शनिवार, अप्रैल 12, 2008

खुदा के लिए स्वागत करें


पाकिस्तानी फिल्मकार शोएब मंसूर से जब मैंने पिछले नवम्बर में फोन पर बात की थी तो उनकी दिली तमन्ना थी कि फिल्म खुदा के लिए भारत के लोग देखें। आज उनकी ख्वाहिश पूरी हो रही है। आज भारत में पाकिस्तानी फिल्म खुदा के लिए रिलीज हो रही है। जयपुर के एक सिनेमाघर में फिल्म आज से दिखाई जाएगी। क्रिकेट और सिनेमा भारत और पाकिस्तान की कमजोरी रहे हैं। भारतीय फिल्मों और संगीत की पाइरेटेड सीडी डीवीडी से पाकिस्तानी बाजार अटे पड़े हैं क्योंकि पाकिस्तान में सिनेमा इस्लामिक दबावों के चलते कमजोर हो गया। यह साधारण घटना नहीं है। शायद यह पहली पाकिस्तानी फिल्म है, जो भारत में इतने बड़े स्तर पर रिलीज हो रही है। उससे भी असाधारण बात यह है कि जो फिल्म आ रही है, वह करण जौहर, यश चौपड़ा या महेश भट्ट ब्रिगेड के लोकप्रिय सिनेमाओं से थोड़ा अलग है। यदि सिनेमेटिक लैंग्वेज की बात की जाए तो `खुदा के लिए´ एक अच्छी फिल्म है। गोवा में पिछले नवम्बर में हुए अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में इसकी स्क्रीनिंग हुई थी और मैं गवाह हूं कि लगभग हर स्क्रीनिंग हाउसफुल थी। हमारे यहां जेपी दत्ता की फिल्मों में भारत माता की जय और पाकिस्तान मुदाüबाद के नारे सिनेमाघरों में गूंजते हैं, वैसा कोई कॉनçफ्लक्ट शोएब मंसूर की इस फिल्म में नहीं है कि एक भारतीय होते हुए आपको यह लगे कि आप पाकिस्तान की फिल्म देख रहे हैं, बल्कि एक संवाद ऐसा है, जहां भारत की अहमियत ही दिखाई गई है। जाहिर है भारत के हिंदू मुçस्लम तनावों से अलग पाकिस्तान मुसलमानों के आपसी द्वन्द्व से ही पीडि़त है और उसी दुविधा का शिकार हमारा पूरा देश भी है। एक इस्लाम का उदार चेहरा और दूसरा मुल्ला और मौलवियों द्वारा व्याख्यायित कट्टर चेहरा। जाहिर है, आतंकवाद के बीज कहीं इसी बुनियादी सोच में हैं।गोवा में फिल्म की स्क्रीनिंग से पहले मैंने शोएब मंसूर से बात की थी। वे उस वक्त पाकिस्तान में थे। पाकिस्तान में इमरजेंसी थी और वे कोई भी टिप्पणी करने से बच रहे थे। हां, उन्होंने कहा कि फिल्म भारत और पाकिस्तान के लोगों को इस्लाम समझाने में बेहद मदद करेगी। हम लोगों के लिए सुखद बात है कि फिल्म में नसीरुद्दीन शाह भी हैं। वे आखिरी पन्द्रह मिनट फिल्म में आते हैं और याद रह जाते हैं। अमेरिका पर आतंकी हमले को लेकर हमारे यहां नसीर अपनी पहली निर्देशित फिल्म `यूं होता तो क्या होता´ बना चुके हैं लेकिन उसके केन्द्र में संयोग और इमोशन्स हैं। खुदा के लिए सीधे हमारी सोच पर हमला करती है। बल्कि तारीफ कीजिए शोएब मंसूर की। उन्होंने पाकिस्तान में होकर एक बोल्ड फिल्म बनाने की हिम्मत की है जो हमारे फिल्मकार भारत में रहते हुए बनाने से कतराते हैं। वे इस्लाम के कट्टरपंçथयों को चुनौती देते हैं और अमेरिका की भी पोल खोलते हैं कि आतंकवाद किसने पैदा किया है? दुआ कीजिए कि आ जा नच ले में गाने में एक जातिसूचक शब्द को लेकर हल्ला मचा देने वाले देश में खुदा के लिए निबाüध चले, लोग देखने जाएं। कतई इंटेलेक्चुअल और बौद्धिक लबादों से भरी फिल्म नहीं है। आम भारतीय फिल्मों की उसी तरह की कहानी है कि दो सगे भाई कुंभ में मेले में बिछुड़ गए हैं। सिर्फ ट्रीटमेंट अलग है। भाषा वही है जो हम आम बोलचाल में उदूü बोलते हैं। फिल्म देखने के बाद शायद हम यह समझ पाएं कि हमारी लाडली टेनिस प्लेयर सानिया मिर्जा अपनी ही जमीन पर टेनिस खेलने से क्यों मना कर देती है?

मंगलवार, अप्रैल 01, 2008

हम राजस्थान के लोग

आज अपनी माटी को मोहब्बत करने का वक्त है और यह भावुक क्षण है। किसान से पूçछए, जब वह खेत में खड़ा होता है तो लगता है कि उसकी वह मां की गोद है। सूरज तपे, बादल बरसे, तूफान आए, बाढ़ आ जाए लेकिन उसका खेत उसे मां की तरह पालता है। किसान की जमीन से इस मोहब्बत में वैसा स्वार्थ नहीं होता जैसा शहर के बगल में जमीन खरीदकर बिल्डर मुनाफे की कल्पना मात्र खुश हो जाता है। मेरे किसान पिता कहते हैं, वह दुनिया का सबसे बड़ा बदनसीब है, जिसे अपना खेत बेचना पड़े।जन गण मन गूंजता है, तो आंखें अनायास नम होती हैं, लगता है हम अपनी मां को याद कर रहे हैं। हम राज ठाकरे को इसलिए गलत कह सकते हैं कि वह मराठियों के बहाने अपने राजनीतिक स्वार्थ साधना चाहते हैं, लेकिन यदि अपने ही राज्य को निस्वार्थ प्यार करते हैं तो यह संविधान विरोधी नहीं है। चूरू के लक्ष्मीनिवास मित्तल अपने पैतृक गांव न भी जाएं तो उनके मुनाफे में कोई फर्क नहीं पड़ता। अमेरिका में इकॉनोमिक्स पढ़ाने वाले प्रोफेसर घासीराम लौटकर शेखावाटी ना भी आएं, वहां जान पहचान वालों, युवाओं, लेखकों की गुपचुप आर्थिक मदद ना भी करें तो उनकी तनख्वाह नहीं कटेगी। जयपुर के इरफान को साइन करते हुए कोई हॉलीवुड या बॉलीवुड का कोई प्रोड्यूसर यह शर्त नहीं रख्ाता है कि हर संक्रांति को जयपुर जाकर अपने मकान की छत से पतंग उड़ाएं और मोहल्ले के लोगों से पेच लड़ाएं। फिर भी हमारे ये लाडले यहां आते हैं। अपनी जमीन पर माथा टेकते हैं। फलों से लदे पेड़ बनकर अपनी जमीन की तरफ झुकते हैं, क्योंकि दिल कहता है, अपनी माटी, अपनी मां तो राजस्थान है।तो हमें गर्व है कि राजस्थान के हैं। क्योंकि हमारा राजस्थान जिंदगी का आईना है। दूर तक फैले मरुस्थल के बावजूद हमारी पगड़ी के रंगों का इन्द्रधनुष कमजोर नहीं पड़ता। विपरीत परिस्थितियों में लड़ने को हौसला देने वाले ये जिंदगी के रंग हैं। माना कि बारिश बीतते हुए हमारी नदियां सूखती हैं लेकिन वे कभी अगले बरस फिर कलकल बहने की उम्मीद नहीं छोड़तीं। ठीक हमारी जिंदगी की तरह। अरावली की ऊंची नीची उपत्यकाएं जिंदगी की पथरीली राहें हैं लेकिन उन्हीं की गोद में हमारे मवेशी, हमारे हिरण, हमारे बाघ, हमारी तितलियां बेखौफ विचरण करते हैं। उन्हीं के बीच हमारी खनिज सम्पदा है। हमें प्रकृति ने ही तो जीने का हौसला दिया। जहां गए, वहीं मुश्किल हालातों में भी संघर्ष करते हुए अपना मुकाम बनाया। असम में उल्फा ने सताया, बंगाल में मंत्री की जुबान फिसली, मुम्बई में भी हमारी मुखालफत करने वाले कम नहीं। हमारे सपूत अमेरिका में झंडे गाड़ रहे हैं। दुनिया में फैले हैं। यह राजस्थान के दिल का ही विस्तार है कि यहां जो आ रहे हैं, उनके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठी। लेकिन चुनौतियां खत्म नहीं होती हैं। हमारा संघर्ष रंग लाना चाहिए। यदि हम भौगोलिक लिहाज से सबसे बड़े हैं तो उदारता में भी बड़े हों। इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि हमारी अर्थशास्त्र के आंकड़ों में हमारी प्रति व्यक्ति आय सबसे ज्यादा हो, हमारे लोगों के लिए स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर हों। कभी कभी बुरा लगता है, गांवों में सेलफोन का नेटवर्क तो काम कर रहा है लेकिन जिस नर्स की ड्यूटी है, वह नदारद है। काश, हमारे नेता उतने ही संवेदनशील होते जैसे हमारे लोग हैं। फिर भी उम्मीद की किरण इधर ही हैं। देखना, एक दिन हम नम्बर वन होंगे। हमारे हौसले की बूते पर। अपने गांव, अपने शहर से जिम्मदार बेटे की तरह मोहब्बत करिए, आपको राजस्थान दुआ देगा। अपने राज्य राजस्थान से मोहब्बत करिए, भारत की दुआएं आपको मिलेंगी। दिल में जमीन से जुड़ने वाले किसान बनिए। जमीन को बेचने वाले बिल्डर नहीं। इस धरती पर गर्व करें। यही जननी है।
-ये लेख राजस्थान स्थापना दिवस के मौके पर 30 मार्च 2008 को डेली न्यूज में प्रकाशित हुआ है।