रविवार, नवंबर 10, 2013

विजयदान देथा- गांव में रहने वाला वैश्विक लेखक

बिज्‍जी जैसे लेखक किसी भाषा में कई सालों में पैदा होते हैं। वे अपनी भाषा को बचाने के लिए मसीहा की तरह अपना काम करके चुपचाप चले जाते हैं। दुनिया में जब इस दौर के साहित्‍य की बात होगी तो बिज्‍जी की कहानियों का जिक्र जरूरी होगा।


-रामकुमार सिंह-
विजयदान देथा, जिन्‍हें प्‍यार से सब बिज्‍जी कहते हैं, उनका अब इस संसार में ना होना साहित्‍य के लिए ऐसा नुकसान है जिसकी भरपाई लगभग नामुमकिन है। जैसे ओ हेनरी, मोपासां, प्रेमचंद, गोर्की आदि तमाम महान लेखकों का कोई विकल्‍प नहीं हो सकता, वैसे ही बिज्‍जी का कोई विकल्‍प मुमकिन नहीं है।
वे दुनिया के उन चुनिंदा महान लेखकों में हैं जिन्‍होंने लोक साहित्‍य और आधुनिक साहित्‍य के बीच एक बेहतरीन सामंजस्‍य बिठाया। उसे खूबसूरत किस्‍सागोई से समृद्ध किया। वे राजस्‍‍थानी के लेखक थे लेकिन उनकी पहचान वैश्विक थी। हिंदी में उनका लगभग पूरा साहित्‍य अनूदित है। उनके अनुवाद जब अंग्रेजी में पहुंचे तो वे साहित्‍य के नोबेल के लिए भी नामित हुए। उन्‍होंने इतना समृद्ध साहित्‍य हमारे लिए छोड़ा है कि आने वाली कई नस्‍लें राजस्‍थानी भाषा जानने के नाते इस बात पर गर्व करेंगी कि उनके साहित्‍य में विजयदान देथा हैं। जो जादुई यथार्थवाद (मैजिकल रियलिज्‍म) गेब्रियल गार्सिया मार्केज और दूसरे लातिनी अमरीकी लेखकों में देखा गया, लगभग उन्‍हीं के समकालीन बिज्‍जी वही जादुई यथार्थवाद  बिना शोर शराबे के अपनी राजस्‍थानी कहानियों में इस्‍तेमाल कर रहे थे। जहां उनके पात्र जानवरों से लेकर भूत प्रेत और लोक जीवन से तमाम किरदार रहे। वे ताउम्र अपने गांव बोरूंदा में रहे लेकिन उनकी सोच वैश्विक थी।
बिज्‍जी ने लोक जीवन की खूबसूरती और मासूमियत को अपने किस्‍सों में इस तरह पिरोया है कि हमें अपनी पूरी सांस्‍कृतिक विरासत पर नाज हो सकता है।
मैं उनसे जिस समय मिला, वे राजस्‍थानी कहावत कोश पर काम कर रहे थे। मैंने अपना परिचय जब नए कथाकार के रूप में कराया तो उन्‍होंने मेरी कहानियां पढ़ने की इच्‍छा जताई। मेरा दुर्भाग्‍य था कि मैं अपनी कहानियां उन तक नहीं भेज पाया। वे बेहद मिलनसार और‍ जिंदादिल थे।

उनकी कहानियों पर फिल्‍में भी बनी हैं। प्रकाश झा की परिणति बिज्‍जी की ही कहानी पर बनी थी और एक निजी बातचीत में झा इसे अपनी सर्वाधिक पसंदीदा फिल्‍मों में मानते हैं। उनकी दुविधा कहानी पर मणि कौल की दुविधा और अमोल पालेकर की पहेली बनी। यह हमारी युवा पीढ़ी का दुर्भाग्‍य है कि उन्‍हें अपने महान लेखकों तक पहुंचने के‍ लिए भी सिनेमा की सीढियों का सहारा लेना पड़ता है। पहेली के बाद पूरे देश की नई पीढी ने बिज्‍जी को पढा।
उनकी जिंदादिली का एक किस्‍सा जो उनके परिवारिक दोस्‍तों के जरिए ही मुझ तक पहुंचा, उनके हास्‍य बोध और विट का संकेत करता है। फिल्‍म पहेली की रिलीज के आस पास किसी कार्यक्रम में बिज्‍जी को शाहरूख खान की कंपनी ने मुंबई बुलाया था। वहां उनकी मुलाकात फिल्‍म के सदस्‍यों से भी कराई। बिज्‍जी जब लौटकर आए तो उनके पुत्र महेंद्र साथ थे। उन्‍होंने बताया कि बिज्‍जी को रानी मुखर्जी भी मिली थीं और उनसे मिलकर वह इतनी अभिभूत थी कि उसने बिज्‍जी को उत्‍साह से गाल पर किस किया। उनके दूसरे पुत्र कैलाश कबीर ने जब बिज्‍जी को छेड़ते हुए पूछा तो बिज्‍जी ने कहा, हां, किया तो था लेकिन बीच में मफलर आ गया था।
बिज्‍जी जैसे लेखक किसी भाषा में कई सालों में पैदा होते हैं। वे अपनी भाषा को बचाने के लिए मसीहा की तरह अपना काम करके चुपचाप चले जाते हैं। दुनिया में जब इस दौर के साहित्‍य की बात होगी तो बिज्‍जी की कहानियों का जिक्र जरूरी होगा।