सोमवार, जून 20, 2011

तुझको देखा है मेरी नजरों ने तेरी तारीफ हो मगर कैसे



                   DAAN SINGH JI  IN HOSPITAL ON 13 JUNE 2011
उन्होंने आखिरी बार संगीत फिल्म भोभर में दिया है। हमारे एक मित्र के साथ जब फिल्म के गाने को लेकर जब हम उनसे मिले थे तो अपना पहला गीत होने के कारण मैं डर रहा था कि कहीं वे यह ना कह दें कि यह क्या गीत हुआ? लेकिन उन्होंने पहले कहा, गाने के बोल बताइए। फिर कागज अपने हाथ में लिया। गाना पढा और बोले, उस्ताद, अच्छा लिखा है।

 एक मशहूर गायिका के प्रेम प्रसंग के बारे में मैंने उनसे इसलिए पूछ लिया था कि बहुत कुछ जानते थे लेकिन वे तुरंत पलटकर बोले, मैं जानता हूं आप क्या पूछ रहे हैं लेकिन मैं कुछ नहीं बोलंूंगा, मैं रहूं ना रहूं ये शब्द रहेंगे और मुझे ऐसे किसी प्रसंग से कोई प्रचार नहीं चाहिए। कोई विवाद नहीं चाहिए। एक मशहूर निर्देशक ने उनसे किए वादे को ना निभाया और यह भी जब मैंने पूछा तो वे मौन हो गए। उन्होंने कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की। यहां तक परिवार में हुए हादसों के बारे में भी वे कम बात करते थे। वे संगीत को जीते थे और बस उसी की धुन में मस्त रहते थे। उनकी मृत्यु से पांच दिन पहले ही जब हम अस्पताल में उनसे मिले थे तो उन्होंने वादा किया था कि रामजी, मैं ठीक होते ही आपको दूसरी कंपोजिशन सुनाउंगा। आपने जो लिखा है, उसमें थोड़ा कबीर का अगोचर राम है, थोड़ा रहस्यवाद है। धुन भी वहीं से निकालकर लाऊंगा। ऐसे उत्साही और जिंदादिल थे संगीतकार दान सिंह, जो इस ताउम्र इस शहर में रहे, मुंबई गए और कुछ चुनिंदा अमर धुनें रचकर इसी शहर में लौट आए और यहीं से हमेशा के लिए विदा हो गए। उन्होंने ना लोगों की, ना मुंबई की और ना ही सरकार की बेरूखी पर कभी अफसोस जताया और ना ही दूसरे कलाकारों की तरह बेचारगी का रोना रोया। हां, राजनीति और निरर्थकताओं से भरी हमारी अकादमियों और सरकारों ने भी कभी उनसे पूछने और उन्हें कुछ सौंपने की जहमत नहीं उठाई।
वे अपने गुरु खेमचंद्र प्रकाश के जिक्र मात्र से रोमांचित हो उठते थे। एक बच्चे सी चपलता के साथ कई किस्से एक साथ सुना डालते थे।  अपने गुरु की ही तरह उन्होंने चुनिंदा धुनें बॉलीवुड को दी लेकिन वे सब अमर धुनें हैं। मुकेश उनके प्रिय थे और वो तेरे प्यार का गम, इक बहाना था सनम, जिक्र होता है जब कयामत का तेरे जलवों की बात होती है गीतों की अमर धुनें बनाईं।
गुलजार के लिखे पुकारो मुझे नाम लेकर पुकारो की की रिकॉर्डिंंग पर जब मुकेश आए तो उन्होंने दान सिंह से धुन सुनते ही कहा, दादा यह गाना तो मैं सुनकर आया हूं इसी धुन पर। तुम्हीं मेरे मंदिर तुम्हीं पूजा, तुम्हीं देवता हो, तुम्हीं देवता हो। जैसा कि दान सिंह बताते थे कि मुकेश ने हंसकर कहा था किसी दिन आपने गाफिल होकर कहीं सुना दी होगी लेकिन यह धुन अब आपकी नहीं रही और दान सिंह बोले, आप आ ही गए हो, गाना रिकॉर्ड आज ही होगा और यह लो नई धुन। और इस तरह पुकारो मुझे नाम लेकर पुकारो की एक नई धुन हाथोंहाथ उन्होंने तैयार कर दी।
इन दिनों उनकी पत्नी डॉ. उमा याज्ञनिक पूरे समर्पण के साथ उनकी सेवा कर रही थीं। उनकी मुहब्बत और नोंक झोंक का मैं गवाह रहा हूं। चाय पिलाने के बाद जब वे पूछती कि चाय कैसी बनी है, वे बोले, उम्दा। बोली, अभी इनके सामने तारीफ कर रहे हो लेकिन इनके जाते ही कहोगे कि उमा आजकल पता नहीं तुम्हें क्या हो गया है, तुम चाय बनाना भूल गई हो।
उन्होंने आखिरी बार संगीत फिल्म भोभर में दिया है। हमारे एक मित्र के साथ जब फिल्म के गाने को लेकर जब हम उनसे मिले थे तो अपना पहला गीत होने के कारण मैं डर रहा था कि कहीं वे यह ना कह दें कि यह क्या गीत हुआ? लेकिन उन्होंने पहले कहा, गाने के बोल बताइए। फिर कागज अपने हाथ में लिया। गाना पढा और बोले, उस्ताद, अच्छा लिखा है। और अगले ही दिन दो धुनें तैयार थी। वे युवा निर्देशक गजेंद्र श्रोत्रिय से बोले, आपको पसंद ना आएगी तो और धुनें सुनाउंगा। आप बेहिचक बताइए। वे इतने सहज और दंभ रहित थे। अगली बार जब हम बीमारी में उनसे घर मिलने गए थे तो बोले, मैंने कहा था ना रामजी कि आपने अच्छा लिखा है। आज मुझे उसके बोल याद हैं और यूं लगता है जैसे मुझ पर ही लागू हो रहे हैं, देह मिली, संग दरद मिल्यो, उगतो सूरज ढळै है रोज। और फिर वे गाने के मुखड़े पर आए कि उग म्हारा सूरज तनै भोर बुलावै, सांझ सूं भटक्यो, घर क्यूं ना आवै। बोले, अपना सूरज ढूंढऩे की यह बहुत बड़ी पुकार है, यह अमर हो जाएगी। इस स्नेह से मेरी आंखें नम थीं।
मुझे उन्हीं के संगीतबद्ध किए माय लव फिल्म गीत की पंक्तियां याद आती हैं जिसमें आनंद बख्शी के बोल और मुकेश की आवाज है-
तुझको देखा है मेरी नजरों ने तेरी तारीफ हो मगर कैसे,
कि बने यह नजर जुबां कैसे कि बने यह जुबां नजर कैसे
ना जुबां को दिखाई देता है, ना निगाहों से बात होती है
जिक्र होता है जब कयामत का तेरे जलवों की बात होती है।
(published in rajasthan patrika on 19 june 2011)

शनिवार, जून 11, 2011

वे मुस्करा रहे थे, गम छुपा रहे थे


हुसैन टहलते हुए थिएटर के बाहर खुले चौक में नंगे पांव घूम रहे थे। फर्श बेहद गर्म था और उनके चेहरे पर मुस्कान। यह मेरे खयाल से उनके भारत में होने का सबसे बेहतरीन बिंब था कि उनके चलने के लिए जमीन बहुत गर्म थी फिर भी वे मुस्करा रहे थे। 

यह जयपुर में अप्रेल २००४ की एक गर्म दुपहर थी और हम थिएटर में मकबूल फिदा हुसैन के साथ उनकी फिल्म मीनाक्षी: अ टेल ऑव थ्री सिटीज देख रहे थे। यह आमंत्रित लोगों का एक विशेष शो था। वे बार-बार पर्दे से कहीं ज्यादा दर्शकों के चेहरे पढऩे की कोशिश कर रहे थे। नए किस्म के सिनेमा का प्रशंसक होने के नाते मैं मुग्ध भाव से कविता की तरह बह रही फिल्म के संवाद, गीत, संगीत और विशेषकर छायांकन का लुत्फ ले रहा था। जिन तीन शहरों की कहानी इसमें थी उसमें मैंने केवल जैसलमेर ही साक्षात देखा था लेकिन कैमरे ने पैन होते हुए फिल्म में जब जैसलमेर को दिखाया तो यूं लगा कि यह उससे भी खूबसूरत कोई शहर है, जिसे मैंने देखा है। यह तारीफ मैंने फिल्म के बाद बातचीत में हुसैन साहब से की तो वे बोले, जिन लोगों ने हैदराबाद और प्राग देखे हैं वे भी यही कहते हैं कि इन शहरों से गुजरते हुए उन्हें इतने खूबसूरत कभी नहीं लगे जितने कि पर्दे पर लग रहे थे। बेशक कैमरे पर संतोष सिवान थे लेकिन यह एक चित्रकार की फिल्म थी और फिल्म पर उस समय विवाद थे। कोई रिलीज नहीं कर रहा था  अपने स्तर पर रिलीज करने खुद राजस्थान आए थे। वे बोले, आखिर इस प्रदेश का एक शहर मेरी फिल्म का हिस्सा है और यहां इसे देखा जाना चाहिए। एक कलाकार की भावुकता का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा? मीनाक्षी में एक ऐसा संवाद है कि सूरज की किरण की तासीर भी अजीब है, मिट्टी पर गिरती है तो उसे सुखाती है और बदन को छूकर उसे गीला कर देती है। फिल्म के संवाद लेखकों में उवैस हुसैन और एमएफ हुसैन का नाम था। मैंने उनसे पूछा, यह संवाद उवैस का है या आपका? एक बच्चे की तरह शर्माते हुए और प्रफुल्लित होते हुए वे बोले, यह वाला मैंने लिखा है। उनकी सफेद दाढ़ी से ऊपर निकले गालों पर एक हल्की सी लालिमा थी।
 बहरहाल वे इस बात से खुश थे कि आप लोग इस फिल्म को समझ रहे हैं। मुझे करोड़ों लोगों को नहीं दिखानी लेकिन एक वक्त आएगा जब हम धीरे धीरे सिनेमा की नई भाषा ईजाद करेंगे। आज हम देख रहे हैं कि सिनेमा में धीरे धीरे कुछ मूर्त और अमूर्त बिंब आ रहे हैं। यह भारतीय दर्शकों के लिहाज से समय से पहले का सिनेमा था। आज युवा फिल्मकारों की पीढ़ी सिनेमा में अपना मुहावरा ईजाद कर रही है तो मुझे हुसैन याद आते हैं जो अपनी उम्र के बावजूद अपनी सोच से बेहद युवा थे।

हुसैन टहलते हुए थिएटर के बाहर खुले चौक में नंगे पांव घूम रहे थे। फर्श बेहद गर्म था और उनके चेहरे पर मुस्कान। यह मेरे खयाल से उनके भारत में होने का सबसे बेहतरीन बिंब था कि उनके चलने के लिए जमीन बहुत गर्म थी फिर भी वे मुस्करा रहे थे। उनके चित्रों और विवादों का नाता तो पुराना था। इस माहौल में भी बहुत से संगठनों की धमकियां थीं कि वे फिल्म नहीं चलने देंगे। हिंदुवादियों की अपनी जिद थी और कुछ मुस्लिम संगठनों को फिल्म के एक गाने को लेकर विवाद था जिसे खुद हुसैन ने लिखा था। देशभर में फिल्म के प्रदर्शन को लेकर असमंजस था। इस पूरे घटनाक्रम से वे भीतर से बेहद आहत थे। वे बोले, कोई आदमी मेरी फिल्म नहीं दिखाना चाहता। कोई झगड़े में नहीं पडऩा चाहता। इसलिए मैं खुद इसे रिलीज कर रहा हूं। मुझे यकीन है, एक दिन हमारे देश में लोग अपने आपको अभिव्यक्त करने की आजादी का मतलब समझेंगे।

बाद के सारे ही घटनाक्रम बेहद दु:खद रहे। जो सभी जानते हैं। मैं सिर्फ यह जिक्र  करना चाहता हूं कि जिस गुजरात के म्यूजियम्स में उनकी पेंटिग्स पर हमले हुए, उस गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और एमएफ हुसैन का जन्म दिन १७ सितंबर ही है और दोनों विचारों के दो छोर पर खड़े हैं और इसके तर्क भी निश्चित रूप से अंकशास्त्रियों के पास होंगे कि सन भले ही अलग हो लेकिन एक तारीख को पैदा हुए लोगों को इतिहास दो अलग अलग कारणों से क्यों याद करेगा?

मुमकिन है, कला, अभिव्यक्ति और संवेदनाओं के प्रति निष्ठुर लोगों की नजर में हुसैन खलनायक रहे होंगे लेकिन सच तो यह है कि हमारे इतिहास में एक बात हमेशा अमिट रहेगी कि सत्ता के लिए भारत माता की झंडाबरदारी करते हुए सुख भोगने और अपनी जमीन से निर्वासित रहते हुए देह त्याग देने में कितना फर्क होता है? कतर की नागरिकता लेने के बावजूद हुसैन अपने देश लौटना चाहते थे। इतिहास ही एक दिन आने वाली पीढियों को बताएगा कि इस दौर में शिकारी कौन थे और शिकार कौन हुआ?

मंगलवार, जून 07, 2011

सौ बरस के अमर अकीरा कुरोसावा



अकीरा कुरोसावा जापान के फिल्‍मकार थे लेकिन विश्‍व सिनेमा को उनका अदभुत योगदान है। कुरोसावा अपने समय के सबसे आधुनिक और प्रयोगशील सिनेमा के लिए जाने जाते हैं। मुझे वे इसलिए भी ज्‍यादा लुभाते हैं कि उन्‍होंने सिनेमा बनाने में हर वक्‍त जोखिम ली। खासकर उस दौर में जब हॉलीवुड के सिनेमा अपना व्‍याकरण विकसित करके विश्‍व सिनेमा को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा था उस दौर में जापानी समाज को लेकर कुरोसावा के उल्‍लेखनीय काम ने सबकी आंखें खोल दी। बाद में हॉलीवुड सिनेमा कुरोसावा के प्रभाव से बच नहीं पाया।
जापान इस मामले में आगे रहा है कि इस छोटे से देश के सांस्‍कृतिक सामाजिक परिदृश्‍य को पूरी दुनिया में पहचान दिलाने में यहां के लेखकों और फिल्‍मकारों की महत्‍त्‍वपूर्ण भूमिका रही है। दूसरे विश्‍वयुद़ध के दौरान परमाणु हमला झेलने के बाद तो वैसे भी जापान पूरी दुनिया के केंद्रीय चिंतन में था और वहां के सिनेमा में इस त्रासदी का असर देख सकते हैं।
कुरोसावा टोक्‍यो के नजदीक तेईस मार्च 1910 को पैदा हुए थे। वे अपने मां बाप की सातवीं संतान थे। उनक पिताजी एक सैनिक अफसर थे और मां व्‍यापारी परिवार से थी। उसके पिता काफी सख्‍त थे और उन्‍हें अपनी पारंपरिक समुराई तलवार बहुत प्रिय थी। वे अपनी पत्‍नी से नाराज होते थे कि वह सब कुछ समुराई परंपरा के मुताबिक नहीं करती थी।
कुरोसावा जब छोटे थे तो उन्‍होंने एक सपना देखा था कि वे एक रेलवे ट्रेक एक तरफ हैं और उनका परिवार दूसरी तरफ। एक कुत्‍ता है जो दोनों के संदेश एक दूसरे को पहुंचा रहा है। इसी दौरान रेल के आने से कुत्‍ता कट गया। उन्‍हें लगा जैसे वह टुना फिश की तरह कटा है। इसके बाद वे तीस साल तक इस समुद्री मछली को खा नहीं पाए थे।
वे अपने स्‍कूल में रोते बच्‍चे कहलाते थे। 1930 में अपनी सेना भर्ती की शारीरिक परीक्षा उत्‍तीर्ण नहीं कर पाए थे। वे वॉनगॉग और सीजेन से प्रभावित थे और एक पेंटर बनना चाहते थे लेकिन जल्‍द ही उन्‍हें यह अहसास हो गया कि इसमें वे कुछ नया नहीं कर पा रहे हैं तो उनका रुझान साहित्‍य की तरफ हुआ लेकिन जल्‍द ही यहां भी उन्‍हें कुछ जमा नहीं। हम उनके सिनेमा पर गौर करते हैं तो पाएंगे कि वहां पेंटिंग्‍स और पाश्‍चात्‍य साहित्‍य का गहरा असर दिखता है। वे अपने हर फिल्‍म का स्‍टोरीबोर्ड बनाकर काम करना पसंद करते थे।

सिनेमा के अलावा उन्‍हें वे खाने के बेहद शौकीन थे। खाली समय में उन्‍हें अध्‍ययन ओर गोल्‍फ खेलना पसंद था। जब उनकी मृत्‍यु हुई तो उनके बेटे ने उनके कफन में गोल्‍फ कोर्स रखा था। वे अक्‍सर अपने स्‍टोरीबोर्ड पैंट करते थे और उनमें ज्‍यादातर रेखांकनों के बजाय कलाकृतियों की तरह लगते हैं।
कुरोसावा अकसर कहते थे, हर आदमी वह पाता है जिसे वह प्‍यार करता है। वे कहते थे, पहले यह तय करो कि आपके लिए सबसे महत्‍त्‍वपूर्ण क्‍या है। अगर आप यह तय कर पाएं कि यही चीज आपकी जिंदगी में सबसे ज्‍यादा महत्‍त्‍वपूर्ण तो फिर अपनी पूरी ऊर्जा के साथ उसे हासिल करने के लिए जुटना चाहिए। जाहिर है, कुरोसावा ने ऐसा ही किया था।
कुरोसावा फिल्‍मों में अपने बड़े भाई की मदद से आए थे। वे मूक फिल्‍मों के नैरेटर थे और कुरोसावा के प्रवेश लगभग उसे दौर का है जब बोलती फिल्‍मों को दौर शुरू हो रहा था। कुछ समय सहायक निर्देशक के रूप में काम करने के बाद उन्‍होंने अपनी पहली फिल्‍म निर्देशित की सुगाता सनशिरो (1943)। उस समय उनकी उम्र बत्‍तीस साल थी। यह फिल्‍म सेंसर में अटक गई। दूसरे विश्‍वयुद्ध के दौरान उन्‍होंने राष्‍ट्रवादी फिल्‍में बनाई। सही मायनों में 1948 में आई ड्रंकन एंजल उनकी पहली फिल्‍म थी जो कुरोसावा की फिल्‍म कही जा सकती है। इसी फिल्‍म में उनके पसंदीदा हीरो तोशिरो मिफुन ने काम किया, जो कई फिल्‍मों में बाद भी उनके साथ रहा। जब भी मैं कुरोसावा की यह फिल्‍म देखता हूं मुझे कहीं ना कहीं राजकुमार हिरानी के मुन्‍नाभाई और डा.अस्‍थाना याद आते हैं। कोई भी शायद इस बात से इत्‍तेफाक नहीं रख सकता और यहां रिलेशनशिप अलग किस्‍म की है लेकिन मुझे हमेशा लगता है कि एक डॉक्‍टर और मरीज के एक रिश्‍ते की कुरोसावा की वह सबसे मौलिक कल्‍पना थी ओर मुमकिन है राजू हिरानी कुरोसावा के इन चरित्रों से प्रभावित रहे हों। इस फिल्‍म ने कुरोसावा को एक नए व्‍याकरण वाले सिनेमा के निर्देशक के रुप में पहचान दिलाई और उसक अगले साल आई फिलम स्‍ट्रे डॉग में क्रिमिनल माडंड की पड़ताल अदभुत है। अगले ही ही साल उनकी फिल्‍म स्‍केंडल भी आई लेकिन इसी साल रिलीज उनकी दूसरी फिल्‍म राशोमन ने उन्‍हें विश्‍व ख्‍याति दिलाई जहां एक हत्‍या के अलग अलग चश्‍मदीद अपने ढंग से उसकी व्‍याख्‍या करते हैं और उसमें असली हत्‍यारे को तलाशना चुनौती बन गया है। फिल्‍म अपनी कहानी से भी ज्‍यादा मौलिक नैरेशन के लिए चर्चित रही और कुरोसावा की एक नई पहचान के साथ सामने आए।
कुरोसावा का सिनेमा कालातीत है। उनकी कुछेक फिल्‍मों के अलावा मैंने उनकी लगभग फिल्‍में देखी हैं और हर फिल्‍म में वे एक नए भाव बोध के साथ सामने आते हैं।
वे मानवीय भावनाओं और मस्तिष्‍क में चल रहे द्वंद्व के अप्रतिम चितेरे हैं। उनकी फिल्‍में अपनी विधा से आगे एक कलाकृति, एक उच्‍च किस्‍म की साहित्यिक कृति या दस्‍तावेज की तरह सामने आती हैं।

हाई एंड लो (1963) याद करते हुए मैं उन दो पिताओं और एक अपराधी के अंतरसंघर्ष को याद करता हूं जहां निचली बस्‍ती में रहने वाले क्रि‍मिनल ने एक अमीर के बेटे का अपहरण करने के बजाय गलती से उनके नौकर के बेटे का अपहरण कर लिया है। अपराधी अपनी फिरौती की रकम लेने को आमादा है और अमीर व्‍यवसायी इस दुविधा में है कि उसके बेटे के दोस्‍त और नौकर के बेटे को बचाया जाय या नहीं। ना केवल कथ्‍य के स्‍तर पर बल्कि सिनेमाई थ्रिल भी अंत तक कायम रहता है, जो आपको आखिर तक जाते जाते भावुक कर देता है। यह कहानी नहीं बल्कि तत्‍कालीन जापानी समाज एक डॉक्‍यूमेंट्री की तरह प्रतीत होता है। जिस बेहतर ढंग से कुरोसावा समाज के भीतर चल रहे संघर्षों और परिवर्तनों को देख पाते थे, वह उनकी महान सिनेमाई दृष्टि का प्रमाण है।
सेवन समुराई (1954) को सोलहवीं सदी के कालखंड में वे ले गए हैं जहां एक गांव के लोगों को डाकुओं से मुक्ति दिलाने के लिए गांव वाले समुराई लेकर आते हैं। वो जिस तरह से पूरे गांव वालों को डाकुओं के खिलाफ एकजुट करते हैं। करीब साढे तीन घंटे लंबी यह फिल्‍म हर मायने में उतनी ही आधुनिक और प्रामाणिक लगती है, जो निर्विवाद रूप से उन्‍हें महान फिल्‍मकारों की अगली कतार में रखता है। समराई श्रेणी में उनकी फिल्‍म योजिम्‍बो (1961) एक और महत्‍त्‍वपूर्ण और चर्चित फिल्‍म है जिसमें एक अकेला समुराई डाकुओं से भिड़ता है।

असल में कुरोसावा जापानी समाज एक प्रामाणिक चितेरे हैं जो जापान से ज्‍यादा बाहर लोकप्रिय हुए और स्‍थानीय स्‍तर पर उन्‍हें ऐसी आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा कि वे अपनी समाज की कहानियां विदेशों में बेच रहे हैं। अगर हम याद करें तो एक बड़ा तबका हमारे यहां लगभग ऐसी ही सोच सत्‍यजीत राय की फिल्‍मों के प्रति रखता है।
लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि कुरोसावा की कहानियों कालांतर में हॉलीवुड को भी गहरे प्रभावित किया। कुरोसावा की फिल्‍म रान के कई दृश्‍य कालांतर में अमेरिकन एक्‍शन‍ फिल्‍मों में इस्‍तेमाल किए गए। सेवन समुराई से प्रभावित रही मैग्‍नीफिशिएंट सेवन और रिटर्न ऑव मैग्‍नीफिशिएंट सेवन। राशोमन के असर में आउट्रेज बनी। कुरोसावा की हिडन फोर्ट्रेस ने जॉर्ज लुकाज की स्‍टार वार्स की कहानी को आधार दिया। यह कबूलनामा खुद जॉर्ज लुकाज ने बाद में किया भी।
योजिम्‍बो से शेन और हाई मून प्रभावित रहीं। क्लिंट ईस्‍टवुड अभि‍नीत एक फिल्‍म का पूरा चरित्र तोशिरो मिफुन के योजिम्‍बो में दिखाए चरित्र से मेल खाता था और एक बार इस बाबत जब ईस्‍टवुड से पूछा गया तो उनके पास कोई जवाब नहीं था। 1999 में आई फिल्‍म लास्‍ट मैन स्‍टेंडिंग भी कुरोसावा की कहानी से प्रभावित थी।
यानी कुरोसावा कालातीत होने साथ भौगोलिक सीमाओं को भी लांघते हैं और ना केवल अपने समकालीन सिनेमा को बल्कि उसके बाद कई सालों तक वे हालीवुड के मुख्‍यधारा के सिनेमा को प्रभावित करते रहे हैं।

प्रसंग चल ही रहा है तो यह भी उल्‍लेखनीय है कि कुरोसावा की बहुत सी फिल्‍मों में अभिनेता तोशिरो मिफुन मुख्‍य भूमिका में रहे हैं। उनकी सारी भूमिकाएं चर्चित भूमिका कुरोसावा की फिल्‍मों में हैं जिसमें क्‍लासिक फिल्‍में सेवन समुराई, योजिम्‍बो और राशोमन भी हैं। मुफीन पैदा 1920 में चीन में पैदा हुए थे और वे सिर्फ एक साल के लिए जापान आए थे। उसी दौरान संयोग से उनकी मुलाकात कुरोसावा से हुई और ये साथ लंबा चला। राशोमन में तोशिरो के समुराई डाकू की भूमिका को देखकर चीनी निर्देशक झांग यिमु ने उसे बीसवीं सदी के सबसे ताकतवर अभिनय की श्रेणी में माना था। लगभग वैसा ही जैसे मर्लिन ब्रेंडो या जेम्‍स डीन की भूमिकाएं रही हैं।

1971 में सोवियत यूनियन में कुरोसावा ने आत्‍महत्‍या की कोशिश की और बच गए। माना जा रहा है कि 1970 में उनकी पहली कलर फिल्‍म डोडेस का डेन (1970) को समीक्षकों ने बुरी तरह उड़ाया और फिल्‍म चली ही नहीं। कुरोसावा बेहद आहत हुए। दूसरा एक कारण यह भी माना जाता है कि उन्‍होंने यह प्रयास इसलिए भी किया कि जो तीन नए डायरेक्‍टर एक नई फिल्‍म कम्‍पनी के लिए उनके साथ जुड़ थे, उन्‍हें कुरोसावा की वजह से नुकसान हुआ है। गौर करने की बात यह है कि कुरोसावा के जिस भाई ने उन्‍हें फिल्‍मों में जाने में मदद की थी उसने 27 साल की उम्र में आत्‍महत्‍या कर ली थी क्‍योंकि उसकी नौकरी चली गई थी। अपने आत्‍महत्‍या के प्रयास के बाद कुरोसावा पैसे के लिए ज्‍यादातर विदेशी फिल्‍मकारों और निर्माताओं पर निर्भर रहे मसलन स्‍पीलबर्ग, लुकाज, कोपोला आदि। उनकी आखिरी फिल्‍मों की समीक्षकों ने कोई खास तारीफ भी नहीं की।
अपने करियर को देखते हुए कुरोसावा ने 1985 में कहा था, कि मैं पहले कहानियां बुनता हूं और फिर फिल्‍म बनाता हूं। मैं भाग्‍यशाली हूं कि कहानियां जिंदगी से आती हैं और ये लोगों के अपील कर सकती हैं तथा फिल्‍में कामयाब होती हैं।

हालांकि कुरोसावा की बाद की फिल्‍मों की उतनी तारीफ नहीं हुई। समीक्षकों ने यह माना कि वे बहुत इमोशनल हो गई थीं इसके बावजूद वे लगातार मुख्‍यधारा में रहे। उनकी फिल्‍म देरसु द ट्रेपर रुसी भूगोलशास्‍त्री वी के अर्नेव की किताब पर आधारित थी और इस फिल्‍म ने बेस्‍ट फॉरेन लेंगवेज फिल्‍म का ऑस्‍कर जीता लेकिन जापान के लिए नहीं बल्कि सोवियत यूनियन के लिए।
कुरोसावा क्‍योटो के होटल में फिसल गए थे और अपनी रीढ की हड़डी ओर टांग तुड़वा बैठे थे। इसके तीन साल बाद वे 1998 में उनकी मौत हो गई। उस समय भी वे अपनी अगली फिल्‍म द सी वॉज वाचिंग की तैयारी कर रहे थे।
तो कुल मिलाकर कुरोसावा का खुद का जीवन भी एक महागाथा की तरह चलता है और वा इस सदी के नहीं सर्वकालिक महान फिल्‍मकारों की श्रेणी में माने जाएंगे।
उनके साथ काम करने वाले ज्‍यादातर सहायक बाद में स्‍वतंत्र फिल्‍मकार बने और उन्‍होंने ख्‍याति भी अर्जित की लेकिन वैसी ख्‍याति नहीं जो अकीरा कुरोसावा को मिली। उन्‍हीं के सहायकों में एक इशिरो होंडा भी हैं जिनका भी यही साल जन्‍म शती साल है और मुझे याद आता है कि वे गोडजिला सीरिज की पहली फिल्‍म उन्‍होंने ही बनाई थी और मैंने बाद में बनी अठाईस गोडजिला में कुछ देखी हैं। उनमें सबसे बेहतर आज भी इशिरो होंडा की फिल्‍म है। जो जापानी लोक कथा के रूपक को आधार बनाते हुए परमाणु विकिरण तक पहुंचते हैं। यह उनकी बेहतरीन कृतियों में से एक है। जन्‍म शती वर्ष पर दोनों ही फिल्‍मकारों को विनम्र श्रद्धांजलि।   -रामकुमार सिंह

(this article is published in literary magazine from JAIPUR named KURJAAN.. edited by premchand gandhi)

शुक्रवार, जून 03, 2011

रेडी: मनोरंजन की सलमान रेसिपी

film READY review


नो एंट्री की कामयाबी के बाद अनीस बज्मी कॉमेडी की एक सी रस्सी पर ही चलते रहे हैं, बस उनके हाथ का बांस बदल जाता है। इस बार फिर उनके पास सलमान खान हैं। एक लाइन में कहें तो रेडी सलमान खान और अनीस बज्मी टाइप मनोरंजक फिल्म है लेकिन ना तो यह दबंग है और ना ही नो एंट्री।

रेडी तेलुगू की इसी नाम से बनी फिल्म का रीमेक है और हिंदी में इसकी कहानी, गीत, संगीत और अभिनय से अलग एक ही ताकत है, सलमान खान। इस फिल्म में भी उनका नाम प्रेम है। सरनेम कपूर है और और लघु माफियानुमा जोकर चौधरियों की भांजी संजना (आसिन) से उसको प्यार हो जाता है। कहानी का रायता फैलता है और उसे समेटकर बज्मी वापस बर्तन में डालते हैं। रेडी हंसाती है, टाइमपास करती है और एक स्तर पर पहुंचने के बाद थोड़ी लंबी और उपदेशात्मक हो जाती है, जो कि अनीस बज्मी की ज्यादातर फिल्मों के साथ होता है। इंटरवल से पहले यह शिकायत ज्यादा है। इंटरवल बाद भी फिल्म को काटपीटकर दस मिनट और छोटा किए जाने की गुुंजाइश थी।

यहां प्रियदर्शन और अनीस बज्मी टाइप मिश्रित स्पर्श फिल्म में साफ दिखता है और सलमान का स्पर्श उसे कामयाबी की गारंटी देता है। फिल्म का गाना डिंका चिका सबसे ज्यादा असर छोड़ता है। खासकर जिस तरह उसे फिल्माया गया है और उसकी कोरियोग्राफी जिसमें सलमान खान पैंट की जेब में हाथ डालकर हिलाते हैं। रेडी की अच्छी बात यह भी है कि एक आध जगह द्विअर्थी संवादों को छोड़कर यह पारिवारिक फिल्म भी लगती है। सलमान आसिन और परेश रावल को छोड़कर फिल्म के लगभग सभी पात्र लाउड हैं।

लेकिन भारतीय दर्शक को इससे भी अपच नहीं होती। बहरहाल एक्शन कॉमेडी के घालमेल और दृश्य रचने में निर्देशकीय निरंकुशता के बावजूद टाइमपास के लिए आप रेडी देख सकते हैं। क्योंकि थियेटर से बाहर आते समय आपके चेहरे पर मुस्कराहट रहती है।