मंगलवार, मार्च 16, 2010

कुतिया की नानी, बारिश का पानी



आइपीएल के मैच प्रसारण के दौरान सिनेमा और टेलीविजन के निर्माताओं को पसीना आने लगता है। सारा देश क्रिकेट देख रहा है। टीवी की यह क्रांति महज एक दशक पुरानी है। इसका सबसे बड़ा खमियाजा बच्चे भुगत रहे हैं। दो ढाई दशक पहले जिन भारतीय लोगों ने अपना बचपन बिता दिया उनके लिए निंजा हथौड़ी, कितरेत्सु, कैनी जी, लोबिता, परमैन आदि की जादुई और गैर तार्किक सी दुनिया नहीं थी। उनकी कल्पनाओं में चंदा मामा के बीचों बीच चरखा कातने वाली बुढिया थी, जो किशोर होते होते समझ में आती थी कि चंद्रमा ने एक ऋषि की पत्नी के साथ भेष बदलकर दुराचार किया था। जब चंद्रमा अपना काम तमाम करके निकल रहा था तो सामने नदी से नहाकर आए ऋषि दिख गए। वह भागने को ही था कि कंधे पर रखी गीली धोती से ऋषि ने चंद्रमा को मारा। ये उसी गीली धोती के दाग हैं। जब युवा हुए, पढ लिख गए तो सब धरा रह गया। नील आर्मस्ट्रॉन्ग चांद पर पहुंच ही गया। उसने बताया कि यहां कोई बुढिय़ा चरखा नहीं कात रही। ना ही ऋषि से दुश्मनी का जिक्र चांद ने किया है। यहां तो ऊबड़ खाबड़ गडढे हैं। कल्पना से हकीकत तक आते आते यह पूरी यात्रा है। बहुत अफसोस होता है कि मेरे बच्चे कल्पना की इतनी लंबी यात्रा नहीं कर रहे। वे रिमोट के बटन से किड्स चैनल बदलने में अपना समय गंवाते हैं। टीवी और क्लासरूम तक हमारे बहुसंख्यक बच्चों की दुनिया सिमट गई है। वे हवा में तैरते बादलों में डायनासोर, मोर, ऊंट, चिडिय़ा, सांप की छवियां नहीं टटोल सकते। कब बादल का ऊंट करवट लेकर डायनासोर जैसी शक्ल बना लेता है कोई नहीं जानता। उन्हें हम तर्क से यह जरूर पढ़ा रहे हैं कि बादल का बनना और बिगडऩा एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है।
टेलीविजन के खबरिया चैनलों पर भी भूत है और टीवी सीरियल में भी भूत। दादी के किस्सों में आने वाला भूत तर्क के जरिए गायब कर दिया गया। पर्दे पर दिखने वाला भूत डरावना ही नहीं है। हम बच्चों को समझाते हैं कि भूत कुछ होता ही नहीं, यह सब मेक-अप और स्पेशल इफेक्ट का कमाल है। हम उन्हें निडर बनाना चाहते हैं लेकिन भूल जाते हैं कि किसी भी समाज में अनुशासित करने में कितनी मदद करता है? दादी नानी के किस्सों में आने वाले भूत से राजकुमारी शादी कर लेती थी और उस भूत के चेहरे को कल्पनाओं के जरिए कोई आकार देने की कोशिश करते थे। कभी तार पर सूखते हुए सफेद कपड़े को रात को देखकर भूत समझते, तो कभी दूर बाड़ में खींफ, आक, कीकर के पेड़ में भूत देखते। कभी पीपल के पेड़ पर रहने वाले बूढे शरीफ भूत की कल्पना करते। सब कुछ इक्कीस, उनतीस, बत्तीस इंच के स्क्रीन का शिकार हो गया है। हमारे दौर के बच्चों के साथ यह बड़ा हादसा है।
स्कूल से घर लौटते हुए पंद्रह बीस बच्चों का झुंड अक्सर उस खुले मैदान के किनारों पर बने कुत्तों के घूरे में बीतता था। कुतियाएं सात-सात पिल्ले जनती थीं। बच्चे उनके पंजे गिनते थे। अपने टिफिन से उन्हें खिलाते थे। कुतिया अपने पिल्लों को तो प्यार करती ही थी, इन बच्चों के प्यार को भी मानती थी। वे कुतियाएं नई मां थी। वो किसी को काटती नहीं थी। घरवालों की हिदायत के बावजूद बच्चों का समय वहीं बीतता था। वे सब एक दूसरे से रिश्ते जोड़ लेते थे। असली बचपन, जो टीवी का शिकार नहीं था। गांव में कुत्ते बढ़ गए थे। वे मवेशियों के बाड़े पर हमले करने लगे थे। गांव वालों ने बंदूक वाले शिकारियों को किराए पर लिया। रोज धमाकों की आवाज होती थी। सारे कुत्ते मार दिए। वे सब भी जिनके साथ बच्चों की दोस्ती थी। स्कूल से लौटते हम खाली घूरों के पास बैठकर रोते थे। अपने ही बुजुर्गों को कोसते थे कि उन्होंने हमारे दोस्तों को मरवा दिया। घरों में सारे बच्चे मुंह फुलाए घूमते थे। उस साल गांव में एक बूंद पानी नहीं बरसा। गांव वाले समझते रहे कि यह महज एक प्राकृतिक आपदा है लेकिन मुझे लगता है जिन बादलों को रातभर जागकर हम घूरते हुए कई चेहरे तलाशते थे, उनसे से भी हमारी दोस्ती हो गई थी। बादलों ने अपना पानी हम बच्चों को उधार दिया था ताकि रोने से हमारी आंखों को नुकसान ना हो। बादल, कुत्ते, चांद, बारिश सब हमारी मदद को आते थे। क्या हमारे बच्चों की मदद के लिए लोबिता, कितरेत्सु, परमैन आएंगे? कहां से आएंगे? वे सिर्फ रेखाएं हैं, कार्टून हैं, जिन्हें बाजार ने ईजाद किया है। बाजार की ईजाद की हुई चीजें बचपन को तो नुकसान ही करती हैं। जिन वैज्ञानिकों ने चांद को प्रयोगशाला बना दिया, क्या वे ऐसा ही एक और चांद हमारे बच्चों को दे सकते हैं, जिसे देखकर वे खूबसूरत कल्पनाएं कर सकें? ऐसा नहीं होगा। मुझे इस दौर के बच्चों से सहानुभूति है। वे नहीं जानते कि वे कितना कुछ खो रहे हैं।

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