गुरुवार, अगस्त 14, 2008

बाजार का दु:शासन, नैतिकता की निरीह द्रौपदी

तुम चुप रहो दु:शासन, मैं अपने पति से बात कर रही हूं- टीवी पर दिखाई जा रही नई महाभारत में यह संवाद सुनकर कोई भी आसानी से यह अनुमान लगा सकता है कि जिन लोगों ने नई महाभारत को दिखाने का जिम्मा लिया है, उनकी नजर में यह सास बहू जैसा ही ड्रामा है, जहां विवाहेतर संबंध हैं, पारिवारिक षडयंत्र हैं, प्रभुत्व और संपत्ति की लड़ाई है, लिहाजा इसे उसी चाशनी में पिरोकर पेश किया जाए जैसे सास भी कभी बहू थी, या कहानी घर घर की। यह भारतीय साहित्य और धर्म ग्रंथों के साथ क्रूर मजाक है और आश्चर्य की बात यह है कि लोग इस देख भी रहे हैं। वे लोग देख रहे हैं जो गणेशजी को दूध पिलाने भाग निकलते हैं, पपीते में शिवलिंग की आकृति देखकर पूरे सावन उसे घर में रखकर पूजा करते हैं। मुझे ताज्जुब होता है कि इस तरह की कोशिशों का विरोध क्यों नहीं होता?
याद करिए रामायण और महाभारत के प्रसारण के दूरदर्शन के दिन। जब लोग नहा धोकर अगरबत्ती लगाकर पर्दे पर आंख गड़ाते थे। कहीं भी नहीं दिखता था कि इन ग्रंथों के पर्दे पर रुपान्तरण के लिए उनका व्यवसायीकरण किया गया हो। उस जमाने में भी कमर्शियल ब्रेक का रिवाज भी यह था कि सीरियल शुरू होने से पहले ही आकर निपट जाते थे। द्रौपदी और सीता को ग्लैमरस दिखाने की कल्पना भी बीआर चौपड़ा और रामानंद सागर ने नहीं की होगी। एकता मैडम की नई महाभारत का आगाज ही चीरहरण के दृश्य के साथ हुआ। तो क्या एक बार महाभारत या रामायण बन चुके हैं तो कोई उन्हें दुबारा नहीं बना सकताï? बेशक उसे बनाने का हक है लेकिन उसकी आस्था ऐसी होनी चाहिए। उसकी नजर बाजार पर नहीं होनी चाहिए। आपको अपने धार्मिक ग्रंथों को गलत रुपान्तरण के साथ नहीं बेचना चाहिए। यह बहुत बड़ी व्यावसायिक धूर्तता है कि आप अपने फायदे के लिए उन ग्रंथों का अपने ढंग से रूपांतरण करें, जिनमें करोड़ों लोग आस्था रखते हों। सामाजिक दायित्त्वबोध बात छोड़ दीजिए, बाजारू सीरियल बनाने वालों से यह उम्मीद बेमानी है, लेकिन आपको यह नैतिक अधिकार ही नहीं बनता कि आप मर्जी के मुताबिक किसी साहित्यिक और धार्मिक और ऐतिहासिक कलाकृति को अपने मुनाफे लिए इस्तेमाल करें।
रामानंद सागर के वंशजों की ओर से नई रामायण दिखाई जा रही है। वो अपने प्रचार के चलते व्यावसायिक रूप से भले ही कामयाब हुई हो लेकिन वह रत्तीभर वो जादू उत्पन्न नहीं कर पाई जो पहले दिखाई गई रामायण में था। वे शुरुआती ध्वनियां जादुई ढँग कानों में गूंजती हैं- मंगल भवन अमंगल हारी या यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानि भवति भारत:। एक आस्था भाव होता था। अब आप नए भीम का इंटरव्यू पढि़ए, जब वो कहता है कि वह आजकल जिम में ज्यादा एक्सरसाइज करता है ताकि मांसपेशियां दिखा सके। यह समझना कितना मुश्किल है कि भीम को मांसपेशियां दिखाना जरूरी नहीं था। बॉबी बेदी जैसे नामी निर्माता भी महाभारत बनाने की दौड़ में हैं और एकता कपूर के खेमे ने उनके कई पांडव और कौरव तोडक़र अपनी तरफ भर्ती कर लिए हैं। क्या मजाक है? ऐसी महाभारत की या ऐसी रामायण के दूसरे संस्करण बनाने की जरूरत क्या थी? मनोरंजन के इतिहास में विश्वविख्यात कृतियों पर अपने ढंग से काम करने का रिवाज रहा है, जो चलताऊपन एकता कपूर के खेमे की तरफ से महाभारत जैसे महाकाव्य के साथ हुआ है, वैसे ही उदाहरण गिने चुने ही मिलेंगे। संवदेनशील फिल्मकार बहुत ध्यान से एडेप्टेशन करते हैं। जापान के मशहूर फिल्मकार अकीरा कुरोसावा ने शेक्सपीयर के मैकबेथ पर थ्रोन ऑव ब्लड फिल्म बनाई और भारत के विशाल भारद्वाज ने इसके कई बरस बाद मकबूल बनाई। ये बेहतरीन कोशिशें रहीं। कहने का अर्थ है कि दुनियाभर के फिल्मकार और मनोरंंजन उद्योग से जुड़े लोग ये कोशिशें करते रहते हैं और अलग अलग ढंग से तारीफ या आलोचना का शिकार होते हैं लेकिन एकता कपूर नई महाभारत बनाकर बीआर चौपड़ा की बनाई महाभारत के साथ ऐसा ही कर रही हैं जैसा रामगोपाल वर्मा ने शोले के साथ किया। एकता का कसूर रामू से भी ज्यादा इसलिए है कि भारतीय आस्थाओं के इस महाग्रंथ को बाजारू नजरिए से देख रही हैं। उन्हें ये ध्यान रखना चाहिए कि महाभारत के दर्शकों और सास बहू की खिचड़ी में खुश रहनी वाली मध्यवर्गीय महिला दर्शकों में रात दिन का अंतर है। लेकिन नई महाभारत के साथ ऐसा ही हो रहा है।

भारतीय टेलीविजन इस समय घोर संक्रमण का शिकार है। अचानक चैनलों की बाढ़ आई है और यदि आप मुम्बई की हकीकत जानते हैं तो आसानी से बता सकते हैं कि वहां किस तरह कम प्रोफेशनल्स और लगभग निपट मूर्खों की टीवी इंडस्ट्री में भरमार हुई है। अचानक बढ़ी इस जरूरत को पूरा करने के लिए अफरा तफरी और प्रतिस्पर्धा में जो जितना तेज दौड़ रहा है, वहीं कामयाब माना जा रहा है। एकता इनकी प्रतिनिधि मानी जा सकती हैं। वरना कसूर कम रामानंद सागर के वंशजों का नहीं है, जो रामायण का भी कमजोर रूप लेकर आए हैं और उसका प्रचार यह कर रहे हैं कि इसे देखकर बच्चों में संस्कार आएंगे। यह आम लोगों को बेवकूफ बनाकर मुनाफा कमाने की साजिश है, विज्ञापन में बच्चों को संस्कार देने की बात कहेंगे और प्रस्तुति में ऐसा गड्ड मड्ड करेंगे कि आपके बच्चे किसी भी महान कृति का ठीक से विश्लेषण कर पाने की स्थिति में नहीं रहेंगे।करीब डेढ़ दशक पहले जो टीवी का चेहरा था, उससे नितांत अलग चेहरा अब बन गया है। यह मत भूलिए कि रामायण और महाभारत सीरियल को बनाने की पहले दूरदर्शन की थी। महाभारत के संवाद राही मासूम राजा ने लिखे थे, और वे आज भी लोगों की जुबान पर हैं। अब जो टीम महाभारत बना रही है, उनमें ज्यादातर तो ऐसे हैं, जब वे उस महाभारत को समझ नहीं सकते थे या टीवी देखना नहीं सीखा था। मुमकिन है बहुतों के घर में टीवी भी नहीं था। जयपुर के आमेर और आस पास के इलाकों में महाभारत की शूटिंग हुई। आप खुद सोचिए महाभारत काल और मुगल स्थापत्य के अंतर को सैट पर कैसे न्यायसंगत कहा जा सकता है। तमाम सरकारी अकर्मण्यता के बावजूद दूरदर्शन ने एक दौर में भारतीय टीवी का चेहरा स्थापित करने में महती भूमिका अदा की। आज भी सिर्फ दूरदर्शन देखकर ही लगता है कि भारत गांवों का देश है, वरना नए चैनल देखकर तो यूं लगता है कि हम एक महानगरीय देश में रह रहे है, जहां कोई दुख दर्द ही नहीं है। सिर्फ इतनी सी तकलीफ बची है कि सास बहुएं आपस में षडयंत्र करती हैं। ये खत्म हो जाएं तो देश विकसित हो जाएगा। दुर्भाग्य से महाभारत को यह घटिया संस्करण भारतीय टीवी इंडस्ट्री की उसे महिला के नेतृत्व में बन रहा है जिसके बारे में देश में विख्यात है कि वह घोर धार्मिक आस्थाओं वाली है। दरअसल आस्था के इस मिथ्या प्रचार में गाफिल रहने वाले लोगों को यह पता नहीं होता कि बाजार की आस्था सिर्फ मुनाफा है, वहां की नैतिकता यही कहती है कि घटिया या अच्छी कैसा भी रूप आए, बाजार में पहले हमारी महाभारत आनी चाहिए। अभिनेताओं के नाम पर वहां मॉडल्स और मसखरों का टोला है। मुकेश खन्ना जैसे भीष्म क्या कभी दुबार पैदा हो सकते हैं लेकिन टीवी के शाहरूख खान या अमिताभ बच्चन कहलाने वाले एक अभिनेता यह रोल कर रहे हैं और एक इंटरव्यू में यह दंभ भी कर चुके हैं कि लोग उन्हें पसंद ना भी करेंगे तो उसमें वो ताकत है कि लोगों का अपना कायल कर लेंगे। अभिनय में यह दंभ नहीं चलता। नाट्य शास्त्र में आचार्य भरत कहते हैं- जियो तो ऐसे कि अभिनय कर रहे हो, अभिनय करो तो ऐसे कि जी रहे हो। यह दंभ ना भीष्म में था,ना मुकेश खन्ना में। लेकिन नए दौर के धार्मिक अभिनेताओं की मंडली में कुछ भी संभव है।