सोमवार, दिसंबर 01, 2008

ग्रासरूट पॉलिटिक्स: कुछ नोट्स

देश के कुछ हिस्सों में चुनाव हो रहे थे, और हम लोकतंत्र में यकीन करने वाले लोग अपने कथित जिम्मेदार नेताओं को चुनने में जुटे थे तो मुम्बई में हमारे जवान आतंकियों से युद्ध लड़ रहे थे। टीवी पर जनता के चेहरे कैमरे में थे और नेताओं को बेशुमार गालियां थी। यह कौनसी जनता थी, मेरे लिए समझना जरा मुश्किल था। ठीक उसी वक्त मैं राजस्थान के कुछ हिस्सों का चुनावी माहौल देखने निकला। एक पत्रकार की हैसियत से नहीं, बस यूं ही लोगों की भावनाओं का समझने के लिए। मैंने लोगों से पूछा कि मुम्बई में हुए हमले से क्या वे प्रभावित होंगे? कुछेक मतदाताओं ने यह अनभिज्ञता जताई कि हमला कितना बड़ा है। कुछ ने कहा, जो हुआ है, वह बहुत बुरा है लेकिन हम वोट उसी को देंगे जिसे पहले देने वाले थे। क्योंकि हमले का सरकार से संबंध ही नहीं है, सब के सब नेता बदमाश हैं। अपनी राजनीति करते हैं। तो फिर वे नेता को चुनने के लिए वोट क्यों डाल रहे हैं? लोग निरीह भाव से कहते हैं, जो सामने हैं, उसमें से किसी एक को चुनना ही होगा। एक सांप है्र, दूसरा नाग है। तो अच्छे लोगों का क्यों नही खड़ा करते? बात लोगों को चुभी और जवाब मिला, चुनाव लडऩे के लिए बेशुमार पैसा चाहिए। क्या आपको लगता है कि इस देश में वैध ढंग से इतना पैसा कोई भी अच्छा आदमी कमा सकता है, कि वह राजनीति कर सके।
बात में सच्चाई थी। करोड़पति लोग चुनाव लड़ सकते हैं, वह जनसेवक नहीं, जनता का बाप बनकर आना चाहते हैं ताकि करोड़ों की संपत्ति को अरबों में तब्दील किया जा सके। मैंने कई प्रत्याशियों के चुनाव कार्यालय देखे और पाया कि वहां हरदम कोई तीस से ज्यादा ऐसी कारें खड़ी हैं जिनमें हरेक की कीमत कम से कम सात लाख से ऊपर ही है। दस साल पहले के चुनाव और आज के चुनाव में फर्क यही आया है कि मतदाता को अब भी चुनाव से ठीक पहले शराब की थैली देकर वोट हासिल किया जा सकता है लेकिन चुनाव लडऩे वाले प्रत्याशी की सम्पत्ति में हर चुनाव के बाद इजाफा हो जाता है। वह जीत रहा है तो कई गुना और यदि हार भी गया तो भी उसके पास धन की कमी नहीं रहती। अचार संहिता कागजी है। मैंने देखा कि एक जगह मतदाताओं ने वोट मांगने गए प्रत्याशी से मांग रखी कि उनके हैण्डपम्प का पानी खारा है, उसने तुरंत इशारा किया। काम शुरू हो गया, मीठे पानी के कुएं से उनकी कॉलोनी तक पाइपलाइन लाने का।मुझे गैर कानूनी होने के बावजूद अच्छा लगा कि किसी स्तर पर हमारा मतदाता भी नेता को ब्लैकमेल कर सकता है। उसे समझ में आ गया है चुनाव के बाद तो वही आश्वासन मिलने हैं लिहाजा चुनाव से पहले ही नेता की जेब ढीली करवा ली जाए। ऐसा मैंने कई गांवों में देखा है कि एक लाख से पचास हजार तक के काम लोग ऐसे निकलवा रहे हैं कि बहती गंगा में हाथ धोने में हर्ज क्या है? नेता वोटों के अनुपात में यह काम सहर्ष करवा रहे हैं, क्योंकि पिछले सात आठ साल में जिस किस्म से बिना मेहनत के धनवानों के और धनवान होने का सिलसिला शुरू हुआ उसमें चुनाव लडऩे के लिए आया पैसा यूं ही लगता है। एक गांव में मैं गया, लोगोंं ने बताया कि हमने प्रत्याशी से कहा, हमारे घरों के रास्ते में मिटïï्टी बहुत है। उनके सहयोगी ने नोट किया, अगले ही दिन चार ट्रक पत्थर के आए और रास्ते में जमा दिए गए। मोहल्ले के कुल सौ वोट अब इकतरफा ट्रकवाले प्रत्याशी को गिरेंगे।
ऐसे कई प्रत्याशी हैं जिनका मूल रूप से भू माफियागिरी से सीधा संबंध है। कुछ के पास अपने रसूखात और ताकत के बल पर हासिल की गई जमीन जायदाद हैं। कोई हवाला कारोबार से जुड़े हैं, स्थानीय पुलिस की कमाई को बड़ा हिस्सा देकर अपने सारे गुनाहों पर पर्दा रखते हैं। कुछ मिलाकर ग्रासरूट लेवल पर निहायत ही निराशाजनक लोकतंत्र का माहौल है। मैं एक पूर्व विधायक से मिला जो आज चुनाव लडऩे की हालत में नहीं हैं। उनके कारोबारी नुकसान और आंशिक ईमानदारी ने उनका राजनीतिक करियर खत्म कर दिया और उनकी पीड़ा हद दर्जे तक यातनाप्रद है। उन्हें अफसोस है कि वे अब निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं, और उन्हें यकीन है वे इस चुनाव में हार जाएंगे।मैं विधायक की टिकट के दावेदार एक पूर्व प्रधान से मिला, जिसने गर्व पूर्वक बताया कि उसने प्रधान का चुनाव किस तरह जीता था? किस तरह मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण हो गया था और मैंने जाटों को जाति के लिए जीत की दुहाई दी और दलित वोटों को जरूरत से ज्यादा शराब वितरित की। उन्हें अफसोस इस बात का था कि उनके सामने जो प्रत्याशी था, वह उनके मुकाबले कम धनवान था। प्रधान कहते हैं, मेरी जीत तय थी लेकिन मैंने फिर भी दलितों और कुछ गांवों एक निश्चित राशि शराब की थैलियों के लिए बढ़ा दी थी। उनके सहयोगियों ने कहा कि क्यों पैसा खराब कर रहे हो? प्रधान ने कहा, मैं ऐसा इसलिए कर रहा हूं कि अगली बार जब कोई इन वोटों को खरीदने जाए तो सिर्फ दो दिन का नहीं बल्कि एक महीने की शराब का को कोटा लेकर आए। इशारा साफ है कि आप अमीर हैं तो चुनाव महंगा करने की कोशिश करो ताकि अगली बार कोई कमजोर प्रत्याशी सामने टिका ही न रह सके। मैंने कुछ दलित बस्तियों के कुछ वोटरोंं से भी बात की कि क्या जिस आदमी की शराब पीते हैं, उसी को वोट डाल सकते हैं, तो उनका कहना था कई बार डालते हैं और कई बार नहीं। हां, उनकी दी हुई शराब पीने में कोई हर्ज नहीं। ज्यादातर वोट अपने मन से ही डालते हैं। कुछेक मतदाता हंसते हुए बोले, अपन तो दोनों ही तरफ से आजकल पहले ही अपने कोटे की पूरी शराब मांग लेते हैं।
कुछेक मजेदार वाकये सुनने को मिले-एक गांव में प्रत्याशी वोट मांगने गया। सभा को संबोधित करते हुए लोगों से कहा, वोट दें और बगल में घंूघट में बैठी महिलाओं की ओर से इशारा करते हुए कहा, इन्हें भी समझाएं कि वोट कहां देना है? अचानक दो महिलाएं खड़ी हुई और बोली, गांव के पुरुषों को एक स्थानीय गाली देकर कहा, इनके कहने से हम वोट नहीं देने वाली। इनके पास कहां वोट हैं, ये तो शराब पीकर दिनभर पड़े रहते हैं, हमारा वोट चाहिए तो सीधे हमसे बात करो। प्रत्याशी ने महिलाओं की तरफ हाथ जोड़ लिए और माफी मांगी। यह घंूघट में छिपी नारी चेतना है जो मेेरे खयाल से अगले दस साल में और मुखर होगी।एक मुस्लिम बहुल गांव में बीजेपी के प्रत्याशी का अप्रत्याशित स्वागत देखकर मैं चकित था। लोगों ने मंच से ही उर्दू में सलामवालेकुम किया। ऐलान किया कि कांग्रेस ने हमें ठगा है। ये हमारे बीजेपी के नेता ने ही गांव में सडक़ बनाई है। हमें विकास का साथ देना है। इनकी ही सरकार ने मदरसों के सरकारी मदद दी है। शिक्षक भर्ती किए हैं आदि कई गुणगान मंचीय वक्ता ने किए। लौटते में मैंने गांव के परिचित एक मुसलमान साथी से पूछा, क्या सच है कि आप अबकी बार बीजेपी को एकतरफा वोट डाल रहे हैं? उसने मुस्कुरा कर कहा, अभी तो डाल रहे हैं लेकिन चुनाव से ठीक पहले ऐलान हो जाए कि इस्लाम खतरे में है और हम गांववाले अपना इरादा बदल दें। मेरे खयाल में किसी निष्कर्ष के बिना आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हमारे मतदाता और कितने बदले हैं? और हमारा लोकतंत्र मजबूत क्यों है?

शनिवार, अक्तूबर 11, 2008

यह पतन का सूत्रपात है

यदि आप इंसान हैं और सरेराह चलते हुए कोई भिखारी आपसे कहे, भाई साहब एक रुपए का सिक्का दे दीजिए। आप देंगे। वह आपसे कहे, उसका बच्चा बीमार है, एक हजार रुपए उधार दीजिए तो आप बिदक जाएंगे और आपसे यदि वह यह कह दे कि अपना जमीर मुझे दे दीजिए, तो आप उसे एक थप्पड़ मार देेंगे या समझेंगे ये किसी पागल का प्रलाप है। आप चाय पीते हुए अखबार पढ़ रहे हैं या शाम को टीवी पर खबरों या सीरियल के बीच यह तो बड़ा टोइंग है, पर मुस्कराते हैं और चुपचाप बाजार में उपलब्ध दूसरे सस्ते उत्पादों के बावजूद चुपके से उसी खास ब्रांड की अंडरवियर खरीद लाते हैं। कमोबेश महंगी कीमत पर आप वो तेल खरीद लाते हैं, जिसके बारे में आपको यह बताया जाता है कि उसमें कोलेस्ट्रोल कम है। क्योंंकि आपको जिंदगी को टेक इट ईजी वाले सिद्धांत पर लानी है, यह सिद्धांत आपके बाप दादाओं का नहीं था। उन्हें मेहनत करनी होती थी। ज्यादा मेहनत पर कम पैसा मिलता था। अब कई मामलों एक आइडिया ही आपकी जिंदगी बदल देता है। सबीर भाटिया हॉटमेल से कमा खाते हैं। अभिषेक बच्चन मोबाइल फोन से पूरा स्कूल चला सकते हैं, अपनी पत्नी को प्रताडि़त करने के दो आरोपी, एक गैंगस्टर के साथ फरार हुई बी ग्रेड अभिनेत्री, कामयाबी के लिए संघर्षरत गायक, लगभग खत्म हो चुके करियर वाली आठ बरस पुरानी एक मिस वल्र्ड, अंग प्रदर्शन के लिए बदनाम आयटम गर्ल और एक फूहड़ मंचीय कॉमेडियन समेत पता नहीं कितने चंगू मंगू मिलकर इन दिनों आपका समय चुरा रहे हैं, जमीर चुरा रहे हैं और आपको भ्रम है कि आपका मनोरंजन हो रहा है। बिग बॉस नाम का या इस जैसे लगभग सारे ही रियलिटी शो हमारे सामाजिक मनोरंजन का हिस्सा नहीं रहा। बाजार ने हमारी जमीर पर इस तरह कब्जा किया है कि बाहर हम एक रावण जलाते हैं और घर के भीतर हर कोने में बाजार अपने पूरे दम खम रावण बनकर बैठा है। हमारी सारी नैतिकताएं ताक पर हैं। हम आधुनिक होने के लालच में यह भूल गए है कि एक थर्ड ग्रेड अभिनेत्री और एक मरहूम राजनेता का नशेड़ी और पत्नी को प्रताडि़त करने वाला बिगड़ैल रईसजादा हमारे बेड टाइम मनोरंजन के मुख्य किरदार हैं। उनके फूहड़ संवाद, कहानी में ट्विस्ट लाने के लिहाज से तय की जाने वाली खोखली सी दिनचर्या, शो को अधिक से अधिक बेचने के लिए खास बाजारू ढँग से की गई एडिटिंग। हम उनके मुख्य खरीददार हैं। दरअसल यह पश्चिम के अघाए, पेटू और निखट्टू लोगों के शगल हैं, जो उपभोक्तावाद के चरम पर पहुंचे चुके हैं। जिनके पास करने को कुछ नहीं है और वे सिर्फ पतनोन्मुख हैं। इसलिए रेव पार्टियां हैं, समलैंगिक संबंधों की वकालत है। अपने निजी जीवन में निहायत ही फूहड़, अधकचरे ज्ञान वाले और फ्लॉप दर्जनभर चेहरे बिना किसी विषय के, बिना किसी संवदेना के, बिना किसी मकसद के लिए नब्बे दिन तक एक घर में बैठे हैं। वे तीन महीने के लिए ऐसी जगह रहने को राजी हुए, यही सबूत है कि उनके पास कोई काम नहीं था। उनके जीवन से, उनके संवादोंं से किसी का कोई मनारंजन कैसे हो सकता है लेकिन लोग कह रहे हैं यह अद्भुत मनोरंजन है। क्या आप अपने बच्चों से यह अपेक्षा करते हैं कि वे इस किस्म के रिलेशनशिप और भाषाई माहौल में रहें तो हम उनके साथ बैठकर इस सीरियल का आनंद कैसे उठा सकते हैं? बाजार का बिग बॉस तो यही चाहता है कि आप बिना कुछ सोचे समझे यह मानते रहे कि आपका मनोरंजन हो रहा है। बिग बॉस अपनी झोली में मुनाफा समेट रहा है। आप भिखारी को अपना पैसा अपना वक्त देने में तौहीन समझते हैं लेकिन बाजार एक सभ्य भिखारी है, वह आपका जमीर भी आपसे छीन लेता है और कुछ नहीं करते। यदि टेक इट ईजी के सिद्धांत में कोई जादू की झप्पी होती तो इसके ठेकेदार अमेरिकी समाज की आर्थिक दुर्गति न हो रही होती जिससे आज पूरी दुनिया हिली हुई है। बाजार अपने चरम पर पतन लेकर आता है और बिग बॉस जैसे रियलिटी शो उसी सिलसिले में हमें अच्छे लग रहे हैं। आर्थिक, सामाजिक और नैतिक विकास के संक्रमण वाले इस दौर में ऐसे कार्यक्रमों की भारतीय समाज में लोकप्रियता पूंजीवाद के उत्थान के बाद पतन की सहज नियति से भी अधिक तेजी से हमें पतन की ओर ले जा रहे हैं लिहाजा यह हमारे दिमागी पतन का सूत्रपात है, हम भले ही इसे व्यक्तिगत आजादी और मनोरंजन जगत में का नया सूत्रपात कहते रहें।

बुधवार, सितंबर 17, 2008

आग्रह

दिल्ली से प्रकाशित कथादेश के सितम्बर अंक में मेरी कहानी पूर्वसंध्या और पाँच यार प्रकाशित हुई है। आपसे आग्रह है कि पढ़ें । कुछ समय बाद उसे ब्लॉग पर भी प्रकाशित कर दूँगा।

गुरुवार, अगस्त 14, 2008

बाजार का दु:शासन, नैतिकता की निरीह द्रौपदी

तुम चुप रहो दु:शासन, मैं अपने पति से बात कर रही हूं- टीवी पर दिखाई जा रही नई महाभारत में यह संवाद सुनकर कोई भी आसानी से यह अनुमान लगा सकता है कि जिन लोगों ने नई महाभारत को दिखाने का जिम्मा लिया है, उनकी नजर में यह सास बहू जैसा ही ड्रामा है, जहां विवाहेतर संबंध हैं, पारिवारिक षडयंत्र हैं, प्रभुत्व और संपत्ति की लड़ाई है, लिहाजा इसे उसी चाशनी में पिरोकर पेश किया जाए जैसे सास भी कभी बहू थी, या कहानी घर घर की। यह भारतीय साहित्य और धर्म ग्रंथों के साथ क्रूर मजाक है और आश्चर्य की बात यह है कि लोग इस देख भी रहे हैं। वे लोग देख रहे हैं जो गणेशजी को दूध पिलाने भाग निकलते हैं, पपीते में शिवलिंग की आकृति देखकर पूरे सावन उसे घर में रखकर पूजा करते हैं। मुझे ताज्जुब होता है कि इस तरह की कोशिशों का विरोध क्यों नहीं होता?
याद करिए रामायण और महाभारत के प्रसारण के दूरदर्शन के दिन। जब लोग नहा धोकर अगरबत्ती लगाकर पर्दे पर आंख गड़ाते थे। कहीं भी नहीं दिखता था कि इन ग्रंथों के पर्दे पर रुपान्तरण के लिए उनका व्यवसायीकरण किया गया हो। उस जमाने में भी कमर्शियल ब्रेक का रिवाज भी यह था कि सीरियल शुरू होने से पहले ही आकर निपट जाते थे। द्रौपदी और सीता को ग्लैमरस दिखाने की कल्पना भी बीआर चौपड़ा और रामानंद सागर ने नहीं की होगी। एकता मैडम की नई महाभारत का आगाज ही चीरहरण के दृश्य के साथ हुआ। तो क्या एक बार महाभारत या रामायण बन चुके हैं तो कोई उन्हें दुबारा नहीं बना सकताï? बेशक उसे बनाने का हक है लेकिन उसकी आस्था ऐसी होनी चाहिए। उसकी नजर बाजार पर नहीं होनी चाहिए। आपको अपने धार्मिक ग्रंथों को गलत रुपान्तरण के साथ नहीं बेचना चाहिए। यह बहुत बड़ी व्यावसायिक धूर्तता है कि आप अपने फायदे के लिए उन ग्रंथों का अपने ढंग से रूपांतरण करें, जिनमें करोड़ों लोग आस्था रखते हों। सामाजिक दायित्त्वबोध बात छोड़ दीजिए, बाजारू सीरियल बनाने वालों से यह उम्मीद बेमानी है, लेकिन आपको यह नैतिक अधिकार ही नहीं बनता कि आप मर्जी के मुताबिक किसी साहित्यिक और धार्मिक और ऐतिहासिक कलाकृति को अपने मुनाफे लिए इस्तेमाल करें।
रामानंद सागर के वंशजों की ओर से नई रामायण दिखाई जा रही है। वो अपने प्रचार के चलते व्यावसायिक रूप से भले ही कामयाब हुई हो लेकिन वह रत्तीभर वो जादू उत्पन्न नहीं कर पाई जो पहले दिखाई गई रामायण में था। वे शुरुआती ध्वनियां जादुई ढँग कानों में गूंजती हैं- मंगल भवन अमंगल हारी या यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानि भवति भारत:। एक आस्था भाव होता था। अब आप नए भीम का इंटरव्यू पढि़ए, जब वो कहता है कि वह आजकल जिम में ज्यादा एक्सरसाइज करता है ताकि मांसपेशियां दिखा सके। यह समझना कितना मुश्किल है कि भीम को मांसपेशियां दिखाना जरूरी नहीं था। बॉबी बेदी जैसे नामी निर्माता भी महाभारत बनाने की दौड़ में हैं और एकता कपूर के खेमे ने उनके कई पांडव और कौरव तोडक़र अपनी तरफ भर्ती कर लिए हैं। क्या मजाक है? ऐसी महाभारत की या ऐसी रामायण के दूसरे संस्करण बनाने की जरूरत क्या थी? मनोरंजन के इतिहास में विश्वविख्यात कृतियों पर अपने ढंग से काम करने का रिवाज रहा है, जो चलताऊपन एकता कपूर के खेमे की तरफ से महाभारत जैसे महाकाव्य के साथ हुआ है, वैसे ही उदाहरण गिने चुने ही मिलेंगे। संवदेनशील फिल्मकार बहुत ध्यान से एडेप्टेशन करते हैं। जापान के मशहूर फिल्मकार अकीरा कुरोसावा ने शेक्सपीयर के मैकबेथ पर थ्रोन ऑव ब्लड फिल्म बनाई और भारत के विशाल भारद्वाज ने इसके कई बरस बाद मकबूल बनाई। ये बेहतरीन कोशिशें रहीं। कहने का अर्थ है कि दुनियाभर के फिल्मकार और मनोरंंजन उद्योग से जुड़े लोग ये कोशिशें करते रहते हैं और अलग अलग ढंग से तारीफ या आलोचना का शिकार होते हैं लेकिन एकता कपूर नई महाभारत बनाकर बीआर चौपड़ा की बनाई महाभारत के साथ ऐसा ही कर रही हैं जैसा रामगोपाल वर्मा ने शोले के साथ किया। एकता का कसूर रामू से भी ज्यादा इसलिए है कि भारतीय आस्थाओं के इस महाग्रंथ को बाजारू नजरिए से देख रही हैं। उन्हें ये ध्यान रखना चाहिए कि महाभारत के दर्शकों और सास बहू की खिचड़ी में खुश रहनी वाली मध्यवर्गीय महिला दर्शकों में रात दिन का अंतर है। लेकिन नई महाभारत के साथ ऐसा ही हो रहा है।

भारतीय टेलीविजन इस समय घोर संक्रमण का शिकार है। अचानक चैनलों की बाढ़ आई है और यदि आप मुम्बई की हकीकत जानते हैं तो आसानी से बता सकते हैं कि वहां किस तरह कम प्रोफेशनल्स और लगभग निपट मूर्खों की टीवी इंडस्ट्री में भरमार हुई है। अचानक बढ़ी इस जरूरत को पूरा करने के लिए अफरा तफरी और प्रतिस्पर्धा में जो जितना तेज दौड़ रहा है, वहीं कामयाब माना जा रहा है। एकता इनकी प्रतिनिधि मानी जा सकती हैं। वरना कसूर कम रामानंद सागर के वंशजों का नहीं है, जो रामायण का भी कमजोर रूप लेकर आए हैं और उसका प्रचार यह कर रहे हैं कि इसे देखकर बच्चों में संस्कार आएंगे। यह आम लोगों को बेवकूफ बनाकर मुनाफा कमाने की साजिश है, विज्ञापन में बच्चों को संस्कार देने की बात कहेंगे और प्रस्तुति में ऐसा गड्ड मड्ड करेंगे कि आपके बच्चे किसी भी महान कृति का ठीक से विश्लेषण कर पाने की स्थिति में नहीं रहेंगे।करीब डेढ़ दशक पहले जो टीवी का चेहरा था, उससे नितांत अलग चेहरा अब बन गया है। यह मत भूलिए कि रामायण और महाभारत सीरियल को बनाने की पहले दूरदर्शन की थी। महाभारत के संवाद राही मासूम राजा ने लिखे थे, और वे आज भी लोगों की जुबान पर हैं। अब जो टीम महाभारत बना रही है, उनमें ज्यादातर तो ऐसे हैं, जब वे उस महाभारत को समझ नहीं सकते थे या टीवी देखना नहीं सीखा था। मुमकिन है बहुतों के घर में टीवी भी नहीं था। जयपुर के आमेर और आस पास के इलाकों में महाभारत की शूटिंग हुई। आप खुद सोचिए महाभारत काल और मुगल स्थापत्य के अंतर को सैट पर कैसे न्यायसंगत कहा जा सकता है। तमाम सरकारी अकर्मण्यता के बावजूद दूरदर्शन ने एक दौर में भारतीय टीवी का चेहरा स्थापित करने में महती भूमिका अदा की। आज भी सिर्फ दूरदर्शन देखकर ही लगता है कि भारत गांवों का देश है, वरना नए चैनल देखकर तो यूं लगता है कि हम एक महानगरीय देश में रह रहे है, जहां कोई दुख दर्द ही नहीं है। सिर्फ इतनी सी तकलीफ बची है कि सास बहुएं आपस में षडयंत्र करती हैं। ये खत्म हो जाएं तो देश विकसित हो जाएगा। दुर्भाग्य से महाभारत को यह घटिया संस्करण भारतीय टीवी इंडस्ट्री की उसे महिला के नेतृत्व में बन रहा है जिसके बारे में देश में विख्यात है कि वह घोर धार्मिक आस्थाओं वाली है। दरअसल आस्था के इस मिथ्या प्रचार में गाफिल रहने वाले लोगों को यह पता नहीं होता कि बाजार की आस्था सिर्फ मुनाफा है, वहां की नैतिकता यही कहती है कि घटिया या अच्छी कैसा भी रूप आए, बाजार में पहले हमारी महाभारत आनी चाहिए। अभिनेताओं के नाम पर वहां मॉडल्स और मसखरों का टोला है। मुकेश खन्ना जैसे भीष्म क्या कभी दुबार पैदा हो सकते हैं लेकिन टीवी के शाहरूख खान या अमिताभ बच्चन कहलाने वाले एक अभिनेता यह रोल कर रहे हैं और एक इंटरव्यू में यह दंभ भी कर चुके हैं कि लोग उन्हें पसंद ना भी करेंगे तो उसमें वो ताकत है कि लोगों का अपना कायल कर लेंगे। अभिनय में यह दंभ नहीं चलता। नाट्य शास्त्र में आचार्य भरत कहते हैं- जियो तो ऐसे कि अभिनय कर रहे हो, अभिनय करो तो ऐसे कि जी रहे हो। यह दंभ ना भीष्म में था,ना मुकेश खन्ना में। लेकिन नए दौर के धार्मिक अभिनेताओं की मंडली में कुछ भी संभव है।

गुरुवार, जुलाई 31, 2008

पॉलिटिक्स अनिलिमिटेड

अहमदाबाद के धमाके से ठीक एक दिन पहले बंगलौर में धमाके हुए और उससे दो दिन पहले भारतीय संसद में एक भयानक धमाका हुआ। विपक्षी पार्टी की एक खास नेता सुषमा स्वराज की तरफ से सोचा समझा बयान भी आया कि धमाके संसद में हुए कांड से ध्यान हटाने कोशिश हो सकते हैं। साठ बरस की आजादी के बाद हम राजनीति के ऐसे दलदल में खड़े हैं, जहां आतंकवाद, जातीय संघर्ष, भ्रष्टाचार जैसी तमाम बुराइयां वर्चस्व की लड़ाई के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं लिहाजा इनसे लड़ने के तौर तरीके और प्राथमिकताएं पिछड़ रही हैं। हम भूल चुके हैं कि हमें एक राष्ट्र के रूप में किस तरह काम करना चाहिए। गौर से देखिए तो यह निष्कर्ष आसानी से निकाले जा सकते हैं, हमारे नेताओं की पिछले साठ बरस से चल रही मूल्यहीन नौटंकी ने हमें इस मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है कि हर साइकिल पर लटके टिफिन बॉक्स में बम ही नजर आता है।
बाईस जुलाई को संसद में जो कुछ हुआ, उसमें हम दिल खोलकर बीजेपी की बुराई कर सकते हैं लेकिन क्या यह सच नहीं कि कुल मिलाकर संसद में दिख रहा राजनीति का वह चेहरा हमारी जनता की सोच और नैतिक मूल्यों का एक प्रतिबिंब था। हम सब कुछ जानते हैं कि सांसद खरीदे और बेचे जा सकते हैं। हमें पता है कि सांसद सवाल पूछने के लिए भी पैसे ले लेते हैं, हम जानते हैं हमारे राजनेता जातीय, क्षेत्रीय और हर उस आधार पर राजनीति करते हैं, जो स्पष्ट तौर पर अनैतिक है। वे हर हाल में वर्चस्व के लिए लड़ते हैं और हम अपना कीमती वोट उन्हें देते हैं। हर बार लोग कहते हैं, जनता सुधार चाहती है? अपने गिरेबान में झांकिए, अपने तबादले के लिए, अपने रिश्तेदार की पोस्टिंग के लिए, मुकदमे में फंसे अपने परिचितों के लिए हम सब नेताओं के मार्फत यथासंभव सत्ता का उपभोग करने की कोशिश करते हैं। यदि हमारे पास वो जुगाड नहीं है तो हम पैसे के बल पर अपने काम निकलवाना चाहते हैं। कुछेक आबादी को छोड़ दें तो कुल मिलाकर यह मान लिया गया है कि आपके पास सत्ता है तो आप सुखी हैं, अन्यथा आपके पास सिस्टम से लड़ने का कोई ठोस उपाय नहीं है।

यह निहायत बचकाना लग सकता है कि बम धमाकों, राजनीतिक भ्रष्टाचार और आम आदमी के चरित्र के अंतर्सबंध क्या हैं? लेकिन मुझे अक्सर यह लगता है कि पूरे तंत्र को खोखला करने में हम सामूहिक रूप से काम कर रहे हैं और उसका सर्वाधिक फायदा अलगावादी ताकतें उठाती हैं, अन्यथा सौ करोड़ आबादी में मुट्ठी भर अलगाववादियों की बिसात नहीं कि वे एक दो महीनों और एक दो दिनों के अंतराल के बाद जहां चाहें वहां धमाके कर दें। उससे ठीक पहले उसका वीडियो भी बना लें और फिर धमकी भरा ई मेल भी भेज दें कि अभी और किन शहरों में वे धमाके करने वाले हैं।
सबसे बड़ा मुद्दा खुफिया तंत्र और पुलिस की विफलता की उठाया जाता है। आप पुलिस की हालत देखिए। उनके काम करने के तौर तरीके देखिए। उनके आधुनिकीकरणा की गति देखिए। सब कुछ जर्जर है। इसे जर्जर करने वाला कौन है? हमारा राजनीतिक तंत्र। आप जैड प्लस में चलेंगे। आप गुजरेंगे तो आम जनता चौराहों पर जाम में फंसी खड़ी रहेगी। उसके साथ आपकी सुरक्षा में लगी पुलिस का व्यवहार इस तरह होगा जैसे जनता ही हत्यारी है और उसने आपको मारने की सुपारी ली है। फिर पुलिस तंत्र में पोस्टिंग का मामला मलाईदार और ठंड का है। राजनीतिक मुंहलगे अफसर और पुलिसवाले मलाईदार पद पाएंगे। मलाईदार पद का अर्थ साफ है कि आप उन्हें बेशुमार रिशवत और भ्रष्टाचार से कमाने का खुला अवसर देते हैं। जिन पुलिसवालों पर रिशवत और हरामखोरी की चर्बी बुरी तरह चढ़ चुकी हो, उनसे आप क्या उममीद करेंगे कि वे बम धमाकों या दूसरे समाजकंटकों से अपने नागरिकों की रक्षा करेंगे। यही हाल आपकी खुफियागिरी का है। वे लोग इस बात की रिपोर्ट ज्यादा करते हैं कि इस बार कौनसी पार्टी चुनाव जीतेगी। सरकारी तंत्र उसे पूरी तरह अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए इस्तेमाल करता है।

फिल्मकार गुलजार ने 1975 में फिल्म बनाई थी- आंधी। राजनीतिक रूप से महत़वाकांक्षी पिता अपनी बेटी को सत्ता में देखना चाहता था और इसी वजह से उसके पति से उसके संबंध खराब हुए लेकिन जब चुनाव में लोग उस पर कीचड़ उछालने लगे तो पति नैतिकता की लड़ाई में उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हुआ। वहां सत्ता पाने की राजनीतिक उठापटक तो थी लेकिन नैतिकता के प्रति यह आग्रह उस दौर की राजनीति में लगता था। गुलजार ने ही 1995 में माचिस बनाई। आतंकवादियों को पकड़ने में पुलिस तंत्र के अत्याचार और नए बदमाश पैदा करने में पुलिस की भूमिका साफ दिखती है। 1999 में वही फिल्मकार हु तु तु बनाता है। कहानी का ताना बाना आंधी जैसा ही है लेकिन वहां वर्चस्व की लड़ाई में नैतिकता खत्म हो गई है। हत्या, भ्रष्टाचार और निजी स्वार्थ केंद्र में आ गए हैं। लिहाजा यहां जब नायिका सत्ता का निणायक लड़ाई लड़ रही होती है तो उसका पति उसे छोड़कर गांव चला गया है। उसकी बेटी ही उसकी हत्या में भागीदार बनती है। हालांकि यह गुलजार का फिल्मी इंटरप्रेटेशन कमजोर था लेकिन इस रूपान्तरण के भी दस बरस बाद आज नेताओं की अगली पीढ़ी को देखिए। उनकी संतानें दलालों की तरह काम करने लगी हैं। यह हम देख ही चुके हैं कि अर्थव्यवस्था के उभरते क्षेत्रों में नेताओं की संतानें किस तरह अपने पिताओं और आकाओं की सत्ता का इस्तेमाल करते हुए एक भ्रष्ट तंत्र की जड़ें सींच रहे हैं। पेट्रोल पंप, रियल एस्टेट, शॉपिंग मॉल्स, एजेंसियां, सरकारी ठेके मुनाफे के बड़े कारोबारों में मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और उनकी संतानों या रिश्तेदारों की भागीदारी मिलेगी।

सत्ता का दुरुपयोग कर आप एक पूरे तंत्र को खोखला करने में जुटे हैं। संस्थानों की विश्वसनीयता खत्म कर रहे हैं। आप विश्वसनीय नहीं है, आपकी पुलिस विश्वसनीय नहीं है, आपका खुफिया तंत्र भरोसे के काबिल नहीं है, आपकी राजनीतिक प्रतिबद्धताएं स्वहित पोषक हैं। इन सबसे बचने की कोशिश करती हुई जनता हरेक चुनाव में संसद या विधानसभाओं में आपराधिक छवि वाले नेताओं की तादाद बढ़ा देती है। अपने मानवीय होने का सबूत देती है कि देखो, बम धमाके में लोग मरे हैं और रक्तदान करने वालों की तादाद इतनी बढ़ गई है। यह छदम राष्ट्रप्रेम बहुत दिन नहीं चलेगा। मुसीबतें देखकर आंख मूंदने से वे खत्म नहीं होती। इस देश के दर्द को महसूस कजिए। राजनेतओं को जवाबदेह बनाइए।

शनिवार, अप्रैल 12, 2008

खुदा के लिए स्वागत करें


पाकिस्तानी फिल्मकार शोएब मंसूर से जब मैंने पिछले नवम्बर में फोन पर बात की थी तो उनकी दिली तमन्ना थी कि फिल्म खुदा के लिए भारत के लोग देखें। आज उनकी ख्वाहिश पूरी हो रही है। आज भारत में पाकिस्तानी फिल्म खुदा के लिए रिलीज हो रही है। जयपुर के एक सिनेमाघर में फिल्म आज से दिखाई जाएगी। क्रिकेट और सिनेमा भारत और पाकिस्तान की कमजोरी रहे हैं। भारतीय फिल्मों और संगीत की पाइरेटेड सीडी डीवीडी से पाकिस्तानी बाजार अटे पड़े हैं क्योंकि पाकिस्तान में सिनेमा इस्लामिक दबावों के चलते कमजोर हो गया। यह साधारण घटना नहीं है। शायद यह पहली पाकिस्तानी फिल्म है, जो भारत में इतने बड़े स्तर पर रिलीज हो रही है। उससे भी असाधारण बात यह है कि जो फिल्म आ रही है, वह करण जौहर, यश चौपड़ा या महेश भट्ट ब्रिगेड के लोकप्रिय सिनेमाओं से थोड़ा अलग है। यदि सिनेमेटिक लैंग्वेज की बात की जाए तो `खुदा के लिए´ एक अच्छी फिल्म है। गोवा में पिछले नवम्बर में हुए अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में इसकी स्क्रीनिंग हुई थी और मैं गवाह हूं कि लगभग हर स्क्रीनिंग हाउसफुल थी। हमारे यहां जेपी दत्ता की फिल्मों में भारत माता की जय और पाकिस्तान मुदाüबाद के नारे सिनेमाघरों में गूंजते हैं, वैसा कोई कॉनçफ्लक्ट शोएब मंसूर की इस फिल्म में नहीं है कि एक भारतीय होते हुए आपको यह लगे कि आप पाकिस्तान की फिल्म देख रहे हैं, बल्कि एक संवाद ऐसा है, जहां भारत की अहमियत ही दिखाई गई है। जाहिर है भारत के हिंदू मुçस्लम तनावों से अलग पाकिस्तान मुसलमानों के आपसी द्वन्द्व से ही पीडि़त है और उसी दुविधा का शिकार हमारा पूरा देश भी है। एक इस्लाम का उदार चेहरा और दूसरा मुल्ला और मौलवियों द्वारा व्याख्यायित कट्टर चेहरा। जाहिर है, आतंकवाद के बीज कहीं इसी बुनियादी सोच में हैं।गोवा में फिल्म की स्क्रीनिंग से पहले मैंने शोएब मंसूर से बात की थी। वे उस वक्त पाकिस्तान में थे। पाकिस्तान में इमरजेंसी थी और वे कोई भी टिप्पणी करने से बच रहे थे। हां, उन्होंने कहा कि फिल्म भारत और पाकिस्तान के लोगों को इस्लाम समझाने में बेहद मदद करेगी। हम लोगों के लिए सुखद बात है कि फिल्म में नसीरुद्दीन शाह भी हैं। वे आखिरी पन्द्रह मिनट फिल्म में आते हैं और याद रह जाते हैं। अमेरिका पर आतंकी हमले को लेकर हमारे यहां नसीर अपनी पहली निर्देशित फिल्म `यूं होता तो क्या होता´ बना चुके हैं लेकिन उसके केन्द्र में संयोग और इमोशन्स हैं। खुदा के लिए सीधे हमारी सोच पर हमला करती है। बल्कि तारीफ कीजिए शोएब मंसूर की। उन्होंने पाकिस्तान में होकर एक बोल्ड फिल्म बनाने की हिम्मत की है जो हमारे फिल्मकार भारत में रहते हुए बनाने से कतराते हैं। वे इस्लाम के कट्टरपंçथयों को चुनौती देते हैं और अमेरिका की भी पोल खोलते हैं कि आतंकवाद किसने पैदा किया है? दुआ कीजिए कि आ जा नच ले में गाने में एक जातिसूचक शब्द को लेकर हल्ला मचा देने वाले देश में खुदा के लिए निबाüध चले, लोग देखने जाएं। कतई इंटेलेक्चुअल और बौद्धिक लबादों से भरी फिल्म नहीं है। आम भारतीय फिल्मों की उसी तरह की कहानी है कि दो सगे भाई कुंभ में मेले में बिछुड़ गए हैं। सिर्फ ट्रीटमेंट अलग है। भाषा वही है जो हम आम बोलचाल में उदूü बोलते हैं। फिल्म देखने के बाद शायद हम यह समझ पाएं कि हमारी लाडली टेनिस प्लेयर सानिया मिर्जा अपनी ही जमीन पर टेनिस खेलने से क्यों मना कर देती है?

मंगलवार, अप्रैल 01, 2008

हम राजस्थान के लोग

आज अपनी माटी को मोहब्बत करने का वक्त है और यह भावुक क्षण है। किसान से पूçछए, जब वह खेत में खड़ा होता है तो लगता है कि उसकी वह मां की गोद है। सूरज तपे, बादल बरसे, तूफान आए, बाढ़ आ जाए लेकिन उसका खेत उसे मां की तरह पालता है। किसान की जमीन से इस मोहब्बत में वैसा स्वार्थ नहीं होता जैसा शहर के बगल में जमीन खरीदकर बिल्डर मुनाफे की कल्पना मात्र खुश हो जाता है। मेरे किसान पिता कहते हैं, वह दुनिया का सबसे बड़ा बदनसीब है, जिसे अपना खेत बेचना पड़े।जन गण मन गूंजता है, तो आंखें अनायास नम होती हैं, लगता है हम अपनी मां को याद कर रहे हैं। हम राज ठाकरे को इसलिए गलत कह सकते हैं कि वह मराठियों के बहाने अपने राजनीतिक स्वार्थ साधना चाहते हैं, लेकिन यदि अपने ही राज्य को निस्वार्थ प्यार करते हैं तो यह संविधान विरोधी नहीं है। चूरू के लक्ष्मीनिवास मित्तल अपने पैतृक गांव न भी जाएं तो उनके मुनाफे में कोई फर्क नहीं पड़ता। अमेरिका में इकॉनोमिक्स पढ़ाने वाले प्रोफेसर घासीराम लौटकर शेखावाटी ना भी आएं, वहां जान पहचान वालों, युवाओं, लेखकों की गुपचुप आर्थिक मदद ना भी करें तो उनकी तनख्वाह नहीं कटेगी। जयपुर के इरफान को साइन करते हुए कोई हॉलीवुड या बॉलीवुड का कोई प्रोड्यूसर यह शर्त नहीं रख्ाता है कि हर संक्रांति को जयपुर जाकर अपने मकान की छत से पतंग उड़ाएं और मोहल्ले के लोगों से पेच लड़ाएं। फिर भी हमारे ये लाडले यहां आते हैं। अपनी जमीन पर माथा टेकते हैं। फलों से लदे पेड़ बनकर अपनी जमीन की तरफ झुकते हैं, क्योंकि दिल कहता है, अपनी माटी, अपनी मां तो राजस्थान है।तो हमें गर्व है कि राजस्थान के हैं। क्योंकि हमारा राजस्थान जिंदगी का आईना है। दूर तक फैले मरुस्थल के बावजूद हमारी पगड़ी के रंगों का इन्द्रधनुष कमजोर नहीं पड़ता। विपरीत परिस्थितियों में लड़ने को हौसला देने वाले ये जिंदगी के रंग हैं। माना कि बारिश बीतते हुए हमारी नदियां सूखती हैं लेकिन वे कभी अगले बरस फिर कलकल बहने की उम्मीद नहीं छोड़तीं। ठीक हमारी जिंदगी की तरह। अरावली की ऊंची नीची उपत्यकाएं जिंदगी की पथरीली राहें हैं लेकिन उन्हीं की गोद में हमारे मवेशी, हमारे हिरण, हमारे बाघ, हमारी तितलियां बेखौफ विचरण करते हैं। उन्हीं के बीच हमारी खनिज सम्पदा है। हमें प्रकृति ने ही तो जीने का हौसला दिया। जहां गए, वहीं मुश्किल हालातों में भी संघर्ष करते हुए अपना मुकाम बनाया। असम में उल्फा ने सताया, बंगाल में मंत्री की जुबान फिसली, मुम्बई में भी हमारी मुखालफत करने वाले कम नहीं। हमारे सपूत अमेरिका में झंडे गाड़ रहे हैं। दुनिया में फैले हैं। यह राजस्थान के दिल का ही विस्तार है कि यहां जो आ रहे हैं, उनके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठी। लेकिन चुनौतियां खत्म नहीं होती हैं। हमारा संघर्ष रंग लाना चाहिए। यदि हम भौगोलिक लिहाज से सबसे बड़े हैं तो उदारता में भी बड़े हों। इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि हमारी अर्थशास्त्र के आंकड़ों में हमारी प्रति व्यक्ति आय सबसे ज्यादा हो, हमारे लोगों के लिए स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर हों। कभी कभी बुरा लगता है, गांवों में सेलफोन का नेटवर्क तो काम कर रहा है लेकिन जिस नर्स की ड्यूटी है, वह नदारद है। काश, हमारे नेता उतने ही संवेदनशील होते जैसे हमारे लोग हैं। फिर भी उम्मीद की किरण इधर ही हैं। देखना, एक दिन हम नम्बर वन होंगे। हमारे हौसले की बूते पर। अपने गांव, अपने शहर से जिम्मदार बेटे की तरह मोहब्बत करिए, आपको राजस्थान दुआ देगा। अपने राज्य राजस्थान से मोहब्बत करिए, भारत की दुआएं आपको मिलेंगी। दिल में जमीन से जुड़ने वाले किसान बनिए। जमीन को बेचने वाले बिल्डर नहीं। इस धरती पर गर्व करें। यही जननी है।
-ये लेख राजस्थान स्थापना दिवस के मौके पर 30 मार्च 2008 को डेली न्यूज में प्रकाशित हुआ है।

मंगलवार, मार्च 25, 2008

राजस्थान दिवस के जश्न में मुम्बई की फौज

राजस्थान दिवस के जश्न को आप नहीं देखने जा रहे हैं तो यह आपकी गलती है। सरकार ने तो कोई कसर छोड़ी नहीं है। ये राजस्थान के ऊबाऊ स्थानीय कलाकार हैं, उनसे क्या कोई राजस्थान दिवस में रंगत लाई जा सकती है। लिहाजा सरकार ने सारी फौज मुम्बई से बुलाई है। ऐसी फौज का खर्च भी रीयल एस्टेट की तरह है। मेजबान का चेहरा देखकर मुंहमांगी कीमत मांग लो। हजार रुपये गज में बढ़ा दो। ये हमारे लोकल आटिüस्ट बयानबाजी बहुत करते हैं। इनका पत्ता साफ करो। साबरी बंधु गाते होंगे राजस्थान में कव्वाली, वे बड़े तो तभी बनेंगे, जब राजकपूर अपनी फिल्म हिना में उन्हें गाने का मौका दें। इसके बाद हिना फेम साबरी बंधु हो गए। लिखा होगा कन्हैया लाल सेठिया ने कि या तो सुरगां ने सरमावै, ई पर देव रमण न आवै, धरती धोरां री। राजस्थान की महिमा का बेहतरीन दस्तावेज है, लेकिन अब गीत लिखने के लिए आप कई लाख, कई हजार रुपये देंगे। क्योंकि यह इमोशनल मामला नहीं है। क्योंकि यह सब नेटवकिZग का मामला है। इसे यूपी या मुम्बई के जावेद अख्तर या प्रसून जोशी लिख सकते हैं।राजस्थान दिवस में अपनी प्रस्तुति को लेकर अगर आप आ रहे हैं, तो अपनी ब्रांड वैल्यू बताइए। आपके पास नहीं हैं तो आप फटीचर लोग हैं। राजस्थान सरकार ने आपकी ब्रांड वैल्यू बनाने का ठेका थोड़े ही लिया है? और ये क्या लोकल आटिüस्टों ने रट लगा रखी है कि हमें नहीं बुलाया? क्या आपको नेटवकिZग आती है? नहीं आती है तो चिल्लाते क्यों हैं? सिफारिश लाइए। आत्मसमर्पण करिए, तब जाकर कहीं आपका नम्बर मंच पर चढ़ने के लिए आएगा।खैर, जो गंभीर लोग हैं वे कह सकते हैं कि ऐसी कोई जरूरत थोड़े ही है राजस्थान दिवस समारोह हो और राजस्थानियों को ही मौका मिले। रेवडि़यां बंट रही हैं, तो देश के सभी समान नागरिक समान ढंग से बांटकर खाएं। तो फिर ऐसा क्या है, जो तकलीफदेह है।इस सरकार का कोई सांस्कृतिक चेहरा नहीं है। यूं लगता है जैसे तर्कहीन ढंग से आपने तय किया है कि पैसा बहा दो, उससे सांस्कृतिक समृद्धि आएगी। पुलों पर चित्र बनाने का बजट तय कर दो। चौराहों पर कुछ नाचती गाती मूर्तियां लगा दो। चलिए अच्छा है। एक गैर सरकारी संगठन के साथ जुड़कर सांस्कृतिक आयोजन कराओ। वो आपकी सारी सरकारी मशीनरी को इस्तेमाल करेगा और अपने प्रायोजक ढूंढ़कर कमाएगा। अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने थे तो ऐलान किया था कि राज्य की सांस्कृतिक नीति बनेगी। एक टूटा फूटा दस्तावेज भी शायद तैयार हुआ था। अब क्या स्थिति है, मेरी जानकारी में नहीं है। पांच साल उन्होंने निकाल दिए। जवाहर कला केन्द्र को ऑटोनोमस बनाने का ऐलान हुआ था। इस सरकार में अधिसूचना जारी हुई, लेकिन अब भी नौकरशाही के ही कब्जे में है। अभी तक ऑटोनोमस बॉडी के मेम्बर ओर चैयरमैन की नियुक्ति नहीं हुई। साल डेढ़ साल पहले भानु भारती लगभग तय हो गए थे लेकिन खबर लीक हो गई और सांस्कृतिक कारसेवा हो गई। मामला अटक गया। आज वहां सरकारी अफसर ही तय करते हैं कि क्या होगा, क्या नहीं? रवीन्द्र मंच की जर्जर हालत है। कुछ खबरें छपती हैं, तो बजट निकल आता है और फिर बजट भी गायब हो जाता है और हालात भी नहीं सुधरते। रवीन्द्र मंच पर एक प्रोफेशनल नाटक करने में आपको पसीना आ जाएगा। ना लाइट ठीक लगी हैं, ना साउंड ठीक है। दिलचस्प बात यह है कुछ सरकारी इमारते तो ब्याह शादियों के लिए दी जाने लगी हैं। रवीन्द्र मंच पर भी आने वाले दिनों में नाटक कम और शादियां ज्यादा हुआ करेंगी। मेरी इन बातों का यह अर्थ ना लगाया जाए कि ऐसा कोई समारोह होना ही नहीं चाहिए। बेशक होना चाहिए लेकिन आपका लक्ष्य क्या है? राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत को संरक्षण देने का, राजस्थान दिवस के नाम पर सिर्फ जयपुर के लोगों को मनोरंजन करने का या राजस्थानी लोगों को आत्म गौरव महसूस करने का मौका देने का। जाहिर है, एआर रहमान, पलाश सेन के पास यह ताकत नहीं है कि राजस्थानी लोगों को यह समझा सकें उनका राज्य महान है। आप देखिए, नाटक वाले आएं, चाहे सिनेमा वाले, वे सब मंच से हमेशा कहेंगे, जयपुर के लोग बहुत गुणीजन हैं, देश के किसी भी शहर में उतना बेहतर महसूस नहीं करते जैसा जयपुर में करते हैं, असल में अहमदाबाद और इंदौर में भी ये लोग शहर का नाम बदलकर यही वाक्य दोहराते हैं। यह उनकी बाजारी जरूरत है। तो और नहीं तो कम से अपनी माटी के सपूतों को तो याद करिए। सेलिब्रिटी भी चाहिए तो भरे पड़े हैं, सिनेमा में, रंगमंच में, गायन में, लेखन में। सवाल क्षेत्रीयता का नहीं है, सिर्फ इमोशन्स का है। पिछली सरकार का मैं कोई हिमायती नहीं हूं, लेकिन आप तारीफ करेंगे कि राजस्थान के बाहर बसे सभी लोगों का सम्मेलन कराने की पहल की। वहीं से आए लोगों ने कहा कि दुनिया उनका लोहा मानती है, लेकिन अपने ही राज्य में उन्हें कम इज्जत मिलती है। बाद में कुछेक लोगों ने काम किया, कुछ ने सरकारी सुविधाओं का फायदा उठाया। उन्होंने गूंज किया और अपने गंगानगर के जगजीत सिंह को तो बुलाया ही, देश छोड़ पाकिस्तान बसे दो महान कलाकारों के लिए पलक पांवड़े बिछाए कि वे अपनी माटी पर लौटें। आपको याद होगा कि बुजुर्ग मेहदी हसन भी आए और अपनी माटी के लोगों की मनुहार में बीमारी के बावजूद गाते ही चले गए। रेशमा भी आईं। बुलाइए, अपने कलाकारों को बार बार बुलाइए। आप सरकार हैं, संस्कृति के बाजार में ग्लैमर की दुकान चलाने नहीं बैठे हैं, आप एक स्टेट की स्थापना के मौके को उस स्टेट के लोगों को गर्व करने का मौका दें, ना कि उन्हें मनोरंजन के नाम पर बॉलीवुड के ठुमकों की अफीम में बेहोश करके उम्मीद करें कि लोग सरकार का गुणगान करें। रही बात कलाकारों की। बार-बार की उपेक्षा और दरबार उर्फ सरकार पर आçश्रत रहने की उम्मीदों में वे एक संगठित विरोध का साहस तक नहीं रख्ाते हैं। विश्व मोहन भट्ट या इला अरुण अकेले बयान दें, उससे सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगती। आप इन लोगों से आग्रह करें कि वे अगुवाई करें। संगठित विरोध सरकार तक पहुंचाएं। नौकरशाहों और इवेन्ट मैनेजरों की पोल खोलें। लेकिन दुभाüग्य से हमारे कलाकार ऐसा भी नहीं करते। बोलना पड़ेगा। इस स्टेट की कला और संस्कृति को पहचान देने का संघर्ष आपने किया है। बीज आपने बोए हैं, तो मेहरबानी कर यह फसल नेताओं और इवेन्ट मैनेजरों को ना काटने दें। इस फसल पर आपका हक है। दागिस्तानी लेखक रसूल हमजातोव का उल्लेख किया एक किस्सा याद आता है-कुछ लोगों ने पेड़ को उखाड़ दिया और उस पर बने चिडि़या के घौंसले को उजाड़ दिया।किसी ने पेड़ से पूछा- तुम्हें क्यों उखाड़ा गया?पेड़- क्योंकि मैं बेजुबान हूं। चिडि़या से पूछा-तुम्हारा घौंसला क्यों उजाड़ दिया? चिडि़या-क्योंकि मैं बहुत बोलती थी। तो कम से कम उतना तो बोलिए कि आपका वजूद बना रहे।