रविवार, जून 20, 2010

पिता से अलग पुत्रों की दुनिया



यह कोई अठारह साल पुरानी बात है, जब पहली बार मैंने कॉलेज की पढाई के लिए गांव छोडक़र शहर का रुख किया था। पिताजी मेेरे साथ थे। वे चाहते थे कि जिस घर मैं रुकने वाला हूं, वहां बस स्टैंड से उतरने के बाद सिटी बस से ही चला जाए। मेरी जिद पर उन्होंने ऑटो वाले को बस के मुकाबले दस गुना किराया दिया। मैं नया था। गलत रास्ते पर ऑटोवाले को ले गया। तय रकम से उसने पांच रुपए ज्यादा लिए। पिताजी ने अनमने भाव से दिए लेकिन ऑटो वाले के जाते ही मेरी खैर नहीं थी। मुझे पांच रुपए की कीमत पर लंबा व्याख्यान सुनना पड़ा कि शहर में घुसते ही यह हाल है, पता नहीं आने वाले दिनों में मेरे खून-पसीने की कमाई को कैसे लुटाओगे?
हर पिता की इच्छा होती है, उसकी काली-सफेद कमाई का उपभोग केवल उसका पुत्र ही करे लेकिन वह कतई नहीं चाहता कि वह उसका दुरुपयोग करे। समस्या यहीं से शुरू होती है। जो पिता की नजर में दुरुपयोग है, वह पुत्र की नजर में नहीं। पिता बस से आकर पचास रुपए काम पांच रुपए में निकाल रहे थे और मैंने ऑटोवाले को पांच रुपए की तो टिप ही दे दी।
अगले दिन पिता गांव लौट गए और पहला पुण्य काम मैंने किया कि उन्हें बस में बिठाते ही लक्ष्मी मंदिर में टिकट खिडक़ी से टिकट खरीदी और घुस गए फिल्मी दुनिया में।
इंजीनियरिंग पढने आए उदयपुर के मेरे मित्र को पहली बार पिता ही छोडऩे आए। तमाम हिदायतें देने के बाद ज्योंही पिताजी वापस गए, उन्होंने तुरंत शराब की दुकान तलाशी और गटका ली एक बीयर। पिताजी की हिदायतों की पोटली चुपके से उनके ही सूटकेस में उन्होंने वापस भेज दी थी।
पिताओं के तमाम प्यार और देखभाल के बावजूद पुत्रों की एक अपनी दुनिया है, जहां एक उम्र के बाद वे पिता की घुसपैठ बर्दाश्त नहीं करते। कुछ पिता समझदार होते हैं। उस दुनिया से खुद को बाहर कर लेते हैं।
मेरे एक मित्र को किसी ने खबर दी कि उनके बेटे को कल उन्होंने सिगरेट पीते देखा था। उन्हें ताज्जुब नहीं हुआ। अगले दिन उन्होंने नाश्ते की टेबल पर बच्चे को कहा, ‘छोटी उम्र में सिगरेट पीने से फेफड़े खराब हो जाते हैं, बाकी तुम्हारी मर्जी।’ बालक ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, उस मित्र ने मुझे बताया कि मैं मान ही नहीं सकता कि उसने सिगरेट पीनी बंद कर दी होगी, मैं भी तो ऐसा ही था उसकी उम्र में।
विख्यात लेखक काफ्का ने अपने पिता के व्यवहार को लेकर उन्हें एक लंबी चिट्ठी लिखी थी किस तरह उनकी हिदायतें उसे नागवार गुजरती थीं और उसे गुस्सा आता था। यह पत्र एक साहित्यिक दस्तावेज है। ज्यादातर पुत्रों के हालात यही हैं।
पिता होने के दुख ही यही हैं कि अपने ही घर में दो पीढियों की मौजूदगी में वह पिसता है। जो उसे सही लगता है, वह बेटा नहीं मानता। वह जो कर रहा होता है, उसे उसके पिता सही नहीं मानते। दादा होने की अवस्था में आदमी पुन: आधुनिक होता है और उसे अपने पोते की बातें अपेक्षाकृत सही लग रही होती हैं। समस्या यह है कि उसे पता होता है कि जो घटित हो रहा है, वो विकास और सोच की सतत प्रक्रिया होती है, यदि वह उसे नहीं भोगेगा तो जिंदगी हाथ से खिसक ही रही है, किसी भी दिन सांसों का चिराग बुझ जाएगा। आज का पिता कल का दादा बनेगा और उसे अपने पोते की बातें ज्यादा ठीक लगेंगी। गांव में इसीलिए लोग कहते हैं, मूलधन से ज्यादा प्यारा ब्याज होता है। दादा के लिए पिता मूलधन है, पोता ब्याज है। पिता पुत्र को हमेशा दूर रखता है, पोते को हमेशा करीब रखना चाहता है। कितनी ही फिल्में, कितने ही स्कॉलर और समाजविज्ञानी यह बात समझा चुके हैं कि पिता को अपनी अपेक्षाओं का बोझ पुत्र पर नहीं लादना चाहिए। पिता के कंधे हमेशा मजबूत होते हैं, वह पूरे परिवार का बोझ उठाता है। पुत्र के कंधे इतने मजबूत नहीं होते, वह बोझ लेकर चल ही नहीं सकता है। अंगुली पकडऩे के दिनों से छुटकारा पाकर वह उच्छृंखल होकर अपने सपनों की एक दुनिया बनाना चाहता है, जहां उसके दोस्त, उनकी प्रेम कहानियां, अलमस्ती और दुनिया को जूते की नोंक पर रखने का रवैया लिए झूमते रहते हैं। पिता बनने के बाद वे भी उसी तरह अपेक्षाओं और जिम्मेदारियों की पोटली का बोझ महसूस करने लगते हैं। ऐसे कितने ही मेरे मित्र हैं जो यूनिवर्सिटी कॉलेज के दिनों में प्रोफेसर्स की नाक में दम किए रहते थे, आज सुबह शाम मंदिरों में सिर नवाते हैं और उम्मीद करते हैं कि उनका पुत्र वह सब नहीं करे, जो आवारगी उन्होंने अपने कॉलेज के दिनों में छानी। यह कैसे मुमकिन है?
नए जमाने के पिता अपने पुत्रों से मित्रवत व्यवहार की बात करते हैं लेकिन यह तब तक ही संभव है, जब तक उनके बेटे वयस्क नहीं हुए हैं। वयस्क पुत्र स्वयं ही कहते हैं, उनके इतने बुरे दिन नहीं आए कि पिता की उम्र के दोस्त रखने पड़ें। मैं इस पूरे दौर में पुत्रों के साथ हूं। पिताओं से सहाुनभूति दर्शा सकता हूं, उनके लिए दुआ कर सकता हूं कि वे दादा बनने का इंतजार करें ताकि अपने विचारों को आधुनिक बनाने का साहस जुटा सकें। आमीन।

शनिवार, जून 19, 2010

सियासी साये में पायरेसी





पायरेसी का मतलब है कि किसी आदमी का किसी भी तरह का श्रम कोई उत्पाद को तैयार करने में लगा उस तक उसका हक पहुंचाए बिना उसका उपभोग करना या आनंद उठाना। भाजपा की बाड़ेबंदी में जो लोग फिल्म ‘राजनीति’ का पायरेटेड वर्जन देख रहे थे, उनमें कुछ को तो यह भान ही नहीं था कि वे कानून का उल्लंघन कर रहे हैं, जिन लोगों को हम चुनकर भेजते हैं उनमें ज्यादातर इस गलतफहमी के शिकार हैं कि वे तो कानून बनाते हैं,लिहाजा उनकी कोई भी हरकत गैर-कानूनी कैसे हो सकती है? लेकिन सच यही है कि यही लोग सबसे ज्यादा गैर-जिम्मेदारी से कानून का मखौल उड़ाते हैं। यह कोई चामत्कारिक और नई बात भी नहीं है जो मैं लिख रहा हूं, क्योंकि हम सबने यह मान ही लिया है कि किसी भी बात पर एक बार हंगामा होना, उस पर बयानबाजी होना और मामले की लीपापोती हो जाना हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी विशेषता है, यदि आप इस विशेषता से अनभिज्ञ हैं तो देखते जाइए कि इस मामले पर भी ऐसा ही होगा। और तो और जिस भोपाल गैस त्रासदी पर पूरे देश का मीडिया शोर शराबा कर रहा है, उसकी परिणति भी लीपापोती में ही होगी और उसकी प्रक्रिया शुरू हो चुकी है।
विषयांतर ना करते हुए पायरेसी पर आते हैं। पिछले दिनों की ही एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में कोई 65 फीसदी सॉफ्टवेयर पॉयरेटेड इस्तेमाल होते हैं और इनकी बाजार में कीमत करीब दो अरब डॉलर के आसपास है। दुनिया के कई छोटे देशों की अर्थव्यवस्था भी इतनी बड़ी नहीं है। इंटरनेट के जमाने में इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि कहां कहां इस तरह की चोरी हो रही है लेकिन अभी तक कोई उल्लेखनीय कार्रवाई नहीं हुई। कारण साफ है। पायरेसी एक कुटीर उद्योग की तरह शुरू होकर एक वृहद उद्योग बन गई है। इसकी आपराधिक शृंखला पूरी दुनिया में फैली है। यहां तक अमेरिका और जापान में जो सबसे कम पायरेसी वाले देश माने जाते हैं, वहां भी पिछले साल कोई बीस इक्कीस प्रतिशत सॉफ्टवेयर पायरेटेड काम लिए जा रहे हैं।
अब सिनेमा पर आइए। आप अपने पड़ोस के किसी भी वीडियो पार्लर में जाइए। आपको तीस रुपए में छह फिल्मों का सैट मिलेगा जिसमें कम से कम तीन या चार फिल्मों के प्रिंट की गुणवत्ता भी ठीकठाक होगी। आप आंख बंद करके किसी भी पार्लर में घुसिए वहां यही दृश्य है। जयपुर में ही कम्प्यूटर और सीडीज के लिए एक विख्याात एक मॉल में आपको क्या नहीं मिलेगा? आप इच्छा व्यक्त करिए। बॉलीवुड हॉलीवुड का ताजा तरीन माल। इस पूरे तंत्र को हिलाने की इच्छाशक्ति किसी में भी इसलिए नहीं है कि वह एक समांतर अर्थव्यवस्था है जिसमें वीडियो पार्लर के मालिक से लेकर, इस माल ढुलाई में लगे लोग और संबंधित इलाके की पुलिस तक शामिल रहती है।
प्रकाश झा जयपुर में स्क्रीनिंग से इतने दुखी हो रहे हैं। उन्हें चार कदम चलकर अंधेरी स्टेशन पहुंचना चाहिए। वहां एक के बाद एक कतार से ठेले लगे हैं, जिन पर आपकी मनचाही फिल्म आपके मनचाहे दामों पर मिल जाएगी। मैंने मेरे एक मित्र को फोन करके सुनिश्चित किया है, वहां राजनीति की डीवीडी भी उपलब्ध है। अंधेरी, गोरेगांव और मलाड के इन ठेलों के आसपास ही पुलिस की चौकियां रहती हैं। लोग सब्जियों की तरह विश्व और भारतीय सिनेमा का मोलभाव करते हैं,जिसका रत्तीभर भी निर्माता तक नहीं पहुंचता। इंडस्ट्री से जुड़े लोग सांगठनिक रूप से इसका विरोध करते रहे हैं लेकिन कई ऐसे भी हैं, जिनके घर यही पायरेटेड डीवीडी का मालवाहक आदमी भरा हुआ बैग लेकर पहुंंचता है और होम डिलीवरी करता है। तो सबसे बड़ा अड्डा तो मुंबई में ही है। तमाम सुरक्षा कवचों के बीच देश की प्रतिष्ठित लैब का जनरल मैनेजर ही एक फिल्म की पायरेसी के लिए जिम्मेदार माना गया था। अब यह बड़ी पूंजी का बाजार हो गया है। मोटे तौर पर देखें तो यूं लगता है कि आम आदमी के पास पहुंचने वाली यह सस्ती चीजें उसके लिए कम से कम फायदेमंद हैं लेकिन समस्या यह है बहुत सारे असामाजिक तत्त्वों के हाथ में इस फर्जी और कुटिल उद्योग की चाबी है। यह केवल निर्माता का ही नुकसान नहीं बल्कि हमें यह भी नहीं पता कि इस अवैध कारोबार की यह बेनामी पूंजी आखिर कहां जाकर किस काम आ रही है?
कुछ कंपनियों ने सस्ती डीवीडी निकालकर पायरेसी उद्योग को ढीला करने की कोशिश भी की लेकिन वे उससे भी सस्ते उत्पाद लेकर आ गए। कंपनी ने जब एक फिल्म की डीवीडी पैंंतीस रुपए में देना शुरू किया तो पायरेटेड आपको पच्चीस से तीस रुपए में मिलने लगी और उसमें छह फिल्में शामिल हैं। आखिर बाजार की इस प्रतिस्पर्धा में कोई कब तक लड़ सकता है, जब हमारे प्रशासनिक तंत्र के पास पायरेसी रोकने की कोई इच्छाशक्ति और सख्त कानून का अभाव हो।
ना केवल सॉफ्टवेयर और सिनेमा बल्कि किताबें भी भीषण रूप से पायरेसी की शिकार हैं। कितनी ही बेस्ट सेलर आपको दिल्ली और मुंबई में मूल किताब की बीस प्रतिशत कीमत पर आसानी से उपलब्ध हैं। अरुंधति रॉय, विक्रम सेठ, किरण देसाई, अरविंद अडिगा, जेके रॉलिंग, चेतन भगत सबकी किताबें आपको यूं की यूं फोटोकॉपी की हुई खुलेआम बिकती मिल जाएंगी।
तो पायरेटेड फिल्म देखने वाले नेताओं का अपराध इसीलिए बहुत बड़ा है कि जब पूरे बाजार में इस कदर पायरेसी छाई है। इन्हें रोकने की कोशिश करनी चाहिए, उस समय ये भी उसी भीड़ और उस फर्जी उद्योग का हिस्सा बन रहे हैं, जिसका अंतत: नुकसान हमारी अर्थव्यवस्था को है। प्रकाश झा कह ही चुके हैं कि उनसे कहा जाता तो वे वैसे ही स्पेशल स्क्रीनिंग करवा देते, पायरेटेड फिल्म देखकर नेताओं ने ठीक नहीं किया। इसलिए मुझे लगता है इन्हें माफ कर देना कतई सही नहीं है। लेकिन इनको सजा मिलने का भी क्या कोई अर्थ है जब इतने बड़े पायरेसी उद्योग को हिलाने में ये रत्तीभर भी मददगार नहीं होगी। आखिर बुराई की जड़ों पर प्रहार करना कब सीखेंगे? आखिर इन नेताओं को इतनी आसानी से डीवीडी ना मिल पाए, यह व्यवस्था कब होगी?

(राजस्‍थान पत्रिका में संपादकीय पेज पर 19 जून 2010 को प्रकाशित)

शुक्रवार, जून 18, 2010

सीता की दुविधा, रामकथा का नया रूप


फिल्म समीक्षा: रावण

निर्देशक मणिरत्नम की फिल्म ‘रावण’ दो घंटे बीस मिनट चलने वाला एक ड्रामा है, जिसकी कहानी के कुछ हिस्सों से आप परिचित हैं, कुछ नए हैं। लाल माटी वह एरिया है जहां वीरा की सत्ता है। कुछ के लिए वह रॉबिनहुड और कुछ के लिए रावण है। इलाके में जो नया एसपी देव आया है उसकी बीवी का अपहरण उसने किया है। इसका कारण आधी फिल्म के बाद आपको समझ में आता है और नए दौर की इस रामकथा का पन्ने खुलते है। बीरा की मुंहबोली बहन के साथ पुलिस की ज्यादती और उसका प्रतिशोध। क्या रामायण हमें इस नजरिए से पढाई गई कि किसी की बहन के नाक कान काट लेने की परिणति सीता के अपहरण में हुई। असल में बार बार हमें बताया गया कि राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। जैसा कि फिल्म की नायिका रागिनी कहती है, ‘देव, भगवान हैं।’ जब तक वह अपने देव का इंतजार रही है, तो वीरा की बहन के साथ हुई ज्यादती को लेकर वह दुविधा में है कि देव सही है कि वीरा, लेकिन जब वीरा को मारने के लिए देव ने उसे मोहरा बनाया, तो उसकी दुविधा खत्म होती है और वह वीरा और देव गोली के बीच में तनकर खड़ी हो जाती है। वीरा उसे धकेलते हुए कहता है कि हटो रागिनी, चलाने दो गोली ताकि दुनिया को पता चले कि असली रावण कौन है? रामकथा में जहां राम के गलत होने के सबूत मिलते हैं, वहां कवि ने मदद ली कि रावण का मोक्ष राम के ही हाथों होना है, इसलिए यह सब लीला है। चौदह दिन वीरा की हिरासत में रहकर लौटी रागिनी को जब उसका पति शक की नजर से देखता है तो उसका आत्म-सम्मान दांव पर है।

फिल्म के सारे मुख्य पात्र रामकथा से मिलाए जा सकते हैं। फोरेस्ट गार्ड गोविंदा हनुमान, पुलिस अफसर की भूमिका में निखिल द्विवेदी लक्ष्मण, रावण के दो भाई, रागिनी में सीता की छवि दिखती है। शांति का संदेश लेकर गए वीरा के विभीषण भाई को देव मार देता है।
असल में यह आधुनिक रामकथा है, जहां असली सत्ता जिन लोगों के हाथ में हैं। उन्हें हम राम समझते हैं वे सीधे सादे लोगों को रावण बनाकर मारने के बहाने ढूंढ़ते हैं। यहां वीरा में हल्का सा चेहरा एक नक्सली नेता का उभरता है, जो अपने ही समुदाय में लोकप्रिय है लेकिन रोजा, युवा जैसे राजनीतिक कथासूत्र यहां से गायब हैं। अंतिम विजय राम की ही होती है, जिसे हमारा दर्शक भी मंजूर करता है। अद्भुत फिल्मांकन ही पैसा वसूल है। हालांकि फिल्मों के चरित्रों को गहरा करने की गुंजाइश बनती थी। बहुत बातें अनकही रहीं। अभिषेक कुछ दृश्यों में तो बेहतरीन लगे हैं लेकिन कई जगह उनकी पोल भी खुलती है। विक्रम ठीक हैं। गोविंदा और रविकिशन की प्रतिभा का दोहन नहीं हुआ। रहमान का संगीत ओर गुलजार के गीत पहले ही औसत लोकप्रियता हासिल कर चुके हैं। इसके बावजूद फिल्म में लगातार एक ड्रामा है और वह अच्छी लगती है। इस आधुनिक रामायण को आप सपरिवार देख सकते हैं।

सोमवार, जून 07, 2010

उस खोई हुई बात की खोज


कितनी ही बार इस सीजन में आम खाते हुए आप सोचते होंगे कि आम की मिठास अब वैसी नहीं रही जो पहले हुआ करती थी। होली खेलते हुए भी हम कहते हैं, होली खेलने में अब वो बात नहीं। और तो और गोभी और आलू की सब्जी तक के स्वाद से हमें शिकायत है कि अब वो बात नहीं रही। आखिर वह सब क्या था, जो हुआ करता था। उलझन होती है कि हम ही बदल गए हैं या होली, आम, सब्जियां, हवाएं सब बदल गई हैं। हर साल यही कहते हैं, ऎसी गर्मी कभी नहीं देखी। रही सही कसर मौसम विभाग के वे आंकड़े पूरी कर देते हैं, जिन्हें खुद अपना मौसम भी पता नहीं होता। कुछ हद तक आशंकाएं सही भी हो सकती हैं लेकिन उससे भी बड़ी वजह है कि हमारी आदतें तेजी से बदल रही हैं। हमने उत्सवप्रियता, खान-पान और रहन-सहन को स्टेटस सिंबल बना लिया है। अपने चारों तरफ तकनीक और आधुनिकता की एक ऎसी लौह आवरण वाली चादर लपेट ली है, जिसमें हम किसी का झांकना बर्दाश्त नहीं कर सकते। याद करिए, आपने पिछली बार कब अपने पड़ोसी का पीपी नंबर देकर किसी को बताया हो कि मेरा फोन बंद या खराब हो तो वहां संपर्क करें। बहुतों को तो पड़ोसी के फोन नंबर भी याद नहीं। हमें उनके दुख से उतनी तकलीफ नहीं, जितनी उनके सुख से ईष्र्या होती है। पुरानी पीढ़ी के लोग कैसे भूल सकते हैं, जब मोहल्ले के एक ही टीवी पर चित्रहार देखने का इंतजार होता था। जिस घर में टीवी होता था, वह अपना टीवी बैडरूम में नहीं रखता था। घर के सबसे बड़े कमरे में उसे रखता था। कमरा छोटा होता तो वह ऎसे कोने में रखते कि दरवाजा खुला रहे तो चौक मे बैठे लोग भी टीवी का सुख ले सकें। श्वेत-श्याम पर्दे पर नाचते उन अभिनेता अभिनेत्रियों को देखकर जो मनोरंजन होता था, वह आज के रंगीन एलसीडी, एलईडी पर्दे से गायब दिखता है। कितने ही बुजुर्ग और अधेड़ गृहिणियां पूरा दिन टीवी के सामने बैठे हुए निरर्थक बिताती हैं और सोने से पहले चर्चा करती हैं, "टीवी के कार्यक्रमों में अब वो बात नहीं रही जो पहले हुआ करती थी।" शादी से सात दिन पहले "बान" यानी बिंदायकजी बिठा दिए जाते। गांव के सारे करीबी लोग दूल्हे, बिंदायक और घरवालों को "बनोरी" के लिए बुलाया करते। हम लोगों को हलवा पूरी खाने के इस मौके का इंतजार रहता था। सात दिन तक मीठा खाने से एक ऎसी ऊब होती थी कि सालभर का कोटा पूरा। बान के बाद औरतें देर रात तक बनोरी गाया करती थीं। उन गीतों की लय पर नाच होता। युवा लड़कियां और वधुएं नए गीतों का सृजन करती और बुजुगोंü में सुनाकर स्वीकृति पाती थीं जैसे नया कवि वरिष्ठों की तरफ उम्मीद से देखता है, लेकिन अब शहर और गांव में "बान" एक रस्म भर रह गया है। सारा रोमांच अब गायब हो गया। पैसा खर्च हो रहा है। दिखावा हो रहा है। रोमांच के मायने बदल गए हैं।

याद है जिन घरों में प्रिया स्कूटर, हमारा बजाज होता था, वे कितने अलग और असरदार माने जाते थे। अब हमें कोई असरदार लगता ही नहीं। नए अमीरों में भी वो बात नहीं। उस पूंजी की कीमत थी क्योंकि हमें उसके सूत्र पता थे कि वह कहां से आ रही है। अब आ रही पूंजी आवारा है। इसके खतरे ज्यादा हैं। दिखावा-लालच ज्यादा है। प्रेमिका तक दिल की बात कहने के लिए रिसर्च करनी होती थी कि कैसे कही जाए? फोन नहीं, पीपी नंबर नहीं। पहले सहेली को भरोसे में लो, फिर मिलने की जगह तय हो। चेहरे और हाव भाव से अंदाजा लगाओ कि प्यार है भी कि मियां, यूं ही मरे जा रहे हो। अब प्रेमिका तक पहुंचने में बाथरूम तक जाने से कम समय लगता है। स्पीड डेटिंग हो गई। क्या अब प्रेम में भी वो बात नहीं रही जो पहले हुआ करती थी। खाने में इतनी नई रेसिपीज शामिल कर ली हैं कि दही अब दही नहीं रहा, आलू में आलू कम है उससे बनने वाली रेसिपी ज्यादा। रोटी का विकल्प बेस्वाद ब्रेड बन रही है। मैकडॉनल्ड के ऊबाऊ बर्गर का सेलिब्रेशन है। गन्ने के रस वाले को हमने जीवन से बेदखल कर दिया है। हमने अपनी सरहदें खींच लीं और अब दम घुट रहा है तो कहते हैं, किसी भी चीज में अब वो बात नहीं रही जो पहले हुआ करती थी। और अंत में, इस सारी नाउम्मीदी के बीच मेरे ज्यादातर मित्र यह मानते हैं कि रेखा की खूबसूरती और गुलजार के गीतों में अब भी वही बात है। अपने आसपास आप भी ढूंढिए, बची हुई वही दुनिया जिसके लिए हम कहें, वाह, इसमें तो आज भी वही बात है।

शुक्रवार, जून 04, 2010

सत्तालोभी अराजक धूसर चेहरे


फिल्म समीक्षा: राजनीति
-रामकुमार सिंह
प्रकाश झा की फिल्म ‘राजनीति’ का गांधी परिवार से कोई लेना देना नहीं है। सारे पात्रों का कथा-सूत्र महाभारत के करीब है। नीति-अनीति, लालच और मूल्यबोध में वे ‘गॉडफादर’ के पात्रों से मिलते हैं। अर्जुन बने रणबीर कपूर और कृष्ण बने नाना पाटेकर भी सत्य की लड़ाई नहीं लड़ रहे, बल्कि एक परिवार की राजनीतिक विरासत को हथियाने में सारे जोड़ तोड़, मार-काट, हत्याएं और नैतिकता की हदें पार कर रहे हैं। सुधार की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही। पर्दे पर भव्यता दर्शाने के लिए भीड़ है लेकिन उसकी एक भी आवाज उभर कर नहीं आती। हमारे दौर की ‘राजनीति’ का कड़वा यथार्थ है कि भाषण के केन्द्र में जनता जरूर है लेकिन हकीकत के धरातल पर सत्ता के मोहरे एक दूसरे से सारे उपलब्ध अनैतिक हथियारों से लड़ रहे हैं। जनता हर पांच साल में उन्हीं धूसर (ग्रे) चेहरों को सत्ता सौंपने के लिए अभिशप्त है। यह फिल्म देखनी चाहिए।
प्रकाश झा एक अच्छी फिल्म के लिए बधाई के पात्र हैं। वे खुशकिस्मत हैं कि उनके पास इस समय के नामी सितारे फिल्म में काम कर रहे हैं, जो दर्शकों को तीन घंटे तक बिठाए रखने की क्षमता रखते हैं।
बड़े भाई को लकवा मार जाने की हालत में उसका महत्त्वाकांक्षी बेटा वीरेन्द्र प्रताप उत्तराधिकारी बनना चाहता है लेकिन मामा ब्रज भूषण की दखल के बाद सत्ता वह अपने छोटे भाई को देता है। चचेरे भाई पृथ्वी और वीरेन्द्र आपस में सत्ता के लिए लड़ रहे हैं, तभी वीरेन्द्र अपना फायदा देखकर दलित नेता सूरज को साथ लेता है, जो असल में पृथ्वी और समर की मां के कोख से पैदा हुई अवैध संतान है। छोटा पृथ्वी का भाई समर अमेरिका से आता है। सत्तालोभ में पृथ्वी के पिता की हत्या होती है और समर अपने अमेरिका लौटना रद्द कर देता है। यहां से राजनीतिक शतरंज की एक अराजक बिसात शुरू होती है, जहां कानून व्यवस्था ताक पर है। पूरी कहानी देखते हुए महाभारत आंखों के सामने नाच रही होती है। उसकी कहानी से मुक्त हो पाना लगभग नामुमकिन है। अपंग और लकवाग्रस्त रिमोट कंट्रोल हाथ में रखने वाला वीरेंद्र का पिता धूतराष्ट्र है। अच्छा एडेप्टेशन।
सत्ता की लड़ाई में कोई भी नायक नहीं दिखता। सब अपने हितों के लिए लड़ रहे हैं। एक सूरज है जो अपने दोस्त का अहसान चुका रहा है, लेकिन फिल्म के दूसरे हिस्से में से वह लगभग गायब है।
राजनीति हमारे राजनीतिक माहौल की कड़वी हकीकत की पोल खोलती है, जहां वंशवाद और लालच चरम पर हैं। किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। अभिनेताओं में अर्जुन रामपाल को छोडक़र सभी प्रभावित करते हैं। अजय अच्छे हैं ही। रणबीर हर फिल्म के बाद और मैच्योर दिख रहे हैं। नसीर छोटे से रोल में हैं लेकिन प्रभावी। नाना पाटेकार ने अद्भुत काम किया है। मनोज वाजपेयी का यह नया अवतार है। कैटरीना ठीक हैं। फिल्म से गाने गायब हैं, उनके संकेत भर हैं। उन्हें बाहर सुनना ही बेहतर है। फिल्मांकन बेजोड़ है। भीड़ के असली दृश्य जादुई है। पिछले कई सालों में इस तरह के दृश्य हिंदी फिल्मों लेने की कोशिश किसी ने नहीं की।
अंजुम राजबली और प्रकाश झा की पटकथा की गति अच्छी है। मुद्दत बाद किसी हिंदी फिल्म में शुद्ध हिंदी के संवाद देखने को मिल रहे हैं। फिल्म बेहतरीन है। बॉक्स ऑफिस पर चल जाए तो यह प्रकाश झा की किस्मत कहिए, क्योंकि थियेटर में दर्शक को दिमाग साथ लेकर जाना होगा। काश, हमारे आम लोग राजनीतिक मुद्दों पर इतने संवेदनशील होते तो ‘राजनीति’ की पटकथा और देश का राजीतिक पटल शायद ऐसा नहीं होता।

बुधवार, जून 02, 2010

भटकनों में छुपे जिंदगी के मायने



बहुत दिनों तक लगातार मैं एक ही जगह रहते हुए ऊब जाता हूं। सुबह उठते ही वही लोग, दफ्तर में वही चेहरे। वही सब्जी वाला, वही नाई की दुकान पर बजता तेज गाना, परचूनी की दुकान पर मोल-तोल करती मोहल्ले की जानी-पहचानी औरतें। सुबह की वही खुशबू मेरी बालकनी में मिलती है। उगते सूरज को देखने के लिए बालकनी के उसी कोने से देखना पड़ता है। मन कहता है कि कुछ बदलना चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे किचन में रोजाना भिंडी की खुशबू आए, या रोज ही एग करी बनती रहे, तो खाना मजेदार नहीं लगता। दरअसल, इसी ऊब को मिटाने के लिए हमें सफर की जरूरत होती है। मुझे लगता है कभी-कभी बिना मतलब, बिना सोचे समझे निकलना भी निरर्थक नहीं होता है। कवि जगदीश गुप्त की एक कविता है, भटकनों में अर्थ होता है, टूटना कब व्यर्थ होता है।

यदि हम घर से बाहर कोई नई जगह जाएंगे, तो हमारे सामने उतनी ही नई दुनिया खुलती है। गूगल अर्थ पर माउस क्लिक करते हुए मुझे धरती की खूबसूरती पर गर्व होता है। मैं रोमांच से भर जाता हूं। भूगोल में उन टापुओं के किस्से पढ़ते हैं, जहां दिखने में हम जैसे या कुछ अलग लोग रहते हैं। उनका खाना पीना, रीति रिवाज सब कुछ कितना जादुई होता है? जब मैं खुली आंखों से पहाड़ पर बैठे बादलों को देखता हूं तो दिमाग में नई कल्पनाएं, एक नई उम्मीद का संचार होता है।

यह सब मैं एक कमरे में बंद होते हुए महसूस नहीं कर सकता। सैकड़ों किताबें पढ़कर किसी समंदर के बारे में हम वो नहीं जान सकते, जब तक कि मैं उस समंदर के किनारे खुद जाऊंउसे देखूं और किनारे तक उछलती हुई लहरों के बीच जाकर खड़ा हो जाऊं। समंदर में वापस लौटता हुआ लहरों का पानी हमारे पांव के नीचे से थोड़ी सी मिट्टी भी चुराकर ले जाता है। सही मायने में पांव तले से मिट्टी खिसकने का अहसास तब होता है। एक झुरझुरी दिमाग में उठती है। मैं कभी-कभार घर से दूर दूसरे शहर चला जाता हूं। कभी अपने गांव, कभी ननिहाल, कभी रोडसाइड बने ढाबों पर रात का खाने खाने का मन होता है।

हर बार एक ही ढाबे पर क्या खाना? एक ही होटल में बार- बार खाने के लिए क्यों जाना? सिर्फ इसलिए कि उसके खाने के बारे में हमें जानकारी है? हर बार ही एक ही जगह घूमने क्यों जाना? क्या माउंट आबू दूसरी बार जाने में उतना ही खूबसूरत अहसास जगाता है? शायद नहीं। एक ही समंदर को बार-बार देखने में मजा नहीं आता। दरअसल प्रकृति का जादू अनंत है। बहुत से लोग इसे पूंजी से भी जोड़ सकते हैं। इस जादू को महसूस करने के लिए हमें अपने भीतर एक जिज्ञासु को पैदा करना होगा। हमारे आसपास ही कितने खजाने ऎसे हैं, जिन पर हमने गौर ही नहीं किया।

घूमते हुए ही मैंने पाया कि गोवा के लोग इतने मेहमान नवाज हैं कि बीयर पीने के बाद खुल्ले पैसे ना होने के कारण दुकानदार ने बीस रूपए नहीं लिए। बोला, कभी भी देते जाना। घूमते हुए ही मुझे अहसास हुआ कि हवाई अड्डे पर मेरे मणिपुर के एक दोस्त से पासपोर्ट मांग लिया गया और उसे यह साबित करना पड़ा कि वह विदेशी नहीं भारतीय है। यह एक तरह का राजनीतिक सबक भी था कि क्यों अपनी पहचान लिए आदमी संघर्ष करता है। अपने ही देश में किसी के साथ ऎसा बर्ताव कैसे किया जा सकता है? दूसरी ओर यह हमारे देश की विविधता का भी संकेत है। बचपन में पिता के साथ घूमते हुए पाया कि गांव में आधी रात को भी आप किसी का दरवाजा खटखटाएंगे तो लोग सोने की जगह देते हैं, आपसे भोजन की पूछते हैं।

उनके घर में आटा खत्म भी हो गया हो तो एक कटोरी आटा पड़ोस से उधार मांगने में नहीं सकुचाते। कस्बे से गांव जाने वाले फेरीवाले अक्सर जल्दबाजी में सुबह नाश्ता नहीं कर पाते। घूमते हुए ही उन्होंने यह यकीन हासिल कर लिया कि गांव की औरतें सामान भले ही नहीं खरीदें लेकिन उससे खाने की पूछे बिना वापस नहीं आने देंगी। अक्सर लगता है कि दुनिया बहुत बड़ी है, उसे पढ़कर समझने में कई जीवन चाहिए लेकिन यदि घूमते हुए इसे जानें तो शायद एक जीवन से काम चल जाए। कोलंबस, वास्को डी गामा, मार्कोपोलो, फाह्यान, ±वेनसांग ऎसे कितने लोग थे जो घूमने के लिए निकल गए तो दुनिया ने तेजी से एक दूसरे को जाना। वे कारोबार करने में एमबीए की तैयारी में ही आठ दस बरस निकाल देते तो शायद दुनिया एक दूसरे को जानने में और विलंब करती। गांव के कितने ही लोग जवानी के दिनों में ऊंटगाड़ी लेकर कतारियों के साथ निकल जाया करते थे। लौटते में वे अनाज या नमक लाया करते थे। वे एक महीने में बीस दिन चलते ही रहते। वे नरेगा के रजिस्टर में आज भी अंगूठा लगाते हैं लेकिन उनके अनुभवों का संसार, संस्मरणों की दुनिया मुझसे बहुत बड़ी है। यह सब उन्होंने घूमने से ही हासिल किया।