शुक्रवार, नवंबर 11, 2011

फिर वही कहानी लाया हूं, लेकिन संगीत नया है!

रामकुमार सिंह
सोचा ना था और जब वी मेट देखने के बाद मेरे जैसा कोई भी साधारण दर्शक यह अंदाजा लगा सकता है कि इम्तियाज अली के पास पर्दे पर कहानी कहने की एक कला है लेकिन अब उनकी फिल्में देखते हुए अनुमान लगाना आसान हो जाता है कि उनके पास कहानी एक ही है और उसी को आगे-पीछे करके कहते रहते हैं। इस वक्तव्य में दोनों ही चीजें निहित है। आप चाहें तो इम्तियाज को एक ही किस्सा बार-बार कहने के लिए खराब भी कह सकते हैं और यह भी कि एक किस्से को बार बार उसी ताजगी से कहने के लिए तारीफ भी कर सकते हैं।
दिल्ली के जनार्दन जाखड़ उर्फ जोर्डन के एक लड़की से दोस्ती करने, उसकी शादी हो जाने के बाद प्यार करने और हद दर्जे तक प्यार करने के बाद पिटाई खाने और दिल टूटने की आवाज से निकले संगीत के सहारे रॉकस्टार हो जाने, प्राग घूम आने और प्रेमिका को एक गंभीर बीमारी हो जाने और प्रेमी से पुन: मिलने तक की कहानी है रॉकस्टार।
मेरी समझ के हिसाब से रॉकस्टार एक मनोरंजक फिल्म है लेकिन इससे इम्तियाज अली का विस्तार नहीं होता, वे खुद को रिपीट करते हैं। इम्तियाज की फिल्म देखने के लिए मैं थिएटर में घुसने से पहले अंदाजा लगाता हूं कि यह ऐसी फिल्म होगी और वह लगभग वैसी ही लगती है।
खोसला का घोंसला के बाद ओए लकी लकी ओए और लव सेक्स धोखा देखने के बाद एक निर्देशकीय ग्राफ देखने के लिए मैं दिबाकर बनर्जी की ओर देखता हूं। धारावी से लेकर हजारों ख्वाहिशें ऐसी और ये साली जिंदगी के सुधीर मिश्रा को देखता हूं।
बॉक्स ऑफिस के हिसाब से रॉकस्टार की ताकत सितारा रणबीर कपूर और एआर रहमान का दिलकश संगीत है। रणबीर कपूर की सितारा छवि से इतर भी सोचकर कह रहा हूं कि वह चरित्र जिस पृष्ठभूमि से है, उसे उन्होंने ठीक से निभा दिया है। रही बात नरगिस फाखरी की, तो वो हिंदी बोलते हुए अखरती हैं लेकिन अखरती तो मुझे कटरीना कैफ भी है और तमाम वे अभिनेत्रियां, जो अपनी पूरी खानदानी पहचान के साथ अपने अभिनय का कहर ढाती हैं। लिहाजा इसके लिए नरगिस फाखरी और इम्तियाज दोनों को ही दोष देना बेमानी है। यह हमारी सिनेमा परंपरा का ही विस्तार है और सही मानें तो दर्शकों को खास फर्क नहीं पड़ता। वे नरगिस को देखते हुए उतनी ही खुशी महसूस करते हैं।
हजरत निजामुद्दीन दरगाह पर कुन फायाकुन फिल्माया गया है। गीत संगीत, फिल्मांकन और एक सूफियाना रोशनी सब मिल कर विरेचन करते हैं। संगीत के साथ कैमरा पूरी दरगाह से गुजरते हुए गुंबदों तक जाता है। मैं केवल इतना सा हिस्सा देखने के लिए एक बार फिर थिएटर में जा सकता हूं। साड्डा हक एत्थे रख तो जादुई है ही।
शम्मी कपूर फिल्म में एक उस्ताद हैं। शहनाई वादक हैं और शास्त्रीय संगीत को न समझ पाने वाले रॉकस्टार की बातें सुनकर उसके बारे में संगीत कंपनी के मालिक धींगरा कहते हैं – यह बड़ा जानवर है, तुम्हारे पिंजरे में नहीं आएगा। अपना रास्ता खुद बनाएगा। यह संवाद बाहर निकलने के बाद भी याद रहता है। शायद इसलिए भी कि एक दादा अपने पोते को जाते-जाते दुआ ही देकर गया हो।
इम्तियाज अली की लड़कियों के बारे में भी आप पूर्वानुमान लगा सकते हैं। वे बिंदास और खिली-खिली रहती हैं। इस फिल्म वाली फाखरी को एक गंभीर बीमारी देकर इंटरवल के बाद का मामला सीरियस कर दिया लेकिन इंटरवल से ठीक पहले रणबीर और नरगिस का चुंबन याद रहता है। लेटे हुए मालिश करवाता म्यूजिक कंपनी का मालिक ढींगरा (पीयूष मिश्रा) जोर्डन (रणबीर) से बातचीत कर रहा है। यह दृश्य याद रहता है। संपादन के लिहाज से भी फिल्म थोड़ी लंबी लगती है। पता नहीं इसका दोष आरती बजाज को दें या खुद निर्देशक को। एआर रहमान का संगीत फिल्म को ऊपर तक ले जाता है और उसमें इरशाद कामिल के गीत एक नया रंग भरते हैं।
बेशक, रॉकस्टार देखकर मैं खुश हूं लेकिन उतना नहीं जितना होना चाहता था।

मंगलवार, अक्तूबर 11, 2011

घाव को फाहे से सहलाने वाला

 गजल में शाइर का खयाल महत्त्वपूर्ण होता है लेकिन जगजीत सिंह ने साबित किया वे जिस गजल को गाते थे उसमें वे खयाल, रुमानियत या दर्द का एक नया रंग भर देते थे। वे हमारे बीच से गए नहीं है बल्कि और अधिक फैल गए हैं। 






दुनिया में सब मुसाफिरी पर हैं। सबको जाना है। कोई पहले कोई बाद में जाता है लेकिन जगजीत सिंह जिस तरह गए वो दुख देता है। जिस दिन उन्हें ब्रेन हैमरेज हुआ था उसी शाम वे गुलाम अली के साथ मंच से गाने वाले थे।
राजस्थान के श्रीगंगानगर में पैदा और पले बढ़े जगमोहन को, जो बाद में जगजीत हो गए, मुंबई जाना था और सन १९६५ के बाद कोई एक दशक तक जमकर संघर्ष करना था। वे परम्परागत संगीत घरानों से नहीं थे। उनकी आवाज पेड़ों के इर्द गिर्द नाचने वाले फिल्मी नायकों से मेल नहीं खाती थी और दूसरों की गजलें गाकर या शादी पार्टियों में गाकर आजीविका चलाते थे। उसी दौरान चित्रा दत्ता से विवाह किया और उनका बेटा विवेक उनकी दुनिया में आया तो वे बहुत अमीर नहीं थे। बस उनकी ख्वाहिशें अमीर थी। लेकिन सन १९७५ में उनका पहला एलबम अनफॉर्गेटेबल्स आया और नाम के अनुुरूप इसने कमाल कर दिया। जगजीत ने मुड़कर नहीं देखा।
असल में जगजीत सिंह ने गजल गायकी को जो असाधारण और मौलिक तरीका अपनाया था उसने उन्हें तो स्थापित किया ही। गजल जैसी एक क्लासिकल विधा को आम जनता में लोकप्रिय कर दिया। वे आज भी युवाओं में उतने ही लोकप्रिय रहे हैं जितने बुजुर्गों में। उनकी आवाज चिर युवा रही और आने वाले वर्षों में रहेगी। उनकी गायकी ऐसे काम करती है जैसे कोई गहरे घावों को रूई के फाहे से सहला रहा हो। जैसे आप चांदनी रात में एक शांत नदी में नौकायन कर रहे हों। जैसे बारिश की पहली बूंदों की खुशबू महसूस कर रहे हों।
जयपुर में कितनी ही बार वे आए और पिछले दो दशक में लगभग हर बार उनको लाइव सुनने का अवसर मिला। वो यादगार शाम कोई कैसे भूल सकता है जब जयपुर के अलबर्ट हॉल के सामने खचाखच भरे रामनिवास बाग में जगजीत सिंह अपनी माटी को नमन कर रहे थे। उसी मंच से उस दिन रेशमा और मेहदी हसन भी अपने राजस्थानी होने का गर्व कर रहे थे।
जगजीत सिंह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि गजल जैसी शास्त्रीय विधा के सांस्कृतिक संस्कार वे कई पीढियों को देकर गए हैं। आप संगीत के तकनीकी पहलुओं को समझते हैं या नहीं, इससे खास फर्क नहीं पड़ता लेकिन अगर आप एक बार जगजीत सिंह को सुन लेते हैं तो आपको संगीत से प्यार हो जाएगा, गजल से प्यार हो जाएगा। कई सारे संस्थान, कई सारी सरकारें पूरी पीढ़ी को संगीत से उतना संस्कारित नहीं कर सकते जितना काम अकेले जगजीत सिंह कर गए।
दरअसल गजल में शाइर का खयाल महत्त्वपूर्ण होता है लेकिन जगजीत सिंह ने साबित किया वे जिस गजल को गाते थे उसमें वे खयाल, रुमानियत या दर्द का एक नया रंग भर देते थे। वे हमारे बीच से गए नहीं है बल्कि और अधिक फैल गए हैं। 

बुधवार, अक्तूबर 05, 2011

क्या राजस्थानी सिनेमा संभव है?



-रामकुमार सिंह-

तीन दिन तक जवाहर कला केंद्र में चले राजस्थानी सिनेमा के जलसे में सबसे अच्छी बात यह थी कि जितनी फिल्में दिखाई गई वे लगभग हाउसफुल रहीं। मुंबई से आए लगभग लुप्त प्राय: राजस्थानी फिल्म इंडस्ट्री के यातनाम कलाकार और झंडाबरदार भी आए लेकिन क्या यह स मेलन करने मात्र से राजस्थानी सिनेमा के पनपने के आसार बनते हैं। मैं क्रूर होकर कहूं तो सच यह है कि ऐसा नहीं होगा। दरअसल पूरा फिल्म उद्योग हर ह ते एक नई करवट लेता है। एक शुक्रवार का बॉक्स ऑफिस का किंग अगले ह ते अपदस्थ होता है और उसे नया राजा मिल जाता है। कई बार एक ही राजा बार बार राज करता है, जैसे पिछले डेढ साल से सलमान खान कर रहे हैं। तो जिस राजस्थान में पिछले दो दशक में कोई महत्त्वपूर्ण फिल्म राजस्थानी भाषा में नहीं बनी तो तो अचानक यह चमत्कार कैसे हो सकता है?

मुझे यह राग कुछ जिस तरह समझ में आ रहा है, उसका उल्लेख मैं करना चाहूंगा। दरअसल राज्य सरकार ने जब यू सर्टिफिकेट वाली राजस्थानी फिल्मों को पांच लाख रुपए तक के अनुदान की घोषणा की तो यह ठहरे हुए पानी में कंकर था। कई पुराने खापट निर्माता कलाकारों और संघर्षरत लोगों के लिए यह एक अवसर की तरह लगा कि फिल्म बना दो, पांच लाख रुपए पक्के हैं।

जबकि यह अनुदान सिनेमा के लिए मजाक है। जिस दौर में गांव में टेलीविजन को व्यापक विस्तार हो चुका है, जहां गांव के लोगों के पास अपना सिनेमा देखने का विकल्प है कि हिंदी से लेकर हॉलीवुड और दुनिया के दूसरे देशों को सिनेमा देख सकती है वहां पांच लाख रुपए के अनुदान के लालच में बनी फिल्म वह क्यों देखेगा? और जो लोग वयस्क हैं, एडल्ट फिल्में देखना चाहते हैं वे छूट के दायरे में क्यों नहीं हैं? समय के साथ एडल्ट सिनेमा की परि ााषा भी बदल गई है। अब एडल्ट फिल्म का मतलब छिछौरी फिल्में नहीं बल्कि उसमें वल्र्ड क्लास सिनेमा भी शामिल है। जाहिर है फिल्म की गुणवत्ता देखकर अनुदान देने का मापदंड वहां भी लागू होता है।


दूसरी बात, सरकार ने जब मनोरंजन कर में छूट दी तो लोगों को लगा कि सरकार का मन है कि सिनेमा को प्रोत्साहन दिया जाए। दरअसल यह सरकार ने अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारी। सिनेमाघरों की दरों में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आई। सबने चुपके से दरें बढाई और या कुछ ईनामी योजनाएं चलाई कि ह ते में आप एक दिन सस्ती दरों पर फिल्म देखें बाकी हमें बढ़ी दरों पर फिल्म चलाने दें। आपको मालूम ही होगा कि सुबह के शो में जो टिकट आप पिचहतर रुपए में खरीदते हैं, शाम या रात होते होते वह मल्टीप्लेक्स में डेढ़ सौ रुपए में बिकता है। वह भी तब, जब उसमें मनोरंजन कर शामिल नहीं है। संयोग से इस साल एक के बाद एक हिट फिल्में आई हैं और करोड़ों रुपए का राजस्व सरकार ने गंवाया है (या सिनेमाघरों और निर्माताओं ने कमाया है)। सरकार सचमुच अपने भाषायी सिनेमा को प्रोत्साहन देना चाहती थी तो करोड़ों रुपए के मनोरंजन कर को लेकर एक स्लैब बना सकती थी कि सिर्फ राजस्थानी फिल्मों को मनोरंजन कर में छूट दे। हिंदी या हॉलीवुड सिनेमा से कमाए हुए मनोरंजन कर को हर किस्म की फिल्मों को मनोरंजन कर छोड़ देने के बाद तो भाषायी सिनेमा की चुनौती और बढ गई है। मल्टीप्लैक्स और सिनेमाघर मालिक क्षेत्रीय फिल्मकारों को झांकने तक नहीं देंगे।

मशहूर फिल्मकार ऋत्विक घटक कहा करते थे कि फिल्म बनाना हर आदमी के लिए आसान होना चाहिए। जैसे किसी का मन कहानी या कविता लिखने का होता है, नाटक करने का होता है ठीक उतना ही आसान होना चाहिए क्योंकि यह अंतत: अभिव्यक्ति ही तो है। उस जमाने में फिल्म बनाने की लागत बहुत आती थी। अब डिजीटल कैमरा आने के बाद यह बहुत आसान हो गया है। आपके स्टिल कैमरा की साइज के एक कैमरे से आप फीचर फिल्म बना सकते हैं। हालांकि यह भी इतना आसान और सस्ता भी नहीं है कि हर कोई खड़ा हो जाए और कहे कि अब तक वह पेट्रेाल पंप चलाता था और अब मन हो गया है तो फिल्म बना ले। लेकिन सृजनशील बहुत लोगों के लिए सिनेमा बनाने का रास्त सुगम हुआ है लेकिन देखते ही देखते उसे रिलीज करने का दूसरा रास्ता जटिल हो गया है। जबसे सिनेमा से थियेटर के अलावा सैटेलाइट, रिंग टोन और मल्टीमीडिया से जुड़े दूसरे अन्य लाभ कमाने के अवसर पैदा हुए हैं, तब से बड़ी पूंजी वाले कारपॉरेट ने इस पूरे उद्योग को एक कल्पनातीत ऊंचाई दे दी। फिल्म को बना लेने की आसानी और उसे रिलीज करने के तंत्र के बीच गहरा अंतर है। फिल्मों के निर्माण की लागत से कहीं ज्यादा टेलीविजन और दूसरे माध्यमों से उसे प्रचारित करने का बजट हो गया है। जाहिर है, सिनेमाई दुनिया उतनी ही जटिल और दुर्लभ आज भी बनी है, जैसी ऋत्विक घटक कभी नहीं चाहते थे। 

सोमवार, अगस्त 08, 2011

प्रकाश झा क्‍यों अलग हैं



प्रकाश झा की तकलीफ यही है कि देश में इस तरह का सिनेमा लोग बनाते भी नहीं हैं। यदि बड़ी संख्‍या में फिल्‍में बनने लगें तो इन विरोधियों को पाला भी कमजोर हो लेकिन समस्‍या यही है कि जिन चीजों से हमारे दर्शकों और जनता को समस्‍या नहीं है उनसे इन नेताओं को समस्‍या हो जाती है।








इन दिनों प्रकाश झा के बारे में आप बहुत कुछ पढ सुन रहे हैं। खासकर उनकी फिल्‍म आरक्षण को लेकर देशभर में उत्‍सुकता और उत्‍तेजना है। कुछ विज्ञप्तिबाज नेता तेजी से सक्रिय हो गए हैं और उन्‍हें अचानक से लगने लगा है कि सवर्ण जातियों के खिलाफ फिल्‍म में कुछ खराब टिप्‍पणियां हैं, वैसे ही दलितों को लगता है फिल्‍म आरक्षण उनके खिलाफ है। बकौल राजस्‍थानी नेता कि फिल्‍म यदि आरक्षण के पक्ष में हैं तो दलितों की लड़ाई कमजोर होगी और यदि आरक्षण के विरोध में हैं तो आरक्षण के लिए लड़ रहे लोगों की लड़ाई कमजोर होगी।



रविवार की शाम मैं जयपुर के होटल मैरियट में प्रकाश झा के साथ हूं और वे बताते हैं कि फिल्‍म को प्रोडक्‍शन बजट 52 करोड़ रुपए है और प्रचार के बारह करोड और। यानी कुल जमा 64 करोड़ रुपए दांव पर लगे हैं एक गंभीर किस्‍म के फिल्‍मकार के जो चुम्‍मा चाटी या मर्डर सर्डर या लिजलिजी प्रेम कहानी बनाकर उन सब तनावों से बच सकता था जो उसे राजस्‍थान, महराष्‍ट्र, उत्‍तरप्रदेश या दूसरे राज्‍यों में छुटभैया नेताओं की वजह से मिल रहे हैं। हमारी कमजोर ओर लाचार सी कानून व्‍यवस्‍था सारी जिम्मेदारियां फिल्‍मकार पर ही डालती है कि कुछ पंगा हुआ तो आप ही जिम्‍मेदार होंगे।

हिंदुस्‍तान में पॉलिटिकल सिनेमा पर ही यह दिक्‍कत क्‍यों होती है? झा कहते हैं, ऐसा किसी भी सिनेमा के साथ हो सकता है। इस देश में कुछ भी हो सकता है। मैं पूछता हूं कि जब आपको पता है आपकी हर फिल्‍म से किसी न किसी को दिक्‍कत होती है, हर बार रिलीज से पहले तनाव होता है, लोग पब्लिसिटी स्‍टंट कहकर काम चला लेते हैं लेकिन एक निर्माता के रुप में हर बार आप तनाव से गुजरते हैं, क्‍यों नहीं दो भाई, दो लड़कियां, मां बेटे कुंभ के मेले में बिछड़ने टाइप मसाला डाल के बेच सकते हैं तो हर बार यह पंगा क्‍यों लेते हैं, तो प्रकाश झा मुस्‍कराते हैं, कहते हैं मैं नहीं बना सकता वो फिल्‍में। मुझे इसी में मजा आता है।

इस बीच मुंबई से कोई फोन आता है, प्रोड़यूसर्स गिल्‍ड, सरकार ओर झा की खीझ को लेकर बात होती है। वे इशारा करते हैं कि इन सबको ना रिकॉर्ड करें लेकिन वो बातचीत सुनकर मैं उनके तनाव का अंदाजा लगा सकता हूं। एक रचनात्‍मक आदमी जो यह कह रहा है कि वो पिछले सात साल से इस विचार के साथ जूझ रहा था और अब जाकर यह मूर्त हुआ है। जो यह कह रहा है कि यदि अमिताभ इस फिल्‍म के लिए हां नहीं कहते तो मैं फिल्‍म शुरू ही नहीं करता। जो यह कह रहा है कि उसकी अगली फिल्‍म की कहानी भी देश के राजनीतिक माहौल के इर्द गिर्द ही होगी तो तनाव के बीच यह हौसला ही साबित करता है कि प्रकाश झा सबसे अलग क्‍यों हैं?

वे उन लोगों से लड़ रहे हैं,‍ जिनसे जब हमने प्रेस कांफ्रेंस में पूछा कि जब सेंसर बोर्ड ने फिल्‍म को प्रमाण पत्र दे दिया है तो उन्‍हें क्‍या आपत्ति है ओर उनका जबाव है कि सेंसर बोर्ड में भी आदमी बैठते हैं, उनसे गलती हो सकती है, और वे उस गलती को सुधारना चाहते हैं। मुझे पता है वे सब ऐसे नेता है जो इस फिराक में रहते हैं कि कोई मुद़दा हडपें। वे कभी सिनेमा नहीं देखते। वे सिनेमा माध्‍यम को रत्‍ती भर भी नहीं समझते।

प्रकाश झा की तकलीफ यही है कि देश में इस तरह का सिनेमा लोग बनाते भी नहीं हैं। यदि बड़ी संख्‍या में फिल्‍में बनने लगें तो इन विरोधियों को पाला भी कमजोर हो लेकिन समस्‍या यही है कि जिन चीजों से हमारे दर्शकों और जनता को समस्‍या नहीं है उनसे इन नेताओं को समस्‍या हो जाती है।

झा एक बात और कह रहे हैं कि मैं दावे से कह सकता हूं कि फिल्‍म रिलीज होने के बाद जब ये लोग देखेंगे तो शायद खुद ही पछताएंगे कि वे क्‍यों‍ बिना किसी आधार के विरोध कर रहे थे क्‍योंकि फिल्‍म में ऐसा कुछ भी नहीं है। वो किसी जाति विशेष के खिलाफ नहीं है। यहां तो हालात ही खलनायक की तरह व्‍यवहार कर रहे हैं। यह एक पूरा तंत्र खड़ा हो गया है, जिसकी ओर फिल्‍म संकेत करती है, बाकी फिल्‍म को मूल तो एक इमोशनल कहानी है। पता नहीं लोग क्‍यों नहीं समझते।



प्रकाश झा पर बौदि़धक तबके का यही आरोप है कि उन्‍होंने स्‍टारडम से अलग एक मौलिक सिनेमा बनाने की कोशिश की तो अब वे सितारों वाले सिनेमा की तरफ कैसे मुड़ गए? झा कहते हैं, क्‍या करूं, जब फिल्‍म बनाने की लागत वही है और अच्‍छी कहानी भी मेरे पास है तो मुझे बॉक्‍स आफिस भी तो देखना है। आप देखिए, अच्‍छी बनी फिल्‍मों के क्‍या हाल हैं। शो कैंसिल हो जाते हैं। तो मैं क्‍या करूं? और वे प्रकारांतर से कहते हैं कि धारा बदलने वाले सिनेमा का खिताब आप लोगो ने दिया है, मैं तो फिल्‍मकार हूं अपने तरह की फिल्‍म बनाता हूं।



भाषा को लेकर वे आश्‍वस्‍त हैं, मैंने कहा, राजनीति में इतनी शुद़ध हिंदी कि लगता नहीं आप इस दौर में इस तरह की भाषा इस्‍तेमाल कर सकते हैं, वे मुस्‍कराते हुए कहते हैं, यह सब आपको आरक्षण में भी मिलेगा। राजनीतिक सामाजिक उथल पुथल वाले डायलॉग की जटिलता के बारे में कहा तो बोले, बार बार सुनिए ना, समझ में आएगा।



इस पूरे तनाव के बीच भी उनके पास एक विट है, हास्‍यबोध है। इस बातचीत के बीच भीतर आ गए पत्रकार मित्र ने पूछा कि पर्दे के पीछे से इतना काम किया है, कभी पर्दे पर आने की सोची है। वे कहते हैं, आजकल मैं ही मैं इतना पर्दे पर आया हुआ हूं। लोगों को स्‍पष्‍टीकरण दे रहा हूं कि मेरी फिल्‍म में ऐसा कुछ नहीं है।

फिर वो कहते हैं, राजनीति में भी मैं एक जगह पर्दे पर था और आरक्षण में भी पर्दे पर नजर आउंगा। मैंने धांसू काम किया है और देखना फिल्‍म मेरे ही अभिनय के दम पर सुपर डुपर हिट होगी।

बुधवार, जुलाई 27, 2011

सिंघम: हिंदी सिनेमा की दबंग धारा

निर्देशक रोहित शेट्टी की पहचान कॉमेडी फिल्मों से है और हमेशा यह कहते रहे हैं कि वे असल में एक्शन फिल्में बनाना चाहते थे। सिंघम के जरिए उनकी यह मंशा पूरी हुई है और पर्दे पर दिख रहे क्रेडिट्स के मुताबिक एक्शन डिजायन खुद रोहित ने किए हैं। 

सिंघम हिंदी फिल्मों में इन दिनों चल रही दबंग धारा की फिल्म है और यह एक ईमानदार पुलिस अफसर की कहानी है जो भ्रष्ट नेता से लड़ता है। ऎसी सैकड़ों फिल्में हम कई बार देख चुके हैं जिसमें इंस्पेक्टर विजय ईमानदार होता है लेकिन सिंघम समकालीन फिल्म है और उसमें समकालीन मसाले हैं। उसमें रोहित शेट्टी का कामयाबी वाला स्पर्श है, जहां वे हंसी में एक्शन और एक्शन में हंसी का घालमेल बहुत जोरदार ढंग से करते हैं। 

कहने को यह साउथ की फिल्म सिंगम को रीमेक है लेकिन हिंदी के आम दर्शक इसे देखते हुए अपनी कुर्सी नहीं छोड़ते। यह दरअसल हिंदुस्तानी आम जनता का सिनेमा है, जिसे एक नायक चाहिए जो बुराइयों से लड़ता है। यहां उनका नायक बाजीराव सिंघम है, जो छोटा सा इंस्पेक्टर है लेकिन उसके काम करने के अलग ढंग से एक दिन पूरा पुलिस महकमा उस पर गर्व करता है। इसमें कुछ प्रयोगशील और क्रांतिकारी नहीं है लेकिन जब नायक लाइट का पोल उखाड़ता है और जीप के समांतर दौड़ते हुए गुंडों की पिटाई करता है या जब मंत्री को उसके ही कमरे में घुसकर पिटाई करता है तो आम दर्शक के भीतर भरे गुस्से का विरेचन होता है, मनोरंजन तो खैर होता है ही। 

फिल्म की पटकथा बांधे रखने वाली है। इंटरवल तक नायक और खलनायक की कोई सीधी टक्क्र नहीं है लेकिन वह भूमिका जरूर तैयार हो रही है। बाजीराव अपने ही गांव की चौकी में इंस्पेक्टर है और लगभग एक पंचायत की तरह से ही काम करता है। वह पूरे गांव का चहेता है और गांव के मूल्यों में ईमानदारी और अपनों के काम आने की आदत उसमें हैं लेकिन उसी सिंघम का मुकाबला जब एक भ्रष्ट माफिया से होता है और उसका तबादला दंड स्वरूप जब शहर में कर दिया जाता है तो बाजीराव एक बार टूटता है लेकिन जो एक चेहरा बार बार रोहित पर्दे पर दिखाते हैं, वह उस ईमानदार इंस्पेक्टर का पंाच साल का बच्चा है जिसने माफिया जयकांत शिक्रे के दबाव में आकर आत्महत्या कर ली थी। उसी बच्चे के संवाद पर बाजीराव टिकता है और फिर मुकाबला शुरू होता है। 

अजय देवगन की शुरूआत एक्शन फिल्म से ही हुई थी और यहां वे पूरे रंग में हैं। लेकिन एक अलग चरित्र और जोरदार भूमिका प्रकाश राज की भी है। जयकांत शिक्रे कुछ सनकी, एक ईगोइस्ट नेता कारोबारी के रूप में वे हंसाते भी हैं और थ्रिल भी करते हैं। अभिनेत्री काजल अच्छी ही लगी हैं। बहरहाल रोहित पूरी फिल्म में कॉमेडी का दामन नहीं छोड़ पाए हैं। यहां तक की पूरे क्लाइमेक्स में भी हंसने के पर्याप्त अवसर हैं। पटकथा सचमुच मनोरंजक है और विटी संवादों की वजह से फिल्म पैसा वसूल है। आप एक्शन फिल्मों के शौकीन हैं, अजय देवगन के फैन हैं और सिस्टम पर अपना गुस्सा अंधेरे में बैठे हुए निकालना चाहते हैं तो यह फिल्म आपके लिए है।

जिंदगी मिलेगी ना दोबारा

निर्देशक जोया अख्तर की फिल्म जिंदगी मिलेगी ना दोबारा एक खूबसूरत फिल्म है। अगर आप पुरानी फिल्मों से तुलना करने के आदी हैं तो इसमें दिल चाहता है और थ्री इडियट का मिश्रण है। गोया कि इसमें जिंदगी को देखने का एक आभिजात्य नजरिया है, लेकिन इसे आप जहां से खड़े होकर देखेंगे, खूबसूरत ही नजर आएगी।

कबीर (अभय देओल) की शादी होने वाली है। वह अपने दो पुराने दोस्तों के साथ स्पैन की बैचलर ट्रिप पर जाना चाहता है। दूसरे दोस्त हैं कॉपी राइटर और कवि इमरान (फरहान अख्तर) और फाइनेंशियल ब्रेाकर अर्जुन (रितिक रोशन)। इमरान के पास भी स्पैन जाने का मिशन है लेकिन हरदम पैसे कमाने में लगे हुए और चालीस के बाद रिटायर होने की प्लानिंग कर चुके अर्जुन को मनाने में जोर आता है। 

तीनों दोस्त एक यात्रा पर निकलते हैं। यह यात्रा उनके बीते हुए दिन लौटाती है और जब वापस लौटते हैं तो उनकी जिंदगी एकदम से बदल गई है। असल में यह केवल इन तीन दोस्तों की नहीं, बल्कि दर्शकों की भी एक तरह से स्पैन की यात्रा है। करीब पौने तीन घंटे की इस यात्रा में दर्शक स्पैन की अनछुई लोकेशन्स का आनंद लेते हैं और एक जीवन दर्शन तो साथ चलता ही है। कथा प्रवाह की सहजता और संवादो में विट आनंददायी हैं। 

जिंदगी से उठाए किस्से और कुछ जिंदगी में वांछित रोमांच सिनेमा के पर्दे पर है। दरअसल पूरी कहानी के अन्तप्रüवाह में प्यार, पैसा और खुद की तलाश में सारे पात्रों का एक समानांतर संघर्ष है लेकिन वह ऊबाऊ नहीं लगता और सारे पात्र युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि चरित्रों की तरह उभरकर आए हैं। चूंकि निर्देशक एक लड़की है, तो लड़कियों के दोनों ही चरित्र कटरीना और कल्कि में जो खूबसूरती और उनके भीतर की लड़की को दिखाया है, वह इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि हमारे यहां बहुत कम फिल्मों में लड़कियां अपने पूरे ख्वाबों के साथ के मौजूद होती हैं। 

आप मानें तो फिल्म की एक खूबी यह भी है कि नए सिनेमा और नई जुबान के सिनेमा के नाम लगातार आ रही एडल्ट फिल्मों से इतर यह एक ऎसी फिल्म है जिसे आप सपरिवार देख सकते हैं। फिल्म के भीतर इस्तेमाल जावेद अख्तर की कविताएं अच्छी लगती हैं। एक तरह पूरी फिल्म की कविता की तरह बहती है। एक खूबसूरत कहानी के खूबसूरत और ईमानदार फिल्मांकन के लिए यह फिल्म आप देखें। थोड़ी देर के लिए ही सही, फिल्म जिंदगी जीने का एक नया नजरिया देती है

शनिवार, जुलाई 09, 2011

मर्डर 2: गोवा की पृष्ठभूमि में रचा थ्रिलर





मर्डर की कामयाबी से उत्साहित महेश भट्ट और निर्देशक मोहित सूरी मर्डर 2 को पर्दे पर लेकर आए हैं। फिल्म की कहानी पुरानी मर्डर से अलग है। असल में यह एक रिलेशनशिप से ज्यादा एक थ्रिलर फिल्म है जिसमें एक साइको किलर लड़कियां उठाता है और उनकी हत्या कर देता है। अर्जुन (इमरान हाशमी) एक पुराना पुलिसवाला है लेकिन आजकल वह दलाली और दूसरे धंधे कर रहा है। यह उस रहस्य को सुलझाने में लगा है लेकिन सरकार के कहने से नहीं बल्कि एक लोकन दलाल से पैसे लेकर बदले में यह काम कर रहा है।

कहानी गोवा की पृष्ठभूमि में है और फिल्म देखते हुए यूं लगता है जैसे गोवा कोई डरावनी जगह है। अर्जुन की एक दोस्त है प्रिया (जैकलीन फर्नाडीस) जो मॉडल है और कैमरे और कमरे दोनों में निर्बाध रूप से कपड़े खोल रही है, अुर्जन और प्रिया के बीच होने वाले संवाद नकली और बनावटी प्रेम संवाद हैं। एक बानगी देखिए, लड़की पूछती है कि मैं तुम्हारी मोहब्ब्ात हूं या जरूरत? तो लड़का तुक मिलाते हुए संक्षिप्त में कहता है, आदत। ऎसे दृश्यों और संवादों पर युवाओं की तालियां पड़ रही हैं। पर्दे पर गाली और थियेटर में ताली इस दौर की फिल्मों का नया मुहावरा हो गया है और यह कोई अच्छा संकेत नहीं।

लेकिन इस सिनेमाई मुहावरे से इतर मर्डर एक थ्रिलर है और इसकी खूबी यह है कि यह दर्शक को बांधकर रखती है। कहानी में बहुत ज्यादा नयापन नहीं है लेकिन फिल्म के कुछ दृश्य सचमुच डराते हैं और कुछ दृश्य गैर जरूरी से हैं जहां सेक्स को बेचा गया है। शुरूआत के आधे घंटे की फिल्म में पर्दे पर ज्यादा देर इमरान और जैकलीन की उपस्थिति है और चुंबन और बैडरूम दृश्य हैं। लेकिन मर्डर 2 में दर्शनीयता लगातार बनी रहती है और इसकी वजह है कि पटकथा का प्रवाह। इमरान हाशमी को एंग्री यंग मैन की छवि देने की कोशिश की गई है।

खासकर दीवार के अमिताभ से प्रेरित वे दृश्य जिसमें पहले वह चर्च में जाने से इनकार करता है और ईश्वर से अपना छत्तीस का आंकड़ा बतााता है और फिल्म खत्म होने तक अपनी घायल टांग घसीटते हुए वह चर्च तक जाता है। फिल्म में सबसे काबिले तारीफ और सहज काम लगा प्रशांत नारायण का जो एक साइको किलर की भूमिका निभा रहे हैं। गीत और संगीत औसत हैं। उनमें मर्डर जैसी शब्दावली और कर्णप्रियता का अभाव है। सिनेमाटोग्राफी ठीक है। कुल मिलाकर मर्डर 2 थ्रिलर के शौकीन लोगों के लिए है। यह कोई रोमांटिक फिल्म नहीं है, लेकिन रोमांस में जिस्म नुमाइश की जितनी गुंजाइश होती है उससे भी ज्यादा बेचने का काम मोहित सूरी ने किया है और लग रहा है कि यह बिकेगा

सोमवार, जून 20, 2011

तुझको देखा है मेरी नजरों ने तेरी तारीफ हो मगर कैसे



                   DAAN SINGH JI  IN HOSPITAL ON 13 JUNE 2011
उन्होंने आखिरी बार संगीत फिल्म भोभर में दिया है। हमारे एक मित्र के साथ जब फिल्म के गाने को लेकर जब हम उनसे मिले थे तो अपना पहला गीत होने के कारण मैं डर रहा था कि कहीं वे यह ना कह दें कि यह क्या गीत हुआ? लेकिन उन्होंने पहले कहा, गाने के बोल बताइए। फिर कागज अपने हाथ में लिया। गाना पढा और बोले, उस्ताद, अच्छा लिखा है।

 एक मशहूर गायिका के प्रेम प्रसंग के बारे में मैंने उनसे इसलिए पूछ लिया था कि बहुत कुछ जानते थे लेकिन वे तुरंत पलटकर बोले, मैं जानता हूं आप क्या पूछ रहे हैं लेकिन मैं कुछ नहीं बोलंूंगा, मैं रहूं ना रहूं ये शब्द रहेंगे और मुझे ऐसे किसी प्रसंग से कोई प्रचार नहीं चाहिए। कोई विवाद नहीं चाहिए। एक मशहूर निर्देशक ने उनसे किए वादे को ना निभाया और यह भी जब मैंने पूछा तो वे मौन हो गए। उन्होंने कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की। यहां तक परिवार में हुए हादसों के बारे में भी वे कम बात करते थे। वे संगीत को जीते थे और बस उसी की धुन में मस्त रहते थे। उनकी मृत्यु से पांच दिन पहले ही जब हम अस्पताल में उनसे मिले थे तो उन्होंने वादा किया था कि रामजी, मैं ठीक होते ही आपको दूसरी कंपोजिशन सुनाउंगा। आपने जो लिखा है, उसमें थोड़ा कबीर का अगोचर राम है, थोड़ा रहस्यवाद है। धुन भी वहीं से निकालकर लाऊंगा। ऐसे उत्साही और जिंदादिल थे संगीतकार दान सिंह, जो इस ताउम्र इस शहर में रहे, मुंबई गए और कुछ चुनिंदा अमर धुनें रचकर इसी शहर में लौट आए और यहीं से हमेशा के लिए विदा हो गए। उन्होंने ना लोगों की, ना मुंबई की और ना ही सरकार की बेरूखी पर कभी अफसोस जताया और ना ही दूसरे कलाकारों की तरह बेचारगी का रोना रोया। हां, राजनीति और निरर्थकताओं से भरी हमारी अकादमियों और सरकारों ने भी कभी उनसे पूछने और उन्हें कुछ सौंपने की जहमत नहीं उठाई।
वे अपने गुरु खेमचंद्र प्रकाश के जिक्र मात्र से रोमांचित हो उठते थे। एक बच्चे सी चपलता के साथ कई किस्से एक साथ सुना डालते थे।  अपने गुरु की ही तरह उन्होंने चुनिंदा धुनें बॉलीवुड को दी लेकिन वे सब अमर धुनें हैं। मुकेश उनके प्रिय थे और वो तेरे प्यार का गम, इक बहाना था सनम, जिक्र होता है जब कयामत का तेरे जलवों की बात होती है गीतों की अमर धुनें बनाईं।
गुलजार के लिखे पुकारो मुझे नाम लेकर पुकारो की की रिकॉर्डिंंग पर जब मुकेश आए तो उन्होंने दान सिंह से धुन सुनते ही कहा, दादा यह गाना तो मैं सुनकर आया हूं इसी धुन पर। तुम्हीं मेरे मंदिर तुम्हीं पूजा, तुम्हीं देवता हो, तुम्हीं देवता हो। जैसा कि दान सिंह बताते थे कि मुकेश ने हंसकर कहा था किसी दिन आपने गाफिल होकर कहीं सुना दी होगी लेकिन यह धुन अब आपकी नहीं रही और दान सिंह बोले, आप आ ही गए हो, गाना रिकॉर्ड आज ही होगा और यह लो नई धुन। और इस तरह पुकारो मुझे नाम लेकर पुकारो की एक नई धुन हाथोंहाथ उन्होंने तैयार कर दी।
इन दिनों उनकी पत्नी डॉ. उमा याज्ञनिक पूरे समर्पण के साथ उनकी सेवा कर रही थीं। उनकी मुहब्बत और नोंक झोंक का मैं गवाह रहा हूं। चाय पिलाने के बाद जब वे पूछती कि चाय कैसी बनी है, वे बोले, उम्दा। बोली, अभी इनके सामने तारीफ कर रहे हो लेकिन इनके जाते ही कहोगे कि उमा आजकल पता नहीं तुम्हें क्या हो गया है, तुम चाय बनाना भूल गई हो।
उन्होंने आखिरी बार संगीत फिल्म भोभर में दिया है। हमारे एक मित्र के साथ जब फिल्म के गाने को लेकर जब हम उनसे मिले थे तो अपना पहला गीत होने के कारण मैं डर रहा था कि कहीं वे यह ना कह दें कि यह क्या गीत हुआ? लेकिन उन्होंने पहले कहा, गाने के बोल बताइए। फिर कागज अपने हाथ में लिया। गाना पढा और बोले, उस्ताद, अच्छा लिखा है। और अगले ही दिन दो धुनें तैयार थी। वे युवा निर्देशक गजेंद्र श्रोत्रिय से बोले, आपको पसंद ना आएगी तो और धुनें सुनाउंगा। आप बेहिचक बताइए। वे इतने सहज और दंभ रहित थे। अगली बार जब हम बीमारी में उनसे घर मिलने गए थे तो बोले, मैंने कहा था ना रामजी कि आपने अच्छा लिखा है। आज मुझे उसके बोल याद हैं और यूं लगता है जैसे मुझ पर ही लागू हो रहे हैं, देह मिली, संग दरद मिल्यो, उगतो सूरज ढळै है रोज। और फिर वे गाने के मुखड़े पर आए कि उग म्हारा सूरज तनै भोर बुलावै, सांझ सूं भटक्यो, घर क्यूं ना आवै। बोले, अपना सूरज ढूंढऩे की यह बहुत बड़ी पुकार है, यह अमर हो जाएगी। इस स्नेह से मेरी आंखें नम थीं।
मुझे उन्हीं के संगीतबद्ध किए माय लव फिल्म गीत की पंक्तियां याद आती हैं जिसमें आनंद बख्शी के बोल और मुकेश की आवाज है-
तुझको देखा है मेरी नजरों ने तेरी तारीफ हो मगर कैसे,
कि बने यह नजर जुबां कैसे कि बने यह जुबां नजर कैसे
ना जुबां को दिखाई देता है, ना निगाहों से बात होती है
जिक्र होता है जब कयामत का तेरे जलवों की बात होती है।
(published in rajasthan patrika on 19 june 2011)

शनिवार, जून 11, 2011

वे मुस्करा रहे थे, गम छुपा रहे थे


हुसैन टहलते हुए थिएटर के बाहर खुले चौक में नंगे पांव घूम रहे थे। फर्श बेहद गर्म था और उनके चेहरे पर मुस्कान। यह मेरे खयाल से उनके भारत में होने का सबसे बेहतरीन बिंब था कि उनके चलने के लिए जमीन बहुत गर्म थी फिर भी वे मुस्करा रहे थे। 

यह जयपुर में अप्रेल २००४ की एक गर्म दुपहर थी और हम थिएटर में मकबूल फिदा हुसैन के साथ उनकी फिल्म मीनाक्षी: अ टेल ऑव थ्री सिटीज देख रहे थे। यह आमंत्रित लोगों का एक विशेष शो था। वे बार-बार पर्दे से कहीं ज्यादा दर्शकों के चेहरे पढऩे की कोशिश कर रहे थे। नए किस्म के सिनेमा का प्रशंसक होने के नाते मैं मुग्ध भाव से कविता की तरह बह रही फिल्म के संवाद, गीत, संगीत और विशेषकर छायांकन का लुत्फ ले रहा था। जिन तीन शहरों की कहानी इसमें थी उसमें मैंने केवल जैसलमेर ही साक्षात देखा था लेकिन कैमरे ने पैन होते हुए फिल्म में जब जैसलमेर को दिखाया तो यूं लगा कि यह उससे भी खूबसूरत कोई शहर है, जिसे मैंने देखा है। यह तारीफ मैंने फिल्म के बाद बातचीत में हुसैन साहब से की तो वे बोले, जिन लोगों ने हैदराबाद और प्राग देखे हैं वे भी यही कहते हैं कि इन शहरों से गुजरते हुए उन्हें इतने खूबसूरत कभी नहीं लगे जितने कि पर्दे पर लग रहे थे। बेशक कैमरे पर संतोष सिवान थे लेकिन यह एक चित्रकार की फिल्म थी और फिल्म पर उस समय विवाद थे। कोई रिलीज नहीं कर रहा था  अपने स्तर पर रिलीज करने खुद राजस्थान आए थे। वे बोले, आखिर इस प्रदेश का एक शहर मेरी फिल्म का हिस्सा है और यहां इसे देखा जाना चाहिए। एक कलाकार की भावुकता का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा? मीनाक्षी में एक ऐसा संवाद है कि सूरज की किरण की तासीर भी अजीब है, मिट्टी पर गिरती है तो उसे सुखाती है और बदन को छूकर उसे गीला कर देती है। फिल्म के संवाद लेखकों में उवैस हुसैन और एमएफ हुसैन का नाम था। मैंने उनसे पूछा, यह संवाद उवैस का है या आपका? एक बच्चे की तरह शर्माते हुए और प्रफुल्लित होते हुए वे बोले, यह वाला मैंने लिखा है। उनकी सफेद दाढ़ी से ऊपर निकले गालों पर एक हल्की सी लालिमा थी।
 बहरहाल वे इस बात से खुश थे कि आप लोग इस फिल्म को समझ रहे हैं। मुझे करोड़ों लोगों को नहीं दिखानी लेकिन एक वक्त आएगा जब हम धीरे धीरे सिनेमा की नई भाषा ईजाद करेंगे। आज हम देख रहे हैं कि सिनेमा में धीरे धीरे कुछ मूर्त और अमूर्त बिंब आ रहे हैं। यह भारतीय दर्शकों के लिहाज से समय से पहले का सिनेमा था। आज युवा फिल्मकारों की पीढ़ी सिनेमा में अपना मुहावरा ईजाद कर रही है तो मुझे हुसैन याद आते हैं जो अपनी उम्र के बावजूद अपनी सोच से बेहद युवा थे।

हुसैन टहलते हुए थिएटर के बाहर खुले चौक में नंगे पांव घूम रहे थे। फर्श बेहद गर्म था और उनके चेहरे पर मुस्कान। यह मेरे खयाल से उनके भारत में होने का सबसे बेहतरीन बिंब था कि उनके चलने के लिए जमीन बहुत गर्म थी फिर भी वे मुस्करा रहे थे। उनके चित्रों और विवादों का नाता तो पुराना था। इस माहौल में भी बहुत से संगठनों की धमकियां थीं कि वे फिल्म नहीं चलने देंगे। हिंदुवादियों की अपनी जिद थी और कुछ मुस्लिम संगठनों को फिल्म के एक गाने को लेकर विवाद था जिसे खुद हुसैन ने लिखा था। देशभर में फिल्म के प्रदर्शन को लेकर असमंजस था। इस पूरे घटनाक्रम से वे भीतर से बेहद आहत थे। वे बोले, कोई आदमी मेरी फिल्म नहीं दिखाना चाहता। कोई झगड़े में नहीं पडऩा चाहता। इसलिए मैं खुद इसे रिलीज कर रहा हूं। मुझे यकीन है, एक दिन हमारे देश में लोग अपने आपको अभिव्यक्त करने की आजादी का मतलब समझेंगे।

बाद के सारे ही घटनाक्रम बेहद दु:खद रहे। जो सभी जानते हैं। मैं सिर्फ यह जिक्र  करना चाहता हूं कि जिस गुजरात के म्यूजियम्स में उनकी पेंटिग्स पर हमले हुए, उस गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और एमएफ हुसैन का जन्म दिन १७ सितंबर ही है और दोनों विचारों के दो छोर पर खड़े हैं और इसके तर्क भी निश्चित रूप से अंकशास्त्रियों के पास होंगे कि सन भले ही अलग हो लेकिन एक तारीख को पैदा हुए लोगों को इतिहास दो अलग अलग कारणों से क्यों याद करेगा?

मुमकिन है, कला, अभिव्यक्ति और संवेदनाओं के प्रति निष्ठुर लोगों की नजर में हुसैन खलनायक रहे होंगे लेकिन सच तो यह है कि हमारे इतिहास में एक बात हमेशा अमिट रहेगी कि सत्ता के लिए भारत माता की झंडाबरदारी करते हुए सुख भोगने और अपनी जमीन से निर्वासित रहते हुए देह त्याग देने में कितना फर्क होता है? कतर की नागरिकता लेने के बावजूद हुसैन अपने देश लौटना चाहते थे। इतिहास ही एक दिन आने वाली पीढियों को बताएगा कि इस दौर में शिकारी कौन थे और शिकार कौन हुआ?

मंगलवार, जून 07, 2011

सौ बरस के अमर अकीरा कुरोसावा



अकीरा कुरोसावा जापान के फिल्‍मकार थे लेकिन विश्‍व सिनेमा को उनका अदभुत योगदान है। कुरोसावा अपने समय के सबसे आधुनिक और प्रयोगशील सिनेमा के लिए जाने जाते हैं। मुझे वे इसलिए भी ज्‍यादा लुभाते हैं कि उन्‍होंने सिनेमा बनाने में हर वक्‍त जोखिम ली। खासकर उस दौर में जब हॉलीवुड के सिनेमा अपना व्‍याकरण विकसित करके विश्‍व सिनेमा को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा था उस दौर में जापानी समाज को लेकर कुरोसावा के उल्‍लेखनीय काम ने सबकी आंखें खोल दी। बाद में हॉलीवुड सिनेमा कुरोसावा के प्रभाव से बच नहीं पाया।
जापान इस मामले में आगे रहा है कि इस छोटे से देश के सांस्‍कृतिक सामाजिक परिदृश्‍य को पूरी दुनिया में पहचान दिलाने में यहां के लेखकों और फिल्‍मकारों की महत्‍त्‍वपूर्ण भूमिका रही है। दूसरे विश्‍वयुद़ध के दौरान परमाणु हमला झेलने के बाद तो वैसे भी जापान पूरी दुनिया के केंद्रीय चिंतन में था और वहां के सिनेमा में इस त्रासदी का असर देख सकते हैं।
कुरोसावा टोक्‍यो के नजदीक तेईस मार्च 1910 को पैदा हुए थे। वे अपने मां बाप की सातवीं संतान थे। उनक पिताजी एक सैनिक अफसर थे और मां व्‍यापारी परिवार से थी। उसके पिता काफी सख्‍त थे और उन्‍हें अपनी पारंपरिक समुराई तलवार बहुत प्रिय थी। वे अपनी पत्‍नी से नाराज होते थे कि वह सब कुछ समुराई परंपरा के मुताबिक नहीं करती थी।
कुरोसावा जब छोटे थे तो उन्‍होंने एक सपना देखा था कि वे एक रेलवे ट्रेक एक तरफ हैं और उनका परिवार दूसरी तरफ। एक कुत्‍ता है जो दोनों के संदेश एक दूसरे को पहुंचा रहा है। इसी दौरान रेल के आने से कुत्‍ता कट गया। उन्‍हें लगा जैसे वह टुना फिश की तरह कटा है। इसके बाद वे तीस साल तक इस समुद्री मछली को खा नहीं पाए थे।
वे अपने स्‍कूल में रोते बच्‍चे कहलाते थे। 1930 में अपनी सेना भर्ती की शारीरिक परीक्षा उत्‍तीर्ण नहीं कर पाए थे। वे वॉनगॉग और सीजेन से प्रभावित थे और एक पेंटर बनना चाहते थे लेकिन जल्‍द ही उन्‍हें यह अहसास हो गया कि इसमें वे कुछ नया नहीं कर पा रहे हैं तो उनका रुझान साहित्‍य की तरफ हुआ लेकिन जल्‍द ही यहां भी उन्‍हें कुछ जमा नहीं। हम उनके सिनेमा पर गौर करते हैं तो पाएंगे कि वहां पेंटिंग्‍स और पाश्‍चात्‍य साहित्‍य का गहरा असर दिखता है। वे अपने हर फिल्‍म का स्‍टोरीबोर्ड बनाकर काम करना पसंद करते थे।

सिनेमा के अलावा उन्‍हें वे खाने के बेहद शौकीन थे। खाली समय में उन्‍हें अध्‍ययन ओर गोल्‍फ खेलना पसंद था। जब उनकी मृत्‍यु हुई तो उनके बेटे ने उनके कफन में गोल्‍फ कोर्स रखा था। वे अक्‍सर अपने स्‍टोरीबोर्ड पैंट करते थे और उनमें ज्‍यादातर रेखांकनों के बजाय कलाकृतियों की तरह लगते हैं।
कुरोसावा अकसर कहते थे, हर आदमी वह पाता है जिसे वह प्‍यार करता है। वे कहते थे, पहले यह तय करो कि आपके लिए सबसे महत्‍त्‍वपूर्ण क्‍या है। अगर आप यह तय कर पाएं कि यही चीज आपकी जिंदगी में सबसे ज्‍यादा महत्‍त्‍वपूर्ण तो फिर अपनी पूरी ऊर्जा के साथ उसे हासिल करने के लिए जुटना चाहिए। जाहिर है, कुरोसावा ने ऐसा ही किया था।
कुरोसावा फिल्‍मों में अपने बड़े भाई की मदद से आए थे। वे मूक फिल्‍मों के नैरेटर थे और कुरोसावा के प्रवेश लगभग उसे दौर का है जब बोलती फिल्‍मों को दौर शुरू हो रहा था। कुछ समय सहायक निर्देशक के रूप में काम करने के बाद उन्‍होंने अपनी पहली फिल्‍म निर्देशित की सुगाता सनशिरो (1943)। उस समय उनकी उम्र बत्‍तीस साल थी। यह फिल्‍म सेंसर में अटक गई। दूसरे विश्‍वयुद्ध के दौरान उन्‍होंने राष्‍ट्रवादी फिल्‍में बनाई। सही मायनों में 1948 में आई ड्रंकन एंजल उनकी पहली फिल्‍म थी जो कुरोसावा की फिल्‍म कही जा सकती है। इसी फिल्‍म में उनके पसंदीदा हीरो तोशिरो मिफुन ने काम किया, जो कई फिल्‍मों में बाद भी उनके साथ रहा। जब भी मैं कुरोसावा की यह फिल्‍म देखता हूं मुझे कहीं ना कहीं राजकुमार हिरानी के मुन्‍नाभाई और डा.अस्‍थाना याद आते हैं। कोई भी शायद इस बात से इत्‍तेफाक नहीं रख सकता और यहां रिलेशनशिप अलग किस्‍म की है लेकिन मुझे हमेशा लगता है कि एक डॉक्‍टर और मरीज के एक रिश्‍ते की कुरोसावा की वह सबसे मौलिक कल्‍पना थी ओर मुमकिन है राजू हिरानी कुरोसावा के इन चरित्रों से प्रभावित रहे हों। इस फिल्‍म ने कुरोसावा को एक नए व्‍याकरण वाले सिनेमा के निर्देशक के रुप में पहचान दिलाई और उसक अगले साल आई फिलम स्‍ट्रे डॉग में क्रिमिनल माडंड की पड़ताल अदभुत है। अगले ही ही साल उनकी फिल्‍म स्‍केंडल भी आई लेकिन इसी साल रिलीज उनकी दूसरी फिल्‍म राशोमन ने उन्‍हें विश्‍व ख्‍याति दिलाई जहां एक हत्‍या के अलग अलग चश्‍मदीद अपने ढंग से उसकी व्‍याख्‍या करते हैं और उसमें असली हत्‍यारे को तलाशना चुनौती बन गया है। फिल्‍म अपनी कहानी से भी ज्‍यादा मौलिक नैरेशन के लिए चर्चित रही और कुरोसावा की एक नई पहचान के साथ सामने आए।
कुरोसावा का सिनेमा कालातीत है। उनकी कुछेक फिल्‍मों के अलावा मैंने उनकी लगभग फिल्‍में देखी हैं और हर फिल्‍म में वे एक नए भाव बोध के साथ सामने आते हैं।
वे मानवीय भावनाओं और मस्तिष्‍क में चल रहे द्वंद्व के अप्रतिम चितेरे हैं। उनकी फिल्‍में अपनी विधा से आगे एक कलाकृति, एक उच्‍च किस्‍म की साहित्यिक कृति या दस्‍तावेज की तरह सामने आती हैं।

हाई एंड लो (1963) याद करते हुए मैं उन दो पिताओं और एक अपराधी के अंतरसंघर्ष को याद करता हूं जहां निचली बस्‍ती में रहने वाले क्रि‍मिनल ने एक अमीर के बेटे का अपहरण करने के बजाय गलती से उनके नौकर के बेटे का अपहरण कर लिया है। अपराधी अपनी फिरौती की रकम लेने को आमादा है और अमीर व्‍यवसायी इस दुविधा में है कि उसके बेटे के दोस्‍त और नौकर के बेटे को बचाया जाय या नहीं। ना केवल कथ्‍य के स्‍तर पर बल्कि सिनेमाई थ्रिल भी अंत तक कायम रहता है, जो आपको आखिर तक जाते जाते भावुक कर देता है। यह कहानी नहीं बल्कि तत्‍कालीन जापानी समाज एक डॉक्‍यूमेंट्री की तरह प्रतीत होता है। जिस बेहतर ढंग से कुरोसावा समाज के भीतर चल रहे संघर्षों और परिवर्तनों को देख पाते थे, वह उनकी महान सिनेमाई दृष्टि का प्रमाण है।
सेवन समुराई (1954) को सोलहवीं सदी के कालखंड में वे ले गए हैं जहां एक गांव के लोगों को डाकुओं से मुक्ति दिलाने के लिए गांव वाले समुराई लेकर आते हैं। वो जिस तरह से पूरे गांव वालों को डाकुओं के खिलाफ एकजुट करते हैं। करीब साढे तीन घंटे लंबी यह फिल्‍म हर मायने में उतनी ही आधुनिक और प्रामाणिक लगती है, जो निर्विवाद रूप से उन्‍हें महान फिल्‍मकारों की अगली कतार में रखता है। समराई श्रेणी में उनकी फिल्‍म योजिम्‍बो (1961) एक और महत्‍त्‍वपूर्ण और चर्चित फिल्‍म है जिसमें एक अकेला समुराई डाकुओं से भिड़ता है।

असल में कुरोसावा जापानी समाज एक प्रामाणिक चितेरे हैं जो जापान से ज्‍यादा बाहर लोकप्रिय हुए और स्‍थानीय स्‍तर पर उन्‍हें ऐसी आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा कि वे अपनी समाज की कहानियां विदेशों में बेच रहे हैं। अगर हम याद करें तो एक बड़ा तबका हमारे यहां लगभग ऐसी ही सोच सत्‍यजीत राय की फिल्‍मों के प्रति रखता है।
लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि कुरोसावा की कहानियों कालांतर में हॉलीवुड को भी गहरे प्रभावित किया। कुरोसावा की फिल्‍म रान के कई दृश्‍य कालांतर में अमेरिकन एक्‍शन‍ फिल्‍मों में इस्‍तेमाल किए गए। सेवन समुराई से प्रभावित रही मैग्‍नीफिशिएंट सेवन और रिटर्न ऑव मैग्‍नीफिशिएंट सेवन। राशोमन के असर में आउट्रेज बनी। कुरोसावा की हिडन फोर्ट्रेस ने जॉर्ज लुकाज की स्‍टार वार्स की कहानी को आधार दिया। यह कबूलनामा खुद जॉर्ज लुकाज ने बाद में किया भी।
योजिम्‍बो से शेन और हाई मून प्रभावित रहीं। क्लिंट ईस्‍टवुड अभि‍नीत एक फिल्‍म का पूरा चरित्र तोशिरो मिफुन के योजिम्‍बो में दिखाए चरित्र से मेल खाता था और एक बार इस बाबत जब ईस्‍टवुड से पूछा गया तो उनके पास कोई जवाब नहीं था। 1999 में आई फिल्‍म लास्‍ट मैन स्‍टेंडिंग भी कुरोसावा की कहानी से प्रभावित थी।
यानी कुरोसावा कालातीत होने साथ भौगोलिक सीमाओं को भी लांघते हैं और ना केवल अपने समकालीन सिनेमा को बल्कि उसके बाद कई सालों तक वे हालीवुड के मुख्‍यधारा के सिनेमा को प्रभावित करते रहे हैं।

प्रसंग चल ही रहा है तो यह भी उल्‍लेखनीय है कि कुरोसावा की बहुत सी फिल्‍मों में अभिनेता तोशिरो मिफुन मुख्‍य भूमिका में रहे हैं। उनकी सारी भूमिकाएं चर्चित भूमिका कुरोसावा की फिल्‍मों में हैं जिसमें क्‍लासिक फिल्‍में सेवन समुराई, योजिम्‍बो और राशोमन भी हैं। मुफीन पैदा 1920 में चीन में पैदा हुए थे और वे सिर्फ एक साल के लिए जापान आए थे। उसी दौरान संयोग से उनकी मुलाकात कुरोसावा से हुई और ये साथ लंबा चला। राशोमन में तोशिरो के समुराई डाकू की भूमिका को देखकर चीनी निर्देशक झांग यिमु ने उसे बीसवीं सदी के सबसे ताकतवर अभिनय की श्रेणी में माना था। लगभग वैसा ही जैसे मर्लिन ब्रेंडो या जेम्‍स डीन की भूमिकाएं रही हैं।

1971 में सोवियत यूनियन में कुरोसावा ने आत्‍महत्‍या की कोशिश की और बच गए। माना जा रहा है कि 1970 में उनकी पहली कलर फिल्‍म डोडेस का डेन (1970) को समीक्षकों ने बुरी तरह उड़ाया और फिल्‍म चली ही नहीं। कुरोसावा बेहद आहत हुए। दूसरा एक कारण यह भी माना जाता है कि उन्‍होंने यह प्रयास इसलिए भी किया कि जो तीन नए डायरेक्‍टर एक नई फिल्‍म कम्‍पनी के लिए उनके साथ जुड़ थे, उन्‍हें कुरोसावा की वजह से नुकसान हुआ है। गौर करने की बात यह है कि कुरोसावा के जिस भाई ने उन्‍हें फिल्‍मों में जाने में मदद की थी उसने 27 साल की उम्र में आत्‍महत्‍या कर ली थी क्‍योंकि उसकी नौकरी चली गई थी। अपने आत्‍महत्‍या के प्रयास के बाद कुरोसावा पैसे के लिए ज्‍यादातर विदेशी फिल्‍मकारों और निर्माताओं पर निर्भर रहे मसलन स्‍पीलबर्ग, लुकाज, कोपोला आदि। उनकी आखिरी फिल्‍मों की समीक्षकों ने कोई खास तारीफ भी नहीं की।
अपने करियर को देखते हुए कुरोसावा ने 1985 में कहा था, कि मैं पहले कहानियां बुनता हूं और फिर फिल्‍म बनाता हूं। मैं भाग्‍यशाली हूं कि कहानियां जिंदगी से आती हैं और ये लोगों के अपील कर सकती हैं तथा फिल्‍में कामयाब होती हैं।

हालांकि कुरोसावा की बाद की फिल्‍मों की उतनी तारीफ नहीं हुई। समीक्षकों ने यह माना कि वे बहुत इमोशनल हो गई थीं इसके बावजूद वे लगातार मुख्‍यधारा में रहे। उनकी फिल्‍म देरसु द ट्रेपर रुसी भूगोलशास्‍त्री वी के अर्नेव की किताब पर आधारित थी और इस फिल्‍म ने बेस्‍ट फॉरेन लेंगवेज फिल्‍म का ऑस्‍कर जीता लेकिन जापान के लिए नहीं बल्कि सोवियत यूनियन के लिए।
कुरोसावा क्‍योटो के होटल में फिसल गए थे और अपनी रीढ की हड़डी ओर टांग तुड़वा बैठे थे। इसके तीन साल बाद वे 1998 में उनकी मौत हो गई। उस समय भी वे अपनी अगली फिल्‍म द सी वॉज वाचिंग की तैयारी कर रहे थे।
तो कुल मिलाकर कुरोसावा का खुद का जीवन भी एक महागाथा की तरह चलता है और वा इस सदी के नहीं सर्वकालिक महान फिल्‍मकारों की श्रेणी में माने जाएंगे।
उनके साथ काम करने वाले ज्‍यादातर सहायक बाद में स्‍वतंत्र फिल्‍मकार बने और उन्‍होंने ख्‍याति भी अर्जित की लेकिन वैसी ख्‍याति नहीं जो अकीरा कुरोसावा को मिली। उन्‍हीं के सहायकों में एक इशिरो होंडा भी हैं जिनका भी यही साल जन्‍म शती साल है और मुझे याद आता है कि वे गोडजिला सीरिज की पहली फिल्‍म उन्‍होंने ही बनाई थी और मैंने बाद में बनी अठाईस गोडजिला में कुछ देखी हैं। उनमें सबसे बेहतर आज भी इशिरो होंडा की फिल्‍म है। जो जापानी लोक कथा के रूपक को आधार बनाते हुए परमाणु विकिरण तक पहुंचते हैं। यह उनकी बेहतरीन कृतियों में से एक है। जन्‍म शती वर्ष पर दोनों ही फिल्‍मकारों को विनम्र श्रद्धांजलि।   -रामकुमार सिंह

(this article is published in literary magazine from JAIPUR named KURJAAN.. edited by premchand gandhi)

शुक्रवार, जून 03, 2011

रेडी: मनोरंजन की सलमान रेसिपी

film READY review


नो एंट्री की कामयाबी के बाद अनीस बज्मी कॉमेडी की एक सी रस्सी पर ही चलते रहे हैं, बस उनके हाथ का बांस बदल जाता है। इस बार फिर उनके पास सलमान खान हैं। एक लाइन में कहें तो रेडी सलमान खान और अनीस बज्मी टाइप मनोरंजक फिल्म है लेकिन ना तो यह दबंग है और ना ही नो एंट्री।

रेडी तेलुगू की इसी नाम से बनी फिल्म का रीमेक है और हिंदी में इसकी कहानी, गीत, संगीत और अभिनय से अलग एक ही ताकत है, सलमान खान। इस फिल्म में भी उनका नाम प्रेम है। सरनेम कपूर है और और लघु माफियानुमा जोकर चौधरियों की भांजी संजना (आसिन) से उसको प्यार हो जाता है। कहानी का रायता फैलता है और उसे समेटकर बज्मी वापस बर्तन में डालते हैं। रेडी हंसाती है, टाइमपास करती है और एक स्तर पर पहुंचने के बाद थोड़ी लंबी और उपदेशात्मक हो जाती है, जो कि अनीस बज्मी की ज्यादातर फिल्मों के साथ होता है। इंटरवल से पहले यह शिकायत ज्यादा है। इंटरवल बाद भी फिल्म को काटपीटकर दस मिनट और छोटा किए जाने की गुुंजाइश थी।

यहां प्रियदर्शन और अनीस बज्मी टाइप मिश्रित स्पर्श फिल्म में साफ दिखता है और सलमान का स्पर्श उसे कामयाबी की गारंटी देता है। फिल्म का गाना डिंका चिका सबसे ज्यादा असर छोड़ता है। खासकर जिस तरह उसे फिल्माया गया है और उसकी कोरियोग्राफी जिसमें सलमान खान पैंट की जेब में हाथ डालकर हिलाते हैं। रेडी की अच्छी बात यह भी है कि एक आध जगह द्विअर्थी संवादों को छोड़कर यह पारिवारिक फिल्म भी लगती है। सलमान आसिन और परेश रावल को छोड़कर फिल्म के लगभग सभी पात्र लाउड हैं।

लेकिन भारतीय दर्शक को इससे भी अपच नहीं होती। बहरहाल एक्शन कॉमेडी के घालमेल और दृश्य रचने में निर्देशकीय निरंकुशता के बावजूद टाइमपास के लिए आप रेडी देख सकते हैं। क्योंकि थियेटर से बाहर आते समय आपके चेहरे पर मुस्कराहट रहती है।

शनिवार, मई 21, 2011

लंबी और कमजोर रोमांटिक कॉमेडी


FILM REVIEW- PYAAR  KA PUNCHNAAMA

निर्माता अभिषेक पाठक और निर्देशक लव रंजन की फिल्म प्यार का पंचनामा में सारे अभिनेता नए ही हैं। निर्देशक भी नए हैं लेकिन दुर्भाग्य से दर्शक नए नहीं है। वे फिल्में देखते रहते हैं। प्यार का पंचनामा रोमांटिक कॉमेडी है और तीन दोस्तों के लड़कियों से मिलने ओर बिछुड़ने की कहानी है। कैनवस फरहान अख्तर की दिल चाहता है से मिलता है लेकिन इसके अलावा कुछ नहीं मिलता।

तीनों दोस्त साथ रहते हैं और एक दिन अचानक तीनों की जिंदगी में तीन तरह की लड़कियां आती हैं और "कुत्तागिरी" शुरू होती है। तीनों लड़कियों में ऎसी कोई खास बात नहीं है कि जिसके लिए उनके पीछे इस तरह से पड़ा जाए। तीनों नायक भी नए हैं और वे अपना काम ठीक ठाक कर गए हैं। लेकिन कहानी में लड़कियों को लेकर अनीस बज्मीवादी टिप्पणियां बहुत ज्यादा हैं जो लड़कियों को हीन दिखाने की पुरूषोचित सोच का वमन है। जहां एक पात्र विक्रांत कहता है कि कोई कितनी भी समानता और एक दूसरे को स्पेस देने की बात करे वो तब तक ही ठीक लगती है जब तक लड़की आपको मिली नहीं हो या पहली बार कंधे पर सिर रखकर रो रही हो। उसके बाद साथ रहते हुए आप एक दूसरे को स्पेस देने की कल्पना भी नहीं कर सकते।

हां, इंटरवल से पहले तक कुछ कॉमिक संवाद और दृश्य अच्छे लगे हैं लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म ऊबाऊ और लंबी होती चली जाती है। लिव इन से लेकर दूसरे बॉय फे्रंड को बर्दाश्त करने और प्यार में बलिदान और तौहीन सहने जैसी कई सिचुएशन फिल्म में हैं लेकिन वे ताजा नहीं लगती और इसलिए प्यार का पंचनामा एक अच्छे विचार और कथासूत्र के बावजूद बहुत बेकार लगती है।

खासकर फिल्म की अवधि बेहतर संपादन के बाद यदि बीस से पच्चीस मिनट और कम कर दी जाती और महिलाओं और युवा लड़कियों के प्रति लेखक निर्देशक कुछ स्पष्ट और उदार नजरिए से सोचते तो शायद बात अलग होती। फिलहाल फिल्म में इतनी सी गुुंजाइश है जवान होने की दहलीज पर खड़े दर्शक टाइमपास के लिए इसे देख सकते हैं। लगातार पार्श्व में चलता गाना बंध गया पट्टा, देखो बन गया कुत्ता यह सोच बताने को काफी है कि आदमी कुत्ता होता है और औरत उसकी जिंदगी में आते ही उसे एक पट्टा डालती है, और उसे उम्र भर उसके कहे अनुसार ही चलना होता है, लिहाजा जितना उनसे बच सकें आप बचें। सुनने में यह बाद कबीर वाणी के "माया महाठगिनी हम जानी" जैसी है लेकिन अफसोस कि पर्दे पर यह फिल्म प्रभावित नहीं करती। गाने ठीक ठाक हैं।

शुक्रवार, अप्रैल 22, 2011

गोवा के ड्रग माफिया पर कामचलाऊ थ्रिलर

Film Review- DUM MAARO DUM


निर्देशक रोहन सिप्पी की फिल्म दम मारो दम इस हफ्ते रिलीज हुई है। गोवा में ड्रग माफिया की सफाई के लिए नियुक्त किए किए एसीपी विष्णु कामथ यानी अभिषेक बच्चन और माफिया माइकल बारबोसा की तलाश की कहानी है, जिसके शिकार कई मासूम लोग हुए हैं। लोरी (प्रतीक) इनमें एक है, जो अमेरिका पढ़ने जाना चाहता है लेकिन इनके चंगुल में फंसता है।

इसके समांतर जोई (बिपाशा बसु) भी है जिसे एअर होस्टेस बनने की चाह है और वह भी ड्रग माफिया की शिकार हो गई है। तीसरा संगीतकार जैकी (राना डागुटी) है, जो जोई का बॉय फे्रंड है। ये सब लोग कहीं ना बारबोसा से पीडित है और बारबोसा का सूत्रधार बिस्किट (आदित्य पंचोली) है। फिल्म असली बारबोसा को तलाशने की एक यात्रा है। कहानी प्रतीक के अमेरिका जाने के लालच में ड्रग माफिया के चंगुल में फंसने से होती है और अंत 920 करोड़ के ड्रग्स को आग लगाने से। इस बीच थ्रिलर की तरह फिल्म चलती है लेकिन इंटरवल तक ही पटकथा की पोल खुलने लगती है और इंटरवल के बाद तो वह अति साधारणीकरण का शिकार हो जाती है।

ऎसी इंस्पेक्टर वाली कहानियां बनाना जो अन्याय के खिलाफ लड़ें, हमारे फिल्मकारों का प्रिय शगल रहा है। लिहाजा इसमें कोई नयापन है तो सिर्फ यह कि कैमरा गोवा को दिखा रहा है। असल में फिल्म से स्पार्क गायब है। यूं लगता है जैसे गोवा ऎसा ही है जैसा दिखता है। यह एक बनावटी कहानी है, जहां से गोवा की असली जिंदगी और असली ड्रग समस्याएं गायब सी लगती है। यानी कहानी कहीं अति साधारण है और कहीं हद से ज्यादा काल्पनिक। समस्या चरित्रों के साथ भी है कि चारों चरित्रों में से किसी एक के साथ दर्शक को सहानुभूति रखने में जोर आता है। मसलन लौरी और जोई पैसे और महत्वाकांक्षा के चलते ड्रग वालों की मदद करते हैं, ऎसा क्यो? एसीपी विष्णु कामथ एक नंबर का भ्रष्ट अफसर रहा लेकिन दुर्घटना में पत्नी और बेटी के मरने के बाद घोर ईमानदार। ऎसा क्यों? जोई का बॉय फे्रंड ही उसे ड्रग्स के धंधे में धेकलता है और वही अब मसीहा बनके आ रहा है? ऎसा क्यों? जोई पूरी फिल्म में बिस्किट की रखैल है और अचानक पवित्र हो जाती है।

यानी दर्शक किसी एक चरित्र के साथ अपनी सहानुभूति जोड़ नहीं पाता है। पटकथा की यह खामी भारी पड़ती है फिल्म पर। उसमें कुछेक दृश्यों को छोड़कर कहीं कुछ जादुई नहीं लगता। अभिषेक ने ठीक ठाक अभिनय किया है। प्रतीक ठीक है। बिपाशा सजावटी गुडिया है, विद्या बालन की सिर्फ हाजिरी सी है। राना भाव विहीन चेहरा लिए हैं। आयटम सॉन्ग दम मारो दम में दीपिका पादुकोण हैं और ठीक लगी हैं। अभिषेक ने गाना अच्छा गाया है। जयदीप साहनी ने गाने ठीक ठाक लिखे हैं। कुल मिलाकर दम मारो दम में नया और जादुई कुछ नहीं लगता। बस टाइमपास के लिए आप जा सकते हैं।

शनिवार, अप्रैल 16, 2011

हिंदी मीडिया, भाषा और कथ्‍य के सवाल


बावजूद इसके कि परंपरागत हिंदी वालों की तरह मुझे अंग्रेजी से उस तरह की
कोई दुश्‍मनी नहीं है कि मैं उसे खदेड़ने का झंडा लेकर खड़ा हो जाऊं।
लेकिन वही अंग्रजी जब आम पाठक तक हिंदी के अखबार से पहुंचती है तो
तकलीफदेह है। हमारे समय की सबसे कड़वी सच्‍चाई यह है कि हमारे पूरे
मीडिया पर विज्ञापन, बाजार और उसके दबाव काम कर रहे हैं लेकिन मुझे यह
एजंडा कतई समझ नहीं आता कि हिंदी के अखबार में शाब्दिक ढंग से तो
अंग्रेजी घुस ही रही थी, अब उसकी लिपि भी घुस रही है। दुर्भाग्‍य की बात
यह है कि भाषा को इस समय रीजनल मीडिया में गंभीरता से लिया ही नहीं जा
रहा। आप देख सकते हैं कि एक ही अखबार एक ही शब्‍द को कई तरह से छापता है।

जैसे हिंदी नवभारत टाइम्‍स ने अपना मास्‍ट हैड रोमन में कर दिया था, ऐसा
करने मात्र से क्‍या युवा पीढी जिसके बारे में हमने मान लिया है कि वे
अंग्रेजी ही पढेंगे और यह सब उनके लिए किया जा रहा है। ऐसा क्‍यों हो रहा
है कि हिंदी के अखबारों की प्रसार संख्‍या लगातार बढ रही है। आई
नैक्‍स्‍ट और कॉम्‍पेक्‍ट का प्रयोग देख ही रहे हैं। दूसरे अखबारों में
बॉम्‍बे टाइम्‍स की नकल पर शुरू हुए नगरीय लाइफ स्‍टाइल परिशिष्‍टों की
भी यही हालत है। यह कितना कुतर्क है कि लिपि या शब्‍द अंग्रेजीदां या
हिंगलिश कर देने से युवा पीढी किसी अखबार से जुड़ सकती है। जबकि सच्‍चाई
यह है कि कथ्‍य और विषय वस्‍तु के लिहाज से गुणवत्‍ता का भीषण पतन हुआ
है।

असल में महानगरों में पत्रकारिता के केंद्र बने हुए हैं। हिंदी अखबारों
के केंद्र में आप दिल्‍ली को भले ही मानते रहें लेकिन सच्‍चाई यह है कि
हिंदी पत्रकारिता की बड़ी दुनिया दिल्‍ली से बाहर है। दिल्‍ली मुंबई जैसे
कॉस्‍मोपॉलिटन्‍स से इतर यह दुनिया पटना, भोपाल, जयपुर, लखनऊ और कानपुर
जैसे शहरों में बडी है। इनके सबसे बडे़ पाठक जो पढ रहे हैं वे महानगरों
से दूर देहातों और कस्‍बों के पाठक भी हैं और आश्‍चर्यजनक रूप से हमारे
मौजूदा हिंदी अखबार इस बात के अपराधी हैं कि वे पूरे हिंदी समाज की भाषा
को एक महानगरीय अहम के साथ खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। आप मुझे क्‍या
समझा सकते हैं कि रविवार विशेष के स्‍थान पर SUNDAY SPECIAL लिख देने से
किसी भी हिंदी अखबार के पाठक बढते हैं। मुझे समझ नहीं आता कि दूर दराज के
कस्‍बों और देहातों के बारे में हमारे पत्रकार और‍ डिजायनर समझते ही नहीं
है। मैंने तर्क किए हैं ऐसे मौकों पर कि भाई ऐसा क्‍यों लिख रहे हो, तो
तर्क आता है कि यह ‘मॉडर्न ले आउट’ है, मैं उससे कहता हूं तुम्‍हारी औकात
कंप्‍यूटर के की बोर्ड पर लिखे अक्षरों से ज्‍यादा  अंग्रेजी जानने की
नहीं है फिर तुम उन सब लोगों की भाषा क्‍यों खराब कर रहे हो, जो इतनी भी
नहीं जानते। तो अगला कुतर्क है कि नहीं जानते तो वे जानेंगे। क्‍यों
जानेंगे कि क्‍या आपने किसी समाज को वो भाषा पढाने का ठेका लिया है, जिसे
आप खुद नहीं जानते। हमारे बहुसंख्‍यक हिंदी पत्रकारों की हालत अंग्रेजी
के मामले में ऐसी ही हो गई है। या ऐसा मान लीजिए कि उन पर दबाव हैं
प्रबंधन के की भाषा बदलो। मुझे हमेशा लगता है कि आपको अंग्रेजी से इतना
ही मोह है तो अंग्रेजी अखबार नि‍कालिए। कम से कम भाषायी उदारीकरण के आधार
पर बहुसंख्‍यक समाज के गद्य को क्‍यों खराब कर रहे हैं? खासकर तब जब उस
तरह की भाषा कर देने से अखबार के पाठक नहीं बढते हैं। यह कितना बड़ा
कुप्रचार अखबार के वितरण और विपणन विभाग वाले एमबीए ब्रांड लोग करते हैं
कि ऐसा करने से चीजें बदल जाएंगी। दुर्भाग्‍य से कुछेक जगह छोड़कर हिंदी
की भाषायी पत्रकारिता में विषय वस्‍तु को लेकर चिंता ही नहीं है। अखबारों
के फीचर विभाग और विशेष आलेखों के विभाग इंटरनेट पर इतने आधारित है कि
अंग्रेजी के पिष्‍टपेषण में लगे हुए हैं। मौलिक चिंतन, फीचर और आलेखों का
नितांत अभाव है और भाषायी लिहाज से हमें एक खतरनाक भ‍विष्‍य की ओर ले
जाया जा रहा है।

एक मिनट के लिए मान लीजिए कि इससे भी समाज की भाषा खराब नहीं होती तो
मुझे उससे भी बड़ी सहानुभूति उन हिंदी के पत्रकारों के साथ है, जो इस दौर
में पत्रकारिता में आ रहे हैं। उन पर हिंगलिश लिखने का दबाव है। वे सबसे
दुर्भाग्‍शाली युवा हैं, वे पांच दस साल की कलमघिसाई के बाद ना तो अच्‍छी
हिंदी लिखने के काबिल हैं और ना ही अच्‍छी अंग्रेजी के। एक खिचड़ी पीढी
के पत्रकार इस समय पैदा हो रहे हैं और पंद्रह साल बाद जब ये लोग अलग अलग
संस्‍करणों के संपादक होंगे और अपने समाज को जो भाषा पढाएंगे उसकी
कल्‍पना मात्र से मैं कांपता हूं।
हिंदी को लेकर ये सब लोग उतने ही अपराधी हैं जिन्‍होंने हिंदी को जटिल
करने और संस्‍कृतनिष्‍ठ करने की कोशिश की। दोनों की हालत में नुकसान इसी
भाषा का है। और यह तर्क भी मत सुनिए भूलिए कि कोई समाज अखबार से अपनी
भाषा नहीं सीखता। आप कैसे मान सकते हैं कि जिस हिंदी में पढ़ने के नाम पर
सबसे ज्‍यादा हिंदी अखबार ही पढे जाते हैं तो वे किसी साक्षर समाज की
भाषा का निर्माण करने के सबसे जिम्‍मेदार माध्‍यम हैं।

एक और बात जो मुझे हमेशा परेशान करती है कि कहने को आम आदमी का दावा हम
लोग करते हैं लेकिन मैं दावे से कह सकता हूं कि हमारे बहुसंख्‍यक भाषायी
मीडिया के पास उस आम आदमी के हक का एजंडा तेजी से गायब होता जा रहा है।
यह बात मैं अधिकारपूर्वक कह सकता हूं। हिंदी के ज्‍यादातर अखबारों के
नगरीय और डाक संस्‍करण के फर्क को देख लीजिए। हमारे पत्रकार ना जाने किस
फूंक में रहते हैं। महानगर में रहने वालों के लिए कस्‍बा और गांव तो खबर
ही नहीं है। यह कितनी बड़ी विडम्‍बना हमारे समय की है कि अखबारों के
स्‍थानीय संस्‍करण तेजी से बढे हैं ताकि वे स्‍थानीय खबरों को अहमियत दे
सकें लेकिन अफसोसजनक ढंग से उनकी विषय वस्‍तु उतनी ही घटिया और गैर जरूरी
हो गई है। वहां आधे से ज्‍यादा पेज इस बात से भरे रहते हैं कि किस मंदिर
में क्‍या सत्‍संग चल रहा है। कौनसे चौराहे पर जुआ खेलते लोग पकड़े गए
हैं और किस घर में क्रिकेट का सट़टा चल रहा था। अस्‍सी फीसदी स्‍थानीय
समाचार रद़दी में फेंकने लायक होते हैं लेकिन वे प्रमुखता से छपते हैं।
तो यह अपराध भी हिंदी पत्रकारिता के माध्‍यम से हो रहा है कि जिस तरह
राजनीति, समाज और अपराध या विकास को लेकिन एक समाज संवेदनशील होने की
प्रक्रिया से गुजरता है, वह खंडित हो गई है। स्‍थानीय प्रशासन को फर्क ही
नहीं पड़ता है उनको पता है कि इस अखबार को इलाके का एमएलए भी नहीं पढ रहा
क्‍योंकि इस समय विधानसभा चल रही है और वह राजधानी में है। तेजी से
गांवों को पत्रकारिता से बेदखल किया जा रहा है, जहां इस देश की
बहुसंख्‍यक आबादी रहती है।
तो इस बात का यह अर्थ ना लगाएं आप कि जो स्‍थानीय स्‍तर पर पत्रकार काम
कर रहे हैं, वह गैर जरूरी है। असल में उनको प्रशिक्षित करने का कोई एजंडा
नहीं है कि उन्‍हें किस तरह से घटनाओं के प्रति संवेदनशील बनाया जाए। यही
वजह है कि हमारे भाषायी अखबारों की भारी भरकम प्रसार संख्‍या के बावजूद
पिछले कितने सालों में ऐसी कोई खबर उभरकर नहीं आई जो सत्‍ता या भ्रष्‍ट
तंत्र को हिलाए।

बाजार और‍ विज्ञापन की अघोषित सी साजिश चलती दिखती है। नरेगा मजदूरों के
मिलने वाली मजदूरी के घोटालों की खबर पर संपादकों की संवेदनाएं मरी हुई
हैं। वे कहते हैं, यह क्‍या हरदम गरीबी का रोना रोते रहते हैं। क्‍योंकि
वह मजदूर हमारा उपभोक्‍ता नहीं है। बिना नाम लिए मैं उल्‍लेख करूंगा कि
एक अखबार ने लावारिस लाशों के फोटो छापने बंद कर दिए कि इससे क्‍या फर्क
पड़ता है। संपादकीय बैठकों में यह कहा जाता है कि चूंकि गरीब आदमी तो
हमारा उपभोक्‍ता है, नहीं लिहाजा उसकी खबर क्‍यों छापी जाए। तो साब, नारा
लगाना बहुत आसान है और जब सामने पुलिस हो तो भी नारा लगाया जा सकता है,
लेकिन जब यह पता चले कि गोली चल सकती है तो पीछे हट जाने से आप
स्‍वतंत्रता सेनानी नहीं बनते। प्रॉब्‍लम हमारी यही है कि हमारे बीच से
तेजी से संवेदनशील पत्रकारों की नई जमात गायब हो रही है। वे चाटुकार
अच्‍छे हैं, वे कपड़े ब्रांडेड पहनते हैं, वे तेजी से नौकरियां बदलते हैं
क्‍योंकि इससे उनका वेतन बढता है। तो पत्रकार होने और किसी बैंक में
मैनेजर होने जैसी नौकरियां एक सी हो गई हैं। वे इस बाजार के हाथों में
खेल रहे श्रमिक हो गए हैं। दोष पत्रकारों का नहीं, प्रबंधन भी तो ऐसा ही
चाहते हैं। यह मान लिया गया है कि आपकी सबसे बड़ी योग्‍यता युवा होना ही
रह गया है। ये ऐसे युवा हैं जो गली कूचों में खुली पत्रकारिता के नाम पर
धंधा करने वाली कॉलेजों से निकलकर आए हैं और उन्‍हें लगता है कि दुनिया
को वे ही लोग चला रहे हैं। मुझे तो समझ में नहीं आता कि पत्रकारिता की
पढाई का औचित्‍य क्‍या है। आप पत्रकारिता क्‍या है, उसका इतिहास क्‍या
है, खबरें कैसे लिखी जाती हैं इस तरह की व्‍याकरण वाली बातें तो पढा सकते
हैं लेकिन एक अच्‍छा पत्रकार कैसा होता है इसका फार्मूला कोई नहीं होता।
आप किसी स्‍कूल में पढाकर गणेश शंकर विद्यार्थी, राजेंद्र माथुर या
प्रभाष जोशी पैदा नहीं कर सकते। दुर्भाग्‍य से पत्रकारिता में यह मान
लिया गया है कि जिसका वेतन ज्‍यादा है, वही बड़ा और वरिष्‍ठ पत्रकार है,
जबकि आप जानते हैं आठ महीने में तीन नौकरियां बदलने से भी वेतन बढ सकता
है। चालीस पैंतालीस साल के पार हो गए हैं तो आप किसी काम के लायक नहीं है
और आपकी नौकरी पर खतरा है, यदि आप उन सब हथकंडों को नहीं जानते जो
मैनेजमेंट स्‍कूल में पढाए जाते हैं कि बॉस गुस्‍से में हो तो कैसे
व्‍यवहार करें और बॉस की कार पंक्‍चर हो गई हो तो आप कैसे अपने नंबर
बढाएं। कभी कभी बहुत ही बुरा लगता है कि किस तरह से मीडिया पत्रकारों से
खिसककर मैनेजरों के हाथ में जा रहा है लेकिन याद रखिए मैनेजर कभी आम
लोगों की नहीं सोचता, वह अपना और अपनी कंपनी का मुनाफा देखता है। हाशिए
के लोग हमारे समय के सबसे दुर्भाग्‍यशाली लोग हैं, जिनको हमने
नक्‍सलवादी, चोर उचक्‍के, फुटपाथी या भिखारी कहकर अपराधी ही मान लिया है
जैसे इस देश की छवि उनके होने से ही खराब है, बाकी अंबानी, टाटा,
मित्‍तल, तेंदुलकर, अमिताभ बच्‍चन, शाहरुख खान आदि ने तो कोई कसर नहीं
छोडी है कि दुनिया में भारत का डंका बुलंद हो। मैंने पिछले डेढ दशक में
पत्रकारिता करते हुए यह भोगा है कि आम आदमी की जो जगह अखबार में थी, उसे
अमिताभ बच्‍चन, शाहरुख खान, अंबानी बंधु, टाटा, राडिया, मित्‍तल आदि लोग
घेरकर बैठे हैं, जैसे महानगरों और शहरों में फैलते माफियाओं ने किसानों
को अपनी जमीन से बेदखल कर दिया। और कोई क्रांतिकारी उम्‍मीद बची नहीं है।
ये लोग और घातक तरीके से हमलावर होंगे। आम लोगों को बेदखल करने के लिए।
अफसोस यही है कि हम पत्रकार भी अब हथियार डाल चुके हैं, क्‍योंकि हमें डर
है कि आम लोगों को अखबार में घुसाने से हमारे खुद के बेदखल होने का खतरा
है। क्‍योंकि बाजार सिर्फ अपने उपभोक्‍ता की परवाह करता है, और वह परवाह
ऐसी है जैसे कसाई अपने बकरे को पालता पोषता है। ममता से नहीं, बल्कि उसकी
गर्दन काटकर मांस खाने के लिए। मैं एक डरी हुई पीढ़ी का पत्रकार हूं। मैं
अपनी गर्दन बचाकर चलता हूं हालांकि मुझे पता है कि उस्‍तरे धार किए जा
रहे हैं और यह गर्दन कटनी है, फिर भी मैं अपने समय का अपराधी हूं कि मैं
अपनी आंखों से हाशिए के लोगों को बेदखल होते देख रहा हूं।
हिंदी मीडिया का यह एक खराब दौर है। दुआ करता हूं यह इससे जल्‍दी बाहर
निकले। हां, यह पैसा कमाने का दौर तो है लेकिन जब पूरे देश में भ्रष्‍ट
तंत्र घर कर गया है। ऐस समय में जब पटवारी से लेकर मंत्री तक पैसा खा रहे
हैं तो जहां हाथ रखो वहीं से खबर मिलती है लेकिन कितनी खबरें छप रही हैं,
आप और हम सब देख रहे हैं। दुर्भाग्‍य देखिए हिमालय की कंदराओं से योग
सिखाने का भेस पहनकर आया एक बाबा शक्ति का केंद्र बन रहा है और वह देश पर
राज करने के सपने देख रहा है। अगले चुनाव तक कोई एक राजनीतिक पार्टी उस
बाबा का मुखौटा जरूर पहनेगी। और यह विषयांतर कतई नहीं है क्‍योंकि इसमें
मीडिया भी उतना ही बड़ा अपराधी है।

वै‍कल्पिक मीडिया खड़ा हो रहा है। सोशल नेटवर्क साइट़स की वजह से, या
ब्‍लॉग की दुनिया में। वहां मुझे बहुत उम्‍मीदें दिख रही हैं। हमारे समय
में हम गवाह रहे हैं कि कुछ क्रांतियां खड़ी हुई हैं। मठाधीश बौखलाए हैं
लेकिन मुझे डर है यहां भी पहरे लगेंगे देर सबेर। इसलिए नए रास्‍तों की
तलाश जारी रहनी चाहिए। लेकिन इससे बड़ी मेरी अपेक्षा यह है कि हमारा
मुख्‍य धारा का मीडिया अपनी भटकन छोड़कर अपने जमीर से पूछे। क्‍या उन
पत्रकार मित्रों को शर्म भी नहीं आती जो पच्‍चीस साल पहले एक पवित्र मिशन
के साथ उतरे थे और आज सिर्फ अपनी टीआरपी महत्‍वाकांक्षाओं के लिए अपने
चैनलों पर यह दिखा रहे हैं कि किस घर में डायन आती है और कहां सांप ने एक
पूरे गांव को बचा रखा है और कैसे एक कापालिक की हवस आज भी उसे भूत बनाकर
अतृप्‍त डोला रही है। जिस देश में आधी जनता भूखी सोती है, जिस देश में
संसाधनों पर दस फीसद आबादी का कब्‍जा है, वहां ऐसी पत्रकारिता के लिए
जनता की अदालत में आपराधिक मुकदमा चलना चाहिए। या इन सब चैनलों को
एंटरटेनमेंट चैनल कर देना चाहिए। लेकिन सरकारें ऐसा नहीं करेंगी क्‍योंकि
वे खुद नहीं चाहती कि कोई ये सब कार्यक्रम बंद करके उनकी तरफ झांके।

(PUBLISHED IN KATHADESH MEDIA ISSUE IN APRIL 2011)

शुक्रवार, अप्रैल 15, 2011

बर्फीले बंगले में पिघलते रिश्ते

निर्माता राकेश ओमप्रकाश मेहरा और निर्देशक मृगदीप सिंह लांबा की फिल्म "तीन थे भाई" तीन ऎसे भाईयों की कहानी है, जो हमेशा एक दूसरे से नफरत करते हैं और अलग अलग रहते हैं। एक डिक्सी (ओम पुरी) की दुकान है शहर में। दूसरा हैप्पी (दीपक डोबरियाल) डेंटिस्ट है और तीसरा फैंसी (श्रेयस तलपड़े) एक्टर बनना चाहता है। इनके मरहूम दादाजी (योगराज सिंह) ने इनके नाम पहाड़ पर एक बंगले और जमीन की करोड़ों की वसीयत लिखी है लेकिन शर्त यह है कि वे तीन साल तक उस घर में बिना लड़े रहेंगे। फिल्म इसी मोड़ पर शुरू होती है जब चारों तरफ बर्फीला सा तूफान है और तीनों भाई उस बंगले पर पहुंचते हैं। लेकिन उनका लड़ाई झगड़ा खत्म नहीं होता। सबसे छोटा फैंसी एक कुत्ते को भी अपने साथ रखता है और उन्हीं के पास दादाजी की अस्थियां भी हैं जो तीन साल बाद ही प्रॉपर्टी मिलने के बाद ही प्रवाहित की जानी हैं।

कहानी में ये तीनों पात्र एक दूसरे से लड़ते रहते हैं। कालांतर में पहाड़ पर ही भटकते हुए कुछ अंग्रेज लड़कियां इन्हें मिलती हैं और इनके लिए एक नई मुसीबत खड़ी करती हैं। इस मुसीबत से निपटते ही दूसरी आती है और नाटकीय घटनाक्रम में फिल्म अंत तक पहुंचती है।

फिल्म की सबसे ताकतवर चीज गुलजार के गीत हैं और सबसे बड़ी कमजोरी इसका संपादन। कई दृश्य अनावश्यक लंबे हैं। दूसरी, कमजोरी पटकथा की बाधित करने वाली गति है। कहानी की गति अविश्वसनीय ढंग से आगे बढती है और कुछ गैर जरूरी से दृश्य संपादक ने फिल्म में क्यों रहने दिए समझ नहीं आता संवाद साधारण है और जादुई नहीं लगते। इंटरवल तो फिल्म खिंचती हुई सी चलती है लेकिन इंटरवल के बाद थोड़ी गति पकड़ती है। फिल्म की खूबसूरत लोकेशन्स और बर्फानी वादियां इसकी ताकत है कि आपको थियेटर आपको बर्फानी अहसास होता है। ओमपुरी ने ठीक अभिनय किया है लेकिन उम्र और वजन ने उन्हें शिथिल किया है। तनु वेड्स मनु के बाद दीपक डोबरियाल लगातार सहज और आकर्षक लगे हैं। श्रेयस ने काम चलाऊ काम किया हैं। क्रिकेटर युवराज के पिता योगराज सिंह दादाजी के रोल में इस फिल्म से डेब्यू कर रहे हैं और कहीं कहीं लाउड हैं। यूं तो पूरी फिल्म के पात्र ही जरूरत से ज्यादा लाउड लगते हैं। यदि आप परंपरागत कॉमेडी फिल्मों से ऊबे हुए हैं तो "तीन थे भाई" एक टाइमपास फिल्म है। सिर्फ सब्जेक्ट अलग होने मात्र से वह बहुत ज्यादा जादू पैदा नहीं करती है। संगीत औसत है।

शनिवार, अप्रैल 09, 2011

बेवफा पतियों की टाइमपास कॉमेडी

film review-- THANK YOU

‘थैंक यू’ इस हफ्ते रिलीज अनीस बज्मी निर्देशित और अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म है जो शायद दोनों के लिए लगातार विफलताओं के बीच एक आखिरी चिराग की तरह हिल डुल रही है। आइपीएल की हवा है। दीये में तेल कमजोर है। चिरागों से लौ जा रही है।
‘थैंक यू’ का कथासूत्र अनीस की पुरानी फिल्म ‘नो एंट्री’ का दोहराव है जहां तीन लंपट पति हैं और जिन्हें अपनी पत्नियों से इतर दूसरी लड़कियों के साथ इश्क लड़ाने में आनंद आता है। घर में एक प्यार का ढोंग करता है, एक अतिरिक्त डरने का और तीसरा सामंती किस्म का है जो रात को तीन बजे भी चाय पीने के लिए पत्नी को ही कष्ट देता है। चौथा आदमी जासूस है, जिसकी भूमिका अक्षय कुमार ने की है और वह इन तीनों ही जोड़ों में एक दूसरे के लिए जासूसी करता है। तीनों पत्नियों के लिए यह आदमी उनके मर्दों की जासूसी करता है और तीनों पति उस जासूस को ढूंढऩे उसी आदमी से मदद मांगने पहुंचते हैं जो पहले से ही इनकी जासूसी में लिप्त है। एक गुत्थी सुलझती है और दूसरी उलझती है और अंतत: एक प्रवचननुमा अंत में फिल्म लंपट पतियों के लिए प्रेरक कथा की तरह लगती है कि किस तरह दुनियाभर की सारी पत्नियां आपके लिए त्याग करती हैं और पति किस तरह बाहर की तरफ मुंह मारते हैं।
कहानी में ‘नो एंट्री’ जैसी ताजगी नहीं और संवादों में वैसा विट भी नहीं है। बहुत जगह निर्देशकीय स्वच्छंदता दर्शक पर भारी पड़ती है, जैसा कि अनीस अपनी हर फिल्म में करते हैं लेकिन  हास्य की एक ही हांडी में बार बार कामयाबी नहीं उबाली जा सकती। अक्षय कुमार के लिए भी फिल्म कुछ खास नहीं कर पा रही है। बॉबी देओल, सुनील शेट्टी, ठीक हैं। सोनम कपूर बनावटी ज्यादा लगी हैं, रिमी सेन साधारण हैं और सलीना जैटली फिल्म के बहुत कम हिस्से में हैं। पूरी फिल्म में सबसे आकर्षण का केंद्र इरफान हैं, जो सिर्फ अपने संवाद बोलने के ढंग से ही एक साधारण संवाद में भी एक मुस्कान पैदा कर देते हैं। खूबसूरत लोकेशन्स की भी तारीफ हो सकती है लेकिन बिकिनीधारी विदेशी बालाओं की फिल्म में अतिरिक्त उपस्थिति बॉक्स आफिस की कामयाबी की गारंटी नहीं होती। गीत संगीत साधारण हैं और मल्लिका आयटम सॉन्ग में भी औसत लगी है। एक लाइन में, यह फिल्म अनीस और उससे भी ज्यादा अक्षय कुमार के लिए अग्नि परीक्षा है।

शनिवार, फ़रवरी 26, 2011

अटेंड करने लायक शादी





तनु वेडस मनु निर्देशक आनंद राय की केवल एक रोमांटिक कॉमडी नहीं है बल्कि कहीं कहीं वह भावनात्मक रूप से भी आपको छूती है।

लंदन में रहने वाला डॉक्टर मनु (माधवन)भारत आता है और माता पिता के दबाव में शादी के लिए लड़की ढूंढ़ने निकला है, वहीं मुलाकात तनु (कंगना रानौत) से होती है लेकिन तनु किसी से प्यार करती है और अपने बॉयफे्रंड भी जल्दी बदलती है। वह सिगरेट पीती है, वोदका और रम भी खींच लेती है कभी कभार। इधर मनु जब पहली बार तनु को देखता है तो वह उससे प्यार कर बैठता है और जब वह उससे शादी से इनकार कर देती है, एक बार तो बिगड़ती है लेकिन दूसरे सिरे से उसकी मुलाकात तनु से हो जाती है।

वह उसके मेंटर की तरह काम करने लगता है और कहानी प्रेम के त्रिकोणों और चतुष्कोणों से आगे बढ़ते हुए अंजाम तक पहुंचती है। एक तरह से अपनी पूर्ववर्ती कुछ छोटी और कामयाब फिल्मों की तरह इस फिल्म की तारीफ इसलिए भी लाजिमी है कि यहां असली भारतीय मध्यवर्गीय परिवार है। यहां सिर्फ दूल्हा एनआरआई है लेकिन वह हिंदुस्तानी ही चेहरे मोहरे वाला है।

असल में जगह जगह लड़की देखना एक अजीब सा लगता है लेकिन छोटे शहरों में होने वाली नुमाइश परेड पर यह तंज भी दिखता है। इस कहानी की लड़की लोगों के मुताबिक अपने घर वालों के हाथ से निकल चुकी है और लड़की सोचती है सब कुछ सीधा सपाट हो जाए तो क्या मतलब। कुल मिलाकर वह एक कंन्फ्यूज्ड लड़की कहानी है, जो कुछ कुछ जब वी मेट की करीना कपूर से मिलती है। लेकिन आनंद राय ने अपने चरित्र थोड़ा अलग किया है और कंगना उसमें जमती है।

इंटरवल के बाद फिल्म थोड़ी धीमी पड़ती है लेकिन एक अच्छे क्लामेक्स की वजह से मनोरंजक बन पड़ी है। माधवन निस्संदेह फिल्म की जान हैं लेकिन दीपक डोबरियाल की उपस्थिति हर जगह आपके चेहरे पर मुस्कान रखती है। जिम्मी शेरगिल भी हैं और उन्होंने अपने हिस्से को काम अच्छा किया है।

फिल्म के गीत संगीत बेहतर हैं। रंगरेज गीत लिखा बहुत अच्छा गया है तो कदे सडी गली भी आया करो के गीत संगीत बेहद उम्दा है और फिल्म की जान है। पता नहीं फिल्म में गीत अधूरा सा ही क्यों इस्तेमाल हुआ लगता है। बीप की ध्वनि की ध्वनि के साथ कुछ गालियां हैं इसके बावजूद तनु और मनु की शादी में आप एक बार सपरिवार जा सकते हैं। निराश नहीं होंगे। 

रविवार, फ़रवरी 20, 2011

एक था बीबीसी लंदन

हालांकि अब यह तय हो गया है की बीबीसी हिन्दी के सेवायें अभी जारी रहेंगी लेकिन यह लेख उस निर्णय से पहले लिखा गया था और डेली न्यूज़ के सन्डे सप्लीमेंट हमलोग में छापा था.

बीबीसी लंदन भारतीय जनमानस में सिर्फ एक रेडियो सेवा ही नहीं है, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की अनौपचारिक पाठशाला भी रही है यानी भारत में लोकतंात्रिक मुल्यों के विकास में जिन संस्थाओं का परोक्ष परंतु महत्वपूर्ण योगदान रहा है, उनमें बीबीसी लंदन की हिंदी सेवा को पहली कतार में गिना जा सकता है, दूरदराज में जहां अखबार नहीं पहुंचता था, एक गैरतरफदार रेडियो के रूप में बीबीसी ने देश को राजनीतिक और सांस्कृतिक तौर पर बुहत कुछ सिखाया, पढ़ाया है ...

यह अस्सी के दशक के शुरूआती दिन थे जब मेरे हमारे गांव में सड़क नहीं थी। बिजली के खंभे भी गांव के एक ही हिस्से में थे, जहां ट्यूब वेल खुद रही थी। हमारे मोहल्ले के कुएं में ऊंट जोतकर चड़स से पानी खींचा जाता था। और स्कूल शायदी उसी साल पांचवी से आठवीं कर दिया गया था। गांव के कुछ लोग खाड़ी के देशों में मजदूर बनकर जाना शुरू ही किया था और चूंकि उनकी मुद्रा विदेशी होती थी इसलिए जब वे गांव लौटते थे तो गांव उनको अफसरों जैसा सम्मान देता था। वे लोग भी पूरे मजे से गांव के लोगों से मिलने वाली इज्जत का पूरा मजा लेते थे। गांव लौटते में उनके पास एक छोटा सा जादुई डिब्बे जैसा कुछ यंत्र होता था जिसे वे रेडियो कहते थे। 

ट्रांजिस्टर भाषायी लिहाज से शायद सही शब्द है लेकिन सब की जुबान पर वा रेडियो ही रहा है। ऎसा ही एक रेडियो पिताजी के एक भतीजे ने यानी मेरे चचेरे भाई ने उन्हें लाकर दिया था। और पिताजी सबसे पहले स्कूल के मास्टर के यहां गए थे, जिनके पास पहले से ही रेडियो था। उसमें आकाशवाणी तो हम सुनते ही थे लेकिन पिताजी ने बीबीसी लंदन की मीटर वेव पूछ ली थी और बीबीसी लंदन की हिंदी सेवा घर की नई आरती हो गई थी, जिसे सुनना हम बच्चों की शुरूआती दिनों में मजबूरी थी, लेकिन धीरे धीरे आदत बन गई। उसमे मजा आने लगा। सारे गाने बजाने छोड़ शाम सात बजकर चालीस मिनट से पहले आठ दस तक और फिर जब उनका समय बढ़ गया तब साढे सात से साढे आठ तक। कैलाश बुधवार, अचला शर्मा, राजनारायण बिसारिया, ओंकारनाथ श्रीवास्तव, परवेज आलम, शफी नकी जामयी, गौतम सचदेव, विजय राणा। 

आज जिन पंकज पचौरी को आप एनडीटीवी इंडिया पर देखते हैं, वे शायद नब्बे के दशक में इंडिया टुडे छोड़कर बीबीसी गए थे। जयपुर के राजेन्द्र बोहरा थे जिनको मैं बाद में सुनता रहा, उनका एक रूपक आया करता था। इसी तरह बाद के बरसों में ललित मोहन जोशी ने सिनेमा के इतिहास पर एक एक बेहतरीन प्रोग्राम तैयार किया था। सुबह-सुबह वे सीधी बात कराते थे पत्रकारों से और मेरे खयाल में अखबारों में आज क्या छपा है यह सब भी मैं बाद के सालो में सुनता रहा।

बाद में स्कूल में चार साल मैं हॉस्टल में रहा था और वहां रेडियो रखने की मनाही थी। लेकिन मैं एक छोटा सा रेडियो चुपके से अपने कमरे में दबाकर रखा था और बीबीसी हिंदी सुनता था। मेरी बीबीसी के बदले मेरे कमरे के बाकी साथी फिल्मी गाने और क्रिकेट की कमेंट्री सुनते थे। मैं अगर उन्हें रेडियो ना देता तो वे वार्डन से मेरी शिकायत कर सकते थे। इस विवरण का आशय कोई आत्मप्रशंसा या प्रचार नहीं है लेकिन जब से यह खबर मिली है कि बीबीसी की हिंदी सेवा बंद हो रही है, तो मुझे मन ही मन तकलीफ हुई। हालांकि पिछले कुछ साल में मैंने बीबीसी सुनना बंद कर दिया है फिर भी एक भी दिन ऎसा नहीं है जब मैं इंटरनेट खोलूं और बीबीसी की साइट पर ना जाऊं। लेकिन वहां भी मैं रिकॉर्डेड प्रोग्राम इंटरनेट से सुनता हूं। 

खाड़ी युद्ध के दिनों में 
खाड़ी युद्ध हम जैसे दूरदराज के गांवों से आने वाले उन युवाओं के लिए बीबीसी हिंदी आज भी शायद उतना ही उपयोगी हो जितना कभी मेरे लिए रहा है। मुझे खुद पर ताज्जुब होता है, जब हॉस्टल के दिनों में खाड़ी युद्ध पर एक डायरी तैयार करता था जिसमें पैट्रियट और स्कड मिसाइलों के फर्क से लेकर अमेरिका और यूरोप की बिदेश नीति तथा भारत के रवैए से जुड़ी चीजें हुआ करती थी। मैं सुबह के अखबार आने से पहले ही बता दिया करता था आज अखबारों में यह सब छपेगा। 

उसके बाद
हमारे घर के पड़ोस में रहने वाले मेरे चाचा दुलाराम अब सत्तर पार के हो गए हैं लेकिन उनका बेटा कोई डेढ़ दशक पहले सोमालिया गया था। संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना में। वे सुबह नियमित रूप से बीबीसी सुनते थे क्योंकि उसके लिए ऎसा कोई समाचार माध्यम नहीं था जो वहां की नियमित रिपोर्टिग करता हो। हमारे टीवी चैनल्स देखते हुए हमेशा यही लगता है कि दुनिया में हिंदुस्तान ही एक देश है और वहां भी मुंबई, दिल्ली जैसे ही शहर हैं। गांव तो जैसे गायब हैं। बहरहाल बरसों बाद जब हम कॉलेज में थे और उड़ती उड़ती खबर आई थी कि हमारे गांव और आसपास में कुछ लोग जहरीली शराब पीने से मर गए हैं तो हमारे पास बीबीसी हिंदी की रात पौन ग्यारह की सभा सुनने के अलावा कोई मीडियम नहीं था, जहां से पुष्टि हुई और अपने उस कस्बे का नाम मैंने रेडियो पर सुना जहां हम आते जाते बड़े हुए थे। 

कहने का मतलब यह है कि वह मेरे गांव से सोमालिया, यूगोस्लाविया, युगांडा तक की खबरें एक ही मीटर वेव पर सुन लिया करते थे और उनपर भरोसा कर लिया करते थे। आज भी मैं गांव जाता हूं तो कई युवा मुझसे पूछते हैं कि मैं जयपुर में रहता हूं तो क्या नारायण बारेठ को जानता हूं जो बीबीसी पर बोलते हैं और मेरी हां में वे खुश होते हैं। इसका मतलब यह है कि गांव में तमाम आधुनिकता के बावजूद लोग बीबीसी को सुन रहे हैं। आज भी कोई एक करोड़ से ज्यादा लोग बीबीसी हिंदी सुनते हैं। जहां बिजली नहीं है, टीवी नहीं है वहां यही खबरें हैं जो लोगों की मदद करती हैं। 

इंदिरा की मौत का दिन 
मुझे याद है जब इंदिरा गांधी की हत्या की खबर पूरे गांव में एक अफवाह की तरह थी तो हमारे घर में शाम को पुरूषों और महिलाओं का मेला सा लगा था। रेडियो ऑन था और जब यह सबसे पहले बीबीसी पर आई कि इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई है तो महिलाएं रोने लगी थीं और पुरूष मुंह लटकाए आंखें नम किए बैठे थे। इससे पहले सब लोग इस इंतजार में थे कि शायद वे घायल हुई हैं और बच जाएंगी। इसी तरह राजीव गांधी की हत्या की खबर भी रात को पौने ग्यारह बजे की सभा में सबसे पहले बीबीसी से ही मिली थी। 

बाजार में 
समझदार होने के बाद, बाजार और उत्तर आधुनिकता को समझने के बाद यह भी समझ में आने लगा कि किस तरह समाचार मीडिया भी बुरी तरह से बाजार के दबाव में रहा है। यहां तक कि बीबीसी के पूर्व संपादकों ने बीबीसी की निष्पक्षता को भी संदिग्ध भी बताया लेकिन जो एक दृष्टि साम्राज्यवाद के खिलाफ और आम आदमी के हक में समाचारों को सुनते हुए विकसित होती है, उसमें बीबीसी ने मेरे खयाल से बहुत मदद की है। राजनीतिक और सांस्कृतिक विविधता वाली जो चेतना दूर दराज की हिंदी बेल्ट में बीबीसी हिंदी की रेडियो प्रसारण सेवा का मेरे खयाल से बड़ा योगदान रहा है, क्योंकि आकाशवाणी और दूरदर्शन की खबरें भी मैं लगातार सुनता रहा हूं और उनमें ज्यादातर सरकारी महिमागान होता है। दुर्भाग्य से वह बढता ही जा रहा है। 

समकालीन समाचार परिदृश्य में जितने हिंदी के चैनल आ गए हैं उनको देखते हुए यह अफसोस होता है कि यह कहां आ गए हैं हम? एक ऎसे अजूबे देश में जहां भूत प्रेत, साधु संन्यासी, नेता, डकैत, फिल्मवालों की तो खबरें हैं लेकिन आम आदमी की खबरें गायब हैं। ऎसे में बीबीसी आम लोगों के बीच फैला ऎसा माध्यम है, जो लोगों की राजनैतिक, सांस्कृतिक और भाषायी चेतना के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण था और सही अर्थो में इसके बंद होने का नुकसान बीबीसी के उन पत्रकारों से कहीं ज्यादा उन बचे हुए गांव देहात के स्रोताओं का है।

क्योंकि पत्रकारों की जमापूंजी होगी और उन्हें नई जगह काम भी मिल जाएगा लेकिन उन स्रोताओं को दूसरा बीबीसी लंदन नहीं मिलेगा। जिस तरह से साइकिल के गायब होने और मोटरसाइकिल और कार के आने को हम प्रगति समझ रहे थे लेकिन दुनिया के कई देशों में साइकिल पुन: प्रासंगिक हो गई है, वैसे ही रेडियो गायब होने के बाद एफएम के रूप में वो पुन: लोगों के बीच आ गया लेकिन अफसोस तो यह है, वहां बीबीसी जैसे माध्यम में बाजार का दबाव है और वे मोबाइल और इंटरनेट पर जा रहे हैं। 

और ऎसा भी होता है
जयपुर के राजेन्द्र बोहरा को बीबीसी लंदन से मैं स्कूल के दिनों में सुनता था और दूसरे प्रसारकों की तरह उनके भी कई रूपक मुझे याद थे। बरसों बाद जब मैं जयपुर में उनसे मिला था तो उन्हें मेरे लिखे कुछ न्यूज फीचर याद थे। जयपुर में हम एक ही पार्टी में थे, जब एक मित्र ने हमारा परिचय कराया तो वे मेरी तारीफ कर रहे थे और मैं उनकी। मेरी आंखें नम थीं, मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि बचपन से प्रिय मेरे उस प्रसारक से कभी रूबरू मिल पाऊंगा और वह मुझे मेरे नाम से जान रहा होगा जैसे मैं उन्हें उनके नाम से जानता था, चेहरे से नहीं। 

उन्होंने पार्टी में लगे पेय की तरफ इशारा करते हुए पूछा था, लेते हो? और मेरी हां पर वे खुश हुए, बोले, आज मजा आयगा जब मिल बैठेंगे, दो यार। उसके बाद हम लगातार मिलते रहे। कोई चार साल पहले जब बोहरा जी के निधन की खबर आई थी तो मैं बेहद उदास था, जैसे कोई मेरे परिवार से चला गया है। वैसे ही, अब बीबीसी हिंदी रेडियो के अवसान की खबर है, जो सचमुच मुझे उदास कर रही है। 

(डेली न्‍यूज के संडे सप्‍लीमेंट हमलोग में रविवार 20 फरवरी 2011 की कवर स्‍टोरी)