गुरुवार, जनवरी 22, 2009

यह लेखक को मीडियोकर बनाने की साजिश है

मुझे बेहद अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि जयपुर में चल रहे साहित्य उत्सव के दौरान विक्रम सेठ ने बातचीत करते हुए वाइन क्या पी ली, जैसे उन्होंने किसी की हत्या कर दी है। खासकर उस चीज की जिसे संस्कृति कहते हैं। संस्कृति को लेकर इतना फिक्रमंद यह अखबार मुझे पहले कभी नजर नहीं आया। अखबार का नाम दैनिक भास्कर है और अब मेरा संदेह पक्के यकीन में तब्दील हो गया है कि उस अखबार को आप सांस्कृतिक दूत के रूप में समझते हैं तो यह आपकी भूल है। यह एक सनसनी है जो मीडियोकर लोगों को अच्छी लगती है। ठीक वैसे ही जैसे इंडिया टीवी और दूसरे बेहूदे चैनल यह दिखाते रहते हैं कि एक आदमी जिंदा सांप को निगल गया, या एक कापालिक शव को लेकर आराधना कर रहा है। दैनिक भास्कर ने विक्रम सेठ के वाइन पीने को मुद्दा बनाते हुए जयपुर में लीड छापा है। ऐसी ही एक बेहूदी सी हरकत इन््होंने पिछले साल भी की थी।
असल में यह पहले से ही तिरस्कृत और असहाय लेखक जगत पर एक मुनाफाखोर अखबार का तमाचा है। मैं साहित्य उत्सव के आयोजकों को व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानता। मैं उनके किसी आयोजन में प्रतिभागी भी नहीं हूं। मैं अफसोस के साथ उन लेखकों से शिकायत करता हूं जिन्होंने सनसनी के तौर पर मांगे गए एक बयान में भारतीय संस्कृति की व्याख्या कर दी। यदि विक्रम सेठ जैसे एक आदमी के मंच पर वाइन पी लेने से वह खत्म हो रही है और खंडित हो रही है तो मैं चाहता हूं कि यह तुरंत ही खंडित हो जाए। ऐसी संस्कृति के बने रहने का कोई तुक नहीं है। फिर आने दीजिए वही पुराना युग जिसमें जो ताकतवर है वह जीतेगा। इन प्रतिक्रियाओं में मैं उदय प्रकाश जी के वक्तव्य से ही सहमत हो सकता हूं। उन्होंने कहा कि लेखक सबसे अशक्त है। आप चोर उचक्कों के खिलाफ और कॉरपोरेट पार्टियों में शराब पीने वालों के खिलाफ कलम नहीं उठाते।
मेेरे पास सिर्फ तीन उदाहरण हैं। एक रवि बुले, एक संजीव मिश्र और आलोक शर्मा। रवि हिंदी के युवा कथाकारों में सबसे आगे हैं। संजीव दुर्भाग्य से हमारे बीच नहीं रहे और आलोक शर्मा कवि हैं, शायर भी। तीनों ही लेखक पत्रकार भी हैं और तीनों ने ही दैनिक भास्कर में काम किया है। मैं तीनों को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं, लिहाजा दावे से कह सकता हूं कि वे पॉलिटिक्स नहीं कर सकते थे इसलिए भास्कर में काम नहीं कर पाए। तीनों को नौकरी देते समय भास्कर ने उम्दा वादे किए और फिर उनको लगभग यातनापूर्ण माहौल में भास्कर छोडऩा पड़ा। क्योंकि वे सिर्फ काम करना जानते थे, चाटुकारिता नहीं। तो लेखकों और संस्कृति के प्रति अचानक यह अखबार इतना हमदर्दी कैसे दिखा रहा है।दूसरी बात मुझे पिछले दिनों ही ज्ञात हुई, भास्कर के जयपुर संस्करण में साल भर पहले स्थानीय रचनाकारों को सम्मान देने का ऐलान करते हुए साहित्य का एक पेज विमर्श नाम से शुरू किया। सालभर तक लेखक छपे भी और अपने विचार भी व्यक्त करते रहे लेकिन अफसोस की बात यह है कि एक भी लेखक को मानदेय या पारिश्रमिक की फूटी कौड़ी नहीं मिली। यानी वे सब साहित्यिक मुद्दों को बेचकर मुनाफा कमाएं और लेखक मुफ्त में बेगारी करें। मुझे शिकायत है उन लेखकों से भी जो मुफ्त में साल भर तक लिखते रहे। लेखन की यह साधना साहित्यिक पत्रिकाओं में लिखकर भी तो पूरी हो सकती है, लेकिन दुर्भाग्य से हम उसी बाजार और लोकप्रियता के तकाजों के शिकार हैं। यही इन लोगों की साजिश है कि लेखक भी आम लोगों जैसा ही व्यवहार करने लगे ताकि मीडियोकर लोग मीडिया में हावी रहें और पढ़े लिखे लोग इनसे नफरत करने लगे। इस कड़वी सच्चाई को मानने में कोई बुराई नहीं है कि हिंदी के अखबारों में साहित्य और सांस्कृतिक मुद्दों पर सोचने वाले संजीदा पत्रकारों को दोयम दर्जे का माना जाने लगा है। जी हुजूरी यहां भी सुपरहिट है। तीसरा उदाहरण, जानी मानी लेखिका लवलीन की मौत का है। लवलीन की मौत पर पत्रिका ने सम्मानजनक ढंग से खबर छापी लेकिन भास्कर में इसका उल्लेख ही नहीं था। उस दिन एक भी लेखक ने अपना विरोध जताने के लिए उनके संपादक को चि_ी नहीं लिखी। वह दिन दूर नहीं, जब आपकी हमारी खबरें इसी तरह दबा दी जाएंगे। इमरान हाशमी नाम का एक चवन्नी सितारा एक पेज सिर्फ इसलिए घेर लेता है कि वह कितनी लड़कियों का चुम्बन ले चुका है और आप यह जगह तभी घेर पाते हैं जब आप मंच पर बैठकर शराब पिएं। क्या हम लेखक सिर्फ अपनी तौहीन कराने के लिए ही अखबारों में छपेंगे।
मेरे खयाल में मुझे नाम लेने की जरूरत नहीं है लेकिन हमारे ही दो लेखक मित्रों ने रिश्वतखोरी के आरोप में ऐसी ही यातना झेली है, बार बार अखबार लिखते रहे कि आरोपी एक लेखक भी है। वैसे उस मशहूर कवि की कविताएं छापते हुए भी अखबार कतराते हैं लेकिन आज लेखक पकड़ में आया है तो इसे मार डालो। इस साजिश के खिलाफ खड़े होइए, वरना मंच पर जी भर भाषण देते रहिए। खबर को तैयार करने में आप मुनाफाखोर व्यवसायियों के टूल बन गए हैं। लेखक अपनी सामाजिक नैतिकता खुद तय करता है। विक्रम सेठ ने कोई कानून नहीं तोड़ा, और अपनी नैतिकता वह आपसे उधार नहीं ले सकता। उसकी नैतिकता पर सवाल उठाना बौद्धिक दिवालियापन है।
कोई चार साल पहले प्रेस क्लब की बार में मैं एक बार अपनी नन्हीं बेटी को साथ ले गया था, लोगों ने कहा, आपको इसको यहां नहीं लाना चाहिए था, मैंने कहा, मैं जो कर रहा हूं उसके लिए अपनी बेटी से आंख मिलाने की हिम्मत रखता हूं, इसलिए मेरे परिवार और मेरे बीच कोई पर्दा नहीं है। तो कोई दूसरा वो पर्दा तय नहीं कर सकता। विक्रम सेठ बनने के लिए और मंच पर बैठकर वाइन पीने के लिए बहुत साधना की जरूरत है। संस्कृति की चौकीदारी करते हुए आप मीडियोकर हो सकते हैं, साधक नहीं। यह लेखक को मीडियोकर बनाने की साजिश है। मैं इसका पुरजोर विरोध करता हूं, यही आंच कल हम तक पहुंचेगी, लिहाजा विरोध करिए कि मीडियोकर ढँग से सोचने वाले पत्रकार लेखक की मर्यादा तय नहीं कर सकते।

6 टिप्‍पणियां:

corporate post ने कहा…

morning main newspaper dekha to laga bohat badi khabar mis ho gaye per aapke views padhne ke baad to najaria he badal gaya.
Thanx sir

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा…

इस सनसनी खोजी पत्रकारिता पर आपके गुस्से और नाराज़गी में हर उस शख्स को शरीक होना चाहिए जिसके मन में व्यक्ति की आज़ादे के प्रति ज़रा भी सम्मान है. यह नैतिक पुलिस की भूमिका और तुम्हारी कमीज़ से मेरी कमीज़ उजली है वाला रवैया कुछ लोगों को कुछ समय बेवक़ूफ भले बना ले, लम्बे समय तक टिका नहीं रह सकता. किसी लेखक की मृत्यु पर श्रद्धांजलि छपने के लिए भी स्पेस नहीं और एक नॉन इश्यू पर इतनी सारी स्पेस! यह भी विचारणीय है और होना चाहिए कि क्यों एक ही अखबार को एक खास आयोजन में हर साल बुराई नज़र आ जाती है? दूसरे सारे अखबार अन्धे हैं, या इस दोष दर्शन की जड़ें कहें और है? बेखुदी बेसबब नहीं ग़ालिब, कुछ तो है....
अब सवाल यह है कि वह कुछ क्या है? कोई व्यक्तिगत रंजिश या शुद्ध व्यावसायिकता? दोनों ही स्थितियां स्वीकार्य तो नहीं होनी चाहिए. आप अपना अखबार बेचने के लिए लेखक के सम्मान और पाठक की संवेदना और भावनाओं से खिलवाड़ क्यों करते हैं? हद से हद यह खबर चार छह पंक्तियों में समेटी जा सकती थी, समेटी जानी चाहिए थी. लोगों से बाइट्स लेना वगैरह तो ज़ाहिरा तौर पर एक रणनीति का पता देता है.
आपने जो दूसरे मुद्दे उटाये हैं, मसलन लेखकों को पारिश्रमिक देने के, वे अपनी जगह बेहद महत्वपूर्ण हैं. मुझे तो खुद लगता है कि हम लेखकों को उअन लोगों से सहयोग नहीं करना चाहिए जो हमारे श्रम को अपने मुनाफे का माध्यम बनाते हैं.
एक बेबाक टिप्पणी के लिए मेरी बधाई और

Unknown ने कहा…

एक पुरानी कहावत है, एक हज़ार ज़नखे मिल कर एक औलाद पैदा नही कर सकते... इस में इतना और जोड़ लीजिये कि भास्कर की एक करोड कोपियों की रद्दी से भास्कर चाय, नमक और साबुन की तरह लेखक पत्रकार पैदा नहीं कर सकता... रवि बुले, संजीव मिश्रा और आलोक शर्मा जैसे सृजनशील पत्रकारों को भास्कर के कारखाने में कोई क्यों भाव देगा? भास्कर तो चाटुकारों का नया गढ़ है पत्रकारिता में...बहरहाल एक एइमानदार टिपण्णी के लिए बधाई...

pallav ने कहा…

bilkul theek likha hai,yad kijiye jab BHAGIRATH BHARGVAJI aur VISHWAMBHARNATH UPADHYAYJI ka nidhan hua tab yeh akhbar kyon chup the? pallav

somadri ने कहा…

वो तो कह कर चले ...
हम रह गए लेकर फ़साना,
हाय हाय ये जालिम ज़माना

राजीव जैन ने कहा…

आपकी बात से सहमत

अनावश्‍यक बात पर इतनी जगह और स्‍याही खर्च की गई