सोमवार, दिसंबर 27, 2010

गुजरते साल में लफ्जों की चादर ओढ़ के

धुंआ बना के फिजा में उड़ा दिया मुझको

मैं जल रहा था किसी ने बुझा दिया मुझको

खड़ा हूं आज भी रोटी के चार हर्फ लिए

सवाल ये है कि किताबों ने क्या दिया मुझको

शायर का यह कलाम याद करते हुए मैं अपनी उलझनों के जवाब खोज रहा हूं। नई सदी के दस बरस के साथ जब यह साल भी बीत ही जाएगा। नए साल के नए संकल्प लेंगे मैं घोर उदासी में घिरा हुआ पाता हूं। आस्था का संकट तो है ही साथ ही एक नैतिक उलझन भी है कि जिस रास्ते पर सब चल रहे हैं, क्या वही एकमात्र सुखद रास्ता रह गया है? मैं कोई आध्यात्मिक बात नहीं कर रहा। हजारों करोड़ों के घोटालों के साथ इस दशक को विदाई दे रहे हैं, सत्ता के दलालों या लॉबिस्टों के पक्ष में खड़े होने के तर्क खोज रहे हैं, या अरुंधति राय और विनायक सेन को देशद्रोही मान रहे हैं, ईरान के फिल्मकार जफर पनाही को जेल में डाल रहे हैं और उन पर सिनेमा ना बनाने और इंटरव्यू ना देने, किताबें ना पढऩे और पटकथाएं ना लिखने का आदेश दे रहे हैं और आखिरी सांस में सत्ता से मोह रखते हुए मर जाने वाले नेताओं को महान बताने की परंपरा निभा रहे हैं तो मेरी आत्मा पूछती है कि जब सब लोग कमा रहे हैं, मैं क्यों गांधी को याद क्यों करता हूं।

मैं जिस पेशे में हूं, उसमें वीर सांघवी और बरखा दत्त का असर मुझ पर रहा था। अब मेरे मन में उनके प्रति सम्मान घट गया है। लेकिन समस्या यही नहीं है, मेरे उन दोस्तों को क्या करूं, जो सुख-दुख के साथी रहे हैं। वे अपने बेईमान होकर सुखी होने के राज मुझसे बांटते हैं। शहर में रहते हुए मुझे अठारह बरस हो गए हैं। मैं मूलत: गांव का हूं लेकिन अब दावा कर सकता हूं कि मैं एक शहरी वयस्क हो गया हूं। गांव छोड़ते वक्त मां ने कहा था, किसी ब्राह्मण का चिकना अनाज कभी नहीं खाना। दूसरी बात मेरी मरहूम दादी कहती थीं कि दिन बिगड़ गए तो वापस सुधर जाएंगे लेकिन नीयत बिगड़ गई तो उसे कोई सुधार नहीं सकता। प्रकारांतर से मैं ऐसी विरासत को साथ लेकर शहर आया जहां मुझसे यह उम्मीद की गई कि लालच न करूं। इस सांस्कृतिक दुविधा से बुरी स्थिति राजनीतिक विकल्पों की है। सरकार इस बात को व्यावहारिक कठिनाई मानती है कि गोदामों में सडऩे को अभिशप्त अनाज गरीबों और भूखों में बांटा नहीं जा सकता, भले ही आदमी भूख से मर जाए। वो गुनहगार कौन हैं, जिन्होंने मोबाइल के टावर, टूथपेस्ट, गुटखा, साबुन तो दूरदराज के गांवों में पहुंचा दिए हैं, लेकिन सार्वजनिक वितरण प्रणाली का अनाज और पीने का पानी आज तक नहीं पहुंचा पाए। मैं उस कृषि मंत्री को कैसे माफ करूं जबकि मेरे पुरखों की भूख की विरासत मुझे हमेशा याद रहती है कि वे पेड़ों की छालों से अपनी रोटियां बनाकर खाया करते थे। हम अपने ही इतिहास को झुठलाने में लगे हैं। उससे भी बुरी बात यह है कि इतिहास, राजनीति और साहित्य और भाषाओं से इतर शिक्षा के केंद्रीय विषय खाता खतौनी, मैनेजमेंट मार्केटिंग और खरीद फरोख्त के फार्मूलों में उलझ गए हैं, जहां सिर्फ यह सिखाया जाता है कि सरकार का कर कैसे चुराया जा सकता है, कैसे खराब माल को प्रचारित करके बेचा जा सकता है। वे कौन लोग हैं जो हम पर राज करने का सपने देख रहे हैं। उनकी गणना क्या मुमकिन है, जो यह मानने लगे हैं कि सब कुछ बिकाऊ है, सब कुछ खरीदा जा सकता है? अगर ऐसे लोगों की संख्या यदि बढ़ गई है तो मेरा यकीन है हम बर्बर हो गए हैं। ऐसे बर्बर जिनके खिलाफ अब्राहम लिंकन, मार्टिन लूथर, महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला लड़ते रहे हैं। इतिहास अपने आपको दोहराएगा। हमारी पीढ़ी युद्ध के मुहाने पर है। मुझे मशहूर नाइजीरियाई लेखक चिनुआ अचीबी के उपन्यास के एक कबीलाई बुड्ढे का वह वक्तव्य याद आता है, जो यह कहता है कि जिस आदमी के पास अपने लोग हों, वह उनसे भी ज्यादा अमीर होता है जिनके पास धन होता है। मैं आश्वस्त हूं कि सारे दलाल, लॉबिस्ट और भ्रष्ट लोगों को सम्मान से देख पाना मुश्किल है। उनके पास धन है लेकिन अपने लोग नहीं। आज भी जो सच्चा है, वह सबसे ताकतवर है। माना कि मेरी पहचान के दायरे में बेईमानों की भीड़ ज्यादा है लेकिन मैं एक ऐसे जज को जानता हूं, जिसके सीने पर गोली रख दी गई थी, इसके बावजूद उसने फैसला नहीं बदला था। बाद में धमकाने वाले कमजोर पड़ गए थे। मैं ऐसे वकील को जानता हूं, जिसने धमकियों की परवाह नहीं की। ऐसे एक प्रोफेसर को जानता हूं, जिसने अपने ही स्टाफ से दुश्मनी ली, मैं ऐसे एक कलक्टर को जानता हूं मैं जिससे भ्रष्टाचारी थर -थर कांपते हैं और उसका तबादला करने में अब सरकार को भी सोचना पड़ता है। ये सब मेरी जान पहचान में हैं। आप यदि सच के साथ हैं तो अपनी जान पहचान के इन लोगों की इज्जत करें। हमारे बीच ही सुकरात और भगतसिंह पैदा होते हैं। नए साल में मैं उन्हीं को सलाम करता हूं, वे इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए लड़ेंगे, भले ही उन्हें अपनी सुख सुविधाओं और खुद की कुर्बानियां देनी पड़ें। नया साल मुबारक हो।

शुक्रवार, दिसंबर 17, 2010

सरकार, सिनेमा और शहर

राजस्‍थान सरकार ने राजस्‍थानी भाषा में बनने वाली फिल्‍मों को अनुदान देने की घोषणा की है। मैं लगातार इस बात की वकालत करता रहा हूं कि सरकारी तौर पर स्‍थानीय स्‍तर पर सिनेमा संस्‍कृति विकसित करने के लिए पहल होनी चाहिए। कुछ समय पहले ही डेली न्‍यूज में लिखे गए कॉलम को अविकल प्रस्‍तुत कर रहा हूं।



मुझे अक्सर हमारी सरकारों के बरसों पुरानी वे घोषणाएं याद आती हैं, जिसमें उन्होंने जयपुर शहर में फिल्म सिटी बनाने का संकल्प था। मामला लगभग ठंडे बस्ते में हैं। लगभग सभी राज्यों में जब क्षेत्रीय सिनेमा नई करवट ले रहा है, तो राजस्थान इस मामले में सबसे ज्यादा फिसड्डी साबित हो रहा है। ज्यादातर राज्यों ने अपने यहां सिनेमा की कल्चर को देखते हुए फिल्म विकास निगम स्थापित किए हैं जिसमें यूपी और मध्यप्रदेश जैसे दक्षिणी राज्य भी हैं। आप केरल जैसे दक्षिणी राज्य की बात करें तो वहां की सरकार फिल्मकारों को ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं दे रही हैं। सरकार वहां सब्सिडी देती है। हमारे यहां संरक्षण से दूर सरकार ने फिल्मों को कमाई का जरिया बनाया है और जो निर्माता पहले से करोड़ों रुपए दांव पर लगा रहा होता है उसे यहां लोकेशन्स पर लाखों रुपए खर्च करने होते हैं। पुलिस और प्रशासन के छोटे मोटे दो नंबरी खर्चे तो खैर पूरे देश में ही एक समान है। मुझे ताज्जुब होता है कि फिलहाल शहर के लिए गैर जरूरी मेट्रो पर निर्णय एक महीने में हो जाता है और फिल्म सिटी पर गंभीरता दिखाने में आठ साल से सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं।

इसकी समस्या कहीं गहरे जुड़ी है। राजस्थान में जो फिल्मकारों का छोटा सा भी समुदाय है, वह इतना कूप मंडूक और आत्ममुग्धता का शिकार है। एक उम्रदराज पुराने जमाने की कामयाब अदाकार आज भी मुख्य भूमिका का लालच रखती है और साथ ही उसी सम्प्रदाय से जुड़े लोग सरकारों पर किसी भी किस्म का दबाव बनाने की कोशिश नहीं करते। यहां तक कि उनके पास अच्छा सिनेमा बनाने की ना दृष्टि है और ना ही जमीन से जुड़ी कहानियां। जो कुछ पैसा राज्य से इंडस्ट्री में लगता है, उसे मुंबइया लोग ले जाते हैं। मराठी फिल्म इंडस्ट्री के कामयाब होने की एक वजह यह है कि सरकार ने वहां के थियेटरों और मल्टीप्लेक्सेज में एक निश्चित समय के लिए मराठी फिल्में लगाना अनिवार्य कर दिया। लेकिन वजह केवल यही नहीं, मराठी सिनेमा को जब यह मंच मिला तो वहां बेहतरीन सिनेमा बनने लगा। आप श्वास को जानते हैं जो ऑस्कर में गई, लेकिन टिंग्या को नहीं जानते जो एक स्वतंत्र फिल्मकार की फिल्म थी और उसने दो साल पहले कामयाबी के झंडे गाड़े। पिछले महीनों में मराठी की गाबरीचा पाउस फिल्म किसानों की आत्महत्या पर भारत में बनी ताकतवर फिल्मों में एक है, लेकिन राजस्थान में गजेंद्र श्रोत्रिय की निर्माणाधीन फिल्म के संवाद जब हिंदी के बजाय हमने राजस्थानी में रखना तय कर लिया तो सब लोगों ने भाषा को लेकर ही आशंकाएं जताई। थियेटर के कई कलाकारों ने काम करने से इसलिए मना कर दिया कि वे राजस्थानी फिल्म में काम नहीं करना चाहते।

जयपुर में कोई चार साल पहले एक बाहरी आदमी ने दो साल तक लघु फिल्मों का उत्सव किया, सरकार से लाखों की मदद ली और जब वह मदद बंद हुई तो उस आयोजक का अता पता नहीं। पिछले तीन साल से एक और फिल्म उत्सव खड़ा करने की कोशिश है लेकिन वह महज दिशाहीनता का शिकार है, अब जिस मोर्चे पर सरकार उसमें घुसी है, उसमें कितना दम बचेगा, यह अभी से कहना नामुमकिन है। यह सब तब हो रहा है, जब हमारे राज्य की कला संस्कृति मंत्री बीना काक ने सिनेमा में अभिनय भी किया है। इसके बावजूद उनके पास राज्य में सिनेमा संस्कृति के लिए किसी पहल या दृष्टि का अभाव चिंतित करने वाला है। मुझे अक्सर लगता है कि यह काम फिल्मकार ही कर सकते हैं, फिल्म के नाम पर दुकान चलाने वाले नहीं।

इस मोर्चे पर पिछले साल भर में कोई सबसे महत्त्वपूर्ण काम हुआ है जिस पर किसी की निगाह नहीं है, वह है जवाहर कला केंद्र में शनिवार को दिखाई जाने वाली फिल्म। बाजार, ब्रांडिंग और प्रायोजकों से दूर सही अर्थों में इसके सूत्रधार संदीप मदान हैं, जो शहर के थियेटर का जाना माना नाम है लेकिन उन्होंने जयपुर में शहर में लगातार बेहतरीन फिल्में लाकर दिखाने का श्रेय दिया जाना चाहिए। इस लिहाज से सिनेमा संस्कृति को बढाने में शहर को संदीप का श्ुाक्रगुजार होना चाहिए। लेकिन इन फिल्मों के बारे में अखबारों में कम छपता है, लोग कम आते हैं क्योंकि सांस्कृतिक पत्रकारों को भी सिनेमा के इस कवरेज में कम दिलचस्पी है। इसके बावजूद शनिवार की इन फिल्मों से शहर में एक देश और दुनिया के बेहतरीन सिनेमा के दर्शक तैयार होगा। मुमकिन है इसमें वक्त लगे। क्योंकि मैं जिन फिल्मों को पहले से ही देख चुका, वे फिल्में मैंने वहां दुबारा देखी हैं। अकीरा कुरोसावा, इशिरो होंडा, इंगमार बर्गमैन, माजिद मजीदी जैसे दुनिया के दिग्गज फिल्मकारों का सिनेमा शहर में आप वहीं देख सकते हैं।

 (डेली न्‍यूज के संडे सप्‍लीमेंट हमलोग में प्रकाशित मेरा कॉलम तमाशा मेरे आगे)

शुक्रवार, दिसंबर 03, 2010

फंस गया रे ओबामा: एक आइडिया है बचने का

एक भाई साहब हैं। उनके सीनियर अली भाई हैं। उसकी सीनियर मुन्नी है और इन सबका सीनियर धनंजय है जो आजकल मंत्री बन गया है। यह बेसिकली इस इलाके का एक बिजनेस ट्री है। इनका बिजनेस अपहरण करके फिरौती लेना है। सबसे ऊपर वाला मंत्री इसकी बाकायदा रसीद भी देता है और एक बार फिरौती चुकाने के बाद सालभर सुरक्षा की गारंटी भी। अमरीका में मंदी के शिकार ओम शास्त्री पुरखों की हवेली बेेचने इंडिया आए हैं ताकि वे अमेरिका में अपना घर बेच सकें और वे भी इस गिरोह में सबसे निचले पायदान पर खड़े होकर अपने आयडिया से अपना घर बचाते हैं और अपनी खुद की जान भी। वे अपने गांव में ओम मामा नाम से विख्यात हैं और यह शब्द ओबामा से मेल खाता है।

निर्देशक सुभाष कपूर की फिल्म फंस गया रे ओबामा एक नए विचार के साथ बनी हास्य फिल्म है और शुरुआती फ्रेम से लेकर आखिरी फे्रम तक आनंद देती है। मर्दों से नफरत करने वाली लेडी गब्बर जब क्ले से बने पुरुष पुतले को तोड़कर महिला का पुतला बनाती रहती है, तो यह स्थापित है कि वो मर्दों से नफरत करती है और अवसर आने पर बलात्कार भी। वहीं मंत्री धनंजय को फिरौती देने में हां कहने वालों की मेहनाननवाजी और इनकार करने वालों की तेजाब के तालाब में उबलते कंकाल भी आपको अच्छे लगते हैं।

केवल हास्य नहीं है। फिल्म में तंज भी है जो पूरे सिस्टम पर हमला भी करता है और पटकथा का संतुलित प्रवाह आपको कहीं बोर होने का अवसर नहीं देता। सुभाष कपूर की तारीफ होनी चाहिए।

फिल्म रजत कपूर ने अद्भुत काम किया है। इसके अलावा नेहा लेडी गब्बर के रूप में नेहा धूपिया भी अच्छी है। अमोल गुप्ते और संजय मिश्रा भी अच्छे हैं।

खेलें हम जी जान से: उम्दा महाकाव्य

निर्देशक आशुतोष गोवारिकर निस्संदेह देश के सबसे प्रतिभाशाली फिल्मकारों में हैं और इस हफ्ते रिलीज उनकी फिल्म खेलें हम जी जान से के बाद वे फिलहाल सबसे आगे खड़े नजर भी आते हैं। अगर हम सचमुच सिनेमा संस्कृति के प्रति समर्पित हैं तो सरकार को इस फिल्म को टैक्स फ्री करना चाहिए।
फिल्म की कहानी मानिनी चटर्जी की किताब डू ओर डाइ पर आधारित है जो ऐतिहासिक चिटगांव क्रांति के योद्धा सूज्र्या या सूर्या सेन और उनके साथियों द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ छेड़े गए सबसे उल्लेखनीय आंदोलन की दास्तान है। फिल्म भावुक कर देने वाले वृत्तचित्र की तरह चलता है। अच्छी बात यह है कि लगान, स्वदेस और जोधा अकबर के आशुतोष यहां और बेहतर होकर उभरे हैं।
यहां जेपी दत्ता का राष्ट्रवादी सिनेमा नहीं है बल्कि यह उन मासूम लोगों को श्रद्धांजलि है जिनकी देश को आजाद कराने की इच्छा ने उन्हें हद से गुजरने का हौसला दिया। और इस क्रांति की शुुरुआत स्कूली किशोरों के फुटबाल खेलने की जगह ब्रिटिश छावनी बन जाने से हुई, जब क्रांतिकारी सूर्या सेन से जाकर फुटबाल खेलने वाले बच्चे मिले कि आप देश की आजादी के लिए लड़ रहे हैं तो हम आपके साथ लड़ेंगे। आप देश रख लीजिएगा और हमें हमारा मैदान दे दीजिएगा। वे किशोर डरे नहीं जबकि उन्हें पता था कि इस युद्ध में उनकी जान भी जा सकती है। लंबी अवधि की फिल्म बनाने के लिए मशहूर गोवारिकर की इस फिल्म में इंटरवल तक गति धीमी है लेकिन बाद में सिनेमाई अनुभव भी अच्छा है। कालखंड की फिल्मों में लोकेशंस और सेट की अपनी अहमियत होती है और इसके साथ न्याय हुआ है। सूर्या सेन की भूमिका में अभिषेक और कल्पना दत्ता की भूमिका में दीपिका पादुकोण ने अच्छा काम किया है। सिकंदर खेर के लिए फिल्म प्रतिभा साबित करने का बड़ा अवसर है। प्रीतिलता की भूमिका में विशाखा सिंह भी जमी है।
बेहतरीन सिनेमाटोग्राफी फिल्म की खूबी है और आशुतोष गोवारिकर जैसे जोखिम लेने वाले फिल्मकार का सम्मान यही है कि लोग यह फिल्म देखें। यदि आपको इतिहास थ्रिल करता है। आप देश के लिए थोड़ा सा भी सोचते हैं तो यह फिल्म देखी जानी चाहिए।

शुक्रवार, नवंबर 26, 2010

ब्रेक के बाद: फिर वही दिल लाया हूं


ब्रेक के बाद: फिर वही दिल लाया हूं

निर्माता कुणाल कोहली और निर्देशक दानिश असलम की फिल्म ब्रेक के बाद डॉट कॉम पीढ़ी की रोम कॉम है। जहां लड़की अपने सपनों के पीछे भागती है और लड़का लड़की के पीछे। वह कन्फ्यूज्ड है। आजकल फिल्मी प्रेम कहानियां खाते पीते परिवारों से ही निकलती हैं। लड़की जब फोन नहीं उठा रही है तो लड़का सात समंदर पार उसे मिलने ऑस्ट्रेलिया पहुंच जाता है। लड़की थोड़ी सी आजादी चाहती है, जिसे वह ब्रेक का नाम देती है। मॉडर्न लड़की बेहिचक ड्रिंक्स लेती है, सिगरेट या सिगार पीती है। उसका कहना है कि उसकी जिंदगी का हर सीन खुशियों से भरा होना चाहिए। अपनी मां की तरह एक्ट्रेस बनना चाहती है और मां कहती है कि वह उस दुनिया का दलदल वह जानती है। इनके बीच एक आंटी है जो तीन शादियां करके तलाक ले चुकी है और कहती है कि वह अब भी चौथी भार यह हादसा करने को उत्सुक है। लड़के लड़की मे ब्रेक होता है तो इस दौरान कन्फ्यूज्ड लड़का कमाकर खाना सीख जाता है। इसके बाद प्रेमी युगल का फिर मिलन हो जाता है।
दोनों युगल सिगनल पर भीख मांगने वाले सारे बच्चों के नाम जानते हैं और वे बच्चे इन दोनों को। सारे पात्र बिंदास हैं। लेकिन कमी बस यही है कि ऐसी प्रेम कहानियां आती रही हैं। आप डीडीएलजे से लेकर आई हैट लव स्टोरीज तक को याद कर लें। कुछ कुछ वैसे ही फ्रेम और कहानी का बहाव। इस पीढ़ी के फिल्मकारों के ज्यादातर पात्र अमीर होते हैं जिनकी मूल समस्या बस प्रेम ही रह गया है। गीत संगीत बहुत ज्यादा असरदार नहीं है। इसके बावजूद अपने खास किस्म के फैन्स की वजह से इमरान खान और दीपिका पादुकोण की जोड़ी वाली यह फिल्म किशोरों ओर युवाओं में लोकप्रिय हो सकती है क्योंकि उनकी उम्र एक जैसी ही प्रेम कहानियां कई बार देखने के लिए होती है। फिल्म का दूसरा हिस्सा थोड़ा सा डगमगाया है। टाइमपास के लिए ठीक ठाक सी फिल्म है। शर्मिला टैगोर, नवीन निश्चल, लिलेट दुबे, शहाना गोस्वामी, युधिष्ठिर उर्स ने भी अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है।
-रामकुमार सिंह
द्बठ्ठस्रद्बड्डह्म्द्मञ्चद्दद्वड्डद्बद्य.ष्शद्व

शनिवार, अक्तूबर 23, 2010

लाइट | कैमरा | एक्‍शन … और वो साढ़े सात दिन!


जयपुर से जब हम निकले थे तो वह छह अक्टूबर की सुबह थी। हमारी फिल्म भोभर के लिए आठ की सुबह कैमरा रोल होना था। चौदह की शाम साढ़े चार बजे पैक अप होना था। एक एक शॉट के लिए एक्सेल शीट पर समय तय था। लगभग साठ शॉट रोजाना लेने की जिद थी और मौका लगा तो यह संख्या अस्सी तक ले जाने का जुनून भी। लेकिन सिनेमा में सब कुछ वैसा नहीं होता, जैसा हम सोचते हैं। पहले ही दिन कैमरा रोल होने में डेढ़ घंटे का विलंब हो गया, नतीजा जो काम दिन में तीन बजे खत्म होना था वहां रात के नौ बज गये। नौ बजे लोकेशन शिफ्टिंग हुई और लाइटिंग में ही रात के बारह बज गये, जो कि शिड्यूल के हिसाब से पहले दिन के पैक अप का समय था, पहले दिन का ही काम बहुत बच गया था। लिहाजा सुबह साढे चार बजे तक काम किया गया।

सबने कहा, पहले दिन ऐसा ही होता है। टीम को अपनी गति पकड़ने में समय लगता है लेकिन ज्योंही डायरेक्टर ने अगले दिन का कॉल टाइम साढ़े नौ बजे रख दिया, तो सबके पसीने छूट गये। हालांकि सैट पर पहुंचते पहुंचते सबको साढ़े ग्यारह बज गये और कैमरा रोल हुआ एक बजे। सब नींद में ऊंघ रहे थे और एक दूसरे को कातर निगाहों से देख रहे थे।

हालांकि यह मेरा फील्ड कतई नहीं था कि मैं प्रोडक्शन टीम को हैंडल करुं लेकिन चूंकि पूंछ में आग हमारे लगी थी और जेब से पूंजी फुंकने की जलन भी हो रही थी। गजेंद्र से चर्चा की और हमारी समझ में आ गया कि इस तरह तो पंद्रह-बीस दिन लग जाएंगे। उस दिन पैक अप जल्दी किया गया ताकि सब लोग पूरी नींद ले सकें। अगली सुबह नाश्ते पर गजेंद्र और हमने पूरी टीम से बात की। हमारे कैमरामैन योगेश ने कहा कि क्यों नहीं हम लोग यह संकल्प लें कि अब होटल से निकल रहे हैं तो फिल्म पूरी शूट करके ही वापस लौटेंगे। हमें सुनने में बहुत अच्छा लगा लेकिन इसकी व्यावहारिकता समझ में नहीं आ रही थी।

बहरहाल हमारा पूरा क्रू ही कोई चालीस लोगों का था और एक स्वतंत्र छोटे बजट के लिए यह संख्या काफी थी। गजेंद्र ने पूरे क्रू से बात की। लाइटमैन्स को शुरुआती संदेह था कि इतने काम का उनका मेहनताना क्या होगा? हमने उन्हें आश्वस्त किया कि वे सब लोग अपना समय नोट करते रहें और सबको सबकी मेहनत का पैसा मिलेगा लेकिन यदि शूटिंग आगे खिसकती है और यही धीमी गति रहती है तो हो सकता है हमारी फिल्म रुक जाए और ऐसा कोई नहीं चाहता था। क्योंकि चौदह तारीख के बाद हमारे लीड एक्टर्स और कैमरामैन की भी डेट्स हमारे पास नहीं थी। शूटिंग बीच में रहने का मतलब था कि कोई नहीं जानता कि वह दुबारा कब शुरू होगी। ऐसा बड़ी फिल्मों के साथ भी होता है, तो हम तो बहुत छोटे प्रोड्यूसर हैं।

बहरहाल मैं उस टीम को सलाम करुंगा, उस क्षण को याद करुंगा जब सबने एक स्वर में कहा कि हम सब तब तक काम करेंगे, जब तक फिल्म पूरी नहीं हो जाती। नींद बर्दाश्त करेंगे। पारियों में सो जाएंगे। मिल बांटकर काम करेंगे। लेकिन इस संकल्प के बाद टीम में अब हर आदमी हर काम कर रहा था। लाइट वाले का स्कीमर पकड़े रहने में सैटिंग वाले को परेशानी नहीं थी। कैमरा अटेंडेंट का ट्रायपॉड लेकर चलने में लाइटमैन को परेशानी नहीं थी। सबको पानी पिलाते रहने में मुझे कोई परेशानी नहीं थी। पूरी टीम के प्रति हम कृतज्ञ थे कि उनके चेहरे पर शिकन नहीं थी। हमारा शिड्यूल फिर भी डिले था और पेंडिंग काम धीरे-धीरे कवर हो रहा था। जो लोग बिल्कुल नहीं सो रहे थे, उनमें हमारे डायरेक्टर गजेंद्र और कैमरामैन योगेश थे। मुझे और मेरे सहयोगी आलोक को नींद आ भी नहीं रही थी। मैं तो अब भी वो सारा तनाव, सारी भागदौड़ याद करता हूं तो नींद में ही बिस्तर से उठ जाता हूं। तीन दिन से ठीक से सो नहीं पा रहा हूं।

फिल्म का सैट गांव में मेरा अपना घर था। उससे लगा खेत था। मम्मी-पापा को इतने मेहमानों की आवभगत को मौका मिला था लिहाजा चूल्हा कभी ठंडा नहीं रहा। रातभर चाय उबलती और दिन में गांव से मटके भरकर छाछ आ जाती। पूरी टीम ने मां से सीधा रिश्ता बनाया और जिसको जिस चीज की जरूरत होती किचन में घुसा पाया जाता। घर में हमारे परिवार के बाकी सब लोग भी टीम की जरूरतों को खास ध्यान रखने लगे और जब देखा कि चौबीसों घंटे सब लोग काम में जुटे हैं, तो गांव वालों ने भी आखिर मान ही लिया कि फिल्म बनाना आसान काम नहीं है।

मेकअप टीम के दोनों लोगों ने समय बांट लिया कि दोनों बारह-बारह घंटे बारी-बारी सैट पर रहेंगे। चार लाइटमैन्स ने तय कर लिया कि एक आदमी आठ घंटे सोएगा बाकी तीन काम करेंगे। सेटिंग तीनों लोगों ने अपना समय बांट लिया। एक्टर्स ने अपने शॉट्स के हिसाब से समय तय कर लिया कि कब सोना है? कैमरे के साथ आये मनोज को हमने आश्वस्त किया जब लाइटिंग हो रही हो शॉट चल रहे हों तो हम सब संभालेंगे। हमारे आश्वासन पर वह बीच बीच में दो तीन घंटे की नींद ले ही लिया करता था। चूंकि हमारी पूरी टीम ही जयपुर की थी और सब एक दूसरे को वैसे भी जानते थे।

राजस्थान में अक्टूबर के दिन काफी गर्म होते हैं और रातें उसी अनुपात में काफी ठंडी। दिन में सब झुलसते और रात को ठिठुरते। घर के जिस कमरे से कंबल, बैडशीट, शॉल, तौलिया जिसको जो मिला लपेट लेते।

डायरेक्शन टीम में आसिफ के पास हर तनाव को एक ही नारा था कि बोलो जय सिया राम, बन गया काम।

डायरेक्शन टीम के ही श्रीकांत और विनय इंजीनियरिंग के फाइनल ईयर के स्टूडेंट थे और अपना कॉलेज छोड़ वहां लगे हुए थे। उनके हाथों में क्लैप और स्क्रिप्ट की फाइलें भरी रहतीं। लगातार जागते रहने से उनके चेहरे पर थकान साफ दिख रही थी। फीचर फिल्म का उनका पहला अनुभव था और वह भी लगातार काम करने का। मैंने उनसे कहा, इस फिल्म के बाद शायद ही तुम लोग अब फिल्मी दुनिया में जाने की सोचो। दोनों ने कहा, सर, हमें लग रहा है कि इंजीनियरिंग ही छूटेगी। इधर तो अब मजा आ रहा है।

तीन दिन लगातार काम करने के बाद तेरह अक्टूबर की सुबह तक हम लगभग आश्वस्त हो रहे थे कि हम शिड्यूल के करीब हैं। बात चौदह की शाम तक काम करने की थी लेकिन चौदह की पूरी रात काम किया। सुबह होते ही योगेश को जाना था लिहाजा जो कुछ काम बचा, वह मनोज ने हैंडल किया। पंद्रह की सुबह ग्यारह बजे क्रू को पैकअप कर दिया गया।

पूरी टीम ने कहा – इस बार हम जरा लेट चेते, अगली फिल्म में हम शुरू करेंगे और खत्म करके ही ब्रेक लेंगे। मैंने हाथ जोड़ दिये कि अगली फिल्म के लिए हम ज्यादा बजट रखेंगे और ज्यादा ब्रेक। इतना काम दुबारा करने की कल्पना मात्र से ही सिहरन होती है। तो इस तरह सात दिन के शिड्यूल को हम साढ़े सात दिन में पूरा कर पाये। इस दौरान कितनी समस्याएं कितने समाधान हर घंटे हमसे मुखातिब होते थे। मेरे दिमाग की मेज पर इतनी सारी फाइलें बिखरी थीं, जिनमें खाना पीना, अगली लोकेशन, गाड़‍ियां, डेट्स के अनुसार जयपुर से एक्टर्स का आने-जाने और ठहरने की व्यवस्था देखना, स्थानीय स्तर पर ऊंटगाड़ी, ट्रैक्टर आदि का इंतजाम आदि। वे सारे किस्से फिर कभी बाद में। लेकिन मुझे अनुराग कश्यप की वो बात हमेशा याद रही कि यदि आप बजट को कम से कम रखोगे फिल्म बनाने में, तो जोखिम भी उसी अनुपात में कम होती जाएगी। यह बजट कम तभी रहा जब हमारी टीम कंधे से कंधा मिलाकर हमारे साथ खड़ी थी। मैं और भी फिल्म क्रू के साथ रहा हूं, लेकिन इतना अपनापा पहली बार देखा। यह जादुई था। आगे क्या होगा देखा जाएगा? फिलहाल फिल्म कल से एडिट टेबल पर जा रही है।

शनिवार, सितंबर 11, 2010

निराश करती फार्मूलों की वापसी


निर्देशक अभिनव सिंह कश्यप की फिल्म दबंग सलमान खान के प्रशंसक दर्शकों के लिए हैं, जो अपने नायक को भ्रष्ट होने के बावजूद प्यार करते हैं। लुंगी पहने हुए इंस्पेक्टर चुलबुल पांडे अपने जर्जर घर की सीढियों से उतर रहे हैं। वाश बेशिन में मुंह धोना चाहते हैं लेकिन नल में पानी नहीं आ रहा है। यह एक सामान्य दृश्य है लेकिन दर्शक इस पर जोर जोर से हंसते हैं, क्योंकि जिस आदमी को उस नल से पानी चाहिए, वो सलमान खान है, वह नायक है। दबंग एक ऎसे नायक की फिल्म है,जो जो डरता नहीं है। भ्रष्ट तो है ही। नाम रॉबिनहुड से ज्यादा धोखा मत खाइए। वह किसी को भला करने वाला भी नहीं है। वह तो दो मटकों के पांच सौ रूपए एक लड़की को इसलिए देता है कि वह नायिका है और हीरो को उससे प्यार है। पांच सौ का नोट दिखाता सलमान सोनाक्षी से जो कहता है और सोनाक्षी बदले में जो कहती है, वह सब आप ट्रेलर में देख ही चुके हैं।

फिल्म की कहानी में कोई जान नहीं है। यह टिपिकल फार्मूला फिल्म है, जिसमें नायक बीस पचास गुंडों से अकेला ही लड़ लेता है। अगर आप सलमान के सच्चे प्रशंसक नहीं हैं और एक्शन भी आपको पसंद नहीं तो फिल्म में आप परेशान हो जाएंगे। एक मां के दो बेटे हैं। चुलबुल के जन्म के बाद उसके पिता की मौत के बाद उसकी मां ने प्रजापति पांडे से शादी कर ली। एक बेटा और हुआ। एक मां लेकिन दो बाप होने की वजह से दोनों भाइयों में कभी बनी ही नहीं और इसका फायदा लालगंज का उभरता नेतानुमा गंुडा उठाता है। चुलबुल पांडे से बदला लेने के लिए उसके भाई को इस्तेमाल करता है। जैसा कि फार्मूला फिल्मों में होता है, भाई से भाई का मिलन होता है और दोनों मिलकर छेदी सिंह को मारते हैं। तड़पा तड़पा कर।

यह अच्छा दृश्य बन पड़ा है लेकिन सारे नंबर मुन्नी बदनाम हुई गाने और उसके फिल्मांकन को जिससे आम भारतीय दर्शक को पैसा वसूल की अनुभूति होती है। यदि आप दर्शकों का भेद करें तो यह छोटे सेंटर्स और सिंगल स्क्रीन की फिल्म है। मल्टीप्लैक्स दर्शकों को उतना मजा नहीं आता। फिल्म को सलमान खान ही बचाते हैं। निर्देशक अभिनव कश्यप के लिए अच्छी बात यह है कि उनकी फिल्म में सलमान खान हैं। सोनाक्षी सिन्हा ने अपनी भूमिका में ठीक काम किया है। विनोद खन्ना, डिंपल कापडिया भी हैं। ओमपुरी, अनुपम खेर भी। लेकिन सब ठीक ठाक हैं। बहरहाल, फिल्म को मकसद कारोबार करना है, उस मोर्चे पर शायद बाजी मार ही जए। सिनेमा के लिहाज से ऎसी परंपरा की शुरूआत चिंताजनक है कि गजनी की कामयाबी ने हमें वांटेड दी ओर वांटेड की कामयाबी ने दबंग। कुल मिलाकर दबंग सलमान खान परंपरा की फिल्म है और निराश करती है।

शुक्रवार, अगस्त 13, 2010

कड़वी गोली, मिश्री के साथ


फिल्म समीक्षा: पीपली लाइव



आमिर खान प्रॉडक्शन्स की अनुषा रिजवी निर्देशित फिल्म पीपली लाइव में शुरू से अंत तक आप हंसते ज्यादा हैं। लेकिन यह खिसियानी हंसी है। हंसी लगभग वैसी है जैसे शायर ने कहा कि तुम इतना जो मुस्करा रहे हो, क्या गम है जिसको छुपा रहे हो।
कहानी में बुधिया और नत्था नाम के भाई किसान है, जो पुरखों की जमीन बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। इलाके के नेता ने उन्हें किसी आत्महत्या की योजना की बारे में बता दिया है कि ऐसा करने से एक लाख रुपए मिलेंगे। बड़ा भाई बुधिया कहता है कि उसका वश चलता तो पुरखों की जमीन बचाने के लिए वह अपनी जान दे देता। उसके बार बार के उलाहने सुनकर छोटे नत्था ने कहा, तुम क्यों दोगे भैया, मैं जान दूंगा। बात एक स्थानीय पत्रकार के कान में पड़ती है, लोकल अखबार में छपती है। नेशनल चैनल में पहुंचती है और भेड़चाल वाले मीडिया के दर्जनों पत्रकार नत्था के गांव पीपली में डेरा जमाते हैं। चुनाव का वक्त है। एक पार्टी को नत्था के मरने से फायदा है, दूसरे को नत्था के जीने से। राजनीति शुरू होती है। गांव में मेला लग गया है। इसी कहानी में सरकारी योजनाओं का खोखलापन भी दिखता है, जब लालबहादुर योजना का हैंडपम्प जिलाधीश की ओर से भेज दिया जाता है, एक स्थानीय नेता की ओर से रंगीन टेलीविजन भेंट किया जाता है। दोनों उस मरते किसान के लिए गैर जरूरी हैं। केंद्रीय कृषि मंत्री राज्य सरकार पर आरोप लगा रहे हैं और राज्य केंद्र पर। अतिरिक्त सुरक्षा से घिरे, बार बार पाखाने जाते नत्था का क्या होता है, यह फिल्म में देखने की बात है। लगे हाथ मीडिया की टीआरपी की भी खबर निर्ममता से ली गई है, जब अंग्रेजी पत्रकार नंदिता मलिक से राकेश बुनियादी सवाल पूछता है कि मीडिया को नत्था की मौत में ही क्यों दिलचस्पी है? और भी किसान मर रहे हैं, तो नंदिता कहती है, यदि वह इतना सोचता है तो उसे अपने लिए कोई और काम ढूंढऩा चाहिए।
तमाम हास्य के बीच व्यंग्य के तीखे तीर हैं। कृषि भवन में बैठा अंग्रेजीदां बंगाली अफसर दार्जिलिंग की चाय सुड़क रहा है और नत्था की हालत से चिंतित अपने युवा अफसर को कहता है कि तुम बहुत जल्दी घबरा जाते हो। यह गैंडे के खाल वाली नौकरशाही है। नत्था के गायब होने के बाद नौकरशाह, नेता, मीडिया सब अपने ठिकाने पर हैं। किसान के घर की हालत वैसी की वैसी है्र। जो पत्रकार संवेदनशील था, उसकी जान चली गई है। इस क्रूर दौर में संवेदनशील लोगों का यही हश्र हो रहा है। पीपली लाइव एक कड़वी दवा है, जिसमें मिश्री मिली हुई है तो निगलने में आसानी होती है। उस हंसी के पीछे बीमारी का दर्द,्र एक तंत्र की सड़ांध को कब तक छुपाया जा सकता है?
कहानी अच्छी है, संवाद चुटीले हैं। तंज है और शुरू से अंत तक बांधे रखने की क्षमता भी। रघुवीर यादव तो अच्छे अभिनेता हैं ही नत्था की भूमिका में ओंकार दास माणिकपुरी का काम काबिले तारीफ है। संगीत एकदम ताजातरीन है। जिसमें महंगाई डायन तो है ही। देश मेरा रंगरेज में इंडियन ओशियन बैंड का खूबसूरत म्यूजिक है। आमिर खान हैं तो इसका प्रचार भी है, वरना श्याम बेनेगल की फिल्म होती तो इतना स्टारडम कैसे आता? आमिर के बहाने ही सही, फिल्म देखने जरूर जाएं। आप निराश नहीं होंगे। परिवार के साथ जाने के इच्छुक दर्शकों के लिए सूचना है कि फिल्म में गालियां ठीक ठाक हैं, जो गांव की जुबान का ही हिस्सा हैं।

शनिवार, अगस्त 07, 2010

हौले हौले चलती प्रेम कहानी

फिल्‍म समीक्षा-आयशा
अनिल कपूर फिल्म कंपनी की फिल्म आयशा इस हफ्ते रिलीज हुई है। इसमें सोनम कपूर और अभय देओल लीड में हैं। फिल्म प्रेम कहानी है लेकिन इतनी धीमी है कि दो घंटे की फिल्म यूं लगती है, जैसे बहुत लंबी चल रही है।

आयशा एक अमीर घर की लड़की है जो मिडिल क्लास टाइप कुछ नहीं करती। उसे चलते फिरते लोगों की जोडियां बनाने में बड़ी दिलचस्पी है। उसकी सबसे खास दोस्त पिंकी उसके साथ है और बहादुरगढ से आई शेफाली के लिए वे लड़का ढूंढ रही हैं। इस भागदौड़ में शेफाली को वे आधुनिक बनाने पर तुली हैं।

अंतत: आयशा के आदतों से ऊब कर उसकी खास दोस्त उसी आदमी को प्यार करने लगती है जिसका वो अक्सर अपमान करती रहती थी। आयशा अब भी कन्फ्यूज्ड है कि वह किससे प्यार करती हैं। सोनम कपूर, इरा दुबे और आरती पुरी ज्यादातर समय स्क्रीन पर मौजूद रहती हैं और इनके बीच अभय देओल, साइरस साहूकार ओर अरूणोदय सिंह जरूरत के हिसाब से आते हैं।

निर्देशक राजश्री ओझा ने जीन ऑस्टिन के उपन्यास ऎम्मा के कथा सूत्रों से प्रेरित यह फिल्म खड़ी करने की कोशिश की है लेकिन अव्वल तो इस किस्म की पारिवारिक फिल्मों की भारतीय दर्शकों को आदत नहीं है। दूसरे, उन्होंने फिल्म को बहुत अच्छा नहीं बनाया है।

देविका भगत के स्क्रीनप्ले में झोल नहीं है लेकिन उसकी गति ही उसे कमजोर कर देती है। खासकर इंटरवल से पहले तक तो कहानी कुछ आगे बढती नहीं है। इंटरवल के बाद घटनाएं कुछ होती हैं तो एक लंबे क्लाइमैक्स ने सारी गड़बड़ कर दी। फिल्मांकन अच्छा किया गया है। जावेद अख्तर के ठीक ठाक से गीतों पर अमित त्रिवेदी का संगीत और पाश्र्व संगीत ज्यादा अच्छा है।

कुछ रूमानी क्षणों को निर्देशक ने बहुत अच्छे से हैंडल किया है लेकिन ओवरआल इसकी धीमी गति सपाट कथानक ही मारक है। आपको पता है कि रिलेशनशिप किस किस में विकसित हो सकती है लेकिन वह विकसित होने के दौरान के दृश्य गायब हैं।

कॉलेज गोइंग यूथ और किशोर यदि इसे पसंद करें तो बेहतर हैं। हमारी फिल्मों की प्रेम कहानियों को कालखंड भी छोटा सा होता है। लड़का लड़की मिलना, तनाव और प्यार हो जाना। सब कुछ सतही सा। सोनम कपूर अच्छी लगी हैं। उनके पिता की भूमिका में एमके रैना को देखना सुखद है। अभय देओल ने अंडरप्ले किया है लेकिन अपने रोल में वे फिट हैं।

और अब एक स्टुपिड बात। खबर प्रचारित की गई थी कि सोनम कूपर ने पहला ऑन स्क्रीन किस दिया है। क्लाइमैक्स से ठीक पहले अभय देओल सोनम के पलकों के ऊपरी हिस्से के चूमते हैं। फिर अपनी चुटकी में पकड़कर उसकी नाक हिलाता है, होठों के करीब आने से पहले कैमरे की आफसाइड अपना मुंह ले जाते हैं। बार बार लॉरेल का मेकअप करती सोनम के होठों पर कोई छुअन तक नहीं हैं। आप इसे किस मानें तो मान लीजिए। एक युवा दर्शक की टिप्पणी सुनिए, यार, इमरान हाशमी और अभय देओल में कुछ तो फर्क होगा ही।

शनिवार, जुलाई 31, 2010

नॉस्‍टेल्जिक असर वाली माफियाओं की मुंबई


इतिहास अपने आपको दोहराता है। कुछ कहानियां आप कभी भी चुनकर अपने ढंग से कह सकते हैं। गैँगस्टर्स की कहानियां भी ऎसी ही हैं। वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई निर्माता एकता कपूर और निर्देशक मिलन लूथरिया की ऎसी ही फिल्म है जिसमें मुंबई में माफिया गिरोहों के पनपने की कहानी है।

कहानी में ऎसा संकेत भी दिखता है कि यह हाजी मस्तान और दाऊद इब्राहिम के चरित्रों से प्रेरित हैं। अनाथ बालक सुल्तान मिर्जा एक दिन मुंबई पर राज करने लगता है और उसके पास काम मांगने आया शोएब खान एक दिन उसका सबसे भरोसेमंद आदमी बन जाता है। सुल्तान एक दरियादिल आदमी है, जिसे आप दीवार और मुकद्दर का सिकंदर के अमिताभ, धर्मात्मा के विनोद खन्ना, दयावान के फिरोज खान आदि से मिला सकते हैं। यहां तक कि वह मां को परेशान करने वाले बेटे को भी पीट देता है। तस्कर है लेकिन उन्हीं चीजों की तस्करी करता है जिनके लिए सरकार मना करती है, उनकी नहीं जिनके लिए जमीर मना करता है।

सुल्तान को भी लाल बत्ती का लालच है और दिल्ली में मंत्री से डील करने के लिए जाते समय मुंबई का काम शोएब खान को सौंप गए। शोएब की महत्वाकांक्षाएं ज्यादा बड़ी हैं और इसकी कीमत सुल्तान को अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है। सुल्तान कभी नहीं चाहता था कि शहर में गंदगी फैले। लेकिन शोएब ने खून खराबा आम कर दिया। कहानी एक पुलिस अफसर विल्सन के फ्लैश बैक में चलती है जिसने इस अपराध बोध में आत्महत्या करने की कोशिश की कि वह इस शहर को तबाही तक पहुंचाने के लिए जिम्मेदार बना। वह जानता था कि माफियाओं के गैर कानूनी कामों को रोका जा सकता था लेकिन वह आपसी गैंगवार से उन्हें मारना चाहता था। आज मार्च 93 के दंगों का भगौड़ा हमारी पकड़ में नहीं है।

कुल मिलाकर फिल्म एक पुरानी मुंबई की सैर कराती है और आपको ऊब नहीं होती। लेकिन याद रहे यह सत्या या कंपनी जैसी फिल्म नहीं है। यहां डॉन गंुडा होने के बावजूद मसीहा है। यहां वास्तव का रघु भी नहीं है, जो अपने किए पर एक अंदरूनी यात्रा करता है और पछताता है। प्यार के दृश्यों को भी अच्छा फिल्माया है जब अपनी पसंदीदा अभिनेत्री के लिए सुल्तान मिर्जा एक अमरूद चार सौ रूपए में खरीदकर ले गए। अजय देवगन ने जानदार काम किया है।

इरशाद कामिल के गीत अदभुत हैं और प्रीतम का संगीत भी लोकप्रिय हो ही चुका है। सबसे सुखद अनुभव यही है कि पुरानी सी दिखती मुंबई, पुराने पहनावे, पुराने गहने, सब अच्छे लगते हैं। मिलन लूथरिया की पुरानी फिल्मों से यह बेहतर है लेकिन इसी विषय पर बनी कई और फिल्मों से कमजोर। सत्तर के दशक के डॉयलॉग्स अपने जादू के साथ हैं। जैसे मैं कोयले की खदान में मशाल से रोशनी करने चला था, खदान ही जल उठी। या गुफा में चाहे कितना ही अंधेरा हो किनारे पर रोशनी जरूर होती है। तो एक नॉस्टेल्जिक अनुभव के लिए आप फिल्म देख सकते हैं। यह एक लोकप्रिय मसाला फिल्म है। माफिया पर बनी क्लासिक फिल्म नहीं।

शनिवार, जुलाई 10, 2010

फार्मूला कहानी में किस्मत का छौंक

फिल्‍म समीक्षा मिलेंगे मिलेंगे
‘मिलेंगे मिलेंगे’ इस हफ्ते रिलीज हुई है। फिल्म के निर्देशक सतीश कौशिक हैं और निर्माता बोनी कपूर। शाहिद कपूर और करीना कपूर की ऑफ स्क्रीन प्रेमकहानी खत्म हो चुकी है और यह फिल्म उसी समय बननी शुरू हुई थी जब दोनों के करीबी रिश्ते थे। जाहिर है इस जोड़ी के खत्म हो चुके रोमांस की वजह से फिल्म को कोई फायदा होगा इसकी ज्यादा अपेक्षा नहीं है।
प्रिया नाम की एक लडक़ी को एक टेरोकार्ड रीडर कहती है कि उसे उसके सपनों का राजकुमार विदेश में किसी समंदर के किनारे महीने की सात तारीख को सुबह सुबह सात रंग के कपड़े पहने मिलेगा। यह बातें उसने डायरी में लिखी और गलती से उसके कमरे घुसे लडक़े इम्मी ने वह डायरी चुरा ली। उसी क्रम से वह समंदर किनारे मिला और प्रिया को उससे प्यार हो गया। अचानक ही प्रिया की चुराई हुई डायरी की फोटोकॉपी इम्मी के कमरे से उसे मिल जाती है। वह समझती है कि उसके साथ धोखा हुआ है। बात बिगड़ जाती है। किस्मत ने ही उन्हें मिलाया है तो वह उसे चुनौती देती है, पचास के नोट पर लडक़े के टेलीफोन नंबर लिखकर और उससे किताब खरीदकर उस किताब पर लडक़ी ने अपने नंबर लिख दिए। किताब उसने किसी और शहर में बुकस्टोर को दे दी। ये जिस दिन एक दूसरे को मिल जाएंगे तो मान लेंगे कि किस्मत हमें मिलाएगी। बाद में दोनों एक दूसरे को ढूंढ़ रहे हैं। सूचना संजाल के आज के जमाने में दिल्ली मुंबई में घूम रहे प्रेमी एक दूसरे को ढूंढ नहीं पा रहे हैं, यह बात जरा हजम नहीं होती। लेकिन शाहिद करीना के फैन चाहें तो इस फिल्म को भी देख सकते हैं।
एक पुराने फार्मूला कहानी पर बनी इस औसत प्रेमकथा कोई चामत्कारिक प्रदर्शन की उम्मीद कम ही है। हालांकि फिल्म को संपादन के लिहाज से चुस्त किया गया है लेकिन डबिंग और कथा प्रवाह की अपनी समस्याएं हैं। फिल्म के बैकग्राउंड स्कोर को भी समकालीन करने की कोशिश की गई है लेकिन कमजोर कहानी ने सब गड़बड़ कर दिया है। हां, करीना और शाहिद बहुत खूबसूरत लगे हैं। वे तरोताजा दिख रहे हैं। हिमेश का संगीत अब आउटडेटेड लग रहा है।

फिल्म: रेड अलर्ट

नक्सलवाद के इर्द गिर्द मानवीय कहानी

खासकर उस समय जब देश के कई जिल नक्सलवाद की समस्या से ग्रस्त है, निर्माता टीपी अग्रवाल और निर्देशक अनंत महादेवन की फिल्म ‘रेड अलर्ट’ नक्सलवाद के भीतर फंसे एक आदमी की कहानी के बहाने उसके मानवीय अमानवीय चेहरे पर बात करते हैं। फिल्म प्रकारांतर से गरीब आदमी के नक्सली बनने और अपने बच्चों के भविष्य को लेकर आशंकित एक पिता की कहानी है। वह पहले ही दिन खाना बनाकर नक्सली कैंप में पहुंचाता है लेकिन पुलिस उसका पीछा करते हुए कैंप पर हमला कर देती है। उसके बाद वह कैंप में फंस जाता है। वहां प्रशिक्षण के दौरान वह लगातार अपने परिवार की चिंता करता रहता है। अतंत: एक दिन वह अपने कैंप कमांडर की हत्या कर वहां से भाग छूटता है। उसके बाद वह सरकारी गवाह बनता है और अपने ही साथियों को मरवाने में सहयोग करता है। इस बहाने निर्देशक ने बताया है कि किस तरह नक्सलियों को पकडऩे के बहाने पुलिस सीधे सादे आम लोगों पर अत्याचार करती है। उन पर दोहरी मार है। प्रकारांतर से नक्सलियों के तरफदारी करते हुए प्रतीत होते हैं, लेकिन उनके सिस्टम पर भी तंज है। जब उनकी टुकड़ी के सैन्य मुखिया बने आशीष विद्यार्थी एक पत्रकार को यह कहते हैं कि हमने विकास कार्य भी कराएं हैं। लोगों को बेहतर पैसा दे रहे हैं, उसी समय कैंप में आया नया नक्सली आकर यह कहता है कि आपने वादा किया था कि महीने के पंद्रह सौ मिलेंगे और अभी तक नहीं मिले।
नक्सलियों के नियम कायदे और भीतरी अंतद्वंद्व को फिल्म दिखाती है। फिल्म को और बेहतर किया जा सकता था। फिल्म के कुछ हिस्से बहुत ही अच्छे हैं। संवाद चुस्त हैं। लगातार किताबें पढने वाले नक्सली नेता से जब नरसिम्हा पूछता है कि अन्ना आप किताबें क्यों पढ़ते रहते हैं,तो वह कहता है, इनमें गोली से भी ज्यादा ताकत होती है। एक अच्छा दृश्य तब बनता है जब स्कूल में पुलिस के छिपाए हथियारों को लूटने के लिए नक्सली
सुनील शेट्टी ने ठीक काम किया है। आशीष विद्यार्थी, सीमा बिस्वास, विनादे खन्ना, सुनील सिन्हा और भाग्य श्री मुख्य भूमिकाओं में हैं।

शुक्रवार, जुलाई 02, 2010

अपनों पै करण, गैरों पै सितम



फिल्म समीक्षा: आय हेट लव स्टोरीज

-रामकुमार सिंह
करण जौहर के बैनर से रिलीज इस हफ्ते रिलीज ‘आय हेट लव स्टोरीज’ में लव और स्टोरीज की स्पेलिंग एसएमएस की जुबान वाली है। अंदाजा था कि यह उन दर्शकों के लिए हैं जिन्हें प्यार और भाषा दोनों के ही व्याकरण से खास फर्क नहीं पड़ता। अव्वल तो शीर्षक के बाद ही निर्देशक पुनीत मल्होत्रा सारे इंटरव्यूज में स्पष्टीकरण दे रहे थे कि फिल्म प्यार के खिलाफ नहीं है। उनकी बात सही है यह ना किसी के पक्ष में है ना किसी के खिलाफ। यह करण जौहर ब्रांड इश्किया भावुकताभरे सिनेमा का एक कमजोर ओर सामान्य संस्करण है। निर्देशक पुनीत मल्होत्रा करण के सहायक रहे हैं और वे नामी फैशन डिजायनर मनीष मल्होत्रा के रिश्‍तेदार हैं। जाहिर है, अपनों पर मेहरबान करण दर्शकों का खयाल कैसे रखते?
कहानी की पृष्ठभूमि करण जौहर ओर पुनीत मल्होत्रा के आत्मकथ्य जैसी है जिसमें प्रेम कहानियों पर फिल्म बनाने वाले वीर कपूर नाम के निर्देशक के सहायक जे या जय को प्रेम कहानियों में भरोसा नहीं है। उसकी आर्ट डायरेक्टर सिमरन का बॉयफे्रेंड राज है। सिमरन को बॉलीवुड टाइप प्रेम कहानियों में मजा आता है। वह जिंदगी को भी ऐसे ही रोमांटिक तरीके से देखती है। जय के साथ उल्टा है। जय और सिमरन को साथ काम करते हुए दोस्ती होती है। प्यार में बदलती है। इकतरफा प्यार में। सिमरन की तरफ से। वह राज को छोडऩा चाहती है लेकिन इधर जय ने मना कर दिया कि वह तो प्रेम कहानियों में यकीन ही नहीं करता। इंटरवल के बाद जय को लगता है कि वह सिमरन के बिना नहीं रह सकता और प्रेम प्रस्ताव सिमरन तक ले जाता है। छोटा मोटा चालू टाइप का ट्विस्ट है। यह बताने की जरूरत है नहीं कि सिमरन किसकी हुई? ऑफ कोर्स जय की।
फिल्म के सारे फ्रेम वाइन, बीयर, किताबें, फिल्मी सैट से भरे पूरे दिखते हैं और अच्छे लगते हैं। बहुत ही बोलती हुई फिल्म है। हर पात्र के पास बहुत सारी फालतू बातें हैं। हमारी नई पीढ़ी इतनी फालतू बातें नहीं करती। शॉर्ट एंड स्वीट बातें करती हैं। उनके मैसेज बॉक्स में बड़े शब्दों के भी छोटे रूप हैं। लेकिन इस फिल्म के पात्र लगातार बोलते ही रहते हैं। पूरी फिल्म में पीछे वॉइसओवर ने रही सही कसर पूरी कर दी। अभी तक की फिल्में देखकर इमरान खान की तारीफ सिर्फ इसीलिए नहीं की जा सकती कि वह आमिर का भतीजा है। उसके चेहरे पर अभिनेता वाले भाव ही नहीं आते हैं। सोनम बेशक अच्छी लगी हैं। खिली खिली सी। इतने सारे डायलॉग हैं कि आपको फुरसत ही नहीं है, कि फ्रेम और लोकेशन या एक्टर्स की खूबसूरती देखें।
मुमकिन है यह किशारों और युवाओं के बीच वाले उन सारे दर्शकों के अच्छी लगे, जो हर चीज को लेकर संदेह की स्थिति में रहते हैं। लेकिन कुछेक हिस्सों को छोड़ दें तो फिल्म के संवाद और कहानी जादुई नहीं है। यह एक साधारण सी प्रेम कहानी है। इस पीढ़ी को इससे बेहतर अनुराग कश्यप और इम्तियाज अली समझ रहे हैं। वे अलग प्रेम कहानियां कह रहे हैं। पुनीत मल्होत्रा में वो बात नहीं। विशाल शेखर के गाने औसत से बेहतर हैं। इनमें भी टाइटल ट्रेक और जब मिला तू ज्यादा अच्छे हैं। सामने कोई बड़ी रिलीज नहीं है, इसका फायदा शायद फिल्म के कारोबार को मिले।

रविवार, जून 20, 2010

पिता से अलग पुत्रों की दुनिया



यह कोई अठारह साल पुरानी बात है, जब पहली बार मैंने कॉलेज की पढाई के लिए गांव छोडक़र शहर का रुख किया था। पिताजी मेेरे साथ थे। वे चाहते थे कि जिस घर मैं रुकने वाला हूं, वहां बस स्टैंड से उतरने के बाद सिटी बस से ही चला जाए। मेरी जिद पर उन्होंने ऑटो वाले को बस के मुकाबले दस गुना किराया दिया। मैं नया था। गलत रास्ते पर ऑटोवाले को ले गया। तय रकम से उसने पांच रुपए ज्यादा लिए। पिताजी ने अनमने भाव से दिए लेकिन ऑटो वाले के जाते ही मेरी खैर नहीं थी। मुझे पांच रुपए की कीमत पर लंबा व्याख्यान सुनना पड़ा कि शहर में घुसते ही यह हाल है, पता नहीं आने वाले दिनों में मेरे खून-पसीने की कमाई को कैसे लुटाओगे?
हर पिता की इच्छा होती है, उसकी काली-सफेद कमाई का उपभोग केवल उसका पुत्र ही करे लेकिन वह कतई नहीं चाहता कि वह उसका दुरुपयोग करे। समस्या यहीं से शुरू होती है। जो पिता की नजर में दुरुपयोग है, वह पुत्र की नजर में नहीं। पिता बस से आकर पचास रुपए काम पांच रुपए में निकाल रहे थे और मैंने ऑटोवाले को पांच रुपए की तो टिप ही दे दी।
अगले दिन पिता गांव लौट गए और पहला पुण्य काम मैंने किया कि उन्हें बस में बिठाते ही लक्ष्मी मंदिर में टिकट खिडक़ी से टिकट खरीदी और घुस गए फिल्मी दुनिया में।
इंजीनियरिंग पढने आए उदयपुर के मेरे मित्र को पहली बार पिता ही छोडऩे आए। तमाम हिदायतें देने के बाद ज्योंही पिताजी वापस गए, उन्होंने तुरंत शराब की दुकान तलाशी और गटका ली एक बीयर। पिताजी की हिदायतों की पोटली चुपके से उनके ही सूटकेस में उन्होंने वापस भेज दी थी।
पिताओं के तमाम प्यार और देखभाल के बावजूद पुत्रों की एक अपनी दुनिया है, जहां एक उम्र के बाद वे पिता की घुसपैठ बर्दाश्त नहीं करते। कुछ पिता समझदार होते हैं। उस दुनिया से खुद को बाहर कर लेते हैं।
मेरे एक मित्र को किसी ने खबर दी कि उनके बेटे को कल उन्होंने सिगरेट पीते देखा था। उन्हें ताज्जुब नहीं हुआ। अगले दिन उन्होंने नाश्ते की टेबल पर बच्चे को कहा, ‘छोटी उम्र में सिगरेट पीने से फेफड़े खराब हो जाते हैं, बाकी तुम्हारी मर्जी।’ बालक ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, उस मित्र ने मुझे बताया कि मैं मान ही नहीं सकता कि उसने सिगरेट पीनी बंद कर दी होगी, मैं भी तो ऐसा ही था उसकी उम्र में।
विख्यात लेखक काफ्का ने अपने पिता के व्यवहार को लेकर उन्हें एक लंबी चिट्ठी लिखी थी किस तरह उनकी हिदायतें उसे नागवार गुजरती थीं और उसे गुस्सा आता था। यह पत्र एक साहित्यिक दस्तावेज है। ज्यादातर पुत्रों के हालात यही हैं।
पिता होने के दुख ही यही हैं कि अपने ही घर में दो पीढियों की मौजूदगी में वह पिसता है। जो उसे सही लगता है, वह बेटा नहीं मानता। वह जो कर रहा होता है, उसे उसके पिता सही नहीं मानते। दादा होने की अवस्था में आदमी पुन: आधुनिक होता है और उसे अपने पोते की बातें अपेक्षाकृत सही लग रही होती हैं। समस्या यह है कि उसे पता होता है कि जो घटित हो रहा है, वो विकास और सोच की सतत प्रक्रिया होती है, यदि वह उसे नहीं भोगेगा तो जिंदगी हाथ से खिसक ही रही है, किसी भी दिन सांसों का चिराग बुझ जाएगा। आज का पिता कल का दादा बनेगा और उसे अपने पोते की बातें ज्यादा ठीक लगेंगी। गांव में इसीलिए लोग कहते हैं, मूलधन से ज्यादा प्यारा ब्याज होता है। दादा के लिए पिता मूलधन है, पोता ब्याज है। पिता पुत्र को हमेशा दूर रखता है, पोते को हमेशा करीब रखना चाहता है। कितनी ही फिल्में, कितने ही स्कॉलर और समाजविज्ञानी यह बात समझा चुके हैं कि पिता को अपनी अपेक्षाओं का बोझ पुत्र पर नहीं लादना चाहिए। पिता के कंधे हमेशा मजबूत होते हैं, वह पूरे परिवार का बोझ उठाता है। पुत्र के कंधे इतने मजबूत नहीं होते, वह बोझ लेकर चल ही नहीं सकता है। अंगुली पकडऩे के दिनों से छुटकारा पाकर वह उच्छृंखल होकर अपने सपनों की एक दुनिया बनाना चाहता है, जहां उसके दोस्त, उनकी प्रेम कहानियां, अलमस्ती और दुनिया को जूते की नोंक पर रखने का रवैया लिए झूमते रहते हैं। पिता बनने के बाद वे भी उसी तरह अपेक्षाओं और जिम्मेदारियों की पोटली का बोझ महसूस करने लगते हैं। ऐसे कितने ही मेरे मित्र हैं जो यूनिवर्सिटी कॉलेज के दिनों में प्रोफेसर्स की नाक में दम किए रहते थे, आज सुबह शाम मंदिरों में सिर नवाते हैं और उम्मीद करते हैं कि उनका पुत्र वह सब नहीं करे, जो आवारगी उन्होंने अपने कॉलेज के दिनों में छानी। यह कैसे मुमकिन है?
नए जमाने के पिता अपने पुत्रों से मित्रवत व्यवहार की बात करते हैं लेकिन यह तब तक ही संभव है, जब तक उनके बेटे वयस्क नहीं हुए हैं। वयस्क पुत्र स्वयं ही कहते हैं, उनके इतने बुरे दिन नहीं आए कि पिता की उम्र के दोस्त रखने पड़ें। मैं इस पूरे दौर में पुत्रों के साथ हूं। पिताओं से सहाुनभूति दर्शा सकता हूं, उनके लिए दुआ कर सकता हूं कि वे दादा बनने का इंतजार करें ताकि अपने विचारों को आधुनिक बनाने का साहस जुटा सकें। आमीन।

शनिवार, जून 19, 2010

सियासी साये में पायरेसी





पायरेसी का मतलब है कि किसी आदमी का किसी भी तरह का श्रम कोई उत्पाद को तैयार करने में लगा उस तक उसका हक पहुंचाए बिना उसका उपभोग करना या आनंद उठाना। भाजपा की बाड़ेबंदी में जो लोग फिल्म ‘राजनीति’ का पायरेटेड वर्जन देख रहे थे, उनमें कुछ को तो यह भान ही नहीं था कि वे कानून का उल्लंघन कर रहे हैं, जिन लोगों को हम चुनकर भेजते हैं उनमें ज्यादातर इस गलतफहमी के शिकार हैं कि वे तो कानून बनाते हैं,लिहाजा उनकी कोई भी हरकत गैर-कानूनी कैसे हो सकती है? लेकिन सच यही है कि यही लोग सबसे ज्यादा गैर-जिम्मेदारी से कानून का मखौल उड़ाते हैं। यह कोई चामत्कारिक और नई बात भी नहीं है जो मैं लिख रहा हूं, क्योंकि हम सबने यह मान ही लिया है कि किसी भी बात पर एक बार हंगामा होना, उस पर बयानबाजी होना और मामले की लीपापोती हो जाना हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी विशेषता है, यदि आप इस विशेषता से अनभिज्ञ हैं तो देखते जाइए कि इस मामले पर भी ऐसा ही होगा। और तो और जिस भोपाल गैस त्रासदी पर पूरे देश का मीडिया शोर शराबा कर रहा है, उसकी परिणति भी लीपापोती में ही होगी और उसकी प्रक्रिया शुरू हो चुकी है।
विषयांतर ना करते हुए पायरेसी पर आते हैं। पिछले दिनों की ही एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में कोई 65 फीसदी सॉफ्टवेयर पॉयरेटेड इस्तेमाल होते हैं और इनकी बाजार में कीमत करीब दो अरब डॉलर के आसपास है। दुनिया के कई छोटे देशों की अर्थव्यवस्था भी इतनी बड़ी नहीं है। इंटरनेट के जमाने में इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि कहां कहां इस तरह की चोरी हो रही है लेकिन अभी तक कोई उल्लेखनीय कार्रवाई नहीं हुई। कारण साफ है। पायरेसी एक कुटीर उद्योग की तरह शुरू होकर एक वृहद उद्योग बन गई है। इसकी आपराधिक शृंखला पूरी दुनिया में फैली है। यहां तक अमेरिका और जापान में जो सबसे कम पायरेसी वाले देश माने जाते हैं, वहां भी पिछले साल कोई बीस इक्कीस प्रतिशत सॉफ्टवेयर पायरेटेड काम लिए जा रहे हैं।
अब सिनेमा पर आइए। आप अपने पड़ोस के किसी भी वीडियो पार्लर में जाइए। आपको तीस रुपए में छह फिल्मों का सैट मिलेगा जिसमें कम से कम तीन या चार फिल्मों के प्रिंट की गुणवत्ता भी ठीकठाक होगी। आप आंख बंद करके किसी भी पार्लर में घुसिए वहां यही दृश्य है। जयपुर में ही कम्प्यूटर और सीडीज के लिए एक विख्याात एक मॉल में आपको क्या नहीं मिलेगा? आप इच्छा व्यक्त करिए। बॉलीवुड हॉलीवुड का ताजा तरीन माल। इस पूरे तंत्र को हिलाने की इच्छाशक्ति किसी में भी इसलिए नहीं है कि वह एक समांतर अर्थव्यवस्था है जिसमें वीडियो पार्लर के मालिक से लेकर, इस माल ढुलाई में लगे लोग और संबंधित इलाके की पुलिस तक शामिल रहती है।
प्रकाश झा जयपुर में स्क्रीनिंग से इतने दुखी हो रहे हैं। उन्हें चार कदम चलकर अंधेरी स्टेशन पहुंचना चाहिए। वहां एक के बाद एक कतार से ठेले लगे हैं, जिन पर आपकी मनचाही फिल्म आपके मनचाहे दामों पर मिल जाएगी। मैंने मेरे एक मित्र को फोन करके सुनिश्चित किया है, वहां राजनीति की डीवीडी भी उपलब्ध है। अंधेरी, गोरेगांव और मलाड के इन ठेलों के आसपास ही पुलिस की चौकियां रहती हैं। लोग सब्जियों की तरह विश्व और भारतीय सिनेमा का मोलभाव करते हैं,जिसका रत्तीभर भी निर्माता तक नहीं पहुंचता। इंडस्ट्री से जुड़े लोग सांगठनिक रूप से इसका विरोध करते रहे हैं लेकिन कई ऐसे भी हैं, जिनके घर यही पायरेटेड डीवीडी का मालवाहक आदमी भरा हुआ बैग लेकर पहुंंचता है और होम डिलीवरी करता है। तो सबसे बड़ा अड्डा तो मुंबई में ही है। तमाम सुरक्षा कवचों के बीच देश की प्रतिष्ठित लैब का जनरल मैनेजर ही एक फिल्म की पायरेसी के लिए जिम्मेदार माना गया था। अब यह बड़ी पूंजी का बाजार हो गया है। मोटे तौर पर देखें तो यूं लगता है कि आम आदमी के पास पहुंचने वाली यह सस्ती चीजें उसके लिए कम से कम फायदेमंद हैं लेकिन समस्या यह है बहुत सारे असामाजिक तत्त्वों के हाथ में इस फर्जी और कुटिल उद्योग की चाबी है। यह केवल निर्माता का ही नुकसान नहीं बल्कि हमें यह भी नहीं पता कि इस अवैध कारोबार की यह बेनामी पूंजी आखिर कहां जाकर किस काम आ रही है?
कुछ कंपनियों ने सस्ती डीवीडी निकालकर पायरेसी उद्योग को ढीला करने की कोशिश भी की लेकिन वे उससे भी सस्ते उत्पाद लेकर आ गए। कंपनी ने जब एक फिल्म की डीवीडी पैंंतीस रुपए में देना शुरू किया तो पायरेटेड आपको पच्चीस से तीस रुपए में मिलने लगी और उसमें छह फिल्में शामिल हैं। आखिर बाजार की इस प्रतिस्पर्धा में कोई कब तक लड़ सकता है, जब हमारे प्रशासनिक तंत्र के पास पायरेसी रोकने की कोई इच्छाशक्ति और सख्त कानून का अभाव हो।
ना केवल सॉफ्टवेयर और सिनेमा बल्कि किताबें भी भीषण रूप से पायरेसी की शिकार हैं। कितनी ही बेस्ट सेलर आपको दिल्ली और मुंबई में मूल किताब की बीस प्रतिशत कीमत पर आसानी से उपलब्ध हैं। अरुंधति रॉय, विक्रम सेठ, किरण देसाई, अरविंद अडिगा, जेके रॉलिंग, चेतन भगत सबकी किताबें आपको यूं की यूं फोटोकॉपी की हुई खुलेआम बिकती मिल जाएंगी।
तो पायरेटेड फिल्म देखने वाले नेताओं का अपराध इसीलिए बहुत बड़ा है कि जब पूरे बाजार में इस कदर पायरेसी छाई है। इन्हें रोकने की कोशिश करनी चाहिए, उस समय ये भी उसी भीड़ और उस फर्जी उद्योग का हिस्सा बन रहे हैं, जिसका अंतत: नुकसान हमारी अर्थव्यवस्था को है। प्रकाश झा कह ही चुके हैं कि उनसे कहा जाता तो वे वैसे ही स्पेशल स्क्रीनिंग करवा देते, पायरेटेड फिल्म देखकर नेताओं ने ठीक नहीं किया। इसलिए मुझे लगता है इन्हें माफ कर देना कतई सही नहीं है। लेकिन इनको सजा मिलने का भी क्या कोई अर्थ है जब इतने बड़े पायरेसी उद्योग को हिलाने में ये रत्तीभर भी मददगार नहीं होगी। आखिर बुराई की जड़ों पर प्रहार करना कब सीखेंगे? आखिर इन नेताओं को इतनी आसानी से डीवीडी ना मिल पाए, यह व्यवस्था कब होगी?

(राजस्‍थान पत्रिका में संपादकीय पेज पर 19 जून 2010 को प्रकाशित)

शुक्रवार, जून 18, 2010

सीता की दुविधा, रामकथा का नया रूप


फिल्म समीक्षा: रावण

निर्देशक मणिरत्नम की फिल्म ‘रावण’ दो घंटे बीस मिनट चलने वाला एक ड्रामा है, जिसकी कहानी के कुछ हिस्सों से आप परिचित हैं, कुछ नए हैं। लाल माटी वह एरिया है जहां वीरा की सत्ता है। कुछ के लिए वह रॉबिनहुड और कुछ के लिए रावण है। इलाके में जो नया एसपी देव आया है उसकी बीवी का अपहरण उसने किया है। इसका कारण आधी फिल्म के बाद आपको समझ में आता है और नए दौर की इस रामकथा का पन्ने खुलते है। बीरा की मुंहबोली बहन के साथ पुलिस की ज्यादती और उसका प्रतिशोध। क्या रामायण हमें इस नजरिए से पढाई गई कि किसी की बहन के नाक कान काट लेने की परिणति सीता के अपहरण में हुई। असल में बार बार हमें बताया गया कि राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। जैसा कि फिल्म की नायिका रागिनी कहती है, ‘देव, भगवान हैं।’ जब तक वह अपने देव का इंतजार रही है, तो वीरा की बहन के साथ हुई ज्यादती को लेकर वह दुविधा में है कि देव सही है कि वीरा, लेकिन जब वीरा को मारने के लिए देव ने उसे मोहरा बनाया, तो उसकी दुविधा खत्म होती है और वह वीरा और देव गोली के बीच में तनकर खड़ी हो जाती है। वीरा उसे धकेलते हुए कहता है कि हटो रागिनी, चलाने दो गोली ताकि दुनिया को पता चले कि असली रावण कौन है? रामकथा में जहां राम के गलत होने के सबूत मिलते हैं, वहां कवि ने मदद ली कि रावण का मोक्ष राम के ही हाथों होना है, इसलिए यह सब लीला है। चौदह दिन वीरा की हिरासत में रहकर लौटी रागिनी को जब उसका पति शक की नजर से देखता है तो उसका आत्म-सम्मान दांव पर है।

फिल्म के सारे मुख्य पात्र रामकथा से मिलाए जा सकते हैं। फोरेस्ट गार्ड गोविंदा हनुमान, पुलिस अफसर की भूमिका में निखिल द्विवेदी लक्ष्मण, रावण के दो भाई, रागिनी में सीता की छवि दिखती है। शांति का संदेश लेकर गए वीरा के विभीषण भाई को देव मार देता है।
असल में यह आधुनिक रामकथा है, जहां असली सत्ता जिन लोगों के हाथ में हैं। उन्हें हम राम समझते हैं वे सीधे सादे लोगों को रावण बनाकर मारने के बहाने ढूंढ़ते हैं। यहां वीरा में हल्का सा चेहरा एक नक्सली नेता का उभरता है, जो अपने ही समुदाय में लोकप्रिय है लेकिन रोजा, युवा जैसे राजनीतिक कथासूत्र यहां से गायब हैं। अंतिम विजय राम की ही होती है, जिसे हमारा दर्शक भी मंजूर करता है। अद्भुत फिल्मांकन ही पैसा वसूल है। हालांकि फिल्मों के चरित्रों को गहरा करने की गुंजाइश बनती थी। बहुत बातें अनकही रहीं। अभिषेक कुछ दृश्यों में तो बेहतरीन लगे हैं लेकिन कई जगह उनकी पोल भी खुलती है। विक्रम ठीक हैं। गोविंदा और रविकिशन की प्रतिभा का दोहन नहीं हुआ। रहमान का संगीत ओर गुलजार के गीत पहले ही औसत लोकप्रियता हासिल कर चुके हैं। इसके बावजूद फिल्म में लगातार एक ड्रामा है और वह अच्छी लगती है। इस आधुनिक रामायण को आप सपरिवार देख सकते हैं।

सोमवार, जून 07, 2010

उस खोई हुई बात की खोज


कितनी ही बार इस सीजन में आम खाते हुए आप सोचते होंगे कि आम की मिठास अब वैसी नहीं रही जो पहले हुआ करती थी। होली खेलते हुए भी हम कहते हैं, होली खेलने में अब वो बात नहीं। और तो और गोभी और आलू की सब्जी तक के स्वाद से हमें शिकायत है कि अब वो बात नहीं रही। आखिर वह सब क्या था, जो हुआ करता था। उलझन होती है कि हम ही बदल गए हैं या होली, आम, सब्जियां, हवाएं सब बदल गई हैं। हर साल यही कहते हैं, ऎसी गर्मी कभी नहीं देखी। रही सही कसर मौसम विभाग के वे आंकड़े पूरी कर देते हैं, जिन्हें खुद अपना मौसम भी पता नहीं होता। कुछ हद तक आशंकाएं सही भी हो सकती हैं लेकिन उससे भी बड़ी वजह है कि हमारी आदतें तेजी से बदल रही हैं। हमने उत्सवप्रियता, खान-पान और रहन-सहन को स्टेटस सिंबल बना लिया है। अपने चारों तरफ तकनीक और आधुनिकता की एक ऎसी लौह आवरण वाली चादर लपेट ली है, जिसमें हम किसी का झांकना बर्दाश्त नहीं कर सकते। याद करिए, आपने पिछली बार कब अपने पड़ोसी का पीपी नंबर देकर किसी को बताया हो कि मेरा फोन बंद या खराब हो तो वहां संपर्क करें। बहुतों को तो पड़ोसी के फोन नंबर भी याद नहीं। हमें उनके दुख से उतनी तकलीफ नहीं, जितनी उनके सुख से ईष्र्या होती है। पुरानी पीढ़ी के लोग कैसे भूल सकते हैं, जब मोहल्ले के एक ही टीवी पर चित्रहार देखने का इंतजार होता था। जिस घर में टीवी होता था, वह अपना टीवी बैडरूम में नहीं रखता था। घर के सबसे बड़े कमरे में उसे रखता था। कमरा छोटा होता तो वह ऎसे कोने में रखते कि दरवाजा खुला रहे तो चौक मे बैठे लोग भी टीवी का सुख ले सकें। श्वेत-श्याम पर्दे पर नाचते उन अभिनेता अभिनेत्रियों को देखकर जो मनोरंजन होता था, वह आज के रंगीन एलसीडी, एलईडी पर्दे से गायब दिखता है। कितने ही बुजुर्ग और अधेड़ गृहिणियां पूरा दिन टीवी के सामने बैठे हुए निरर्थक बिताती हैं और सोने से पहले चर्चा करती हैं, "टीवी के कार्यक्रमों में अब वो बात नहीं रही जो पहले हुआ करती थी।" शादी से सात दिन पहले "बान" यानी बिंदायकजी बिठा दिए जाते। गांव के सारे करीबी लोग दूल्हे, बिंदायक और घरवालों को "बनोरी" के लिए बुलाया करते। हम लोगों को हलवा पूरी खाने के इस मौके का इंतजार रहता था। सात दिन तक मीठा खाने से एक ऎसी ऊब होती थी कि सालभर का कोटा पूरा। बान के बाद औरतें देर रात तक बनोरी गाया करती थीं। उन गीतों की लय पर नाच होता। युवा लड़कियां और वधुएं नए गीतों का सृजन करती और बुजुगोंü में सुनाकर स्वीकृति पाती थीं जैसे नया कवि वरिष्ठों की तरफ उम्मीद से देखता है, लेकिन अब शहर और गांव में "बान" एक रस्म भर रह गया है। सारा रोमांच अब गायब हो गया। पैसा खर्च हो रहा है। दिखावा हो रहा है। रोमांच के मायने बदल गए हैं।

याद है जिन घरों में प्रिया स्कूटर, हमारा बजाज होता था, वे कितने अलग और असरदार माने जाते थे। अब हमें कोई असरदार लगता ही नहीं। नए अमीरों में भी वो बात नहीं। उस पूंजी की कीमत थी क्योंकि हमें उसके सूत्र पता थे कि वह कहां से आ रही है। अब आ रही पूंजी आवारा है। इसके खतरे ज्यादा हैं। दिखावा-लालच ज्यादा है। प्रेमिका तक दिल की बात कहने के लिए रिसर्च करनी होती थी कि कैसे कही जाए? फोन नहीं, पीपी नंबर नहीं। पहले सहेली को भरोसे में लो, फिर मिलने की जगह तय हो। चेहरे और हाव भाव से अंदाजा लगाओ कि प्यार है भी कि मियां, यूं ही मरे जा रहे हो। अब प्रेमिका तक पहुंचने में बाथरूम तक जाने से कम समय लगता है। स्पीड डेटिंग हो गई। क्या अब प्रेम में भी वो बात नहीं रही जो पहले हुआ करती थी। खाने में इतनी नई रेसिपीज शामिल कर ली हैं कि दही अब दही नहीं रहा, आलू में आलू कम है उससे बनने वाली रेसिपी ज्यादा। रोटी का विकल्प बेस्वाद ब्रेड बन रही है। मैकडॉनल्ड के ऊबाऊ बर्गर का सेलिब्रेशन है। गन्ने के रस वाले को हमने जीवन से बेदखल कर दिया है। हमने अपनी सरहदें खींच लीं और अब दम घुट रहा है तो कहते हैं, किसी भी चीज में अब वो बात नहीं रही जो पहले हुआ करती थी। और अंत में, इस सारी नाउम्मीदी के बीच मेरे ज्यादातर मित्र यह मानते हैं कि रेखा की खूबसूरती और गुलजार के गीतों में अब भी वही बात है। अपने आसपास आप भी ढूंढिए, बची हुई वही दुनिया जिसके लिए हम कहें, वाह, इसमें तो आज भी वही बात है।

शुक्रवार, जून 04, 2010

सत्तालोभी अराजक धूसर चेहरे


फिल्म समीक्षा: राजनीति
-रामकुमार सिंह
प्रकाश झा की फिल्म ‘राजनीति’ का गांधी परिवार से कोई लेना देना नहीं है। सारे पात्रों का कथा-सूत्र महाभारत के करीब है। नीति-अनीति, लालच और मूल्यबोध में वे ‘गॉडफादर’ के पात्रों से मिलते हैं। अर्जुन बने रणबीर कपूर और कृष्ण बने नाना पाटेकर भी सत्य की लड़ाई नहीं लड़ रहे, बल्कि एक परिवार की राजनीतिक विरासत को हथियाने में सारे जोड़ तोड़, मार-काट, हत्याएं और नैतिकता की हदें पार कर रहे हैं। सुधार की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही। पर्दे पर भव्यता दर्शाने के लिए भीड़ है लेकिन उसकी एक भी आवाज उभर कर नहीं आती। हमारे दौर की ‘राजनीति’ का कड़वा यथार्थ है कि भाषण के केन्द्र में जनता जरूर है लेकिन हकीकत के धरातल पर सत्ता के मोहरे एक दूसरे से सारे उपलब्ध अनैतिक हथियारों से लड़ रहे हैं। जनता हर पांच साल में उन्हीं धूसर (ग्रे) चेहरों को सत्ता सौंपने के लिए अभिशप्त है। यह फिल्म देखनी चाहिए।
प्रकाश झा एक अच्छी फिल्म के लिए बधाई के पात्र हैं। वे खुशकिस्मत हैं कि उनके पास इस समय के नामी सितारे फिल्म में काम कर रहे हैं, जो दर्शकों को तीन घंटे तक बिठाए रखने की क्षमता रखते हैं।
बड़े भाई को लकवा मार जाने की हालत में उसका महत्त्वाकांक्षी बेटा वीरेन्द्र प्रताप उत्तराधिकारी बनना चाहता है लेकिन मामा ब्रज भूषण की दखल के बाद सत्ता वह अपने छोटे भाई को देता है। चचेरे भाई पृथ्वी और वीरेन्द्र आपस में सत्ता के लिए लड़ रहे हैं, तभी वीरेन्द्र अपना फायदा देखकर दलित नेता सूरज को साथ लेता है, जो असल में पृथ्वी और समर की मां के कोख से पैदा हुई अवैध संतान है। छोटा पृथ्वी का भाई समर अमेरिका से आता है। सत्तालोभ में पृथ्वी के पिता की हत्या होती है और समर अपने अमेरिका लौटना रद्द कर देता है। यहां से राजनीतिक शतरंज की एक अराजक बिसात शुरू होती है, जहां कानून व्यवस्था ताक पर है। पूरी कहानी देखते हुए महाभारत आंखों के सामने नाच रही होती है। उसकी कहानी से मुक्त हो पाना लगभग नामुमकिन है। अपंग और लकवाग्रस्त रिमोट कंट्रोल हाथ में रखने वाला वीरेंद्र का पिता धूतराष्ट्र है। अच्छा एडेप्टेशन।
सत्ता की लड़ाई में कोई भी नायक नहीं दिखता। सब अपने हितों के लिए लड़ रहे हैं। एक सूरज है जो अपने दोस्त का अहसान चुका रहा है, लेकिन फिल्म के दूसरे हिस्से में से वह लगभग गायब है।
राजनीति हमारे राजनीतिक माहौल की कड़वी हकीकत की पोल खोलती है, जहां वंशवाद और लालच चरम पर हैं। किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। अभिनेताओं में अर्जुन रामपाल को छोडक़र सभी प्रभावित करते हैं। अजय अच्छे हैं ही। रणबीर हर फिल्म के बाद और मैच्योर दिख रहे हैं। नसीर छोटे से रोल में हैं लेकिन प्रभावी। नाना पाटेकार ने अद्भुत काम किया है। मनोज वाजपेयी का यह नया अवतार है। कैटरीना ठीक हैं। फिल्म से गाने गायब हैं, उनके संकेत भर हैं। उन्हें बाहर सुनना ही बेहतर है। फिल्मांकन बेजोड़ है। भीड़ के असली दृश्य जादुई है। पिछले कई सालों में इस तरह के दृश्य हिंदी फिल्मों लेने की कोशिश किसी ने नहीं की।
अंजुम राजबली और प्रकाश झा की पटकथा की गति अच्छी है। मुद्दत बाद किसी हिंदी फिल्म में शुद्ध हिंदी के संवाद देखने को मिल रहे हैं। फिल्म बेहतरीन है। बॉक्स ऑफिस पर चल जाए तो यह प्रकाश झा की किस्मत कहिए, क्योंकि थियेटर में दर्शक को दिमाग साथ लेकर जाना होगा। काश, हमारे आम लोग राजनीतिक मुद्दों पर इतने संवेदनशील होते तो ‘राजनीति’ की पटकथा और देश का राजीतिक पटल शायद ऐसा नहीं होता।

बुधवार, जून 02, 2010

भटकनों में छुपे जिंदगी के मायने



बहुत दिनों तक लगातार मैं एक ही जगह रहते हुए ऊब जाता हूं। सुबह उठते ही वही लोग, दफ्तर में वही चेहरे। वही सब्जी वाला, वही नाई की दुकान पर बजता तेज गाना, परचूनी की दुकान पर मोल-तोल करती मोहल्ले की जानी-पहचानी औरतें। सुबह की वही खुशबू मेरी बालकनी में मिलती है। उगते सूरज को देखने के लिए बालकनी के उसी कोने से देखना पड़ता है। मन कहता है कि कुछ बदलना चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे किचन में रोजाना भिंडी की खुशबू आए, या रोज ही एग करी बनती रहे, तो खाना मजेदार नहीं लगता। दरअसल, इसी ऊब को मिटाने के लिए हमें सफर की जरूरत होती है। मुझे लगता है कभी-कभी बिना मतलब, बिना सोचे समझे निकलना भी निरर्थक नहीं होता है। कवि जगदीश गुप्त की एक कविता है, भटकनों में अर्थ होता है, टूटना कब व्यर्थ होता है।

यदि हम घर से बाहर कोई नई जगह जाएंगे, तो हमारे सामने उतनी ही नई दुनिया खुलती है। गूगल अर्थ पर माउस क्लिक करते हुए मुझे धरती की खूबसूरती पर गर्व होता है। मैं रोमांच से भर जाता हूं। भूगोल में उन टापुओं के किस्से पढ़ते हैं, जहां दिखने में हम जैसे या कुछ अलग लोग रहते हैं। उनका खाना पीना, रीति रिवाज सब कुछ कितना जादुई होता है? जब मैं खुली आंखों से पहाड़ पर बैठे बादलों को देखता हूं तो दिमाग में नई कल्पनाएं, एक नई उम्मीद का संचार होता है।

यह सब मैं एक कमरे में बंद होते हुए महसूस नहीं कर सकता। सैकड़ों किताबें पढ़कर किसी समंदर के बारे में हम वो नहीं जान सकते, जब तक कि मैं उस समंदर के किनारे खुद जाऊंउसे देखूं और किनारे तक उछलती हुई लहरों के बीच जाकर खड़ा हो जाऊं। समंदर में वापस लौटता हुआ लहरों का पानी हमारे पांव के नीचे से थोड़ी सी मिट्टी भी चुराकर ले जाता है। सही मायने में पांव तले से मिट्टी खिसकने का अहसास तब होता है। एक झुरझुरी दिमाग में उठती है। मैं कभी-कभार घर से दूर दूसरे शहर चला जाता हूं। कभी अपने गांव, कभी ननिहाल, कभी रोडसाइड बने ढाबों पर रात का खाने खाने का मन होता है।

हर बार एक ही ढाबे पर क्या खाना? एक ही होटल में बार- बार खाने के लिए क्यों जाना? सिर्फ इसलिए कि उसके खाने के बारे में हमें जानकारी है? हर बार ही एक ही जगह घूमने क्यों जाना? क्या माउंट आबू दूसरी बार जाने में उतना ही खूबसूरत अहसास जगाता है? शायद नहीं। एक ही समंदर को बार-बार देखने में मजा नहीं आता। दरअसल प्रकृति का जादू अनंत है। बहुत से लोग इसे पूंजी से भी जोड़ सकते हैं। इस जादू को महसूस करने के लिए हमें अपने भीतर एक जिज्ञासु को पैदा करना होगा। हमारे आसपास ही कितने खजाने ऎसे हैं, जिन पर हमने गौर ही नहीं किया।

घूमते हुए ही मैंने पाया कि गोवा के लोग इतने मेहमान नवाज हैं कि बीयर पीने के बाद खुल्ले पैसे ना होने के कारण दुकानदार ने बीस रूपए नहीं लिए। बोला, कभी भी देते जाना। घूमते हुए ही मुझे अहसास हुआ कि हवाई अड्डे पर मेरे मणिपुर के एक दोस्त से पासपोर्ट मांग लिया गया और उसे यह साबित करना पड़ा कि वह विदेशी नहीं भारतीय है। यह एक तरह का राजनीतिक सबक भी था कि क्यों अपनी पहचान लिए आदमी संघर्ष करता है। अपने ही देश में किसी के साथ ऎसा बर्ताव कैसे किया जा सकता है? दूसरी ओर यह हमारे देश की विविधता का भी संकेत है। बचपन में पिता के साथ घूमते हुए पाया कि गांव में आधी रात को भी आप किसी का दरवाजा खटखटाएंगे तो लोग सोने की जगह देते हैं, आपसे भोजन की पूछते हैं।

उनके घर में आटा खत्म भी हो गया हो तो एक कटोरी आटा पड़ोस से उधार मांगने में नहीं सकुचाते। कस्बे से गांव जाने वाले फेरीवाले अक्सर जल्दबाजी में सुबह नाश्ता नहीं कर पाते। घूमते हुए ही उन्होंने यह यकीन हासिल कर लिया कि गांव की औरतें सामान भले ही नहीं खरीदें लेकिन उससे खाने की पूछे बिना वापस नहीं आने देंगी। अक्सर लगता है कि दुनिया बहुत बड़ी है, उसे पढ़कर समझने में कई जीवन चाहिए लेकिन यदि घूमते हुए इसे जानें तो शायद एक जीवन से काम चल जाए। कोलंबस, वास्को डी गामा, मार्कोपोलो, फाह्यान, ±वेनसांग ऎसे कितने लोग थे जो घूमने के लिए निकल गए तो दुनिया ने तेजी से एक दूसरे को जाना। वे कारोबार करने में एमबीए की तैयारी में ही आठ दस बरस निकाल देते तो शायद दुनिया एक दूसरे को जानने में और विलंब करती। गांव के कितने ही लोग जवानी के दिनों में ऊंटगाड़ी लेकर कतारियों के साथ निकल जाया करते थे। लौटते में वे अनाज या नमक लाया करते थे। वे एक महीने में बीस दिन चलते ही रहते। वे नरेगा के रजिस्टर में आज भी अंगूठा लगाते हैं लेकिन उनके अनुभवों का संसार, संस्मरणों की दुनिया मुझसे बहुत बड़ी है। यह सब उन्होंने घूमने से ही हासिल किया।

शुक्रवार, मई 28, 2010

रॉयल्‍टी के बहाने

मैं नहीं जानता था कि फेसबुक पर एक योजना के बारे में मेरा एक संदेह और लेखक के हित में सोचने की बात पर एक बहस इतना जोर पकड लेगी। मुझे लगा कि एक जवाब आएगा कि ये किताबें बिना पैसा लिए छापी गई हैं। जाहिर है भाई, माया ने यह खर्च वहन किया होगा या उनके सलाहकार और संपादन मंडल में शामिल लेखक मित्रों ने।
लेकिन बात निकली और दूर तक जा रही है। अभी तक थमी नहीं है। मैं इसीलिए यह लेख लिखने का प्रेरित हुआ हूं।
योजना को लेकर सब तारीफ कर रहे हैं तो क्‍या मैं इतना बेवकूफ हूं जो इस बात की तारीफ नहीं करुंगा कि पाठक को सस्‍ती दर पर उम्‍दा साहित्‍य उपलब्‍ध कराया जा रहा है। लेकिन सवाल अब भी वहीं खडा है कि यदि माया इसकी कीमत चुका रहे हैं तो गलत है। लिखने वाला लेखक चुका रहा है तो भी गलत है। लेखक की जितनी गरज पढने की है उतनी ही गरज जब तक पाठक की पढने की नहीं होगी तो लिखने लिखाने के उपक्रम का अर्थ ही क्‍या है। मेरे गांव में कहावत है कि ‘ रोयां बिना तो मां भी बोबो कोनी दे’ अर्थात बच्‍चा जब रोए नहीं तब तक मां भी उसे दूध नहीं पिलाती। जिन बच्‍चों के पीछे आजकल की माताएं दूध की बोतल, कटोरे, स्‍वास्‍थ्‍यवर्धक भोजन की थाली हाथ में लिए मनुहार करती हैं, ना तो वे भोजन की अहमियत समझते हैं ओर ना ही मां के दुलार को, ऐसे बच्‍चे बिगडैल हो जाते हैं। लेखक और पाठक का रिश्‍ता ऐसा ही है। मां बेटे जैसा। ऐसा नहीं है कि आप अपने लेखक और लेखक अपने पाठक को प्‍यार नहीं करता लेकिन मुझे लगता है कि हम उस पाठक के पीछे दूध की बोतल लेकर दोड़ रहे हैं कि आ जा, जल्‍दी पी ले, नहीं तो तू छोटा ही रह जाएगा। वो हमारे ममत्‍व को समझ भी रहा है कि नहीं। मुझे लगता है उसे बिगडै़ल बच्‍चा बनने से बचाइए।
दूसरी बात, कि कुछ मित्रों की राय है कि अब तक लेखक को रॉयल्‍टी नहीं मिली और अब भी ना मिले तो हर्ज क्‍या है। ऐसा क्‍यों सोचते हैं आप। हिंदी में प्रिंट ऑर्डर तीन सौ पर आ गया है तो इसमें गलती किसकी है, महंगी कीमत, मुझे नहीं लगता कि कोई आधार है। नाम लूंगा तो बुरा लगेगा लेकिन एक पाठक के नाते मैं सत्‍तर से अस्‍सी प्रतिशत हिंदी लेखकों के माल को रद़दी के भाव ना लूं। आप प्रकाशकजी, उस किताब को सौ रुपए, डेढ सौ रूपए, दो सौ रुपए में बेचेंगे और कहेंगे कि पाठक नहीं है तो भैया गलत बात है। तीसरी बात, यही खराब किताब आप दस रुपए में उसे बेच देंगे तो आपने साहित्‍य का एक पाठक खो दिया। इतनी रद़दी किताब पढकर वे साहित्‍य से नफरत ही करने लगेगा। यानी किताब अच्‍छी हो या बुरी सस्‍ती बेचने पर नुकसान ही है अतंत: मुझे किसी का फायदा नहीं दिखता। जैसा कि भाई रवीन्‍द्र नाथ झा ने कहा है कि आदमी लेखक तो होना चाहिए। सिर्फ लिखते रहने वाला नहीं। आप पूछिए, लोकायत के शेखर से और हास्‍य कवि संपत सरल से भी कि खोया पानी की तारीफ सुनने के बाद कितने लोगों ने उसे सिर्फ माउथ पब्लिसिटी से खरीदा। आंकडा बहुत उत्‍साह जनक नहीं है, लेकिन मेरे आदरणीय यशवंत व्‍यास ने जब स्‍वयं अपनी देखरेख में ही अपनी किताबों का विपणन शुरू किया तो उनके सामने नतीजे अच्‍छे थे कि उनकी किताब बिक रही है। उन्‍होंने लाइब्ररी में किताब नहीं बेची। लेकिन समस्‍या व्‍यापक है। मेरे समझदार मित्र मुझे माफ करेंगे लेकिन यह सच है कि हिंदी विभागों में इतने कूढमगज अध्‍यापक भर गए हैं जो साहित्‍य पढाना ही नहीं जानते। उनकी अपनी संवेदनाएं ही नहीं हैं। वे डिपार्टमेंटल पॉलिटिक्‍स और अन्‍य व्‍यसनों में ही लिप्‍त हैं। उनके लिए वह एक आजीविका है। उनमें मास्‍टर दीनानाथ ब्रांड मामूली आदर्श और समझ भी नहीं बची तो क्‍या खाक अपने स्‍टूडेंट़स को साहित्‍य समझा पाएंगे। हिंदीवालों को नौकरी की वैसे भी मारामारी है। हमारे वे पाठक अपनी साहित्यिक रुचि की वजह से ही हिंदी विभाग तक आते हैं। वहां लेखक बनाना दूर, एक समझदार पाठक बनाने का काम भी नहीं होता। जड़ से उसको खत्‍म करने का काम यहीं होता है। मैं हिंदी की एक वाद विवाद प्रतियोगिता में जज बन कर गया था। एक व्‍याख्‍याता मित्र के कहने से। मुझे जो मानदेय दिया गया कि उस पर उन्‍होंने अपने हा‍थ से वाद विवाद प्रतियोगिता और मेरा नाम लिखा। मानदेय की राशि लिखी। इन तीन लाइनों में वर्तनी की छह गलतियां थीं जो अनजाने में नहीं हुई थीं। सचमुच उन्‍हें हिंदी लिखनी नहीं आती। तो जो स्‍टूडेंट आपका एक पुख्‍ता पाठक बन सकता था कि उसे हमारे हिंदी विभागों ने खत्‍म कर दिया है दोस्‍तो। और पूरे जोर शोर से वे इस अभियान में लगे हुए हैं। वे छात्र साहित्‍य को पढना नहीं सीखते, सिलेबस में ठुकी हुई किताबों को पढने को अभिशप्‍त हैं। जो साहित्‍य में रुचि के लिए प्रवेश लेते हैं वे ही विभाग से निकलते हुए रट़टा मार रहे हैं नेट स्‍लेट के लिए। वे ही आगे पढाने पहुंच जाएंगे। दुर्भाग्‍य से सिलेबस भी प्रकाशकों के अहसानमंद या प्रकाशकों को अहसान चुकाने वाले लोगों द़वारा तैयार किया जाता है, बहस दिशा ना छोडे तो पुन: बिंदु पर आते हैं। मेरा आशय इसलिए है कि पाठक हमसे क्‍यों छूट रहा है, इसकी सबसे बड़ी वजह केवल किताब महंगी होना ही नहीं है। हिंदी साहित्‍य वाले हिंदी से ऊबे हुए छात्र बना दिए गए। आदरणीय डीपी सर, जिस छूटे हुए पाठक की बात कर रहे हैं, वे मेरी भावना समझ रहे होंगे। आज ब्‍लॉगिंग को देखिए, गैर हिंदी पढे हुए लोग, दूसरे अनुशासनों में काम करने वाले, विज्ञान स्‍नातक, इंजीनियर आदि हैं जो हिंदी में सबसे रचनात्‍मक ढंग से काम कर रहे हैं। मेरे अपने अखबार में जिन लोगों ने हिंदी साहित्‍य पढा है, वे सबसे खराब पत्रकार हैं। संवेदना और समझ के लिहाज से। अब आप पत्रकारिता के गिरते स्‍तर पर मत जाइए। वो जितनी गिर गई है, उससे भी गिरी हुई और गई बीती पत्रकारिता हिंदी साहित्‍य पढकर आए लोग कर रहे हैं। हम सब जानते हैं कि साहित्‍य और पत्रकारिता का पुराना रिश्‍ता क्‍या रहा है और अब क्‍या रह गया है। पर साहित्‍य कोई पत्रकारिता का मोहताज नहीं है। वह बचेगा। यह बात भी विषयांतर के साथ कहना जरूरी है।
तो हमें जिन पाठकों को पकड़ना चाहिए या जिनकी चिंता करनी चाहिए वे ज्ञान के दूसरे अनुशासनों के लोग हैं, वे तुलनात्‍मक रूप से बौदि़धक और आर्थिक रूप से बेहतर हैं, उनके लिए कीमत से ज्‍यादा महत्‍त्‍वूपर्ण अच्‍छे साहित्‍य की उपलब्‍धता है।
दूसरी बात, हर किसी के पेट में ज्ञान और संवेदनाओं के अक्षर नहीं पचते। सुधी पाठकों का एक समुदाय है। तो क्‍यों हम लाखों करोडों पाठकों की चिंता करते हैं। क्‍यों ना भले ही सीमित लेकिन असली पाठकों पर ध्‍यान दें।
दूसरी भाषाओं में लुग्‍दी साहित्‍य की क्‍या हालत है, मैं अधिकृत तौर पर नहीं कह सकता, क्‍योंकि मेरा ज्ञान सीमित है। लेकिन हिंदी में यह बखूबी दिखता है। मैं उस लुग्‍दी की बात नहीं कर रहा हूं जो केशव पंडित, वेद्प्रकाश शर्मा या सुरेंद्र मोहन पाठक का साहित्‍य है। उसके तो पाठक हमसे भी ज्‍यादा होंगे। मैं उस मुख्‍यधारा के साहित्‍य की बात कर रहा हूं, जिसका जिक्र ओम पुरोहित कागद, दुष्‍यंत की चर्चा में हैं। पैसा देकर किताब छपाना, उसे मित्रों को मुफ़त बांटना, उस पर प्रतिक्रिया जानने को व्‍यग्र होना। मुझे तो कभी कभी लगता है कि आज हिंदी में पाठक कम हो गए हैं और लेखक ज्‍यादा हैं।
कितने लोग कितना कुछ लिख गए हैं। डर लगता है कि उस विरासत को खराब क्‍यों करूं। चुपचाप किताबें पढते हुए किसी कोने में पाठक बनें रहें।
मुझे खुद को रॉयल्‍टी नहीं चाहिए। मैं मेरे उन प्रिय लेखकों के लिए संघर्ष करता हुआ पाठक हूं। मैं चाहता हूं कि उनका अस्तित्‍व रहे। वे लिखते रहें। उनके पास लडने की लिखने की ऊर्जा रहे। आप मानें या मानें अपने तमाम वामपंथी आग्रहों के बावजूद मैं मानता हूं कि धन से वह ऊर्जा मिलती है, लेखक को वह ऊर्जा मिलनी चाहिए। आप किस क्रांति की बात कर रहे हैं। सत्‍यनारायण लेखक नहीं होते तो भी वे जहां रहते वहां के लोगों को एक सादगी और सहजता से जीना सिखाते। मुझे उनके ही किसी स्‍टूडेंट ने बताया कि गांव से आए कई जरूरतमंद बच्‍चों को गुमनाम तरीके से वे आर्थिक मदद करते हैं। यह सच है तो मुझे लगता है दस रुपए में क्‍यों बेच रहे है आप सत्‍यनारायण की किताब। क्‍या उन्‍हें रॉयल्‍टी का और पैसा नहीं मिलना चाहिए, जो उनका हक है। मतलब कोई लेखक भला है, तो उसकी भलमनसाहत के बूते ही उसे मार डालेंगे क्‍योंकि हमें पाठक को सस्‍ती किताब देनी है। सत्‍यनारायण को आप रॉयल्‍टी देंगे तो वह किसी जरूरतमंद की फीस भरने के काम आएगी।
रही बात फ्रांस की क्रांति से लेकर आजादी के आंदोलन में लेखकों की भूमिका को लेकर। क्‍या बात करने का हक है हमें। हम सब डरे हुए लोग हैं। अपने अपने दडबों में सुरक्षित। राज्‍य की अकादमियों की हालत पर क्‍या कभी राजस्‍थान से लेखकों की टिप्‍पणी आई। प्रतिरोध आया कहीं से। क्‍या आपको पता है कि जवाहर कला केंद्र एक स्‍वायत्‍त कला संस्‍थान है और एक आइएएस अफसर पिछले करीब ढाई साल से वहां अपने ढंग से काम कर रही है। मुझे किसी ने बताया कि इनका तबादला इसलिए नहीं हो सकता कि वे एक सीनियर आइएएस हैं, इससे खराब जगह उनके लिए और कोई नहीं है। यानी यह उनके लिए पनिशमेंट पोस्टिंग है, तो लेखक कलाकारों के लिए यह क्‍या है, इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं। पिछले साल पूरे मार्च के महीने में लाखों रुपए जवाहर कला केंद्र मे उडाए गए। बिना दर्शकों के भी हर रोज कोई ना काम आयोजन किया गया क्‍योंकि मार्च खत्‍म होने से पहले बजट को ठिकाने लगाना था। क्‍या हमको पता है कि यह तय करने का हक एक अधिशासी समिति का होता है जिसमें रंगकर्मी, लेखक, कलाकार सब होने चाहिए। वो समिति आज तक बनी ही नहीं। सरकार ने बनाई ही नहीं। ना ही बनाने की उसे फिक्र है। मैंने एक भी लेखक और कलाकार को यह कहते नहीं सुना कि यह हो क्‍या रहा है। बैठते सब लोग एक जाजम पर। धरने पर बैठ जाते जवाहर कला केंद्र के बाहर कि ये फिजूलखर्ची रूकनी चाहिए। सीएम को चिटठी ही लिखते। अखबार भी मजबूरन लेखक की आवाज को उठाते। लेकिन कोई प्रतिक्रिया ही नहीं आती। लेखक हैं लेकिन बेखबर है कि आस पास क्‍या हो रहा है। हमारे आंदोलनकारी आदरणीयों को डर है कि उन्‍हें धरने पर देख लिया गया तो अकादमियों के पुनर्गठन के दौरान उन पर ध्‍यान कौन देगा।
असल में क्रांति पाठक को सस्‍ती किताबें से नहीं होती। वो तो जमीन पर ही होती है। अपने दौर के महान लेखकों ने अपने समय में क्रांतियों में सक्रिय हिस्‍सेदारी ली। हम सौभाग्‍यशाली हैं कि लोकतंत्र में हैं। हम बयान तो दे सकते हैं। अखबार नहीं छापते हैं तो क्‍या हुआ। फेसबुक पर ही दें। छोटी सी आवाज भी अहमियत रखती है। देवयानी ने सही कहा था कि फेसबुक लोगों को अभिव्‍यक्‍त कर रहा है, भले ही उनको कोई प्रतिक्रिया की उम्‍मीद नहीं है। पत्रकार भाई आलोक तोमर ने इसे एक अभियान की तरह इस्‍तेमाल किया है। वे कामयाब भी हैं।
इतने बडे मुद़दे हमारे सामने हैं, फिर भी हम लेखक की पीठ पर धौल जमाते हुए कह रहे हैं, लिखता रह उस्‍ताद, फल की चिंता मत कर। लेखक ही नहीं बचेगा जिस दिन तो पाठक का क्‍या अचार डालेंगे आप। आप प्रकाशक को लाख गाली देते हैं। वो है तो आप लेखक है ना। वो कमीशन इसलिए खाता है कि खुजली आपकी है। प्रकाशक नहीं रहेगा, तो लेखक क्‍या जनसभाओं संबांधित करते हुए अपनी कहानी सुनाएगा। उससे बात की जा सकती है, अपने हक के लिए। बड़ी मुश्किल से कोई उपयुक्‍त प्रकाशक पनप रहा है तो क्‍यों उसे खत्‍म करने पर तुले हैं। फिल्‍म इंडस्‍ट्री में तमाम मूर्खता के बावजूद प्रोडयूसर की इज्‍जत बहुत होती है, क्‍योंकि वो है तो सिनेमा बनेगा। वो अच्‍छा बनेगा या बुरा बनेगा बाद की बात है। बुरे को लोग खारिज कर देंगे। किताब का पाठक सिनेमा के दर्शक के कहीं ज्‍यादा सुकोमल है। उसने एक बार आपको खारिज कर दिया तो आप हमेशा के लिए गए काम से। लेखक की छवि लिखने से बनती है और प्रकाशक वो क्‍या छाप रहा है इससे बनती है। जयपुर के कितने कोनों में चालू टाइप प्रकाशन है जिनकी किताबें लाइब्ररी के लिए छपती है। वह लुगदी है। रद़दी है। यह साहित्यिक अपराध है। जिन प्रकाशकों का बड़ा नाम हे वह इसलिए है कि उनकी किताबें आप हम जैसे पाठक पढना चाहते हैं। उनका बडा नाम इसलिए नहीं है कि वे लाइब्रेरीज में ज्‍यादा किताबें देते हैं और उनका मुनाफा ज्‍यादा है। आप वहन नहीं कर सकते। दस रुपए में तीसरा या चौथा खंड लुगदी ही छपने का खतरा है। उससे कैसे बचेंगे आप। जो बनाएंगे, वे ही पाठक आपको छोडकर चले जाएंगे।
प्रकाशक मायामृग को आपने महान बना दिया। पाप का चौ‍था हथियार श्रद़धा ही है, चढा दो। उसने बहुत क्रांतिकारी काम किया है। माया मेरे मित्र हैं, मेरा हक है उन पर, मैं पूछता हूं घाटा उठाकर यह काम क्‍यों किया है। इस योजना का पहला एसएमएस एक पत्रकार मित्र से ही आया था कि सौ रुपए में दस किताबें। आपमे से कितने लोग जानते हैं कि उसने खुद ने अपनी किताब को पच्‍चीस रूपए में बेचा है। मेरे जिन परिचितों को उसने यह किताब बेची है, वह तरीका निहायत खराब था। पहले सौ रूपए मांगे और फिर उनकी सहमति की परवाह किए बिना चार किताबें थमा दीं। यह संकेत देते हुए कि एक तुम पढो बाकी तीन बेचकर अपने पिचहतर रुपए बचा सकते हो तो बचा लो। यह किताब की मल्‍टीलेवल मार्केटिंग हैं। तो प्रिया परिवार, एमवे के उत्‍पाद बेचने से हमने यह सीख लिया। सब लोग पीठ पीछे उसकी इस हरकत को बुरा कह रहे थे। मैंने नहीं ली उसकी भी किताब। मैंने पत्रकारिता पर कम ही किताबें पढी हैं लेकिन वह एक कमजोर किताब है। वो मेरा सहकर्मी मित्र रहा है, इसलिए पूरे हक से मैं कह सकता हूं, उसे नहीं लिखनी चाहिए थी, ि‍लख ही दी तो अच्‍छा है पर ऐसे बेचनी नहीं थी। मेरी जानकारी के अनुसार किताब बिकी अच्‍छी खासी है। उसके पास एक कमजोर किताब को बेचने की भी कला है। लेकिन आपका पाठक तो खराब हुआ। अगली बार मांगने से वह सौ रुपए नहीं देगा। भेडिया सचमुच जिस दिन आएगा, उस दिन मदद को कोई नहीं आएगा। आप पाठक की मासूमियत का फायदा मत उठाइए। लेखक की छपास की बीमारी से बचिए। एक उपयुक्‍त प्रकाशक को बचाना भी उतना ही जरूरी है जितना एक लेखक और पाठक को बचाना जरूरी है। इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है।
हमारा वह मित्र भी इस अभियान का हिस्‍सा है। वहीं से मुझे यह खयाल आया है। अरे भाई, आप पच्‍चीस रुपए कीमत रखिए ना। चलिए इस सोल्‍यूशन पर आते हैं, जो निहायत मेरा है, माया इसे मानें या मानें उनकी मर्जी।
आप पच्‍चीस रुपए कर दीजिए कीमत। शायद इससे छपाई की लागत और लेखक और आपका भी कुछ हिस्‍सा बनेगा। सौ रुपए में आप चार किताबें दीजिए ना। यह योजना भी उतनी ही आकर्षक है जितनी दस किताबों की। बस इतना करिए कि लुगदी साहित्‍य को बाहर निकाल दीजिए। समझदार लेखकों को एक संपादक मंडल बना लीजिए, उसका वे पैसा भी नहीं लेंगे, यहां लेना भी नहीं चाहिए। यह लेखकों का ही फर्ज है कि पाठक के सामने अच्‍छा साहित्‍य जाए। क्‍या हमारा फर्ज नहीं कि हम प्रभात के गीतों की किताब बंजारा नमक लाया को व्‍यापक पाठक वर्ग तक पहुंचाएं। यकीन है इसमें सिफारिशी लेखकों की किताबें नहीं आएंगी। पाठक लेखक प्रकाशक तीनों का भला है, बहस मेरे खयाल से बहुत हो गई समाधान पर आएं। किसी के पास इससे बेहतर समाधान है तो वह भी आना चाहिए।
ये किसी पर व्‍यक्तिगत आक्षेप नहीं हैं। लेखक हैं तो आपका जीवन सार्वजनिक है, एक आध टिप्‍पणी होती है। हमारी हरकतों से लेकर रचनाकर्म तक पर लोग बोलेंगे। बुरा नहीं लगना चाहिए। लगे तो इसका उपचार भी हम स्‍वयं को ढूंढना होगा। तीन दिन से तर्क वितर्कों के बाद मुझे खीज हो रही है कि बातों को तार्किक ढंग से ही सुलझाएं तो बेहतर। आप स‍मझिए मुझे गिरिराज भाई की प्रतिलिपि से क्‍या दुराग्रह होगा। वे एक अच्‍छी पत्रिका निकाल रहे हैं। गिरिराज बचने चाहिए, प्रतिलिपि बचनी चाहिए, पाठक भी इसी गुणवत्‍ता की वजह से बचेगा। इसलिए नहीं कि आपने उसे सस्‍ती किताब दी इसलिए वह पढ रहा है। मायामृग भी बचने चाहिए। पुस्‍तक पर्व भी बचना चाहिए। पाठक की जेब का कुछ पैसा भी बचना चाहिए लेकिन उसकी गुणवत्‍ता की भूख शांत होनी चाहिए। कुल मिलाकर बात यह है कि सबसे ज्‍यादा जरूरी है किताब बचनी चाहिए। वो तब बचेगी जब लेखक बचेगा, जब पाठक बचेगा और प्रकाशक बचेगा।

सोमवार, मार्च 29, 2010

सरकारी जादू की झप्पी


आप नरेगा के बारे में कितना जानते हैं? जो खबरें छप रही हैं उतना ही उससे ज्यादा कुछ। जिस इलाके में मैं घूमकर मैं आया हूं, वहां जमीनी हकीकत कुछ और है। दरअसल सरपंच समेत गांव के आम लोगों ने यह समझ लिया है कि नरेगा या महानरेगा का पैसा सरकार बांट रही है लिहाजा जरूरी नहीं कि इस पैसे के बदले काम किया जाए। सरकारी नियमों के मुताबिक एक तयशुदा काम होना चाहिए। कुछ समय पहले सवाई माधोपुर जिले के गांवों में मैं नरेगा कार्यों की जांच करने गए एक इंजीनियर मित्र के साथ था। वहां हमने देखा कि मस्टर रोल संबंधी औपचारिकताएं पूरी हैं लेकिन मिट्टी की खुदाई वाले स्थान पर जेसीबी मशीन के दांतों के निशान थे। जब जांच में उन्होंने आपत्ति जताई तो सरपंच ने कहा, आपको क्या तकलीफ है, जब लोगों को पैसा मिल रहा है। लोगों को दिक्कत ही नहीं है कि उन्हें काम किए बिना ही पैसा मिल रहा है। भले ही इसमें सरपंच और सरकारी अफसरों ने अपना कमीशन काट लिया है। सरकार का काम तो हो ही रहा है। फिर वो चाहे आदमी खुदाई करे या मशीन बात तो एक ही है। सच्चाई यह है कि मशीन की खुदाई वाले काम में मजदूर और सरकारी कारिंदों के बीच सौदेबाजी की सदैव आशंका है।दूसरी बात यह है कि नरेगा के दौरान कराए जा रहे कार्यों में बहुत सारे इतने अप्रासंगिक और गैर-जरूरी हैं। मसलन किसी भी जोहड़ में मिट्टी खोदना। गांव के सामूहिक चरागाह के चारों ओर खाई देने का तुक समझ में नहीं आता। खासकर राजस्थान के उस मरूस्थलीय हिस्से में, जहां हर मई जून में चलने वाली आंधियों से उस खाई में फिर मिट्टी भर जाती है। सवाल है कि ऐसे काम क्यों हो रहे हैं, जवाब वही है कि सरकारी आदमियों को ऐसे ही कामों में पैसा डकारने की छूट मिलती है। वे कह सकते हैं कि खुदाई तो करवा दी थी लेकिन आंधियों ने सब खराब कर दिया। एक गांव में मैं गया, वहां गांव के भीतर ही पूरा मार्ग ऐसा है कि आपकी कार या बाइक को चलने में तकलीफ होती है। मैंने पूछा, यहां नरेगा के कोटे से आप लोगों ने पत्थर या सीमेंट की सडक़ क्यों नहीं बनाई? खुलासा हुआ कि इस मोहल्ले के लोगों ने उस आदमी को वोट नहीं दिया, जो इस बार सरपंच जीत गया। पिछली बार भी यह हादसा इसी मोहल्ले के साथ हुआ। सत्ता के साथ नहीं रहने की अपनी तकलीफें हैं। सरपंच अपनी पूरी दादागिरी कर रहा है। खुद मेरे गांव में मुझे यह जानकर ताज्जुब हुआ कि गांव के इतिहास में पहली बार सात आदमी सरपंच के लिए मैदान में थे। वरना समझा बुझाकर दो और तीन आदमी ही मैदान में रह जाया करते थे। इस बार सरकारी धन का लालच चरम पर था। अघोषित तौर पर लोगों ने माना कि कोई 25 से 30 लाख रुपए का खर्च सरपंच के चुनावों में हो गया है। इसमें बड़ी रकम शराब पर खर्च की गई। आदरणीय चाचाओं ने मुझे गर्व के साथ बताया कि पिछले तीन महीने कितने हसीन गुजरे हैं, जब मैखाने की धार गांव से गुजर रही थी और मनचाहे ढंग से लोग उसमें डुबकी लगाकर पुण्य कमा रहे थे। नरेगा के बाद गांव में मजदूर अब खेतों में अपनी नियमित मजदूरी नहीं करना चाहते। खतरनाक ढंग से सरकारी पैसे ने उनकी श्रम करने की नीयत तेजी से बदली है। वे अब बिना काम किए सब कुछ चाहते हैं। वे खेतों में मजदूरी नहीं करना चाहते क्योंकि वहां पैसा देने वाला सीमांत किसान है और वह अपने पैसे की पूरी वसूली चाहता है। सरपंच या सरकारी अफसरों की तरह उसके खेत में कमीशन खोरी नहीं चल सकती। मैं नरेगा की आलोचना करते हुए गैर सरकारी संगठनों के उस अभियान को भी हवा नहीं देना चाहता जिनकी तकलीफ है कि सरकार सीधे गांवों में पैसा क्यों बांट रही है? इतनी बड़ी रकम में उनको भी मलाई मिलनी चाहिए। पैसा बांटने का मौजूदा सरकारी ढांचा ही ठीक है। मैंने नॉर्थ ईस्ट के अराजकताग्रस्त राज्य मणिपुर में भी नरेगा का काम देखा। वहां काम कर रहे मजूदरों से बातचीत की। सचमुच नरेगा ने गांवों के आम लोगों की जिंदगियों को बदल दिया है। उनके पास पैसा पहुंच रहा है। जरूरत इस बात की है कि इस पैसे पर नजर रहे। सरकार की, हम सबकी। उसे बांटने के ढंग पर सरकार सोचे। देश की तकदीर तेजी से बदल सकती है। लेकिन मुझे सबसे बड़ा खतरा यह दिख रहा है कि गांवों में तेजी से जा रही यह पूंजी उन लोगों की श्रम करने के जुनून, अपने हक के लिए जूझने की आदत, क्रांतिचेतना को कुंद कर रही है। सरपंच और सरकारी तंत्र मिलकर पूरी कोशिश में है कि आदमी बिना काम किए पैसा लेने की आदत बनाए ताकि उनका फायदा हो। यह आम आदमी को अपनी ही नजरों में गिराने की एक साजिश जैसा है। क्योंकि भूखे आदमी को पहले भरपेट रोटी चाहिए। उसके बाद वह सच झूठ, नैतिक अनैतिक चीजों के बारे में सोचता है। मुझे डर है कि आने वाले दस साल में गांव वालों के पास पैसा बहुत आने वाला है लेकिन वे गांव वाले नहीं बचेंगे। छल कपट, बेईमानी और भ्रष्टाचार उनकी नसों में दौड़ेगा। मैं दुआ करता हूं, ऐसा नहीं होगा। लोग अपने श्रम की अहमियत समझेंगे। नरेगा जैसी सरकारी जादू की झप्पी को शायद वे ठीक से महसूस कर पाएंगे।

मंगलवार, मार्च 16, 2010

कुतिया की नानी, बारिश का पानी



आइपीएल के मैच प्रसारण के दौरान सिनेमा और टेलीविजन के निर्माताओं को पसीना आने लगता है। सारा देश क्रिकेट देख रहा है। टीवी की यह क्रांति महज एक दशक पुरानी है। इसका सबसे बड़ा खमियाजा बच्चे भुगत रहे हैं। दो ढाई दशक पहले जिन भारतीय लोगों ने अपना बचपन बिता दिया उनके लिए निंजा हथौड़ी, कितरेत्सु, कैनी जी, लोबिता, परमैन आदि की जादुई और गैर तार्किक सी दुनिया नहीं थी। उनकी कल्पनाओं में चंदा मामा के बीचों बीच चरखा कातने वाली बुढिया थी, जो किशोर होते होते समझ में आती थी कि चंद्रमा ने एक ऋषि की पत्नी के साथ भेष बदलकर दुराचार किया था। जब चंद्रमा अपना काम तमाम करके निकल रहा था तो सामने नदी से नहाकर आए ऋषि दिख गए। वह भागने को ही था कि कंधे पर रखी गीली धोती से ऋषि ने चंद्रमा को मारा। ये उसी गीली धोती के दाग हैं। जब युवा हुए, पढ लिख गए तो सब धरा रह गया। नील आर्मस्ट्रॉन्ग चांद पर पहुंच ही गया। उसने बताया कि यहां कोई बुढिय़ा चरखा नहीं कात रही। ना ही ऋषि से दुश्मनी का जिक्र चांद ने किया है। यहां तो ऊबड़ खाबड़ गडढे हैं। कल्पना से हकीकत तक आते आते यह पूरी यात्रा है। बहुत अफसोस होता है कि मेरे बच्चे कल्पना की इतनी लंबी यात्रा नहीं कर रहे। वे रिमोट के बटन से किड्स चैनल बदलने में अपना समय गंवाते हैं। टीवी और क्लासरूम तक हमारे बहुसंख्यक बच्चों की दुनिया सिमट गई है। वे हवा में तैरते बादलों में डायनासोर, मोर, ऊंट, चिडिय़ा, सांप की छवियां नहीं टटोल सकते। कब बादल का ऊंट करवट लेकर डायनासोर जैसी शक्ल बना लेता है कोई नहीं जानता। उन्हें हम तर्क से यह जरूर पढ़ा रहे हैं कि बादल का बनना और बिगडऩा एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है।
टेलीविजन के खबरिया चैनलों पर भी भूत है और टीवी सीरियल में भी भूत। दादी के किस्सों में आने वाला भूत तर्क के जरिए गायब कर दिया गया। पर्दे पर दिखने वाला भूत डरावना ही नहीं है। हम बच्चों को समझाते हैं कि भूत कुछ होता ही नहीं, यह सब मेक-अप और स्पेशल इफेक्ट का कमाल है। हम उन्हें निडर बनाना चाहते हैं लेकिन भूल जाते हैं कि किसी भी समाज में अनुशासित करने में कितनी मदद करता है? दादी नानी के किस्सों में आने वाले भूत से राजकुमारी शादी कर लेती थी और उस भूत के चेहरे को कल्पनाओं के जरिए कोई आकार देने की कोशिश करते थे। कभी तार पर सूखते हुए सफेद कपड़े को रात को देखकर भूत समझते, तो कभी दूर बाड़ में खींफ, आक, कीकर के पेड़ में भूत देखते। कभी पीपल के पेड़ पर रहने वाले बूढे शरीफ भूत की कल्पना करते। सब कुछ इक्कीस, उनतीस, बत्तीस इंच के स्क्रीन का शिकार हो गया है। हमारे दौर के बच्चों के साथ यह बड़ा हादसा है।
स्कूल से घर लौटते हुए पंद्रह बीस बच्चों का झुंड अक्सर उस खुले मैदान के किनारों पर बने कुत्तों के घूरे में बीतता था। कुतियाएं सात-सात पिल्ले जनती थीं। बच्चे उनके पंजे गिनते थे। अपने टिफिन से उन्हें खिलाते थे। कुतिया अपने पिल्लों को तो प्यार करती ही थी, इन बच्चों के प्यार को भी मानती थी। वे कुतियाएं नई मां थी। वो किसी को काटती नहीं थी। घरवालों की हिदायत के बावजूद बच्चों का समय वहीं बीतता था। वे सब एक दूसरे से रिश्ते जोड़ लेते थे। असली बचपन, जो टीवी का शिकार नहीं था। गांव में कुत्ते बढ़ गए थे। वे मवेशियों के बाड़े पर हमले करने लगे थे। गांव वालों ने बंदूक वाले शिकारियों को किराए पर लिया। रोज धमाकों की आवाज होती थी। सारे कुत्ते मार दिए। वे सब भी जिनके साथ बच्चों की दोस्ती थी। स्कूल से लौटते हम खाली घूरों के पास बैठकर रोते थे। अपने ही बुजुर्गों को कोसते थे कि उन्होंने हमारे दोस्तों को मरवा दिया। घरों में सारे बच्चे मुंह फुलाए घूमते थे। उस साल गांव में एक बूंद पानी नहीं बरसा। गांव वाले समझते रहे कि यह महज एक प्राकृतिक आपदा है लेकिन मुझे लगता है जिन बादलों को रातभर जागकर हम घूरते हुए कई चेहरे तलाशते थे, उनसे से भी हमारी दोस्ती हो गई थी। बादलों ने अपना पानी हम बच्चों को उधार दिया था ताकि रोने से हमारी आंखों को नुकसान ना हो। बादल, कुत्ते, चांद, बारिश सब हमारी मदद को आते थे। क्या हमारे बच्चों की मदद के लिए लोबिता, कितरेत्सु, परमैन आएंगे? कहां से आएंगे? वे सिर्फ रेखाएं हैं, कार्टून हैं, जिन्हें बाजार ने ईजाद किया है। बाजार की ईजाद की हुई चीजें बचपन को तो नुकसान ही करती हैं। जिन वैज्ञानिकों ने चांद को प्रयोगशाला बना दिया, क्या वे ऐसा ही एक और चांद हमारे बच्चों को दे सकते हैं, जिसे देखकर वे खूबसूरत कल्पनाएं कर सकें? ऐसा नहीं होगा। मुझे इस दौर के बच्चों से सहानुभूति है। वे नहीं जानते कि वे कितना कुछ खो रहे हैं।

शुक्रवार, मार्च 12, 2010

घर में ठीक, घाट भी साफ

निर्देशक शंकर अग्रवाल की फिल्म ना घर के ना घाट के इसी हफ्ते रिलीज हुई है और एक साफ सुथरी कॉमेडी फिल्म है। वेलकम टु सज्जनपुर की तरह यहां गांव की वापसी हुई है। पिछले कुछ समय से नए फिल्मकारों ने गांव को फिल्मों में वापस लाने की कोशिश की है। टीवी पर तो गांव बिक ही रहा है। गांव के एक युवक की नौकरी मुंबई में लगी है। वह पहली बार मुंबई जा रहा है। वहां उसे एक लोकल गुंडे के साथ रहने को जगह मिलती है। धीरे धीरे दोनों में समझदारी बढती है। गुंडा मराठी है, गांव का युवक उत्तर भारतीय। दोनों की यारी दिखाकर निर्देशक यह बताने की कोशिश कर रहा है कि मुंबई किस तरह सब भारतीयों की है। नौकरी कर रहा देवकी नंदन त्रिपाठी जब गांव वापस पहुंचता है कि मां बाप को उसके दुबलेपन की चिंता है और उसकी शादी तुरंत कर दी जाती है। उसके पिता उसकी दुल्हन को लेकर मुंबई जाते हैंं। फिल्म एक दिलचस्पी को लगातार बनाए रखती है। अचानक मुंबई में गांव की दुलहन पुलिस के हत्थे गलती से चढ जाती है और नायक, उसका गुंडा दोस्त और पूरा गांव अब उसकी बीवी को पुलिस से छुड़ाने में लग जाते हैं।फिल्म की कहानी दिलचस्प तरीके से कही गई है। निर्देशक शंकर अग्रवाल खुद ही लीड रोल में हैं ओर आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने ठीक अभिनय किया है जबकि पोस्टर और प्रोमोज में दिख ही रहा है कि उनकी शक्ल सूरत नायक के परम्परागत चेहरे जैसी नहीं है। सिर के बाल भी लगभग उड़ ही गए हैं लेकिन यह उत्साही युवक अमीर कमाल खान से कहीं ज्यादा बेहतर और संवेदनशील ढंग से फिल्म को बना गया है। इंटरवल के बाद में हिस्से में फिल्म की गति थोड़ी धीमी होती है। ओम पुरी संकटा प्रसाद त्रिपाठी की भूमिका में जमे हैं। परेश रावल पुलिस वाले हैं और रवि किशन ने लाउड ही सही, एक मराठी गुंंडे को किरदार ठीक निभा दिया है। निश्चित रूप से फिल्म ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों जैसी प्रतीत होती है लेकिन अफसोस की बात यह है कि हमारे दर्शकों को आजकल नए किस्म की कॉमेडी और भारी भरकम सितारों वाली फिल्में देखने की आदत हो गई है। फिल्म के गीत संगीत भी अच्छे लगते हैं। बोर्ड के इम्तहान और आइपीएल सब फिल्मों पर इस समय भारी है।

थोड़ी राइट, थोड़ी रॉन्ग

फिल्म समीक्षा

मुक्ता आर्ट्स की ओर से रिलीज निर्देशक नीरज पाठक की फिल्म राइट या रॉन्ग एक थ्रिलर है। एक ऐसा थ्रिलर है जिसकी शुरुआत धीमी है लेकिन धीरे धीरे कहानी खुलने लगती है। यह दो पुलिस अफसर दोस्तों की कहानी है जो अपने ढंग से एक सच और झूठ के साथ जी रहे हैं। एक दोस्त एनकाउंटर में हादसे का शिकार होता है और अपाहिज हो जाता है। अपने अच्छे दिनों को याद करते हुए वह अवसाद का शिकार है और अपनी ही बीवी और भाई को कहता है कि वे उसका मर्डर कर दें। कहानी यहां से करवट लेती है। कुछ चीजें बिलकुल ही खोलकर बता ही गई हैं जैसे पुलिस अफसर की बीवी का उसके भाई के साथ अफेयर है। बाद में थ्रिलर इस बात पर जाकर टिक जाता है कि वह मर्डर था कि हादसा। लेकिन इससे पहले दर्शक सब कुछ जान जाते हैं कि वह सचमुच क्या था। जो अभियुक्त है, वो किस तरह खुद को बचा रहा है।
फिल्म में सन्नी देओल और इरफान खान लीड रोल में हैं तो ईशा कोप्पिकर और कोंकणा सेन भी हैं। कहानी इतनी ज्यादा थ्रिलिंग नहीं है कि आप पहले से अंदाजा ना लगा सकते हों। इस लिहाज से यह एक औसत फिल्म है। एक्शन दृश्य अच्छे हैं। कहानी कहने की पुरानी अदा, जैसे कोर्ट में गवाही, वकीलों की जिरह जैसे पुराने पड़ चुके दृश्यों को नया रंग देने की कोशिश की गई है। गीत संगीत औसत हैं और गैर जरूरी भी लगते हैं। ईशा कोप्पिकर पर फिल्माए गए बैडरूम दृश्य कुछ ज्यादा ही बोल्ड हैं और अनावश्यक लंबे किए गए हैं, जाहिर है, फिल्म को उत्तेजक दृश्यों के सहारे नहीं बेचा जा सकता। टाइमपास के लिए ठीक ठाक फिल्म है।

शनिवार, मार्च 06, 2010

अतिथि तुम कब जाओगे:

यहां अतिथि भगवान माना गया है लेकिन इस फिल्म का शीर्षक ही यह दुआ कर रहा है कि अतिथि घर छोड़कर जाए। मुंबई में फिल्म राइटर पुनीत के घर उनके दूर के रिश्तेदार लंबोदर चाचा आए हैं। पुनीत और उसकी कामकाजी पत्नी मुनमुन ने शुरुआती दिनों में आदर भाव दिखाया लेकिन धीरे धीरे इस अतिथि की वजह से उनकी निजी जिंदगी में भूचाल आ गया। माता पिता के कामकाजी और शहरी जीवन शैली से अकेलेपन से जूझ रहा उनका छह साल का बच्चा लंबोदर चाचा से घुलमिल गया है। लंबोदर चाचा के पास मुंबई में आस पास के गांव के परिचित लोगों की सूची हैं जिन्हें उन्होंने याद किया है। कुल मिलाकर लंबोदर चाचा गांव के हैं और पुनीत और उसकी पत्नी पर शहरीकरण का पूरा रंग है। उन्हें अतिथि बोझ ही लगता है। सबके पास अपनी थोड़ी सी स्पेस है और दिल बुरी तरह संकरा। दोनों पति पत्नी हर मुमकिन कोशिश करते हैं कि वे लंबोदर चाचा को वहां से निकालें लेकिन लंबोदर चाचा है कि धीरे धीरे मोहल्ले में लोगों और बच्चों के भी प्रिय बन गए हैं। वे जाने का नाम ही नहीं ले रहे। आखिरकार एक मामूली घटनाक्रम के बाद वे स्वयं ही उनका घर छोड़कर जाने की बात करते हैं। फिल्म की पटकथा में लोकजीवन की छोटी छोटी कथाओं को पिरोया गया है। लंबोदर चाचा द्वारा बार बार गैस निकालने की ध्वनि एक स्तर पर आकर थोड़ी ऊब पैदा करती है लेकिन कुल मिलाकर फिल्म एक स्वस्थ पारिवारिक मनोरंजन करती है। खासकर महानगर में रहने वाले लोग लंबोदर चाचा जैसे अतिथि का कभी ना कभी सामना तो करते ही हैं। फिल्म बिना कुछ कहे गांव और शहर के लोगों की मन:स्थिति के बुनियादी फर्क को भी रेखांकित करती है कि घर बड़े बनाकर और दौलत कमाने वाला मध्यवर्गीय आदमी में शहर में आकर कैैसे अपनी प्राथमिकताएं बदल देता है। फिल्म में लंबोदर चाचा बने परेश रावल अदभुत लगे हैं। अजय देवगन ओर कोंकणा ठीक हैं। चौकीदार बने संजय मिश्रा का काम भी काबिले तारीफ है। गीत इरशाद कामिल के हैं और बीड़ी जलाइले की धुन पर माता की आरती ठीक लगती है। संगीत प्रीतम और अमित मिश्रा का है। कबीर और रहीम के दोहों को अच्छे से इस्तेमाल किया गया है। निर्देशक अश्विनी धर ने एक मनोरंजक फिल्म रची है। फिल्म खत्म होते होते अतिथि देवो भव ही स्थापित होता है।

फागुन घुस गया है जहन में

फरवरी का आखिरी और मार्च का पहला पखवाड़ा उत्तरी भारत में एक खुशनुमा मौसम का होता है। बसंत पंचमी अक्सर सर्दी के बीचोंबीच आती है लेकिन होली आते आते मौसम एक करवट लेता है। ठिठुरन से रजाई में दुबके रहने और लू के थपेड़ों से बचकर घर में पड़े रहने जैसे अकर्मण्य अहसासों से मुक्ति दिलाने वाले ये महीने उल्लेखनीय हो जाते हैं। यही वे दिन होते हैं, जब हमारा सर्जन उफान पर होता है। काम करने की इच्छा होती है। लोगों से मिलने की इच्छा होती है। एक दूसरे को छेडऩे की इच्छा होती है। बरसाने में इसी छेड़छाड़ में लट्ठमार होली होती है तो शेखावाटी में धमाल और गींदड़ के साथ लोग झूमते हैं।
मेरे गांव के कई लोग ऐसे हैं, जिनके बारे में मैं पूरे साल कुछ नहीं जान पाता था। जैसे बिड़दाराम। बिड़दाराम पूरी साल खेती बाड़ी करके, मेहनत मजूरी करके इज्जत से अपने परिवार को पालता है। सामान्य दिनों में वह इतना दिलचस्प इंसान नहीं होता लेकिन होली के दिनों में गींदड़ में सबसे बेहतरीन स्वांग करता है। पिछले साल की बात है, वे लोग एक आदमी को गधागाड़ी में पटक के लाए। पूरे जिस्म पर प्लास्टर किया हुआ। सिर्फ नाक खुला था। गधे के सिर पर उन्होंने टॉर्च लगाई। एक हरा चमकीला कागज बांधकर एंबुलेस की शक्ल दी थी। गाड़ी की तरफ उन्होंने स्विच लगाया था। उससे वो हरी बत्ती बिल्कुल जलती बुझती दिख रही थी। एक टेपरिकॉर्डर से एंबुलेस के सायरन की ध्वनि निकाली गई। साल भर गंभीर रहने वाला सुल्तान यहां एक कॉमिक डॉक्टर था। आंख पर एक चश्मा, जिस पर एक तरफ का कांच था ही नहीं। सफेद एप्रिन और स्टेथेस्कोप गांव की प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से जुटाया गया। क्लिनिक में गांव के एक बढ़ई के घर से मांग कर लाई गई करोत, बसौला, हथौड़ा, छैनी, आरी जैसे ऑपरेशन के औजार थे। लोग हंस हंस के लोट पोट थे। डॉक्टर ने कहा, मरीज की सर्जरी होगी, क्योंकि उसके पास मरीज आते ही नहीं है और कई दिन से उसने आपरेशन किया नहीं है। उसकी आपरेशन करने की दिलीतमन्ना है, वरना एमबीबीएस की पढ़ाई बेकार जाएगी। उसने ईमानदारी से यह भी बताया कि आजतक जिस मरीज का आपरेशन उसने किया वह जिंदा नहीं बचा। मरीज के परिजन अपनी गधा एंबुलेस को लेकर आगे भाग रहे थे कि मरना मंजूर लेकिन ऑपरेशन नहीं कराएंगे। होली ने मेरे गांव में नाटक को अब तक बचाकर रखा है। वह उन मेहनतकश लोगों को साल भर की यंत्रणा और थकान से मुक्ति देती है। एक तरह से रिचार्ज करती है। वे अपनी ही व्यथा कथाओं पर तंज करते हुए खुद पर हंसते हैं।

हमारे यहां एक मुहावरा चलता है कि इसमें फागुन घुस गया है। इसके माने है कि जिसमें फागुन घुस गया दुनिया उसके जूते की नोंक पर है। मस्त रहो, खुलकर कहो। आप कुछ भी पूछिए, कोई बात का सीधा जवाब नहीं देता। वह तुक मिलाएगा। अश्लील या शालीन हास्य टिप्पणी करेगा। जब मै स्कूल के दिनों में हॉस्टल में था तो तीसरी क्लास में पढऩे वाले अमित ओर सुमित नाम के जुड़वा भाई भी हॉस्टल में रहते थे। एक सुबह किसी ने सुमित से कह दिया कि यार तेरे में फागुन घुस गया है। वह दौड़कर कमरे में गया। कपड़े उतारे, झाड़े लेकिन फागुन दिखाई नहीं दिया। वह मेरे पास आया। रोने लगा कि मेरे कपड़ों में फागुन घुस गया है। दिख भी नहीं रहा। वह मुझे काट लेगा। हॉस्टल के बच्चे हंस हंस के लोटपोट थे। अब उस बच्चे को यकीन दिलाना मुश्किल हो गया कि फागुन कुछ होता ही नही। सुमित का रोना नहीं थमा। वार्डन को उसने शिकायत की। वार्डन ने उसकी निशानदेही पर हम सबको हॉस्टल के बरामदे में कतार लगाकर खड़े होने को कहा ओर चपरासी से डंडा लाने को। दस मिनट बाद हम सबका फागुन वार्डन ने निकाल दिया था। सुमित को अब भी शक था कि उसके कपड़ों से फागुन अभी तक निकला नहीं।

बुधवार, मार्च 03, 2010

हुसैन के बहाने सर्जन की दुविधा


चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन यदि कतर के नागरिक होने जा रहे हैं। दोहरी नागरिका का प्रावधान नहीं होने की वजह से क्या वे भारत के नागरिक नहीं रहेंगे? इससे बड़ी शर्मनाक बात किसी सरकार के लिए नहीं हो सकती कि उनका एक विख्यात और संवेदनशील कलाकार को लगातार अपमानजनक ढंग से अपने देश से बाहर निर्वासित रहना पड़े। खासकर तब, जब वहां एक लोकतांत्रिक सरकार चल रही हो। दुनिया में बहुत से लेखकों और कलाकारों को निर्वासन की पीड़ा झेलनी पड़ी ही है। यह हमारे समय की सबसे बड़ी पीड़ा है कि समाज विज्ञानों, इतिहास और सांस्कृतिक विरासत को हमने ताक पर रख दिया है? बहुसंख्यक लोगों को यह मानने के लिए बाध्य कर दिया गया है कि गलती हुसैन की ही थी। उन्होंने ऐसा क्यों किया? ऐसी पेंटिंग्स क्यों बनाई जिनकी वजह से लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंची। क्या हम जानते हैं यह लोग कौन हैं? क्या ये लोग जानते हैं कि हमारी सांस्कृतिक विरासत से ही हुसैन की चित्रकला प्रभावित रही है। उसी को उन्होंने नए आयाम दिए हैं। उन सबका उल्लेख मेरे खयाल से बेमानी है कि हुसैन से पहले और हुसैन के समकालीन कई चित्रकारों ने देवी देवताओं की ऐसी तस्वीरें बनाई हैं लेकिन उन पर इन सांस्कृतिक झंडाबरदारों की नजर ही नहीं गई। क्या ये लोग कला का इतिहास पढते हुए उन सब लोगों की सूची तैयार करेंगे और उन्हें भी देश निकाला देंगे? क्या ये लोग खजुराहो की मूर्तियों को भी ऐसे ही तोड़ देंगे जैसे तालिबान ने बामियान की बुद्ध की मूर्तियां तोड़ दी थी? ऐसा मुमकिन नहीं है। यह हमें समझना चाहिए ये मुट्ठी भर लोग सत्ता और प्रचार की भूख में ऐसे विरोध प्रदर्शन खड़े करते हैं और उसका खमियाजा कलाकार को उठाना पड़ता है। ऐसा नहीं है कि हुसैन सिर्फ हिंदू रूढिवादियों के ही शिकार हुए हैं। मुस्लिम प्रतिरोध भी उन्हें सहने पड़े हैं। उनकी फिल्म मीनाक्षी में एक गाने के बोलों को लेकर लोगों ने आपत्ति जताई थी कि पवित्र कुरान से ली गई हैं और उन्हें ऐसे इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। हमारे यहां प्रचार का सॉफ्ट टारगेट कलाकार, खिलाड़ी या वो गैर राजनीतिक लोग होते हैं जिनके पास इन कट्टरपंथियों का मुकाबला करने के लिए बेरोजगारों की फौज नहीं होती। क्योंकि ये लोग सर्जन कर रहे होते हैं। टेनिस कोर्ट पर कामयाबी की इबारतें लिख रही सानिया मिर्जा के स्कर्ट की साइज में किसी को क्या दिलचस्पी या आपत्ति होनी चाहिए, लेकिन यहां होती है। सचिन तेंदुलकर के इस बयान में कि मुंबई सब भारतीयों की है, क्या आपत्ति होनी चाहिए लेकिन यहां होती है? क्या आज तक करोड़ों डकारने वाले मधु कोड़ा के खिलाफ कोई प्रदर्शन ये लोग कर रहे हैं? दरअसल देश की बुनियादी समस्याओं पर जो चिंतन लेखक कलाकार कर रहे हैं, उन्हें प्रताडि़त कर वे सत्ता में बैठे गैर जिम्मेदार लोगों का बचाव कर रहे होते हैं। क्योंकि विरोध करने वालों का असली मकसद लोगों का ध्यान आकर्षित करना और उसे भुनाकर सत्ता की सीढिय़ों के रूप में इस्तेमाल करने करने तक में ज्यादा रहता है। सच्चाई यह है कि एक लेखक, चित्रकार या सर्जक अपने लोकप्रिय होने की कीमत चुकाता है। माइ नेम इज खान का विरोध सिर्फ इसलिए हुआ कि शाहरुख खान ने ऐसा क्यों कहा कि आइपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ी खेलने चाहिए। हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जहां लोकप्रिय होने के बाद आप वो नहीं कह सकते जो आप सोचते हैं।आमतौर पर सतही सोच वाले ये लोग यह प्रचारित भी करते हैं कि लोकप्रियता हासिल करने के लिए लेखक और कलाकार जान बूझकर विवादित विषयों को उठाते हैं। उससे वे जल्दी लोकप्रिय होते हैं। क्या किसी को यह समझाया जा सकता है कि कला और सर्जन से प्रेम करने वाला इतना शातिर हो ही नहीं सकता कि वह जोड़ बाकी गुणा भाग लगाना जानता हो। इतना सब उसे आता हो तो सर्जन से बेहतर तो राजनीति है। सर्जन की एक अपनी विचारधारा होती है। आप उससे असहमत हो सकते हैं लेकिन उसे खारिज नहीं कर सकते। आप अपना विरोध व्यक्त कर सकते हैं लेकिन किसी पर हमला नहीं कर सकते। किसी की बरसों की मेहनत पर पानी नहीं फेर सकते। उसकी पैंटिंग को जला नहीं सकते। आने वाली नस्लों के पास इस दौर की कला, साहित्य और सांस्कृतिक विरासत ही प्रेरणास्पद रहेगी। राजनीति को तो हमने गंदा कर ही दिया है। वहां कोई विचारधारा है बची ही नहीं। सत्ता और धन की जोड़ तोड़ रह गई है। यह दुर्भाग्यपूर्ण समय है जब एक कलाकार निर्वासन से पीडि़त है। वह अपने घर लौटने को तरस गया और हमारे नेता जश्न मना रहे हैं। जनता को दहाई के आंकड़े में विकास दर होने का छद्म आश्वासन दे रहे हैं। जिनकी राजनीतिक विरासत में लालच और भ्रष्टाचार की बदबू आ रही है। यह समस्या केवल यहीं नहीं है। सलमान रश्दी और तस्लीमा नसरीन ने निर्वासन झेला ही है। आज अमेरिका के बड़े आलोचक होकर नौम चौमस्की अमेरिका में रह ही रहे हैं। उन पर आज तक कोई जानलेवा हमला नहीं हुआ। सभ्य समाजों की पहचान यही है कि आप लेखक और कलाकार को आजादी देंगे। उसकी आजादी पर कम से आप उन लोगों को पाबंदी लगाने का हक नहीं, जिन्हें उस विधा से कोई लेना देना ही नहीं। उन्हें राजनीतिक लाभ लेने से मतलब है। कला, साहित्य और सांस्कृतिक विरासत हमारी सरकारों के एजंडे में ही नहीं है। आज कितने साल हुए, देश के सांस्कृतिककर्मी लगातार वकालत करते रहे हैं कि हुसैन को भारत लाने के लिए सरकार को पहल करनी चाहिए। लेकिन कुछ हुआ नहीं। आज हुसैन कतर के नागरिक बन रहे हैं तो यह हमारी उस सरकार के मुंह पर तमाचा है। अब भी सरकार को कोशिश करनी चाहिए कि हुसैन भारत आएं। सरकार उन्हें हिफाजत का आश्वासन दे। सिर्फ यह कहकर काम नहीं चलाए कि हुसैन प्राइड ऑव इंडिया हैं और भारत में उनका स्वागत है। इन सारे तमगों से ज्यादा उन्हें सचमुच इज्जत देने की है। भारत लाने की है।