शनिवार, मार्च 06, 2010

फागुन घुस गया है जहन में

फरवरी का आखिरी और मार्च का पहला पखवाड़ा उत्तरी भारत में एक खुशनुमा मौसम का होता है। बसंत पंचमी अक्सर सर्दी के बीचोंबीच आती है लेकिन होली आते आते मौसम एक करवट लेता है। ठिठुरन से रजाई में दुबके रहने और लू के थपेड़ों से बचकर घर में पड़े रहने जैसे अकर्मण्य अहसासों से मुक्ति दिलाने वाले ये महीने उल्लेखनीय हो जाते हैं। यही वे दिन होते हैं, जब हमारा सर्जन उफान पर होता है। काम करने की इच्छा होती है। लोगों से मिलने की इच्छा होती है। एक दूसरे को छेडऩे की इच्छा होती है। बरसाने में इसी छेड़छाड़ में लट्ठमार होली होती है तो शेखावाटी में धमाल और गींदड़ के साथ लोग झूमते हैं।
मेरे गांव के कई लोग ऐसे हैं, जिनके बारे में मैं पूरे साल कुछ नहीं जान पाता था। जैसे बिड़दाराम। बिड़दाराम पूरी साल खेती बाड़ी करके, मेहनत मजूरी करके इज्जत से अपने परिवार को पालता है। सामान्य दिनों में वह इतना दिलचस्प इंसान नहीं होता लेकिन होली के दिनों में गींदड़ में सबसे बेहतरीन स्वांग करता है। पिछले साल की बात है, वे लोग एक आदमी को गधागाड़ी में पटक के लाए। पूरे जिस्म पर प्लास्टर किया हुआ। सिर्फ नाक खुला था। गधे के सिर पर उन्होंने टॉर्च लगाई। एक हरा चमकीला कागज बांधकर एंबुलेस की शक्ल दी थी। गाड़ी की तरफ उन्होंने स्विच लगाया था। उससे वो हरी बत्ती बिल्कुल जलती बुझती दिख रही थी। एक टेपरिकॉर्डर से एंबुलेस के सायरन की ध्वनि निकाली गई। साल भर गंभीर रहने वाला सुल्तान यहां एक कॉमिक डॉक्टर था। आंख पर एक चश्मा, जिस पर एक तरफ का कांच था ही नहीं। सफेद एप्रिन और स्टेथेस्कोप गांव की प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से जुटाया गया। क्लिनिक में गांव के एक बढ़ई के घर से मांग कर लाई गई करोत, बसौला, हथौड़ा, छैनी, आरी जैसे ऑपरेशन के औजार थे। लोग हंस हंस के लोट पोट थे। डॉक्टर ने कहा, मरीज की सर्जरी होगी, क्योंकि उसके पास मरीज आते ही नहीं है और कई दिन से उसने आपरेशन किया नहीं है। उसकी आपरेशन करने की दिलीतमन्ना है, वरना एमबीबीएस की पढ़ाई बेकार जाएगी। उसने ईमानदारी से यह भी बताया कि आजतक जिस मरीज का आपरेशन उसने किया वह जिंदा नहीं बचा। मरीज के परिजन अपनी गधा एंबुलेस को लेकर आगे भाग रहे थे कि मरना मंजूर लेकिन ऑपरेशन नहीं कराएंगे। होली ने मेरे गांव में नाटक को अब तक बचाकर रखा है। वह उन मेहनतकश लोगों को साल भर की यंत्रणा और थकान से मुक्ति देती है। एक तरह से रिचार्ज करती है। वे अपनी ही व्यथा कथाओं पर तंज करते हुए खुद पर हंसते हैं।

हमारे यहां एक मुहावरा चलता है कि इसमें फागुन घुस गया है। इसके माने है कि जिसमें फागुन घुस गया दुनिया उसके जूते की नोंक पर है। मस्त रहो, खुलकर कहो। आप कुछ भी पूछिए, कोई बात का सीधा जवाब नहीं देता। वह तुक मिलाएगा। अश्लील या शालीन हास्य टिप्पणी करेगा। जब मै स्कूल के दिनों में हॉस्टल में था तो तीसरी क्लास में पढऩे वाले अमित ओर सुमित नाम के जुड़वा भाई भी हॉस्टल में रहते थे। एक सुबह किसी ने सुमित से कह दिया कि यार तेरे में फागुन घुस गया है। वह दौड़कर कमरे में गया। कपड़े उतारे, झाड़े लेकिन फागुन दिखाई नहीं दिया। वह मेरे पास आया। रोने लगा कि मेरे कपड़ों में फागुन घुस गया है। दिख भी नहीं रहा। वह मुझे काट लेगा। हॉस्टल के बच्चे हंस हंस के लोटपोट थे। अब उस बच्चे को यकीन दिलाना मुश्किल हो गया कि फागुन कुछ होता ही नही। सुमित का रोना नहीं थमा। वार्डन को उसने शिकायत की। वार्डन ने उसकी निशानदेही पर हम सबको हॉस्टल के बरामदे में कतार लगाकर खड़े होने को कहा ओर चपरासी से डंडा लाने को। दस मिनट बाद हम सबका फागुन वार्डन ने निकाल दिया था। सुमित को अब भी शक था कि उसके कपड़ों से फागुन अभी तक निकला नहीं।

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