उसे प्रेम करने का मौका मिले। पेइंग गेस्ट अब परेशान कर रहा है और पति पत्नी छुटकारा पाना चाहते हैं। लड़की के लिए अब दोनों ही लोग भरोसे के काबिल नहीं है। कुल मिलाकर यहां कहानी सस्पेंस में बदलती है और अंजाम तक पहुंचती है।

कहानी शुरू में तेज चलती है फिर घटनाएं रिपीट सी लगती हैं और फिर सब कुछ जाना पहचाना सा लगता है। संवाद इतने सतही हैँ कि मजा नहीं आता। कहीं कहीं वे नर्सरी राइम्स की तरह लगने लगते हैं। पति के रोल में अक्षय कपूर अपरिपक्व लगते हैं। आशीष चौघरी ओवररिएक्ट कर रहे हैं और नौशीन अपनी पहली ही फिल्म में मोनोटोनस हैं।

फिल्म की एकमात्र खूबी फिल्मांकन है। प्रवीण भट्ट की सिनेमाटोग्राफी की तारीफ कर सकते हैं। यही एक सकारात्मक बात फिल्म में है कि स्कॉटलैंड के खूबसूरत लोकेशन्स दिखाए गए हैं। खासकर जब इंजीनियरिंग का बेहतरीन नमूना एक पुल जो मूव करता है। नावों के लिए रास्ता छोड़ता है और फिर पुन: सड़क में तब्दील हो जाता है। फिल्म में सिर्फ स्कॉटलैण्ड अच्छा है, बाकी सब कुछ औसत है।

रविवार, अगस्त 23, 2009

हम शहर क्‍यों आते हैं


जुलाई-अगस्‍त 1992 में मैं पहली बार जयपुर आया था और ऐसा लगा था, जैसे एक गांव के अनजान से आदमी की आंखों के सामने चमत्‍कार घटित हो रहा है। इस महीने मैं अठारहवें में प्रवेश कर गया हूं। सत्रह साल मैंने ठेठ ग्रामीण और कस्‍बाई माहौल में बिताए और बाकी सत्रह साल एक महानगर होते बड़े शहर में।
दो दिन पहले जब गांव गया तो पाया स्‍कूली बच्‍चे खुश थे कि आजादी का जश्‍न मनाया जा रहा और उन्‍हें मिठाई मिली है। हालांकि गांव का सरकारी स्‍कूल, जिसमें मैं पढ़ा था, उसकी हालत आजकल खराब है और गांव में हमारे गांव के दो जनों ने मिलकर एक स्‍कूल खोला है, जिनका दावा है कि उनका स्‍कूल इंगलिश मीडियम है। जहां तक मैं जानता हूं, दोनों ही पार्टनर्स को अंग्रेजी का खास ज्ञान नहीं है। उनके टीचर भी कोई उम्‍दा नहीं है, दसवीं पास विद एनी डिवीजन। कोई फर्क नहीं पड़ता। गांव के ज्‍यादातर बच्‍चे कथित तौर पर अंग्रेजी मीडियम शिक्षा ले रहे हैं। जो लोग आर्थिक रुप से बहुत ही कमजोर हैं और मिड डे मील का लालच जिन परिवारों को है, वे अब हमारे स्‍कूल में जा रहे हैं।

अगर आप एल्‍युमिनी बनाएं तो हमारे स्‍कूल से एक जज, तीन डॉक्‍टर, कई इंजीनियर, असंख्‍य फौजी, एक आध मेरे जैसा कलमघिस्‍सू पत्रकार, सैकड़ों शिक्षित माताएं, अध्‍यापक और पता नहीं क्‍या क्‍या सूची है, मैं दावे से कह सकता हूं कि जो पढाई हमने सरकारी स्‍कूल में की थी, उसका रत्‍ती भर पर उस कथित अंग्रेजी स्‍कूल में नहीं पढ़ाया जा रहा है। यह बात मैं गांव में मेरे परिचित उन परिवारों को मौखिक रूप से बता चुका हूं कि इससे बेहतर वे अपने बच्‍चे को सरकारी स्‍कूल में डालें, जहां कम से प्रशिक्षित शिक्षक तो हैं, भले ही कम पढाएं, आप गांव वाले उन पर दबाव बनाएं लेकिन कोई टस से मस नहीं होता। मुझे अफसोस है कि मेरे गांव के छोटे बच्‍चे ऐसी भाषा पढ़ रहे हैं, जिसके बारे में वे कुछ नहीं जानते और उनके शिक्षक तो और भी कम जानते हैं।


मुझे यह भी जानकारी मिली कि मेरे गांव में नरेगा के तहत काम करने के लिए बीते साल अठावन लाख रुपए की मंजूरी सरकार ने दी है लेकिन कई काम इसलिए नहीं हो रहे हैं हमारी सरपंच अंगूठाछाप है, उसका पति भी अंगूठाछाप है। यह एक आरक्षित सीट थी, गांव पुराने असरदार लोगों ने उस दलित महिला के पति को भरोसे में लेकर चुनाव लड़ाया था लेकिन जल्‍दी ही उसने गांव के सवर्ण लोगों से किनारा कर लिया। उसे लगा कि ये लोग उसके हिस्‍से का माल भी डकार जाएंगे, लेकिन हमारा सौभाग्‍य यही है कि वह खुद अनपढ है और उसे पैसे खाने के जायज तरीके भी नहीं आते। मेरे माता पिता आज भी गांव में रहते हैं, जब कभी उन्‍हें मैं मेरे जयपुर वाले घर पर लाता हूं तो कुछेक दिन के बाद पिताजी हर बार कहते हैं कि फलां आदमी को फोन करके पूछना कि गांव में बारिश है या नहीं। मां अक्‍सर शिकायत करती है कि उसे गाडि़यों की आवाज में नींद नहीं आती। कई बार यह भी कि पंखा बंद करो, बहुत शोर करता है, नींद नहीं आती। लिहाजा पन्‍द्रह दिन बाद उन्‍हें वापस गांव छोड़ना होता है। अब तो साल में एक बार तब आते हैं, जब उनकी मजबूरी है। मसलन तीन महीने पहले पिताजी इसलिए आए थे उनकी आंख का मोतियाबिंद का आपरेशन होना था। तीन दिन बाद लौट गए। डॉक्‍टर ने एक महीने बाद फिर दिखाने को कहा था। मैंने उन्‍हें आने का पूछा तो बोले, दिखने तो लगा है ही, अब डॉक्‍टर क्‍या करेगा।


मेरे बच्‍चे शहर के कथित प्रतिष्ठित जेब काटने वाले अंग्रेजीदां स्‍कूलों में जाते हैं, जब मैं पिताजी को उनका फीस स्‍ट्रक्‍चर बताता हूं तो वे पहले तो चौंकते हैं कि इतने रुपए का दो रुपए सैकड़ा से ब्‍याज इतना होता है और तुम लोग गांव में रहकर आराम से अपना काम चला सकते हो। हालांकि बाद में वे चौपाल पर अपने हमउम्र दोस्‍तों के बीच इस बात पर फख्र भी करते हैं कि हमारे गांव के कई परिवारों की वार्षिक आमदनी और खर्च उतना नहीं है,‍ जितना मेरे पोते पोती अपने स्‍कूल फीस में उड़ा देते हैं।


जो शहर अच्‍छा लगता था, अब रोजाना काटने को दौड़ता है। दो दिन पहले गांव में सुबह हुई तो आंगन में दस बारह मोरों का एक परिवार तफरीह कर रहा था। आसमान में हजारों तोते उड़ रहे थे और बेहतरीन सरगम गा रहे थे। कौवे, चिडि़यांएं, कबूतर, कमेड़ी आदि उनकी संगत कर रहे थे। आसमान में बादल छाए थे और इक्‍की दुक्‍की बूंदे भी गिर रही थीं। मुझे लगा जैसे स्‍वर्ग की कल्‍पना ऐसी ही रही होगी। वरना मेरे जयपुर वाले घर के बाहर पांच बजे से स्‍कूल बसों के भोंपू बजने शुरू हो जाते हैं। घर के अंदर तक धुंआ भर जाता है। हॉर्न ऐसे बजते रहते हैं, जैसे उनके बिना काम ही नहीं चल सकता।
मुझसे जल्‍दी बच्‍चे जाग जाते हैं, उन्‍हें स्‍कूल जाने की तैयारी करनी होती है। उनके घर लौटने तक रोजाना उनकी मम्‍मी एक अजीब से खौफ में रहती है। दुर्घटनाएं, स्‍वाइन फलू, बच्‍चों के अपहरण से जुड़ी जो खबरें रोजाना चाय के साथ इस शहर में अखबार हमें परोसता है, इससे उसकी मनो‍स्‍थिति ऐसी हो गई है कि किसी दिन पंद्रह मिनट बस या आटो लेट हो जाए तो स्‍कूल से लेकर मुझ तक टेलीफोन की घंटियां बज जाती हैं कि बच्‍चे अभी तक क्‍यों नहीं आए।

मुझे याद है, ना तो हमारी मां, ना ही गांव की आजकल की मम्मियां इस बात की परवाह करती हैं कि बच्‍चे स्‍कूल से आने में देरी क्‍यों कर रहे हैं। वे कहीं भी नई ब्‍याई कुतिया बच्‍चों के साथ खेल रहे होते हैं, जैसा कि हम किया करते थे। ति‍तलियों के पीछे भागते हुए एक घंटा बिता देते हैं। कहीं भी चार आड़ी तिरछी लाइने खींचकर लंगड़ी टांग खेलने लगते हैं।

शहर में मेरे घर की बालकनी के ठीक सामने एक स्‍कूल है, अंग्रेजीदां और महंगा। छुटटी होने से दस मिनट पहले ही वहां माताएं, पिता, दादा, दादी या ड्राइवरों का जमावड़ा लग जाता है। वे अपने बच्‍चों को एक पल भी अकेले नहीं छोड़ सकते। उनका बचपन देखकर मुझे अपने स्‍वच्‍छंद दिन याद आते हैं जब घंटों तक मां हमारी परवाह नहीं करती थी। हम देर रात तक पीपल के भूत को देखने के लिए किसी कोने में दुबककर अंदाजा लगाते थे कि कम से कम आज तो भूत सू सू करने या पानी पीने या खाना जुटाने पीपल से बाहर निकलेगा, जिसके बारे में हमारी दादी से लेकर मां हमें आज तक डराती आई थी और कई गिलास दूध उसी डर में हम पी जाया करते थे। लेकिन कमबख्‍त भूत कभी बाहर आया ही नहीं। हां इतना जरूर है, जब विलंब से घर पहुंचते थे, मां के पास एक चांटा हमारे लिए आरक्षित रहता था कि इतनी देर से क्‍यों आए। हम इस चांटे के बारे में वाकिफ होते थे और रोज अपनी ही गलती दोहराते थे।

आज जब मेरी बेटी साना गांव जाती है तो गांव के बच्‍चे उसे घेर लेते हैं कि वह शहर से आई है। वे उसके बोलने के ढंग को मंत्रमुग्‍ध होकर देखते हैं, उसका रंग गांव के बच्‍चों के मुकाबले ज्‍यादा साफ है। साना भी उनकी कॉपी करती है, आजकल वह हमारे गांव की बोली बोलने लगी है। अपनी दादी और नानी से वह उन्‍हीं की जुबान में बात करती है। मेरे बेटे को गांव की जुबान बोलनी नहीं आती। हम घर में कोशिश करते हैं ज्‍यादा से ज्‍यादा राजस्‍थानी में बात करें लेकिन वह समझ सब लेता है, बोलता है तो हिंदी और राजस्‍थानी को गड़ड मडड कर देता है। फोन पर जब वह अपनी दादी या नानी से बात करता है, दोनों तरफ अंदाज से ही हाल चाल पूछे जाते हैं। क्‍योंकि दादी नानी को हिंदी समझने में परेशानी होती है और पोते दोहिते को मारवाड़ी। साना के दोस्‍तों को बड़ा संसार गांव में हैं, शहर में अपने मोहल्‍ले में उसकी किसी बच्‍चे से नहीं बनती। दो दिन की छुटटी के बाद जब हम जयपुर लौटने को सामान अपनी कार में रख रहे थे तो साना ने मुझसे पूछा, पापा, क्‍या हमारा शहर में रहना ज्‍यादा जरूरी है। हम क्‍यों नहीं अपने गांव में रहते। इतना बड़ा घर, खुली हवा और इतने सारे दोस्‍त।

मेरे पास मेरी बेटी को जवाब देने के लिए कुछ नहीं थ। आखिर यह सवाल तो मैं कई महीनों से खुद को ही पूछ रहा हूं कि क्‍या मेरा गांव छोड़कर शहर आना इतना ही जरूरी था।

सोमवार, मई 18, 2009

दो कवि‍ताएं

पि‍छले दि‍नों से कवि‍ताएं लि‍खने का शौक चढा है। फुरसत है तो आप भी भुगतें। खुदा खैर करे। मेरी और मेरे पाठकों की।


स्पर्श


मैं कुछ बोलना चाहता हूं

कि‍ तुम्हारी एक अंगुली,

मेरे होठों पर आकर टिकी है

हटाओ इसे,

इसके बोझ तले दबा जा रहा हूं,


आखिर कि‍तनी बार,


बोलने से रोका है मुझे


कि‍ तुम्हें शक है,


मैं बोला तो यह रिश्ता तार-तार हो जाएगा

मैं तुम्हारे जिस्म के रोम रोम में,

एक जुंबिश चाहता हूं

पर खुद स्पंदनहीन हो गया हूं

कि‍ मेरे होठों पर टि‍की एक अंगुली

उन्हें सिल गई है,

एक सन्नाटा

दोनों के बीच पसरा है,

तुम सहलाओ इस सन्नाटे को

अपने मुलायम हाथों से,

मैं तुम्हारे स्पर्श का सुख चाहता हूं

कि‍

सिर्फ एक बार

अपने मुलायम हाथ

रख दो मेरे माथे पर,

अंगुलियां मेरे बालों में पिरोकर

सहलाओ धीरे धीरे

मैं तुम्हारे स्पर्श का सुख चाहता हूं।




वजूद


अगले बरस पैंतीस का हो जाऊंगा,


जिंदगी का मिड वे,

मुडक़र देखता हूं,

संघर्ष, गरीबी, लाचारी है,

सामने देखता हूं तो

संघर्ष अब भी तरोताजा

तंदुरुस्त है,


गरीबी और लाचारी का हिलता सा अक्स है,

जैसे सदानीरा नदी के कि‍नारे कोई


नार्सिस्ट बैठा है

डर है,

पानी ठहरा


तो चेहरा उभरेगा

वो कैसा होगा?

हालांकि‍ मैं जानता हूं

मेरे जीते जी


नदी नहीं थमेगी,

हिलता हुआ अक्स,

चेहरे में तब्दील नहीं होगा,

फिर भी मुझे चिंता खाए जा रही है

अपने वजूद की।

गुरुवार, जनवरी 22, 2009

यह लेखक को मीडियोकर बनाने की साजिश है

मुझे बेहद अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि जयपुर में चल रहे साहित्य उत्सव के दौरान विक्रम सेठ ने बातचीत करते हुए वाइन क्या पी ली, जैसे उन्होंने किसी की हत्या कर दी है। खासकर उस चीज की जिसे संस्कृति कहते हैं। संस्कृति को लेकर इतना फिक्रमंद यह अखबार मुझे पहले कभी नजर नहीं आया। अखबार का नाम दैनिक भास्कर है और अब मेरा संदेह पक्के यकीन में तब्दील हो गया है कि उस अखबार को आप सांस्कृतिक दूत के रूप में समझते हैं तो यह आपकी भूल है। यह एक सनसनी है जो मीडियोकर लोगों को अच्छी लगती है। ठीक वैसे ही जैसे इंडिया टीवी और दूसरे बेहूदे चैनल यह दिखाते रहते हैं कि एक आदमी जिंदा सांप को निगल गया, या एक कापालिक शव को लेकर आराधना कर रहा है। दैनिक भास्कर ने विक्रम सेठ के वाइन पीने को मुद्दा बनाते हुए जयपुर में लीड छापा है। ऐसी ही एक बेहूदी सी हरकत इन््होंने पिछले साल भी की थी।
असल में यह पहले से ही तिरस्कृत और असहाय लेखक जगत पर एक मुनाफाखोर अखबार का तमाचा है। मैं साहित्य उत्सव के आयोजकों को व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानता। मैं उनके किसी आयोजन में प्रतिभागी भी नहीं हूं। मैं अफसोस के साथ उन लेखकों से शिकायत करता हूं जिन्होंने सनसनी के तौर पर मांगे गए एक बयान में भारतीय संस्कृति की व्याख्या कर दी। यदि विक्रम सेठ जैसे एक आदमी के मंच पर वाइन पी लेने से वह खत्म हो रही है और खंडित हो रही है तो मैं चाहता हूं कि यह तुरंत ही खंडित हो जाए। ऐसी संस्कृति के बने रहने का कोई तुक नहीं है। फिर आने दीजिए वही पुराना युग जिसमें जो ताकतवर है वह जीतेगा। इन प्रतिक्रियाओं में मैं उदय प्रकाश जी के वक्तव्य से ही सहमत हो सकता हूं। उन्होंने कहा कि लेखक सबसे अशक्त है। आप चोर उचक्कों के खिलाफ और कॉरपोरेट पार्टियों में शराब पीने वालों के खिलाफ कलम नहीं उठाते।
मेेरे पास सिर्फ तीन उदाहरण हैं। एक रवि बुले, एक संजीव मिश्र और आलोक शर्मा। रवि हिंदी के युवा कथाकारों में सबसे आगे हैं। संजीव दुर्भाग्य से हमारे बीच नहीं रहे और आलोक शर्मा कवि हैं, शायर भी। तीनों ही लेखक पत्रकार भी हैं और तीनों ने ही दैनिक भास्कर में काम किया है। मैं तीनों को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं, लिहाजा दावे से कह सकता हूं कि वे पॉलिटिक्स नहीं कर सकते थे इसलिए भास्कर में काम नहीं कर पाए। तीनों को नौकरी देते समय भास्कर ने उम्दा वादे किए और फिर उनको लगभग यातनापूर्ण माहौल में भास्कर छोडऩा पड़ा। क्योंकि वे सिर्फ काम करना जानते थे, चाटुकारिता नहीं। तो लेखकों और संस्कृति के प्रति अचानक यह अखबार इतना हमदर्दी कैसे दिखा रहा है।दूसरी बात मुझे पिछले दिनों ही ज्ञात हुई, भास्कर के जयपुर संस्करण में साल भर पहले स्थानीय रचनाकारों को सम्मान देने का ऐलान करते हुए साहित्य का एक पेज विमर्श नाम से शुरू किया। सालभर तक लेखक छपे भी और अपने विचार भी व्यक्त करते रहे लेकिन अफसोस की बात यह है कि एक भी लेखक को मानदेय या पारिश्रमिक की फूटी कौड़ी नहीं मिली। यानी वे सब साहित्यिक मुद्दों को बेचकर मुनाफा कमाएं और लेखक मुफ्त में बेगारी करें। मुझे शिकायत है उन लेखकों से भी जो मुफ्त में साल भर तक लिखते रहे। लेखन की यह साधना साहित्यिक पत्रिकाओं में लिखकर भी तो पूरी हो सकती है, लेकिन दुर्भाग्य से हम उसी बाजार और लोकप्रियता के तकाजों के शिकार हैं। यही इन लोगों की साजिश है कि लेखक भी आम लोगों जैसा ही व्यवहार करने लगे ताकि मीडियोकर लोग मीडिया में हावी रहें और पढ़े लिखे लोग इनसे नफरत करने लगे। इस कड़वी सच्चाई को मानने में कोई बुराई नहीं है कि हिंदी के अखबारों में साहित्य और सांस्कृतिक मुद्दों पर सोचने वाले संजीदा पत्रकारों को दोयम दर्जे का माना जाने लगा है। जी हुजूरी यहां भी सुपरहिट है। तीसरा उदाहरण, जानी मानी लेखिका लवलीन की मौत का है। लवलीन की मौत पर पत्रिका ने सम्मानजनक ढंग से खबर छापी लेकिन भास्कर में इसका उल्लेख ही नहीं था। उस दिन एक भी लेखक ने अपना विरोध जताने के लिए उनके संपादक को चि_ी नहीं लिखी। वह दिन दूर नहीं, जब आपकी हमारी खबरें इसी तरह दबा दी जाएंगे। इमरान हाशमी नाम का एक चवन्नी सितारा एक पेज सिर्फ इसलिए घेर लेता है कि वह कितनी लड़कियों का चुम्बन ले चुका है और आप यह जगह तभी घेर पाते हैं जब आप मंच पर बैठकर शराब पिएं। क्या हम लेखक सिर्फ अपनी तौहीन कराने के लिए ही अखबारों में छपेंगे।
मेरे खयाल में मुझे नाम लेने की जरूरत नहीं है लेकिन हमारे ही दो लेखक मित्रों ने रिश्वतखोरी के आरोप में ऐसी ही यातना झेली है, बार बार अखबार लिखते रहे कि आरोपी एक लेखक भी है। वैसे उस मशहूर कवि की कविताएं छापते हुए भी अखबार कतराते हैं लेकिन आज लेखक पकड़ में आया है तो इसे मार डालो। इस साजिश के खिलाफ खड़े होइए, वरना मंच पर जी भर भाषण देते रहिए। खबर को तैयार करने में आप मुनाफाखोर व्यवसायियों के टूल बन गए हैं। लेखक अपनी सामाजिक नैतिकता खुद तय करता है। विक्रम सेठ ने कोई कानून नहीं तोड़ा, और अपनी नैतिकता वह आपसे उधार नहीं ले सकता। उसकी नैतिकता पर सवाल उठाना बौद्धिक दिवालियापन है।
कोई चार साल पहले प्रेस क्लब की बार में मैं एक बार अपनी नन्हीं बेटी को साथ ले गया था, लोगों ने कहा, आपको इसको यहां नहीं लाना चाहिए था, मैंने कहा, मैं जो कर रहा हूं उसके लिए अपनी बेटी से आंख मिलाने की हिम्मत रखता हूं, इसलिए मेरे परिवार और मेरे बीच कोई पर्दा नहीं है। तो कोई दूसरा वो पर्दा तय नहीं कर सकता। विक्रम सेठ बनने के लिए और मंच पर बैठकर वाइन पीने के लिए बहुत साधना की जरूरत है। संस्कृति की चौकीदारी करते हुए आप मीडियोकर हो सकते हैं, साधक नहीं। यह लेखक को मीडियोकर बनाने की साजिश है। मैं इसका पुरजोर विरोध करता हूं, यही आंच कल हम तक पहुंचेगी, लिहाजा विरोध करिए कि मीडियोकर ढँग से सोचने वाले पत्रकार लेखक की मर्यादा तय नहीं कर सकते।

मंगलवार, जनवरी 13, 2009

गोल्डन गलोब के हिंदुस्तानी सवाल


हालांकि इसमें मुंबइया फिल्मवालों का कोई योगदान नहीं है कि उन्हें बधाई दी जाए लेकिन वजह बनती है कि रहमान हमारे अपने म्यूजिशियन हैं। पहले भारतीय है जिन्हें लगभग ऑस्कर की ही तरह प्रतिष्ठित गोल्डन गलोब अवार्ड मिला है। इसमें रहमान की अद्भुत प्रतिभा का योगदान है। मुझे लगता है इस खूबी के अलावा फिल्म की खूबी यह है कि इसमें गुलजार के गीत हैं। हमारे इरफान और अनिल कपूर समेत कई भारतीय कलाकारों ने अभिनय किया है। कहानी भी मुम्बई की है, जिसको लेकर बॉलीवुड वाले दावा कर रहे हैं कि दुनिया में मुंबई छा गया है। रहमान की उपलब्धि को बड़ा मानते हुए भी मुझे बेहद अफसोस है कि भारत की इस कहानी की पटकथा-लेखक सीमॉन ब्यूफॉय भारतीय नहीं है, जिसे सर्वश्रेष्ठ स्क्रीनप्ले का अवार्ड मिला है। निर्देशक डैनी बॉयल भी भारतीय नहीं है। और सर्वश्रेष्ठ फिल्म बनाने वाले इसके प्रोड्यूसर भी भारतीय नहीं है।
सिनेमा के जरिए एक बेहतरीन मानवीय कहानी कहने के बजाय हमारा गर्व यह है कि हमारा सुपरस्टार अपनी फिल्म के प्रचार के लिए लिए एक खास किस्म की कटिंग करते हुए नाई बनता है। उसकी हिंसा और मारधाड़ वाली एक हॉलीवुड फिल्म की नकल के लिए उसे महान करार दिया जाता है और गजनी नाम की फिल्म भारतीय सिनेमा की अब तक की सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्म बन जाती है।
क्यों स्लमडॉग मिलियनेयर की परिकल्पना से लेकर उसका विपणन करने वाली टीम भारतीय नहीं है। क्योंकि हमारे फिल्मकारों को दूसरों की बनाए हुए सिनेमा को नकल करने से फुर्सत ही नहीं है। यदि वे ऐसा करते हैं तो किस मुंह से यह उम्मीद करते हैं कि उनकी फिल्में लोग पायरेटेड डीवीडी पर ना देखें। आखिर वे भी तो किसी की असली मेहनत को अपनी कमाई का जरिया बनाते हैं। लिहाजा मैं बहुत खुश हूं कि भारतीय कहानी को, भारतीय संगीत और भारतीय कलाकारों को इस फिल्म से नाम और काम मिला लेकिन असली गर्व का दिन तो तब आएगा जब बॉलीवुड के रहमान किसी बॉलीवुड की फिल्म के लिए ही जाने जाएंगे। और जो सिनेमा दुनिया के सिनेमा में इज्जत पाए वो रब ने बना दी जोड़ी और गजनी से कहीं आगे का होता है। सरहदें तोड़ता हुआ, आपकी ही कहानी पर सरहद पार से आपको आइने में देखने का अवसर देता हुआ कि देखों मुम्बई के नकलची फिल्मकारो, मुंबई की कहानी पर फिल्म ऐसे बनती है।
लेकिन शायर की भी सुनिए-फरिश्ते से बेहतर है इंसां होनापर इसमें लगती है मेहनत ज्यादा

शुक्रवार, जनवरी 02, 2009

अबके बरस

कैसे मिलेंगे अबके बरस दिन कमाल के,पिछला बरस तो गया कलेजा निकाल केओ मेरे कारवां, मुडक़र ना देख मुझकोमैं आ रहा हूं पांव के कांटे निकाल केमैं भारत का नागरिक हूं और उन तमाम पैँतीस या चालीस करोड़ युवाओं की तरह मैं भी खुशकिस्मत हूं। मेरे पिता गुलाम भारत में पैदा हुए और मैं आजाद भारत में। एक बरस और बीत रहा है। यूं लगता है, जैसे उम्मीदों से भरा मेरा दिल हौले हौले रीत रहा है। पूरे बरस में जख्म देखे हैं। कभी वे जयपुर आए, कभी वे अहमदाबाद गए, मालेगांव गए, मुम्बई के ताज और ओबेरॉय में घुस गए। मैं तख्ती लेकर गेटवे ऑव इंडिया और जयपुर के शहीद स्मारक के सामने तक खड़ा हो गया। तख्ती पर लिखा था-हार नहीं मानेंगे, आतंकवाद का मुंह तोड़ जवाब देंगे। मुझे पूरी आशंका है, जिस तरह हर बात पर हमें तख्ती उठाने की आदत पड़ गई है, एक दिन प्लास्टिक से बनी ये तख्तियां पर्यावरण प्रदूषण का काम करेंगी। इनसे सीवर लाइनें रुक जाएंगी। इसके बावजूद, साल बीत रहा है और मुझमें अकूत उम्मीदें भरी हैं। ये सारी उम्मीदे मुझे विरासत से मिली हैं। सिंधु घाटी सभ्यता से आर्यों तक, गौरी, गजनवी, लोदी, खलजी, बाबर, अकबर, औरंगजेब, डलहौजी, माउंट बेटन, नेहरू, इंदिरा, वाजपेयी, मनमोहन तक इस आर्यावर्त में अपनी पीठ पर उम्मीदों की पोटली लादे सांता क्लॉज बना घूम रहा हूं। मैं लुटा पिटा, युद्ध लड़े, आश्वासन लिए, मार खाई, भूखा रहा, मूक आंखों से भ्रष्टाचार का खुला खेल देखता रहा। अमीर को और अमीर होते, गरीब को और गरीब होते देखता रहा। साल दर साल मैंने वो सब कहानियां भी सुनी हैं जिसमें कई गरीब लोग अमीर हो गए। मसलन किस तरह कलकत्ता में नौकरी करने वाला एक युवक मुम्बई में आकर सुपरस्टार हो गया। किस तरह दसवीं पास एक आदमी इतना अमीर हो गया था कि उसकी संपति को लेकर उसके दोनों बेटों ने सार्वजनिक रूप से झगड़ा गया और तू तू मैं मैं आज भी होती है।़ किस तरह एक दलित की बेटी गरीबी से निकलकर इतने तोहफों के नीचे दब गई कि उसकी संपत्ति करोड़ों में हो गई। वह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री बन गई। लोकतंत्र की कुछ ऐसी ही उम्मीदों की पोटली का बोझ नए बरस में मैं अपने बच्चों को देने की कोशिश करूंगा। जबकि मंदी से जूझते हुए मुझ आम आदमी के बैंक खातों में स्कूल से मिले एक सर्कुलर से भूकम्प आया है कि फीस बढऩे वाली है।
नए साल में मुझमें दिख रहे इस आत्म विश्वास की कई वजह हैं। आजादी के साठ साल बीतने के बाद यह अहसास काफी सुखद है कि हत्या, रिश्वतखोरी जैसे अपराधों को हमने आम मान लिया है। उन्हीं में लिप्त आदमी को अपना रहनुमा बना सकते हैं। वे लोग देश को चला सकते हैं। अब मुझे दर्द तब तक नहीं होता है जब तक कोई मेरे ही घर में घुसकर मेरे घरवालों को ना मार दें। अफसोस तो इस बात का है मैं अपने निजी जीवन में घोर मौका परस्त, स्वार्थी, ईष्र्यालु हूं लेकिन मेरे पास देश के लिए जरूर समाधान है। मैं बता सकता हंूं कि भारत को आतंकवादी हमले का समाधान कैसे करना चाहिए? यह काम भी मनमोहन के झोली में नहीं डालना चाहता।
दरअसल यह नया बरस ऐसे समय में आ रहा है जब एक महीने पहले ही मुम्बई आतंक से दहली थी। दहला तो देश का आम आदमी भी था लेकिन दिल्ली में हो रहे चुनाव में विपक्ष की पार्टी ने ऐलान किया आतंकवाद के हमलों के लिए आतंकवादियों से ज्यादा जिम्मेदार केन्द्र की सरकार है। लिहाजा भारतीय जनता पार्टी ने ऐलान किया हम आतंकी हमलों से आपको और देश को बचाएंगे। दिल्ली में चुनाव के ही दिन मुम्बई में एनएसजी के कमाण्डो आतंकियों से लड़ रहे थे और भाजपा कांग्रेस आपस में चुनाव लड़ रही थी। मेरी उम्मीद इसलिए भी कायम है कि जनता ने भाजपा की बात नहीं मानकर अपने दिल की बात मानी। फिर इसी घटना को लेकर गेटवे ऑव इंडिया पर जोर शोर से आने वाली आम जनता-?- ने कहा अब आतंकवाद को खत्म होना पड़ेगा लेकिन भारत को असमय ही अपने देशभक्तों को इसलिए खोना पड़ा कि आदित्य चौपड़ा नाम के मशहूर फिल्मकार ने रब ने बना दी जोड़ी नाम से एक फिल्म बनाई और जनता हमलों ेकी परवाह किए बिना सिनेमाघरों में दौड़ी। रब ने बना दी जोड़ी का बारहवां हुआ कि लोग आमिर खान नाम के एक राष्ट्रीय नायक पर अपना पूरा प्रेम उंडेलने दौड़ पड़े। मल्टीप्लेक्स के कोने में फटेहाल खड़े आदमी से मैंने पूछा, आप कौन हैं, यहां उदास क्यों खड़े हैं? फटेहाल शरीफ आदमी बोला, मेरा नाम भारत है। पाकिस्तान से आए कुछ लोगों ने मेरी पिटाई कर दी है। ये लोग दस दिन पहले तक तो मेरे घावों पर मरहम लगा रहे थे लेकिन अचानक शाहरूख खान और आमिर खान नाम के लोग बीच में आ गए। सारे लोग मुझे अस्पताल में छोड़ आए और खुद फिल्म देखने चले गए।
नए साल में मुझे और भी उम्मीदें हैं। दुनिया का ठेकेदार कहलाने वाला एक राष्ट्र एक नई करवट ले रहा है। पहली बार वहां अश्वेत राष्ट्रपति नए साल में काम संभालेगा और पहली बार वह देश रुपए पैसे की भीषण तंगी में फंस गया है। यहां तक इराक के पत्रकार तक उनके राष्ट्रपति को जूते से मारने की हिम्मत करने लगे हैं। इन सारे घटनाक्रम से प्रभावित होकर भारत में बेईमानी की गैस से पेट फुलाए एक पूरा संप्रदाय बौद्धिक डकारें लेकर कह रहा है कि भारत अब सुपर पावर बन ही गया है। क्योंकि हमने खेती की जमीन पर सेज बना दी है। इसलिए लोगों को अनाज पैदा नहीं करना पड़ेगा। वे अब सीधे कार ही चलाएंगे, क्योंकि मंदी को दूर करने के लिए भारत सरकार ने कारों पर लगने वाला टैक्स कम कर दिया है। रिजर्व बैंक भी अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहा है कि जो लोग कर्ज नहीं लेना चाहते उन्हें भी जैसे तैसे करके कर्ज में फंसाया जाए। इससे उन लोगों को मदद मिल सके जिन्होंने औन पौने दामों पर किसानों से तो जमीनें खरीद ली लेकिन उन पर दोयम दर्जे के लोहे के सरिए और कम सीमेंट लगाकर बनाए गए फ्लैट्स को मुंहमांगे पैसों पर बेच सकें। वो पैसा फिलहाल तो आम आदमी को बहला फुसलाकर बैंक दे दे और जरूरत के मुताबिक ब्याज सहित वापस ले ले। बैंक को ज्यादा जरूरत पड़ जाए तो उसके मकान की कुर्की करवाकर अपना पैसा ले ले। क्योंकि यदि कोई आदमी गर्व से साथ यह कह सकता है कि मैं भारतीय हूं तो उसे अपने ही देश में लुटने में शर्म कैसी? अब अंग्रेज तो लूट नहीं रहे कि शर्म आए। अब तो डेमोक्रेसी है। जनता का राज। जनता में जिसको लूटना आता है वह लूटे और जिसे लुटना आता है, वह लुटे। जिसे दोनों ही नहीं आता वो इस देश में कीड़ा मकौड़ा है। इंजीनियर तिवारी है जिसे बहनजी के एक विधायक ने निपटा दिया है। मुझे पक्का यकीन है कि उसेे लूटना और लुटना नहीं आता था।
इससे आदर्श क्या शासन व्यवस्था हो सकती है कि जिनकी तरफ हमें बंदूक की नली करनी चाहिए, उनकी रक्षा में लगे कमाण्डोज ने जनता की तरफ वो नली कर रखी है। मुझे सरकार के कदमों से, रिजर्व बैंक के कदमों से राहत है कि वे पूरी कोशिश करके शेयर बाजार को गिरने से बचाने में लगे हुए हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि नए साल की पहली तिमाही में वे बाजार को इतना उठाने में कामयाब हो जाएंगे कि फिर से गिरा सकें। मुझे इसलिए बहुत अच्छा लग रहा है दुनियाभर में तेल की कीमतें नीचे गिर रही हैं और सरकार कह रही है कि चुनाव आने तक पर हम भी तेल के दाम कम कर देंगे। चुनाव से इतना पहले दाम कम करने से जनता इस राहत को भूल जाएगी। शायद उन्हें वोट ना दें। इसलिए अभी तेल कंपनियों को फायदा हो रहा है फिर सरकार को होगा। इतनी पारदर्शी जनकल्याणकारी लोकतांत्रिक सरकार जिस देश में काम कर रही है उसे सुपर पावर बनने से कौन रोक सकता है। सरकारी रोडवेज बसों में चलने वाले आम आदमी को सरकार पूरा रईसी सुख देना चाहती है इसलिए ऐलान किया है कि डीजल के दाम घटने के बावजूद किराया नहीं घटाया जाएगा। जबकि पिछले डेढ़ महीने से सरकार पूरा दबाव बनाए है कि हवाई जहाजों के किराए कम कराए जाएं।
सुपर पावर बनने का एक सबूत यह भी है हमारे यहां सबसे ज्यादा डायबिटीज वाले लोग हैं। नए साल में कोशिश करेंगे कि एड्स, हार्ट, अंधता, हैजा, पीलिया, मलेरिया, डेंगू जैसी बीमारियों में भी अव्वल आएं। कैंसर के मरीज हम अमेरिका से ज्यादा करने की कोशिश करेंगे ताकि सुपर पावर बनने में जो बची खुची दिक्कत है वो भी दूर हो सके। दिल्ली इस साल कोहरे से ज्यादा प्रदूषण के धुएं की धुंध रही है, हमारी कोशिशों का और क्या सबूत चाहिए। हमारे पास हेल्थ को लेकर बाबा रामदेव से लेकर श्री श्री और मोरारी बापू और आसाराम जी जैसे लोग हैं जो बोनस हैं। अमेरिका के पास तो ऐसा एक भी बाबा नहीं हैं। जब जरूरत होती है वे हमारे यहीं से बुलाते हैं। हमारे बाबा तो पानी के जहाज में भी योग सिखा सकते हैं। यह बात अलग है कि हम पानी से आने वाले पाकिस्तानी आतंकवादियों को नहीं देख सकते। हमारे डॉक्टर भी इतने प्रोफेशनल हो गए हैं कि जहां लोग मुफ्त में आंख का आपरेशन कराना चाहें उसकी आंख को निपटा दिया जाए। आखिर घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या?
एक आखिरी दिक्कत पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने की है। नए साल में इस दिक्कत को दूर करेंगे। कोशिश करेंगे कि लड़ाई ना हो। हो जाए तो कुछ ऐसा टांका बिठाया जाए कि अगले चुनाव में उसका फायदा सरकार को मिले। हालांकि हमने बंदूकें तान दी हैं। पाकिस्तान को भी कह रखा है कि आप भी तान लो ताकि कुछ बराबरी का मामला लगे। अमेरिका दुबककर देख रहा है और कारखाने वालों को कह दिया है कि हथियार बनाकर तैयार रखो। दोनों ही अपने परिचित हैं। अब लड़ेंगे और हथियारों की मदद मांगेंगे तो मना कैसे कर पाएंगे। आखिर अमेरिका तो लोकतंत्र रक्षक देश है। दोनों ही लोकतंत्रों की रक्षा करने की कोशिश करेगा। जैसी उसने इराक और अफगानिस्तान में की।
तो नए साल से मेरी कुल मिलाकर ये उम्मीदे हैं--शेयर बाजार ऊपर उठेगा-या तो पाकिस्तान पर हमला होगा या नहीं होगा-हवाई जहाज के किराए सस्ते होंगे-रोडवेज का किराया यथावत रहेगा।-चुनाव ना होते तो रेल किराया बढ़ता, शायद अब ना बढ़े-शाहरुख, आमिर, अक्षय कुमार की रद्दी फिल्में भी लोग देखेंगे, दूसरे लोगों की अच्छी फिल्मों के भी पिटने के खतरे हैं-खुदा ना करे पर यदि अमिताभ फिर बीमार हुए तो मीडिया दो दिन तक नानावटी अस्पताल से सीधा कवरेज करेगा। खेद है कि अबकी बार आतंकी हमलों का सीधा कवरेज आप नहीं देख पाएंगे। सरकार ने कानून बनाया है कि आम लोगों के सामने पोल पट्टी ना खोली जाए-भारत के धनकुबेरों की संख्या बढ़ेगी। मलेरिया, डेंगू और भूख से मरने वालों की संख्या बढऩे की पूरी उम्मीद है।
बात खत्म करते हुए खलील धनतेजवी से जयुपर में सुना शेर याद आया है-अब मैं राशन की कतारों में नजर आता हूंअपने खेतों से बिछडऩे की सजा पाता हूं । निस्संदेह मुझे शेर अच्छे लगते है ंलेकिन यह भी लगता है कि कवि और लेखक ही इस देश को पीछे धकेल रहे हैं। इकॉनॉमिस्ट जैसे तैसे कर शेयर ऊपर उठाकर देश को आगे बढ़ाते हैं और जनाव खलील जैसे कई शायर शेर सुनाकर विकास के रथ का पहिए पंक्चर कर देते हैं। लेखकों और कवियों से नए साल में मेरी अपील है कि वे बजाय शेर सुनाने के शेयर खरीदें ताकि देश जल्दी से जल्दी सुपर पावर बन सके। आमीन।