गुरुवार, दिसंबर 31, 2009

साल का विदाई गीत

यह शहर है और मैं मुसाफिर
मेरी पीठ पर लदे बैग में,
एक लड़की की मुस्कुराहट,
थोड़ी सी भूख,
थोड़ा सा लालच,
कुछ खंडित से ख्वाब,
थोड़ी सी शराब
लिए घूम रहा हूं।
एक ही शहर में
अठारह बरस जवानी के चले गए,
लड़कियां मिली पर एक भी ऐसी नहीं
कि दिल से कहूं, हां, यही है।
फाके के दिनों से निकलकर
ढाबों पर दाल फ्राई खाते हुए
पंचतारा होटलों में
चिकन, मटन, फिश चरता रहा
भूख मिटी नहीं
जेब के चंद सिक्के,
बदल गए नोटों की गड्डियों में,
अब भी उतना ही लालची हूं,
टटोलकर देखता हूं
पीठ पर लदे बैग में
सब कुछ उतना ही सुरक्षित बचा है
लेकिन जो टूटा फूटा सा ख्वाब रखा था
वो गायब है कई साल से,
एक साल और बीत गया
यकीन से कह सकता हूं
शहर में, जिसे अठारह साल से अपना समझता हूं,
ख्वाब ही बहुत जल्द खो जाते हैं
वासना, भूख, लालच, नशा सब कुछ सुरक्षित बचा हैं,
मैं इन सबका बोझ ढो रहा हूं।

रविवार, दिसंबर 27, 2009

गुजरते साल के अंतिम दिनों में

लेखक गुरूचरण दास की नई किताब "द डिफिकल्टी ऑव बीइंग गुड" पर चर्चा थी। धर्म का सूक्ष्म चेहरा क्या है? पांडव तो अच्छे थे, लेकिन उन्हें जुए में धोखे से हराया गया। राजपाट गया। जंगल में रहना पड़ा। द्रोपदी अपनी शंका युघिष्ठिर से पूछती है, "दुर्योधन तो दुष्ट है फिर भी सारे सुखों का उपभोग कर रहा है। आप भले हैं और जंगल में यातनाएं सहते हुए भटक रहे हैं। जाइए और उनसे युद्ध करके अपना साम्राज्य हासिल कीजिए।" युघिष्ठिर धर्मराज हैं। बोले, "मैंने वचन दिया है। इसे मैं नहीं तोड़ सकता। यह धर्म कहता है।" इस तमाम मक्कारी के बावजूद दुनिया की भीड़ में हम "कोई नहीं" हैं और "कोई" होने के लिए संघर्ष करते हैं। चाहते हैं, लोग हमें जाने। हम मनमोहन सिंह हों, राहुल हों, प्रियंका हो, आमिर हों, शाहरूख हों, सचिन हों। "रंगीला" फिल्म का वो गाना याद आता है, "बड़े-बड़े चेहरों में अपने भी चेहरे की पहचान तो हो।" हम सब भला-बुरा करते हुए अपनी अलग "आइडेंटिटी" के लिए जूझ रहे हैं, लेकिन गौतम बुद्ध और गांधी को भी याद करें, जिन्होंने "साधन" और "साध्य" दोनों की समान शुचिता को अहमियत दी। लोग उन्हें जानते भी हैं। क्या ये सब बातें किसी को भला बनाने में मदद करती हैं जबकि वहां से भौतिक सुख गायब है? ओह, कैसी दुविधा है? सब कुछ त्यागना भी चाहता हूं, सब कुछ हासिल करना भी।

मेरी गाड़ी लाल बत्ती पर रूकी। कुछ बच्चे लाचार-सा चेहरा लिए भीख मांगने आते हैं। कुछ के हाथ में कपड़ा होता है। कार का शीशा साफ करते हैं। आजकल ऎसा भी होता है कि दो लड़के छोटी ढोलक बजाते हैं और एक लड़की लोहे की रिंग से अलग-अलग मुद्राएं बनाते हुए निकल जाती है।विस्मयकारी लचीलापन। अगले पल मेरा मन वितृष्णा से भर जाता है। अंगुलियां कार के डैश बोर्ड में कुछ सिक्के टटोल रही होती हैं, जो मेरे बच्चों के चॉकलेट, बिस्किट खरीदे जाने के बाद बचे रहते हैं। वे सिक्के यूं ही लापरवाही से कार में पड़े होते हैं, इस यकीन के साथ कि इन सिक्कों से अब स्वतंत्र रूप से कुछ नहीं खरीदा जा सकता। वे ही सिक्के उन मैले कुचले, निरीह और अनाथ दिखने वाले बच्चों का पेट भरते हैं। कभी-कभी वे अखबार बेचते हैं इस आग्रह के साथ कि आप खरीद लेंगे, तो उसे खाना मिल जाएगा। महाशक्ति भारत के इस चेहरे से मैं अंदर तक हिल जाता हूं। मुझे अफसोस है कि मेरी कार में पड़े चंद सिक्के उन लाखों फुटपाथी बच्चों की भूख नहीं मिटा सकते। क्या आपको भी यह अफसोस है? हां, तो दिल से बुरा कहिए सरकारी नीति-नियंताओं को, इन बच्चों का दिखावटी भला सोचने वाले गैर जिम्मेदार समाजसेवी संस्थाओं को, जो बच्चों का पेट भरने के नाम पर करोड़ों डकार गए हैं...और अपने आपको भी कि आज भी उनका पेट खाली है। हम सब उसी "सिस्टम" में शामिल हैं और उसका पोषण कर रहे हैं।

जेबकतरे भी मुस्कराते
swine फ्लू से आंशिक बचाव के लिए बेटी के स्कूल वालों ने साधारण मास्क पहनकर आने को कहा था। पहली बार मैं मेडिकल स्टोर पर गया, तो उसने चार रूपए एक मास्क के लिए। दूसरी बार गया तो पांच रूपए। तीसरी बार एक दूसरे मेडिकल स्टोर पर गया, तो उसने दस रूपए मांगे। वही मास्क था। मैंने विरोध किया तो उसने देने से मना कर दिया। मुझे लेना ही पड़ा। दो महीने में चौथी बार खरीदने पहुंचा, तो भी दस रूपए लिए। मैंने कहा, "भाई, ये तो पांच वाला ही है?" उसने मुस्कराते हुए कहा, "सर, स्वाइन फ्लू की वजह से कीमतें बढ़ गई हैं।" मैंने मुस्कुराता हुआ जेबकतरा पहली बार देखा है।

published in daily news jaipur on 27 december 2009

शुक्रवार, दिसंबर 25, 2009

film review: 3 idiots


यह एक अद्भुत अनुभव है। 'मुन्नाभाई एमबीबीएसÓ और 'लगे रहो मुन्नाभाईÓ की कामयाबी से विचलित हुए बिना 'थ्री इडियट्सÓ जैसी और भी खूबसूरत और सार्थक फिल्म बनाकर राजकुमार हिरानी ने संकेत दिया है कि दिल और दिमाग के समन्वय वाले सिनेमा का यह दौर थमेगा नहीं। डेविड धवन को पछाडऩे वाले प्रियदर्शन अपनी छिछोरी कॉमेडी 'दे दना दनÓ की कामयाबी की खुमारी से निकलकर आतंकित होंगे कि सामने राजकुमार हिरानी खड़े हैं। हिरानी हंसाते हैं, रुलाते हैं और चुपके से आपकी वो नस दबा देते हैं, जहां अचानक आपको अहसास होता है कि आप गाल को सहला रहे हैं। हिरानी ने वो चांटा सिस्टम के गाल पर मारा। दर्द हमें हो रहा है क्योंकि हम सब उसी सिस्टम का हिस्सा हैं। सबसे ज्यादा युवाओं वाले इस देश में युवा अपने पिता की इच्छाओं को पूरा करने के लिए अपनी आत्मा का गला घोंटते हैं। यह कहानी दिल्ली, पुणे या बंगलौर, मुंबई से होते हुए जयपुर को भी उतनी ही शिद्दत से छूती है, जहां आए दिन हम लोग अखबार में इंजीनियरिंग छात्रों की आत्महत्या की खबरें पढ़ते हैं।
कहानी मीडिया में इतनी प्रचारित हो ही चुकी है लेकिन फिर भी संदर्भ के लिए जरूरी है। यह इंजीनियरिंग पढ़ रहे तीन ऐसे दोस्तों की कहानी है जो चाहते हैं कि जिंदगी में जो करना है अपने मन का करना है, लेकिन भारतीय युवा के लिए यह ख्वाब ही खतनाक है, जहां उस पर परिवार, सोशल स्टेटस और जिम्मेदारियों जैसी गैर जरूरी चीजों का इतना बोझ लदा होता है कि वह गधा बन जाता है। रट्टू तोता बन जाता है। रैंचो, रस्तोगी और फरहान ऐसा नहीं करते हैं। उनके सामने अपनी मुश्किलें हैं, अपने द्वन्द्व हैं लेकिन वे आपको बोझिल नहीं करते। मैसेज नहीं देते अपनी बहती हुई मस्ती में कह जाते हैं कि अब भी वक्त है। जैसा कि निदा फाजली कहते हैं, 'धूप में निकलो, बारिश में नहाकर देखो, जिंदगी क्या है किताबें हटाकर देखो।Ó
फिल्म सहज भाव से यह बात कह जाती है कि हमारी शिक्षा प्रणाली की चूहा दौड़ कितनी नाटकीय और आधारहीन है। पूरी ग्रेडिंग प्रणाली किस तरह मनुष्य को मनुष्य होने के हक से ही वंचित कर देती है। लेकिन यह सब बताने के लिए हिरानी किसी संत की तरह प्रवचन नहीं देते। बात कहने की उनकी शब्दावली है। यहां मिलीमीटर, वायरस जैसे नाम उनके पात्रों के हैं। उनका हर पात्र आपको याद रहता है। वे सार्वजनिक मूत्र विसर्जन करते हैं, खुले में नहाते हैं और इतनी शरारत करते हैं कि 'चमत्कारीÓ आदमी को 'बलात्कारीÓ और 'धनÓ देने वाले को 'स्तनÓ देने वाला बना देते हैं।निस्संदेह विधु विनोद चौपड़ा के लिए गर्व की बात है कि उनके साथ राजकुमार हिरानी हैं। फिल्म के हर दृश्य पर कितने बेहतर ढंग से सोचा जा सकता है, यह हिरानी दिखाते हैं। लोगों को हंसाने के लिए छिछोरे चुटकुलों की जरूरत नहीं होती, रुलाने के लिए पर्दे पर लाशें गिराने की जरूरत नहीं होती यह भी हिरानी बताते हैं।
आमिर, माधवन और शरमन जोशी ने उम्दा ढंग से काम किया है। आमिर अपनी उम्र से छोटे दिखे ही हैं। करीना ठीक है। वीरु सहस्रबुद्धे की भूमिका में एक बार फिर बोमन इरानी ने कमाल किया है। मुन्नाभाई के डा. अस्थाना के मुताबिक लेकिन इस वायरस की बात ही कुछ और है। यह कहानी मुन्नाभाई के मेडिकल रूप से अलग इंजीनियरिंग रूप की है लेकिन बात बहुत गहरी कहती है। स्वानंद किरकिरे के गीत पहले से ही चर्चित हैं और शांतनु मोइत्रा का संगीत भी सहज और जादुई, जो किसी की नकल सा प्रतीत नहीं होता। लिहाजा, आपकी कसम साल में एक ही फिल्म देखने की है तो दिसंबर बीत रहा है, 'थ्री इडियटÓ जरूर देखिए और कहिए ऑल इज वेल।

शनिवार, दिसंबर 19, 2009

अवतार : "इको फे्रंडली" विज्ञान फंतासी


बारह सौ करोड़ रूपए की लागत और पंद्रह साल की मेहनत के बावजूद जेम्स कैमरून की फिल्म "अवतार" आपको चमत्कृत ना करे, यह कैसे मुमकिन है। भावना और तकनीक की सिनेमाई यारी-दुश्मनी के बावजूद "अवतार" एक खूबसूरत फिल्म है। यह हमारे समय से आगे की फिल्म है। हम खुशकिस्मत हैं कि अपने समय में यह फिल्म देख रहे हैं। एक सौ बारह साल के सिनेमा के इतिहास में यह गर्व करने का भी मौका है कि चामत्कारिक कथा कहने की कला हमारे पास हजारों सालों से हैं, लेकिन उसी को आंखों से पर्दे पर देखने का सुकून भी अब हम ले सकते हैं।कथानक के लिहाज से अवतार बहुत चामत्कारिक फिल्म नहीं है। यह धरती के मनुष्यों के लालच की पोल खोलती है और सही मायनों में एक इको फ्रेंडली साइंस फैंटेसी है। यह मनुष्य और एक दूसरी दुनिया के नेवीज की रिश्ेतों की कहानी है। वैज्ञानिक ग्रेस आगस्टीन ने इन लोगों की जमीन पैंडोरा को खोज की है और मनुष्यों का एक पूरा दल इनकी जमीन के भीतर छुपे खनिज पर नजर गड़ाए है। जैक सुली को अवतार के जरिए इनकी दुनिया में भेजा जाता है। वह उनकी आदतों, रहन सहन को समझता है। उनकी "इको फें्रडली" जीवन शैली और मां ऎवा में उनकी आस्था से अभिभूत हो जाता है। उसे उसी दुनिया की लड़की नेतिरि से प्यार हो जाता है। इधर, आदमियों ने अपने गोला बारूद के साथ उन पर हमला कर दिया है। जैक सुली चूंकि मनुष्यों के लालच से वाकिफ है और नेवीज के प्रकृति प्रेम और सादगी से भी। वह मध्यस्थ बनने की कोशिश करता है लेकिन अब ना तो मनुष्य उसकी बात मानने को तैयार हैं और ना ही अपनी असलियत बताने के बाद नेवीज उस पर भरोसा करना चाहते हैं। बेहतरीन दृश्यों और भावनाओं के साथ वह अंतत: वह नेवीज का भरोसा जीतता है और मनुष्यों के खिलाफ युद्ध करने में वह नेवीज की मदद करता है। एक रोमांचक और रोंगटे खड़े कर देने वाली जंग में मनुष्य का लालच पराजित होता है। जैक सुली का अवतार एक "नेवी" के रूप में हो जाता है।तकनीक तो बेमिसाल है ही। हवा में लटकती विशाल चट्टानें। विमानों से भी तेज उड़ते शिकारी पक्षी। लंबी थूथन वाले नेवीज के वफादार घोड़े। उनकी नई भाषा और व्याकरण। मनुष्यों के अत्याधुनिक युद्धक विमान। सब कुछ एक जादुई दुनिया है। कैमरून के कथा कहने के जादुई अंदाज में ही दर्शक होने के नाते हम नेवीज की दुनिया में इतने घुल मिल जाते हैं कि आखिरी लड़ाई में हम मनुष्यों की हार पर जश्न मना रहे हैं।यह "टर्मिनेटर" के उस विस्मयकारी अहसास से बिल्कुल अलग है जब मशीनों से मनुष्य हार रहा है। यहां वह प्रकृति से हार रहा है और इस हार पर दर्शक अभिभूत होता है। धरती के खत्म होने की आशंका में कोपेनहेगन की माथापच्ची से कहीं ज्यादा आतंकित कर देने वाले अहसास से हम रूबरू होते हैं। नेवीज अपनी दुनिया पर हो रहे हमले को आसमानी मुसीबत कहते हैं। उन्होंने अपनी जमीन को बहुत खूबसूरत बनाया है। पहाड़, झरने, जानवर, देवी ऎवा के विशालकार पेड़। आत्माओं से संवाद करने का जादुई अहसास। सब कुछ हिंदुस्तानी लगता है। नाम तो है ही। इतना धन खर्च करने और सिनेमा के प्रति अटूट धैर्य के लिए जेम्स कैमरून को सलाम किया जाना चाहिए।

सोमवार, दिसंबर 14, 2009

वल्र्ड क्लास के सपने

किसी शहर को "वल्र्ड क्लास" बनाने के लिए मुझे नहीं लगता कि जेडीए, नगर निगम या सरकार जैसी गैर-जिम्मेदार संस्थाओं की कोई बड़ी भूमिका होती होगी। मुझे "वल्र्ड क्लास" शब्द से आपत्ति है। यह "थर्ड क्लास" जैसा ध्वनित होता है। केंद्र, राज्य और अब शहर की महापौर को भी शामिल करें, तो सारी कवायद एक राजनीतिक भाषण की परिणति है। तो "वल्र्ड क्लास" का मतलब मैं यहां एक "आदर्श, आधुनिक, वैज्ञानिक और मानवीय सोच वाले शहर" से जोड़कर देखता हूं, उसमें सड़कें और पुल तो बहुत मामूली चीजें हैं। सुख-सुविधाओं का संबंध भी आपके पास उपलब्ध धन से है। मॉल का क्या फायदा, अगर आपकी जेब में खरीदारी का पैसा ही ना हो। तो किसी भी शहर को वल्र्ड क्लास बनाते हैं वहां की संस्कृति, विरासत, शहर में रहने वाले लोग, खाने-पीने की स्वस्थ आदतें, प्रदूषण रहित वातावरण, शिक्षा का स्तर, विज्ञान, संगीत और दूसरी कलाओं के लोगों की शहर में दिलचस्पी। नौकरशाहों को कमीशन खिलाने वाली ढांचागत विकास की ज्यादा से ज्यादा योजनाओं की घोषणा करके ये मान लिया गया है, इनके पूरा होते ही शहर "वल्र्ड क्लास" हो जाएगा।शहर की यूनिवर्सिटी में अध्यापकों की बेहद कमी, अस्पतालों में डॉक्टर नहीं, सरकारी स्कूलों में शून्य पढाई। निजी जेबकतरे स्कूलों पर सरकारी वरदहस्त और पढ़ाई का स्तर गिरा हुआ। कॉलोनियां अस्त-व्यस्त और ट्रेफिक दिनोंदिन होता बेकाबू। प्रदूषण बढ़ गया है। लोग सड़क पर पान मसाला पीक थूकते हुए चलते हैं। बदतमीजी से हॉर्न बजाते हैं। मासूम स्कूली बच्चे सड़कें पार करने से डरते हैं। यूरोप में ऎसे समय टे्रफिक रूक जाता है। कभी अजमेर रोड, तो कभी कानोता और कभी जगतपुरा। सरकारें नया जयपुर बसाने की ऎलान करती हैं और भू-माफिया सक्रिय हो जाते हैं। 84-85 में मैं गांव के सरकारी स्कूल में चौथी कक्षा में था। अखबार में पढ़े एक लेख में था कि जयपुर में नई रिंग रोड बनेगी और उसके बाद शहर का नक्शा बदल जाएगा। लेख में वह नक्शा छापा भी गया था। मैंने रिंग रोड शब्द पहली बार सुना था। उसके बाद अठारह साल से इस शहर में रहते कितनी ही बार अखबारों में रिंग रोड के बारे में पढा। लेकिन वो नक्शों में ही चल रही है। कभी दो किलोमीटर पीछे, और कभी चार किलोमीटर आगे। इसे कछुआ चाल कहना भी बुरा है, क्योंकि कछुआ हमारी सरकारों, नीति नियंताओं से कहीं अघिक जिम्मेदार प्राणी है। तो शहर "वल्र्ड क्लास" कैसे बनेगा? जब निगम के ट्रक या तो कचरा गलियों से उठाते नहीं हैं। उठाया तो उसे सड़कों पर फैलता जाता है। आवारा कुत्ते, मवेशी तो बोनस हैं। पांच साल पहले जयपुर आए एक विदेशी फिल्मकार की याद है जिसने यादराम नाम के ट्रेफिक सिपाही से जौहरी बाजार में पूछा कि क्या मैं अपनी कार "नो पार्किग" में खड़ी कर सकता हूं? उसने मना कर दिया था। "पार्किग" की तरफ इशारा करके समझाया कि वह उधर है। विदेशी ने देखा कि जहां "कार पार्किग" लिखा है वहां एक मोटा-तगड़ा सांड बैठा था। उसने सिपाही से सांड को हटाने का आग्रह किया। टूटी फूटी अंग्रेजी में जवाब आया, "दिस इज नोट माई डूटी, दिस वर्क बिलोंग्स टू नगर निगम।" विदेशी को बाद में जयपुर घूमते हुए हर जगह जानवर नजर आए। उसने यादराम को धन्यवाद कहते हुए एक डॉक्यूमेंट्री बनाई, जिसका नाम है, "द एनिमल सिटी।" घटना के पांच साल बाद भी शहर में कुछ नहीं बदला है। यहां सब जानवरों के लिए जगह दिखती है लेकिन आदमी के पैदल चलने के रास्ते पर अतिक्रमण है। इस फिल्म की सीडी फिल्मकार के इस आग्रह के साथ जयपुर आई कि इसे यादराम को जरूर दिखाइएगा, लेकिन यादराम तब तक जीवित नहीं था। एमआई रोड पर ड्यूटी करते समय एक पेड़ के टूटकर गिरने से उसकी मौत हो गई थी।

शुक्रवार, दिसंबर 11, 2009

रॉकेट सिंह : ईंधन कम, आवाज ज्यादा


'अब तक छप्पनÓ और 'चक दे इंडियाÓ की कामयाबी के बाद शिमित अमीन से उम्मीदें बढ़ती है। जब फिल्म यशराज बैनर की हो और लेखक जयदीप साहनी तथा लीड में रणबीर कपूर हों तो ये उम्मीद और ज्यादा बढ जाती हैं। पोस्टर और प्रचार देखकर यूं लगता है कि रॉकेट सिंह एक हास्य फिल्म है लेकिन ऐसा नहीं है। निर्देशक शिमित अमीन और लेखक जयदीप साहनी ने जो जादू हॉकी के मैदान में एक कोच को लाकर अपनी पिछली फिल्म में किया ऐसा ही वे बिजनेस के मैदान में करने के इरादे से एक सेल्समैन को बिजनेसमैन बनाने की कहानी का ताना बना बुनते हैं लेकिन सीधी सपाट कहानी में बीच बीच में इसके वृत्त चित्र जैसा आभास होने लगता है।कहानी हरप्रीत सिंह बेदी यानी रणबीर कपूर की है। पढाई में कमजोर है लेकिन उसका कहना है कि दिमाग उसका कमजोर नहीं है। कैट का इम्तहान देने के बजाय वह तय करता है कि वह सेल्समैन बनेगा। उसके दिमाग में ईमानदारी का कीड़ा है। वह 'कारपोरेट जंगल में एक महात्माÓ है। उसके बॉस पुरी के मुताबिक उसमें वो काबिलियत है कि वह ऊपर भी जा सकता है और एकदम नीचे भी। लगातार नाकामी से उसके ऑफिस में ही उसका मजाक उड़ाया जाता है। उस पर कागज के रॉकेट फेंके जा रहे हैं। उसका बॉस सार्वजनिक रूप से उसकी तौहीन करता है। हरप्रीत को एहसास होता है कि उसे कुछ नया करना चाहिए। उसने उसी ऑफिस में रहते हुए यह एहसास होता है कि ग्राहकों के रिश्ते में ईमानदारी और उनका भरोसा जीतना महत्त्वपूर्ण है। उसने अपनी ही कंपनी रॉकेट सेल्स कारपोरेशन अपने ही ऑफिस से चलानी शुरू कर दी। एक से दो, दो से तीन, तीन से चार, चार से पांच और पार्टनर्स यह संख्या क्लाइमेक्स तक आठ हो जाती है। इस कंपनी के बनने, फिर बिगडऩे और फिर बनने की कहानी में ही बिजनेस करने के उसूलों पर एक लंबी चौड़ी पढ़ाई दर्शकों की हो जाती है। सेल्समैन की पीड़ा फिल्म में है लेकिन वह मेहमान की तरह है। मूल सूत्र है कि हर आदमी महत्त्वपूर्ण है, बशर्ते उसे सपनों और समर्पण पर यकीन हो।तकनीकी तौर पर फिल्म समृद्ध है। सेल्स बाजार की धोखाधड़ी पर तंज भी है। लेकिन बीच बीच में कहानी की रफ्तार धीमी हो जाती है। इंटरवल तक तो यह और भी धीमी है। सलीम-सुलेमान का संगीत ठीक ठाक है। वेक अप सिड और अजब प्रेम की गजब कहानी की कामयाबी के बाद रणबीर की स्टार वैल्यू का लाभ फिल्म को मिले तो अच्छा है। क्योंकि अब उनमें अभिनय का आत्मविश्वास दिखता है। बाकी यह एक औसत मनोरंजक फिल्म है। इससे अब तक छप्पन जैसी संवेदना और चक दे इंडिया जैसा जुनून तो दिखता ही नहीं है।