बुधवार, जुलाई 17, 2013

मेरी नई और लंबी कहानी 'जय माता की' के कुछ अंश


बंदूक से गोली इस तरह चलती थी कि चलने के बाद लगता नहीं था कि बंदूक से गोली चल चुकी है। कुत्‍ता गोली लगने से गिर जाता था। ध्‍यान से नहीं देखो तो कोई कह नहीं सकता था कि वह गोली लगने से मरा है।

कुत्‍ता काटने के लिए पुजारी के पीछे दौड़ा था। पुजारी को पता था कि अंतत: कुत्‍ता उसे काट ही लेगा लेकिन फिर भी वह दौड़ता रहा। शायद वह यह देखना चाहता था कि वह कितना दौड़ सकता है। कुत्‍ता भी जानता था कि पुजारी में कितना दम है। वह अंतत: पुजारी को काट ही लेगा। दौड़ते हुए पुजारी हांफ गया। हांफने के बाद वह थम गया। कुत्‍ता भी हांफ गया था। पुजारी डर गया था। कुत्‍ता गुस्‍से से लाल हो रहा था। उसे गुस्‍सा इसलिए भी ज्‍यादा आया कि सब कुछ जानते बूझते पुजारी ने उसे नाहक दौड़ाया। अगर पुजारी सीधे सीधे रुक जाता तो वह सिर्फ एक जगह से काटकर उसे छोड़ सकता था, लेकिन अब चूंकि कुत्‍ता बहुत भाग चुका था। अब वह विजेता था तो उसने पहले पुजारी को एक पिंडली में काटा। पुजारी तो समर्पण कर ही चुका था। कुत्‍ते ने कोई दया दिखाए बिना दूसरी पिंडली पर भी अपने दांत गड़ा दिए और फिर चला गया। वह बोल पाता तो पुजारी से कहता कि अगर तुम भागते नहीं तो सिर्फ एक ही पिंडली पर कटवाने से काम चल जाता।
पुजारी की पिंडलियों में लाल मिर्च भर दी गई। जैसा कि लोग मानते थे कि लाल मिर्च भरने की वजह से घाव जल्‍द ठीक हो ना हो, कुत्‍ते के काटने से होने वाली पागलपन की बीमारी ठीक हो जाती है। पुजारी को जो पीड़ा कुत्‍ते के काटने से नहीं हुई, उससे कई गुना ज्‍यादा तकलीफ लाल मिर्च ने दी।
पुजारी बच गया था, उसे पागलपन जैसी बीमारी नहीं हुई, वरना वह कहीं का नहीं रहता। शायद यह बात ऐसे भी सच है कि पागलपन की बीमारी पुजारी के लगने से बच गई था, वरना पुजारी के लगने के बाद वह उस तरह की पागलपन की बीमारी नहीं रहती जिस तरह की बीमारी वह पुजारी के लगने से पहले थी।

जरूरी नहीं कि जो आदमी पूजा करता है, उसे झूठ बोलना नहीं आता हो। या जो झूठ बोलता हो उसे पूजा करनी नहीं आती। पुजारी के साथ ऐसा ही था। उसने कहा था कि ये कुत्‍ता जरूर कोई बुरी आत्‍मा वंशज रहा होगा। जिनकी जमीन पर कब्‍जा करके उसने मंदिर बनाने की पहल की थी, वो अपना घर छिनने से परेशान रही हो और उस आत्‍मा ने उससे बदला लिया हो। वरना पूरे गांव में उसने पुजारी को ही क्‍यों काटा ?
जरूरी नहीं कि पूजा करने से हर आदमी का मन पवित्र हो जाता हो। या जिसका मन पूरी तरह पवित्र हो उसमें बदला लेने की भावना नहीं आती हो। पुजारी के मन में कुत्‍ते के प्रति बदला लेने की भावना आ गई।
बदला लेने की भावना के बाद पुजारी को नींद कम आने लगी, वह रात को बदला लेने के भाव से खांसता रहता था। इसका सीधा फायदा पिताजी को हुआ, उनको खांसी कम आने लगी और नींद ज्‍यादा।


थाने में अब मंदिर था। मंदिर में पुजारी था। पुजारी में बदला था। बदले में कुत्‍ता था। कुत्‍ते में बुरी आत्‍मा नहीं थी। बुरी आत्‍मा में आत्‍मा नहीं थी।


रिवाज यह हो गया था कि आपने अच्‍छा किया है तो उसका शुक्रिया अदा करने के लिए आप मंदिर तक आएंगे। कुछ चढाएंगे। आपने बुरा किया है तो पश्‍चाताप के लिए मंदिर तक आएंगे। कुछ चढाएंगे। पुजारी के दोनों हाथों में लड्डू थे। मंदिर जोरदार डिटर्जेंट था जो लोगों के दामन पर लगे जिद्दी से जिद्दी दाग को धो देता था। लोग मंदिर इसलिए जाने लगे कि वे अपने दामन पर लगे दाग धो सकें। लोग इसलिए अपने दामन पर दाग लगाने लगे ताकि वे मंदिर जा सकें।

दुनिया गोल है। एक घूमचक्‍कर की तरह घूम रही है। यह बात सबसे पहले स्‍कूल के बच्‍चों को भूगोल के गुरूजी ने पढाई थी। बच्‍चों ने घर आकर बुजुर्गों को बताई तो कोई माना नहीं था। बच्‍चे भी असमंजस में थे जब कुछ भी घूमता हुआ नहीं दिखता तो धरती घूम कैसे रही है? फिर वे एक जगह खड़े होकर गोल गोल चक्‍कर खाने लगते। पूरी धरती घूमती हुई दिखती थी। हालांकि थोड़ी देर बाद वह घूमते हुए दिखना बंद हो जाती। बच्‍चों को लगता था कि धरती घूमती भी है और नहीं भी घूमती। अगर धरती घूमती है तो यह गांव भी घूमता ही होगा। यह गांव घूमता होगा तो कभी यह दिल्‍ली पहुंचता होगा और कभी दुबई। स्‍कूल के अध्‍यापक ने अजीब सा समीकरण दे दिया था और इसे सुलझाने के लिए सब लोग लगे रहते लेकिन सुलझ नहीं रहा था। जब गांव से खाड़ी देशों में मजूरी करने गए इंदरू से उसके ताऊ ईसर ने पूछा, सुण्‍यो है दुनिया घूम री है चकरी की तरह, तनै दुबई में अपणो गांव दिख्‍यो कै।

चाचा था नै के बुढ़ापै मांय सैर करणी है। घूमणै दो दुनिया नै घूम री है तो, कुण सो थारो भाड़ो लाग रयो है।

बात भाड़ै की नहीं इंदरू, मैं देख रया हूं, पेड़ वहीं, घर वहीं, मातारानी को मंदिर वहीं, फेर मास्‍टर झूठ का पाट मेल रया है कि दुनिया घूम री है। मैं कह रयो हूं निकाळो मास्‍टर ने गांव सूं। ई पढाई की टाबरां नै जरूरत नहीं है।


लेकिन ऐसी नौबत आई नहीं। जब मास्‍टर को गांव को निकालना पड़ा हो। एक दिन घूमती हुई दुनिया की घिर्री में कोई ऐसी फांस फंस गई कि जिस हिस्‍से में यह गांव था वह अचानक घूमना बंद हो गया। अब सिर्फ दुनिया घूम रही थी और यह गांव थम गया था। गांव ने देखा कि उनके सामने से दुनिया घू‍मती जा रही है। लग यूं रहा था कि जैसे दुनिया आगे जा रही है और गांव पीछे लेकिन हुआ यह था कि गांव वालों को महज यह भ्रम था। गांव तो फंसा हुआ वहीं खड़ा था। दुनिया जरूर या तो आगे जा रही थी या पीछे। अचानक गांव वालों ने देखा कि समरकंद चले गए हैं। किसी ने पहले यह जगह नहीं देखी थी। घीसिया नहीं होता तो गांव वालों के मुश्किल हो जाती। मास्‍टर जी उस समय अपने घर में सो रहे थे। पुजारी आंखें मूंदें मातारानी के मंदिर में मूर्ति के सामने घंटी हिला रहा था। समरकंद यूं ही निकल जाता लेकिन घीसिया गांव का प्रतिभावान लड़का था। वह अपनी कक्षा में पहले नंबर पर आता था। उसने बताया कि बा‍बर नाम का एक मुगल आदमी यहीं से भारत आया था, उसके बाद हिंदुस्‍तान में उसके बेटे हुमायूं और अकबर समेत कई राजाओं ने राज किया। पहले वे लोग यहीं हिंदुस्‍तान के छोटे छोटे राजाओं से लड़ते रहे। बाद में जब अंग्रेज आ गए तो इनमें कुछ लोग अंग्रेजों के साथ हो गए और कुछ ताउम्र उनसे लड़ते रहे। गांव वालों ने देखा, खूबसूरत पहाड़ी वादियां। जन्‍नत सी खूबसूरत जमीन। ईसर ताऊ बोले, बाबरियो बावळो हो, आपणो गांव अठै होतो तो आपां कदै गांव नहीं छोड़ता। कांई आणा जाणी है, आपणै अठै भूख पड़ी है। इतना कहकर ईसर ताऊ यह कहते हुए समरकंद में कूदने की कोशिश करने लगै कि वे अब इसी खूबसूरत वादी में रहेंगे लेकिन उसी समय गांव वालों ने उन्‍हें रो‍क लिया, ईसर, समरकंद अब वो नहीं रियो है, जो बाबर के टेम हो। उणका तो भाई उणनै लट़ठ मार के समरकदं सूं काढ्यो हो। तेरी तो गांव में इज्‍जत है। पाछो बैठ ज्‍या चुपचाप।
ईसर बैठ गया। दुनिया घूमती रही। गांव थमा रहा। कभी रोशनी का चिल्‍का, कभी केले का छिलका, कभी अंधेरा गांव से गुजरता रहा। सुबह हो गई पुजारी पूजा करके बैठा था कि देखा, हर तरफ मंदिरों की घंटियों का शोर है। पुजारी ने ऐलान करते हुए कहा, ल्‍यो भई, अयोध्‍या आ गई। भगवान रामजी की नगरी। हणमानजी का मंदिर। सरयू का घाट और पूजा पाठ की जमीन आ गई।
देखते ही देखते एक हुड़दंग मच गया। कुछ भगवा से कपड़े पहने लोग जय श्री राम का नारा लगाते हुए चलती हुई अयोध्‍या से ठहरे हुए गांव में ऐसे कूद गए जैसे इस गांव में उनके बाप का राज हो। वे लोगों को पहले तो डराने धमकाने लगे और जब बात बनी नहीं तो उन्‍होंने बताया कि वे लोग चंदा इकट्ठा कर रहे हैं।
गांव वालों ने पूछा, किस बात का चंदा इकट्ठा कर कर रहे हो ?’
तुम कैसे हिंदू हो, तुमको पता नहीं कि पूरे देश में राम मंदिर का आंदोलन चल रहा है। हम मंदिर वहीं बनाएंगे जहां अब मस्जिद बन गई है।
मस्जिद है तो मंदिर क्‍यों बनाओगे ?’
उन्‍होंने हमारा मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई थी। अब हम यहां मस्जिद को तोड़कर मंदिर बनाएंगे।
किसने बनाई थी मस्जिद? कब बनाई?’ ईसर ताऊ को बात समझ में नहीं आई।
बाबर ने। बाबर नाम का आदमी था। उसने यहां बहुत मंदिर तोड़े, बहुत सारी मस्जिदें बनाईं। उसने हमारे धर्म का बहुत नुकसान किया।
यह कब हुआ ? ’ कहते हुए ईसर ताऊ ने घीसिया की तरफ बड़ी उम्‍मीद से देखा लेकिन घीसिया ने इनकार में सिर हिला दिया कि इतनी सब बातें उसने कभी अपनी इतिहास की किताबों की नहीं पढ़ी।
तो तुम उस वक्‍त क्‍यों नही बोले? जब उसने मस्जिद तोड़ी थी।
क्‍योंकि उस वक्‍त वो राजा था। राजा से हमारी हमेशा फटती थी।
अब राजा कौन है ?’
अब तो हमारे बाप का राज है? हम जो चाहेंगे करके दिखाएंगे। मर जाएंगे मिट जाएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे। उस मस्जिद को ढहाएंगे।
फिर अचानक भगवाधारियों ने ईसर को कहा, ताऊ, बहुत वक्‍त खराब कर रहे हो। सवा रुपए में क्‍या जाता है?’ यह कहते हुए उन्‍होंने मीरासियों की तरह गाना शुरू किया, सवा रुपया दे दे भइया कार सेवा के नाम का, राम के घर में लग जाएगा पत्‍थर तेरे नाम का।
उनका बेसुरा सा गाना सुनकर पिताजी की आंख खुल गई। ईसर ताऊ उनके गाने से प्रभावित हो गए और उन्‍होंने जेब टटोलनी शुरू की ही थी कि पिताजी चिल्‍लाकर बोले, ये कौन भिखारी गांव में घुस गए हैं। बाहर निकालो इन्‍हें।
इतना बोलना भर था कि वे भगवा कपड़े पहने लोग गांव से बाहर कूदकर अयोध्‍या की तरफ भागने लगे। ठीक इसी क्षण घिर्री की फांस निकली और पूरी दुनिया के साथ गांव एक बार फिर घूमने लग गया।

मंगलवार, जुलाई 16, 2013

आम आदमी की अनंत संभावनाओं की कहानी


भाग मिल्खा भाग :



3.5/5 स्‍टार

 इस कहानी में इमोशन है, ड्रामा है, देशप्रेम है, तथ्यगत सच्चाई है। लेकिन इन सबसे ऊपर यह एक मामूली आदमी के अपने आप से लडऩे की कहानी है, जब वह इतनी बाधाएं पार करते हुए फलक पर नाम लिखता है। इस तरह मिल्खा की कहानी एक आम आदमी की अनंत संभावनाओं की कहानी है।

राकेश ओमप्रकाश मेहरा को हम 'रंग दे बसंतीÓ जैसी सार्थक और जानदार फिल्म के लिए जानते हैं। उनकी 'दिल्ली 6Ó भी खराब फिल्म नहीं थी, लेकिन बॉक्स ऑफिस का फैसला कुछ अलग रहा। उनकी नई फिल्म 'भाग मिल्खा भागÓ भारत के मशहूर धावक मिल्खा सिंह के जीवन से प्रेरित है, जिसमें कुछ हिस्सा सिनेमाई जरूरतों के हिसाब से काल्पनिक भी है, लेकिन पूरी फिल्म एक प्रेरक किस्सा है। फिल्म देखते हुए मजा आता है।

यह फिल्म एक आम आदमी के नायक बनने की कहानी है। एक बच्चा, जिसने विभाजन के समय अपने माता-पिता को दंगों में मरते देखा और वह भागकर हिंदुस्तान आया। संघर्षपूर्ण बचपन के बाद वह सेना में दाखिल हुआ। इसके बाद जुनून लिए दौड़ता रहा, लेकिन यकायक कामयाब नहीं हुआ। वह हिम्मत नहीं हारता। मेलबर्न ओलंपिक की हार उसे इतना आहत करती है कि लौटते हुए विमान में जब सब सहयात्री सो रहे हैं, तो उसे नींद नहीं आ रही है। वह अपने कोच को जगाकर पूछता है कि चार सौ मीटर दौड़ का वल्र्ड रिकॉर्ड क्या है? कोच एयर इंडिया के पेपर नेपकिन पर उसे ४५.९ लिखकर देता है और एक दिन वह ४५.८ पर पहुंचकर वल्र्ड चैम्पियन बनता है। इस कहानी में इमोशन है, ड्रामा है, देशप्रेम है, तथ्यगत सच्चाई है। लेकिन इन सबसे ऊपर यह एक मामूली आदमी के अपने आप से लडऩे की कहानी है, जब वह इतनी बाधाएं पार करते हुए फलक पर नाम लिखता है। इस तरह मिल्खा की कहानी एक आम आदमी की अनंत संभावनाओं की कहानी है। एक विश्वसनीय कहानी है कि यह आदमी हमारे समय में पैदा हुआ, उसे हम देख सकते हैं, छू सकते हैं। यह एक आम आदमी के ऐसे सदमे से उबरने की कहानी है कि जिस पाकिस्तान से जान बचाकर बालक मिल्खा सिंह भागा था उसी पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब ने युवा मिल्खा सिंह को फ्लाइंग सिख की उपाधि देकर कहा कि यह उपाधि देते हुए पाकिस्तान को गर्व महसूस होता है।
मिल्खा के दर्द और कामयाबी को पर्दे पर उतारने के लिए निर्देशक मेहरा और लेखक प्रसून जोशी की तारीफ बनती है। आंशिक शिकायतें हैं, लेकिन वे नजरअंदाज की जा सकती हैं। फरहान अख्तर कमाल कर रहे हैं। वे किरदार में रम गए हैं। पवन मल्होत्रा और योगराज सिंह जोरदार लग रहे हैं।

फिल्म की अवधि तीन घंटे के आसपास होने से वह थोड़ी लंबी तथा खिंचती हुई महसूस होती है। तीन घंटे की फिल्म होना गलती नहीं है। गलती यह है कि यह अवधि फिल्म की गति को प्रभावित करती है। प्रसून जोशी के गीत और शंकर-अहसान-लॉय का संगीत दमदार हैं। हां, वे 'रंग दे बसंतीÓ से उन्नीस ही हैं। पूरी फिल्म एक निहायत ईमानदार कोशिश है और इसकी छोटी-मोटी गलतियों की तरफ ध्यान देना अनुचित है। यह जरूर देखने लायक फिल्म है। हम सबके भीतर छुपे एक नायक को उद्वेलित करती है, उसे चुनौती देती है। हमें एक बेहतर इंसान बनने के लिए प्रेरित भी करती है।
-रामकुमार ङ्क्षसह

शनिवार, जुलाई 06, 2013

लुटेरा: आखिरी पत्ती, हवा के झोंके और इश्क का नगमा



फिल्म समीक्षा
4/5 स्टार
फिल्म 'लुटेरा में बंगाल की पृष्ठभूमि में आजादी के बाद का कालखंड है। सरकार जमींदारी उन्मूलन कानून लाने की तैयारी मे हैं। मानिकपुर के जमींदार सौमित्र रॉयचौधरी के घर में वरुण श्रीवास्तव आता है। कोई दबी हुई सभ्यता की खोज में और उनकी इकलौती बेटी पाखी से उसे प्यार हो जाता है। ऐसा भी कह सकते हैं कि उनकी बेटी को उससे प्यार हो जाता है। वरुण के पास बड़ा सा खाली कैनवस है। वह उसपर मास्टरपीस बनाना चाहता है। बात दरअसल यह है कि उसे तो पत्ती भी बनानी आती नहीं। वह तो लुटेरा है। जमींदार साब की दौलत और उनकी बेटी का दिल लूट के चला जाता है। इस लूट की चश्मदीद है बाबा नागार्जुन की कविता 'अकाल और उसके बाद।
फिल्म दूसरे हिस्से में डलहौजी पहुंच जाती है, जहां वरुण फिर आता है अपना मास्टरपीस बनाने। पाखी जानती है कि वह एक लुटेरा है। एक तरह से उसके पिता का हत्यारा भी। एक आवेग में वह उससे नफरत करती है। इंसपेक्टर को फोन करती है। दूसरे ही आवेग में वह उसे माफ करती है। वह उसे सच्चा प्यार करती है। पाखी बीमार है। उसकी खिड़की से एक हराभरा पेड़ दिखता है। बर्फबारी के दिन हैं। पेड़ की पत्तियां झडऩी शुरू होती हैं। उसे लगने लगता है कि जब आखिरी पत्ती गिरेगी तो वह भी मर जाएगी। यह पूरा हिस्सा अंग्रेजी के मशहूर लेखक ओ हेनरी की कहानी द लास्ट लीफ से प्रेरित है लेकिन विक्रमादित्य ने इसे अपने ढंग से कहा है। यह सिर्फ कथा संकेत भर है। फिल्म इससे कहीं ज्यादा गहरी है। अपने कहानी कहने के ढंग में जहां इंटरवल तक तो आपको यह भी नहीं लगता कि पलक झपकाई जाए।
निर्देशक विक्रमादित्य अपने सिनेमाटोग्राफर महेन्द्र शेट्टी, साथी लेखक भवानी अय्यर और अनुराग कश्यप, संपादक दीपिका कालरा के साथ मिलकर रोमांस की एक नॉस्टेलजिक सी दुनिया रचते हैं। जिसके साथ आप बहते हुए चलते हैं। इतना सा डूबते हुए भी, कि पाखी और वरुण की फुसफुसाहटें सुनने के लिए अपनी सीट से आगे की तरफ अनायास झुकते हैं, जैसे सुनें तो, लड़का लड़की बात क्या कर रहे हैं? यह हिंदी सिनेमा के हौसले को सलाम करने का समय है। थियेटर से बाहर आने के बाद फिल्म के बिम्ब आपके जहन से जाते नहीं हैं।
रणवीर सिंह और सोनाक्षी सिन्हा ने इस फिल्म में बेहतरीन काम किया है। राउडियों और दबंगों की दुनिया से इतर यहां वो बेहद प्रभावशाली और स्वाभाविक लगी हैं। रणवीर सिंह जिस लो पिच पर अपने संवादों का निर्वाह कर रहे हैं वह उन्हें अलग धरातल पर ले जाता है। अमित त्रिवेदी का संगीत फिल्म के साथ चलता है। धन्यवाद निर्माता अनुराग कश्यप, विकास बहल, शोभा कपूर और एकता कपूर को भी। मनोरंजक फिल्म बनाने के दावे करने वाले निर्माता निर्देशक आपसे कहते हैं अपना दिमाग घर छोड़कर आइए। ऐसे दर्शकों से आग्रह है कि वे कभी अपने दिल और दिमाग को भी अपने साथ फिल्म दिखाएं। कब तक उन्हें बाहर छोड़ते रहेंगे।