रविवार, अगस्त 23, 2009

हम शहर क्‍यों आते हैं


जुलाई-अगस्‍त 1992 में मैं पहली बार जयपुर आया था और ऐसा लगा था, जैसे एक गांव के अनजान से आदमी की आंखों के सामने चमत्‍कार घटित हो रहा है। इस महीने मैं अठारहवें में प्रवेश कर गया हूं। सत्रह साल मैंने ठेठ ग्रामीण और कस्‍बाई माहौल में बिताए और बाकी सत्रह साल एक महानगर होते बड़े शहर में।
दो दिन पहले जब गांव गया तो पाया स्‍कूली बच्‍चे खुश थे कि आजादी का जश्‍न मनाया जा रहा और उन्‍हें मिठाई मिली है। हालांकि गांव का सरकारी स्‍कूल, जिसमें मैं पढ़ा था, उसकी हालत आजकल खराब है और गांव में हमारे गांव के दो जनों ने मिलकर एक स्‍कूल खोला है, जिनका दावा है कि उनका स्‍कूल इंगलिश मीडियम है। जहां तक मैं जानता हूं, दोनों ही पार्टनर्स को अंग्रेजी का खास ज्ञान नहीं है। उनके टीचर भी कोई उम्‍दा नहीं है, दसवीं पास विद एनी डिवीजन। कोई फर्क नहीं पड़ता। गांव के ज्‍यादातर बच्‍चे कथित तौर पर अंग्रेजी मीडियम शिक्षा ले रहे हैं। जो लोग आर्थिक रुप से बहुत ही कमजोर हैं और मिड डे मील का लालच जिन परिवारों को है, वे अब हमारे स्‍कूल में जा रहे हैं।

अगर आप एल्‍युमिनी बनाएं तो हमारे स्‍कूल से एक जज, तीन डॉक्‍टर, कई इंजीनियर, असंख्‍य फौजी, एक आध मेरे जैसा कलमघिस्‍सू पत्रकार, सैकड़ों शिक्षित माताएं, अध्‍यापक और पता नहीं क्‍या क्‍या सूची है, मैं दावे से कह सकता हूं कि जो पढाई हमने सरकारी स्‍कूल में की थी, उसका रत्‍ती भर पर उस कथित अंग्रेजी स्‍कूल में नहीं पढ़ाया जा रहा है। यह बात मैं गांव में मेरे परिचित उन परिवारों को मौखिक रूप से बता चुका हूं कि इससे बेहतर वे अपने बच्‍चे को सरकारी स्‍कूल में डालें, जहां कम से प्रशिक्षित शिक्षक तो हैं, भले ही कम पढाएं, आप गांव वाले उन पर दबाव बनाएं लेकिन कोई टस से मस नहीं होता। मुझे अफसोस है कि मेरे गांव के छोटे बच्‍चे ऐसी भाषा पढ़ रहे हैं, जिसके बारे में वे कुछ नहीं जानते और उनके शिक्षक तो और भी कम जानते हैं।


मुझे यह भी जानकारी मिली कि मेरे गांव में नरेगा के तहत काम करने के लिए बीते साल अठावन लाख रुपए की मंजूरी सरकार ने दी है लेकिन कई काम इसलिए नहीं हो रहे हैं हमारी सरपंच अंगूठाछाप है, उसका पति भी अंगूठाछाप है। यह एक आरक्षित सीट थी, गांव पुराने असरदार लोगों ने उस दलित महिला के पति को भरोसे में लेकर चुनाव लड़ाया था लेकिन जल्‍दी ही उसने गांव के सवर्ण लोगों से किनारा कर लिया। उसे लगा कि ये लोग उसके हिस्‍से का माल भी डकार जाएंगे, लेकिन हमारा सौभाग्‍य यही है कि वह खुद अनपढ है और उसे पैसे खाने के जायज तरीके भी नहीं आते। मेरे माता पिता आज भी गांव में रहते हैं, जब कभी उन्‍हें मैं मेरे जयपुर वाले घर पर लाता हूं तो कुछेक दिन के बाद पिताजी हर बार कहते हैं कि फलां आदमी को फोन करके पूछना कि गांव में बारिश है या नहीं। मां अक्‍सर शिकायत करती है कि उसे गाडि़यों की आवाज में नींद नहीं आती। कई बार यह भी कि पंखा बंद करो, बहुत शोर करता है, नींद नहीं आती। लिहाजा पन्‍द्रह दिन बाद उन्‍हें वापस गांव छोड़ना होता है। अब तो साल में एक बार तब आते हैं, जब उनकी मजबूरी है। मसलन तीन महीने पहले पिताजी इसलिए आए थे उनकी आंख का मोतियाबिंद का आपरेशन होना था। तीन दिन बाद लौट गए। डॉक्‍टर ने एक महीने बाद फिर दिखाने को कहा था। मैंने उन्‍हें आने का पूछा तो बोले, दिखने तो लगा है ही, अब डॉक्‍टर क्‍या करेगा।


मेरे बच्‍चे शहर के कथित प्रतिष्ठित जेब काटने वाले अंग्रेजीदां स्‍कूलों में जाते हैं, जब मैं पिताजी को उनका फीस स्‍ट्रक्‍चर बताता हूं तो वे पहले तो चौंकते हैं कि इतने रुपए का दो रुपए सैकड़ा से ब्‍याज इतना होता है और तुम लोग गांव में रहकर आराम से अपना काम चला सकते हो। हालांकि बाद में वे चौपाल पर अपने हमउम्र दोस्‍तों के बीच इस बात पर फख्र भी करते हैं कि हमारे गांव के कई परिवारों की वार्षिक आमदनी और खर्च उतना नहीं है,‍ जितना मेरे पोते पोती अपने स्‍कूल फीस में उड़ा देते हैं।


जो शहर अच्‍छा लगता था, अब रोजाना काटने को दौड़ता है। दो दिन पहले गांव में सुबह हुई तो आंगन में दस बारह मोरों का एक परिवार तफरीह कर रहा था। आसमान में हजारों तोते उड़ रहे थे और बेहतरीन सरगम गा रहे थे। कौवे, चिडि़यांएं, कबूतर, कमेड़ी आदि उनकी संगत कर रहे थे। आसमान में बादल छाए थे और इक्‍की दुक्‍की बूंदे भी गिर रही थीं। मुझे लगा जैसे स्‍वर्ग की कल्‍पना ऐसी ही रही होगी। वरना मेरे जयपुर वाले घर के बाहर पांच बजे से स्‍कूल बसों के भोंपू बजने शुरू हो जाते हैं। घर के अंदर तक धुंआ भर जाता है। हॉर्न ऐसे बजते रहते हैं, जैसे उनके बिना काम ही नहीं चल सकता।
मुझसे जल्‍दी बच्‍चे जाग जाते हैं, उन्‍हें स्‍कूल जाने की तैयारी करनी होती है। उनके घर लौटने तक रोजाना उनकी मम्‍मी एक अजीब से खौफ में रहती है। दुर्घटनाएं, स्‍वाइन फलू, बच्‍चों के अपहरण से जुड़ी जो खबरें रोजाना चाय के साथ इस शहर में अखबार हमें परोसता है, इससे उसकी मनो‍स्‍थिति ऐसी हो गई है कि किसी दिन पंद्रह मिनट बस या आटो लेट हो जाए तो स्‍कूल से लेकर मुझ तक टेलीफोन की घंटियां बज जाती हैं कि बच्‍चे अभी तक क्‍यों नहीं आए।

मुझे याद है, ना तो हमारी मां, ना ही गांव की आजकल की मम्मियां इस बात की परवाह करती हैं कि बच्‍चे स्‍कूल से आने में देरी क्‍यों कर रहे हैं। वे कहीं भी नई ब्‍याई कुतिया बच्‍चों के साथ खेल रहे होते हैं, जैसा कि हम किया करते थे। ति‍तलियों के पीछे भागते हुए एक घंटा बिता देते हैं। कहीं भी चार आड़ी तिरछी लाइने खींचकर लंगड़ी टांग खेलने लगते हैं।

शहर में मेरे घर की बालकनी के ठीक सामने एक स्‍कूल है, अंग्रेजीदां और महंगा। छुटटी होने से दस मिनट पहले ही वहां माताएं, पिता, दादा, दादी या ड्राइवरों का जमावड़ा लग जाता है। वे अपने बच्‍चों को एक पल भी अकेले नहीं छोड़ सकते। उनका बचपन देखकर मुझे अपने स्‍वच्‍छंद दिन याद आते हैं जब घंटों तक मां हमारी परवाह नहीं करती थी। हम देर रात तक पीपल के भूत को देखने के लिए किसी कोने में दुबककर अंदाजा लगाते थे कि कम से कम आज तो भूत सू सू करने या पानी पीने या खाना जुटाने पीपल से बाहर निकलेगा, जिसके बारे में हमारी दादी से लेकर मां हमें आज तक डराती आई थी और कई गिलास दूध उसी डर में हम पी जाया करते थे। लेकिन कमबख्‍त भूत कभी बाहर आया ही नहीं। हां इतना जरूर है, जब विलंब से घर पहुंचते थे, मां के पास एक चांटा हमारे लिए आरक्षित रहता था कि इतनी देर से क्‍यों आए। हम इस चांटे के बारे में वाकिफ होते थे और रोज अपनी ही गलती दोहराते थे।

आज जब मेरी बेटी साना गांव जाती है तो गांव के बच्‍चे उसे घेर लेते हैं कि वह शहर से आई है। वे उसके बोलने के ढंग को मंत्रमुग्‍ध होकर देखते हैं, उसका रंग गांव के बच्‍चों के मुकाबले ज्‍यादा साफ है। साना भी उनकी कॉपी करती है, आजकल वह हमारे गांव की बोली बोलने लगी है। अपनी दादी और नानी से वह उन्‍हीं की जुबान में बात करती है। मेरे बेटे को गांव की जुबान बोलनी नहीं आती। हम घर में कोशिश करते हैं ज्‍यादा से ज्‍यादा राजस्‍थानी में बात करें लेकिन वह समझ सब लेता है, बोलता है तो हिंदी और राजस्‍थानी को गड़ड मडड कर देता है। फोन पर जब वह अपनी दादी या नानी से बात करता है, दोनों तरफ अंदाज से ही हाल चाल पूछे जाते हैं। क्‍योंकि दादी नानी को हिंदी समझने में परेशानी होती है और पोते दोहिते को मारवाड़ी। साना के दोस्‍तों को बड़ा संसार गांव में हैं, शहर में अपने मोहल्‍ले में उसकी किसी बच्‍चे से नहीं बनती। दो दिन की छुटटी के बाद जब हम जयपुर लौटने को सामान अपनी कार में रख रहे थे तो साना ने मुझसे पूछा, पापा, क्‍या हमारा शहर में रहना ज्‍यादा जरूरी है। हम क्‍यों नहीं अपने गांव में रहते। इतना बड़ा घर, खुली हवा और इतने सारे दोस्‍त।

मेरे पास मेरी बेटी को जवाब देने के लिए कुछ नहीं थ। आखिर यह सवाल तो मैं कई महीनों से खुद को ही पूछ रहा हूं कि क्‍या मेरा गांव छोड़कर शहर आना इतना ही जरूरी था।