शनिवार, फ़रवरी 26, 2011

अटेंड करने लायक शादी





तनु वेडस मनु निर्देशक आनंद राय की केवल एक रोमांटिक कॉमडी नहीं है बल्कि कहीं कहीं वह भावनात्मक रूप से भी आपको छूती है।

लंदन में रहने वाला डॉक्टर मनु (माधवन)भारत आता है और माता पिता के दबाव में शादी के लिए लड़की ढूंढ़ने निकला है, वहीं मुलाकात तनु (कंगना रानौत) से होती है लेकिन तनु किसी से प्यार करती है और अपने बॉयफे्रंड भी जल्दी बदलती है। वह सिगरेट पीती है, वोदका और रम भी खींच लेती है कभी कभार। इधर मनु जब पहली बार तनु को देखता है तो वह उससे प्यार कर बैठता है और जब वह उससे शादी से इनकार कर देती है, एक बार तो बिगड़ती है लेकिन दूसरे सिरे से उसकी मुलाकात तनु से हो जाती है।

वह उसके मेंटर की तरह काम करने लगता है और कहानी प्रेम के त्रिकोणों और चतुष्कोणों से आगे बढ़ते हुए अंजाम तक पहुंचती है। एक तरह से अपनी पूर्ववर्ती कुछ छोटी और कामयाब फिल्मों की तरह इस फिल्म की तारीफ इसलिए भी लाजिमी है कि यहां असली भारतीय मध्यवर्गीय परिवार है। यहां सिर्फ दूल्हा एनआरआई है लेकिन वह हिंदुस्तानी ही चेहरे मोहरे वाला है।

असल में जगह जगह लड़की देखना एक अजीब सा लगता है लेकिन छोटे शहरों में होने वाली नुमाइश परेड पर यह तंज भी दिखता है। इस कहानी की लड़की लोगों के मुताबिक अपने घर वालों के हाथ से निकल चुकी है और लड़की सोचती है सब कुछ सीधा सपाट हो जाए तो क्या मतलब। कुल मिलाकर वह एक कंन्फ्यूज्ड लड़की कहानी है, जो कुछ कुछ जब वी मेट की करीना कपूर से मिलती है। लेकिन आनंद राय ने अपने चरित्र थोड़ा अलग किया है और कंगना उसमें जमती है।

इंटरवल के बाद फिल्म थोड़ी धीमी पड़ती है लेकिन एक अच्छे क्लामेक्स की वजह से मनोरंजक बन पड़ी है। माधवन निस्संदेह फिल्म की जान हैं लेकिन दीपक डोबरियाल की उपस्थिति हर जगह आपके चेहरे पर मुस्कान रखती है। जिम्मी शेरगिल भी हैं और उन्होंने अपने हिस्से को काम अच्छा किया है।

फिल्म के गीत संगीत बेहतर हैं। रंगरेज गीत लिखा बहुत अच्छा गया है तो कदे सडी गली भी आया करो के गीत संगीत बेहद उम्दा है और फिल्म की जान है। पता नहीं फिल्म में गीत अधूरा सा ही क्यों इस्तेमाल हुआ लगता है। बीप की ध्वनि की ध्वनि के साथ कुछ गालियां हैं इसके बावजूद तनु और मनु की शादी में आप एक बार सपरिवार जा सकते हैं। निराश नहीं होंगे। 

रविवार, फ़रवरी 20, 2011

एक था बीबीसी लंदन

हालांकि अब यह तय हो गया है की बीबीसी हिन्दी के सेवायें अभी जारी रहेंगी लेकिन यह लेख उस निर्णय से पहले लिखा गया था और डेली न्यूज़ के सन्डे सप्लीमेंट हमलोग में छापा था.

बीबीसी लंदन भारतीय जनमानस में सिर्फ एक रेडियो सेवा ही नहीं है, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की अनौपचारिक पाठशाला भी रही है यानी भारत में लोकतंात्रिक मुल्यों के विकास में जिन संस्थाओं का परोक्ष परंतु महत्वपूर्ण योगदान रहा है, उनमें बीबीसी लंदन की हिंदी सेवा को पहली कतार में गिना जा सकता है, दूरदराज में जहां अखबार नहीं पहुंचता था, एक गैरतरफदार रेडियो के रूप में बीबीसी ने देश को राजनीतिक और सांस्कृतिक तौर पर बुहत कुछ सिखाया, पढ़ाया है ...

यह अस्सी के दशक के शुरूआती दिन थे जब मेरे हमारे गांव में सड़क नहीं थी। बिजली के खंभे भी गांव के एक ही हिस्से में थे, जहां ट्यूब वेल खुद रही थी। हमारे मोहल्ले के कुएं में ऊंट जोतकर चड़स से पानी खींचा जाता था। और स्कूल शायदी उसी साल पांचवी से आठवीं कर दिया गया था। गांव के कुछ लोग खाड़ी के देशों में मजदूर बनकर जाना शुरू ही किया था और चूंकि उनकी मुद्रा विदेशी होती थी इसलिए जब वे गांव लौटते थे तो गांव उनको अफसरों जैसा सम्मान देता था। वे लोग भी पूरे मजे से गांव के लोगों से मिलने वाली इज्जत का पूरा मजा लेते थे। गांव लौटते में उनके पास एक छोटा सा जादुई डिब्बे जैसा कुछ यंत्र होता था जिसे वे रेडियो कहते थे। 

ट्रांजिस्टर भाषायी लिहाज से शायद सही शब्द है लेकिन सब की जुबान पर वा रेडियो ही रहा है। ऎसा ही एक रेडियो पिताजी के एक भतीजे ने यानी मेरे चचेरे भाई ने उन्हें लाकर दिया था। और पिताजी सबसे पहले स्कूल के मास्टर के यहां गए थे, जिनके पास पहले से ही रेडियो था। उसमें आकाशवाणी तो हम सुनते ही थे लेकिन पिताजी ने बीबीसी लंदन की मीटर वेव पूछ ली थी और बीबीसी लंदन की हिंदी सेवा घर की नई आरती हो गई थी, जिसे सुनना हम बच्चों की शुरूआती दिनों में मजबूरी थी, लेकिन धीरे धीरे आदत बन गई। उसमे मजा आने लगा। सारे गाने बजाने छोड़ शाम सात बजकर चालीस मिनट से पहले आठ दस तक और फिर जब उनका समय बढ़ गया तब साढे सात से साढे आठ तक। कैलाश बुधवार, अचला शर्मा, राजनारायण बिसारिया, ओंकारनाथ श्रीवास्तव, परवेज आलम, शफी नकी जामयी, गौतम सचदेव, विजय राणा। 

आज जिन पंकज पचौरी को आप एनडीटीवी इंडिया पर देखते हैं, वे शायद नब्बे के दशक में इंडिया टुडे छोड़कर बीबीसी गए थे। जयपुर के राजेन्द्र बोहरा थे जिनको मैं बाद में सुनता रहा, उनका एक रूपक आया करता था। इसी तरह बाद के बरसों में ललित मोहन जोशी ने सिनेमा के इतिहास पर एक एक बेहतरीन प्रोग्राम तैयार किया था। सुबह-सुबह वे सीधी बात कराते थे पत्रकारों से और मेरे खयाल में अखबारों में आज क्या छपा है यह सब भी मैं बाद के सालो में सुनता रहा।

बाद में स्कूल में चार साल मैं हॉस्टल में रहा था और वहां रेडियो रखने की मनाही थी। लेकिन मैं एक छोटा सा रेडियो चुपके से अपने कमरे में दबाकर रखा था और बीबीसी हिंदी सुनता था। मेरी बीबीसी के बदले मेरे कमरे के बाकी साथी फिल्मी गाने और क्रिकेट की कमेंट्री सुनते थे। मैं अगर उन्हें रेडियो ना देता तो वे वार्डन से मेरी शिकायत कर सकते थे। इस विवरण का आशय कोई आत्मप्रशंसा या प्रचार नहीं है लेकिन जब से यह खबर मिली है कि बीबीसी की हिंदी सेवा बंद हो रही है, तो मुझे मन ही मन तकलीफ हुई। हालांकि पिछले कुछ साल में मैंने बीबीसी सुनना बंद कर दिया है फिर भी एक भी दिन ऎसा नहीं है जब मैं इंटरनेट खोलूं और बीबीसी की साइट पर ना जाऊं। लेकिन वहां भी मैं रिकॉर्डेड प्रोग्राम इंटरनेट से सुनता हूं। 

खाड़ी युद्ध के दिनों में 
खाड़ी युद्ध हम जैसे दूरदराज के गांवों से आने वाले उन युवाओं के लिए बीबीसी हिंदी आज भी शायद उतना ही उपयोगी हो जितना कभी मेरे लिए रहा है। मुझे खुद पर ताज्जुब होता है, जब हॉस्टल के दिनों में खाड़ी युद्ध पर एक डायरी तैयार करता था जिसमें पैट्रियट और स्कड मिसाइलों के फर्क से लेकर अमेरिका और यूरोप की बिदेश नीति तथा भारत के रवैए से जुड़ी चीजें हुआ करती थी। मैं सुबह के अखबार आने से पहले ही बता दिया करता था आज अखबारों में यह सब छपेगा। 

उसके बाद
हमारे घर के पड़ोस में रहने वाले मेरे चाचा दुलाराम अब सत्तर पार के हो गए हैं लेकिन उनका बेटा कोई डेढ़ दशक पहले सोमालिया गया था। संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना में। वे सुबह नियमित रूप से बीबीसी सुनते थे क्योंकि उसके लिए ऎसा कोई समाचार माध्यम नहीं था जो वहां की नियमित रिपोर्टिग करता हो। हमारे टीवी चैनल्स देखते हुए हमेशा यही लगता है कि दुनिया में हिंदुस्तान ही एक देश है और वहां भी मुंबई, दिल्ली जैसे ही शहर हैं। गांव तो जैसे गायब हैं। बहरहाल बरसों बाद जब हम कॉलेज में थे और उड़ती उड़ती खबर आई थी कि हमारे गांव और आसपास में कुछ लोग जहरीली शराब पीने से मर गए हैं तो हमारे पास बीबीसी हिंदी की रात पौन ग्यारह की सभा सुनने के अलावा कोई मीडियम नहीं था, जहां से पुष्टि हुई और अपने उस कस्बे का नाम मैंने रेडियो पर सुना जहां हम आते जाते बड़े हुए थे। 

कहने का मतलब यह है कि वह मेरे गांव से सोमालिया, यूगोस्लाविया, युगांडा तक की खबरें एक ही मीटर वेव पर सुन लिया करते थे और उनपर भरोसा कर लिया करते थे। आज भी मैं गांव जाता हूं तो कई युवा मुझसे पूछते हैं कि मैं जयपुर में रहता हूं तो क्या नारायण बारेठ को जानता हूं जो बीबीसी पर बोलते हैं और मेरी हां में वे खुश होते हैं। इसका मतलब यह है कि गांव में तमाम आधुनिकता के बावजूद लोग बीबीसी को सुन रहे हैं। आज भी कोई एक करोड़ से ज्यादा लोग बीबीसी हिंदी सुनते हैं। जहां बिजली नहीं है, टीवी नहीं है वहां यही खबरें हैं जो लोगों की मदद करती हैं। 

इंदिरा की मौत का दिन 
मुझे याद है जब इंदिरा गांधी की हत्या की खबर पूरे गांव में एक अफवाह की तरह थी तो हमारे घर में शाम को पुरूषों और महिलाओं का मेला सा लगा था। रेडियो ऑन था और जब यह सबसे पहले बीबीसी पर आई कि इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई है तो महिलाएं रोने लगी थीं और पुरूष मुंह लटकाए आंखें नम किए बैठे थे। इससे पहले सब लोग इस इंतजार में थे कि शायद वे घायल हुई हैं और बच जाएंगी। इसी तरह राजीव गांधी की हत्या की खबर भी रात को पौने ग्यारह बजे की सभा में सबसे पहले बीबीसी से ही मिली थी। 

बाजार में 
समझदार होने के बाद, बाजार और उत्तर आधुनिकता को समझने के बाद यह भी समझ में आने लगा कि किस तरह समाचार मीडिया भी बुरी तरह से बाजार के दबाव में रहा है। यहां तक कि बीबीसी के पूर्व संपादकों ने बीबीसी की निष्पक्षता को भी संदिग्ध भी बताया लेकिन जो एक दृष्टि साम्राज्यवाद के खिलाफ और आम आदमी के हक में समाचारों को सुनते हुए विकसित होती है, उसमें बीबीसी ने मेरे खयाल से बहुत मदद की है। राजनीतिक और सांस्कृतिक विविधता वाली जो चेतना दूर दराज की हिंदी बेल्ट में बीबीसी हिंदी की रेडियो प्रसारण सेवा का मेरे खयाल से बड़ा योगदान रहा है, क्योंकि आकाशवाणी और दूरदर्शन की खबरें भी मैं लगातार सुनता रहा हूं और उनमें ज्यादातर सरकारी महिमागान होता है। दुर्भाग्य से वह बढता ही जा रहा है। 

समकालीन समाचार परिदृश्य में जितने हिंदी के चैनल आ गए हैं उनको देखते हुए यह अफसोस होता है कि यह कहां आ गए हैं हम? एक ऎसे अजूबे देश में जहां भूत प्रेत, साधु संन्यासी, नेता, डकैत, फिल्मवालों की तो खबरें हैं लेकिन आम आदमी की खबरें गायब हैं। ऎसे में बीबीसी आम लोगों के बीच फैला ऎसा माध्यम है, जो लोगों की राजनैतिक, सांस्कृतिक और भाषायी चेतना के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण था और सही अर्थो में इसके बंद होने का नुकसान बीबीसी के उन पत्रकारों से कहीं ज्यादा उन बचे हुए गांव देहात के स्रोताओं का है।

क्योंकि पत्रकारों की जमापूंजी होगी और उन्हें नई जगह काम भी मिल जाएगा लेकिन उन स्रोताओं को दूसरा बीबीसी लंदन नहीं मिलेगा। जिस तरह से साइकिल के गायब होने और मोटरसाइकिल और कार के आने को हम प्रगति समझ रहे थे लेकिन दुनिया के कई देशों में साइकिल पुन: प्रासंगिक हो गई है, वैसे ही रेडियो गायब होने के बाद एफएम के रूप में वो पुन: लोगों के बीच आ गया लेकिन अफसोस तो यह है, वहां बीबीसी जैसे माध्यम में बाजार का दबाव है और वे मोबाइल और इंटरनेट पर जा रहे हैं। 

और ऎसा भी होता है
जयपुर के राजेन्द्र बोहरा को बीबीसी लंदन से मैं स्कूल के दिनों में सुनता था और दूसरे प्रसारकों की तरह उनके भी कई रूपक मुझे याद थे। बरसों बाद जब मैं जयपुर में उनसे मिला था तो उन्हें मेरे लिखे कुछ न्यूज फीचर याद थे। जयपुर में हम एक ही पार्टी में थे, जब एक मित्र ने हमारा परिचय कराया तो वे मेरी तारीफ कर रहे थे और मैं उनकी। मेरी आंखें नम थीं, मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि बचपन से प्रिय मेरे उस प्रसारक से कभी रूबरू मिल पाऊंगा और वह मुझे मेरे नाम से जान रहा होगा जैसे मैं उन्हें उनके नाम से जानता था, चेहरे से नहीं। 

उन्होंने पार्टी में लगे पेय की तरफ इशारा करते हुए पूछा था, लेते हो? और मेरी हां पर वे खुश हुए, बोले, आज मजा आयगा जब मिल बैठेंगे, दो यार। उसके बाद हम लगातार मिलते रहे। कोई चार साल पहले जब बोहरा जी के निधन की खबर आई थी तो मैं बेहद उदास था, जैसे कोई मेरे परिवार से चला गया है। वैसे ही, अब बीबीसी हिंदी रेडियो के अवसान की खबर है, जो सचमुच मुझे उदास कर रही है। 

(डेली न्‍यूज के संडे सप्‍लीमेंट हमलोग में रविवार 20 फरवरी 2011 की कवर स्‍टोरी)

शुक्रवार, फ़रवरी 18, 2011

दर्शक कोई खून माफ नहीं करता

विशाल भारद्वाज की फिल्म सात खून माफ एक ऎसी औरत सुजैन या सूजी की कहानी है जिसे जीवन में सच्चा प्यार चाहिए और उसे उसके पति खराब ही मिलते हैं, एक नहीं पूरे छह। अपने रिश्तों को बचाने की जद्दोजहद में जब वह हार जाती है तो पति का खून कर देती है। उसके मददगार घरेलू नौकर हैं जो आखिर तक उसके साथ रहते हैं और उसकी हर हत्या का रहस्य जानते हैं।

सिनेमाई व्याकरण के लिहाज से फिल्म का नैरेटिव समझ में आने वाला और सपाट है। वह कमीने की तरह उलझा हुआ नहीं लेकिन इतना साधारण है कि एक नए पात्र का चेहरा पर्दे पर आते ही आपको पता चल जाता है कि अब एक और शादी होगी और एक और हत्या। लिहाजा सस्पेंस के मामले में क्लाइमेक्स भी कोई बहुत ज्यादा असर नहीं छोड़ता।

यूं लगता है जैसे कहानी कहने की जल्दी है। पटकथा में कुछेक जगह विट बहुत ही बेहतरीन है! जब तक आप किसी कैरेक्टर को समझें उससे पहले तो वह स्वर्ग सिधार जाता है। नील नितिन मुकेश, इरफान और जॉन की कहानी को ठीक ट्रीटमेंट मिला है लेकिन अन्य कहानियों को समय कम मिला है या वे प्रभावी तरीके नहीं कही गई हैं।

फिल्म के लोकेशन्स बेहतरीन हैं और वे ही हैं जो आपको पर्दे पर देखते रहने के लिए फिल्म को आसान करती हैं। हर फे्रम भरा हुआ है।

प्रियंका चौपड़ा ने बेहतरीन अभिनय किया है और उसके चेहरे के हाव भाव उसकी परिपक्वता को दिखाते हैं। फिल्म का पाश्र्व संगीत बेहद प्रभावी है। लेकिन संगीत ठीक ठाक है। रूसी गाने से प्रभावित डार्लिग ऎसा है जो अच्छा है। बेकरान भी अच्छा है लेकिन संगीत भी फिल्म की गति को मदद नहीं करता है। जाहिर है, दर्शक कोई खून माफ नहीं करते हैं। 

मंगलवार, फ़रवरी 08, 2011

यहां फ्लॉप को कोई माफ नहीं करता

                     सुभाष कपूर से बातचीत



पर्दे पर टीवी है, टीवी में ओबामा है, जो कह रहा है कि मंदी ने हालत खराब कर दी है। फिर भी हम दुनिया को बताएंगे कि यस, वी कैन। सामने गैंगस्टर बने संजय मिश्रा हैं जिन्हें सब भाई साब कहते हैं, वो पूछते हैं, ये कौन है और क्या कह रहा है? तो उनका गुर्गा कहता है, भाई साब ओबामा है, अमेरिका का राष्ट्रपति, कह रहा है, हां, हम कर सकते हैं। वहीं बैठा दूसरा आदमी हाथ से एक मादक इशारा करते हुए कहता है, इसमें कौनसी नई बात है, कर तो हम भी सकते हैं। अमेरिका, मंदी, हमारी अंग्रेजी आदि पर तंज वाले इस संवाद को लिखने वाले सुभाष कपूर को मैंने कहा कि यहीं से पता चल गया था कि आगे क्या हंगामा होने वाला है तो उनके चेहरे पर एक विनम्र लेकिन संतोष वाली मुस्कान थी। उसमें दंभ नहीं था, एकदम सादगी। पत्रकार से फिलकार बनने के बाद पहली कामयाबी के बाद एक संघर्ष खत्म होने वाली सादगी।

उनकी पहली फिल्म से सलाम इंडिया चली नहीं थी। और उसके बाद संघर्ष और चुनौतीपूर्ण हो गया था। सुभाष से पूछता हूं कि फंस गए रे ओबामा को आयडिया कैसे आया?

'गुस्सा भरा था मेरे भीतर। जिससे भी मिलने जाता था, कहानी सुनाता था तो उसके पास एक ही बहाना था कि यार, रिसेशन है। पुराने पत्रकार दोस्तों से चर्चा में आया कि मंदी का असर तो सब जगह आ गया है। तो इस गुस्से को निकालना जरूरी था। तो एक दिन बैठ गया, बीस दिन में इसे लिखा। और नतीजा आपके सामने है।Ó

सुभाष कपूर की जिंदगी में 'फंस गए रे ओबामाÓ के पहले और बाद का अपना अनुभव है। वे कहते हैं, हिंदुस्तान में हारे हुए पॉलिटिशियन, फ्लॉप फिल्म और खराब खिलाड़ी को लोग माफ नहीं करते। होंगे आप सौरव गांगुली लेकिन अब आपको कोई नहीं पूछेगा। मेरी ही लो, यह फिल्म चली ना होती तो आप मेरे से बात नहीं करते और दूर खड़ा देखकर मजाक उड़ाते। वैसा ही निर्वासन मैं भोग रहा था और इस एक फिल्म ने सारी चीजें बदल दी। अब यश चौपड़ा को छोड़ दीजिए, इसके अलावा ज्यादातर प्रोड्यूसर अप्रोच कर चुके हैं कि हमारे साथ काम करिए। लेकिन फिलहाल मैं सोचने की प्रक्रिया में हूं। कोई जल्दबाजी नहीं करनी है।

सबसे बड़ी बात यह जिंदगी की छोटी छोटी सच्ची घटनाओं को लेकर बुनी गई कहानी थी। मेरे क्राइम बीट के पत्रकार दोस्तों ने बताया था कि हां, मंदी के चक्कर में फिरौती की जो रकम एक करोड़ हुआ करती थी, वह आजकल पचास लाख हो गई है। मैं पिछले बिहार चुनाव को कवर करने गया था तो लालू मुख्यमंत्री थे। अपहरण, फिरौती की घटनाओं को लेकर सरकार की बदनामी थी। मैंने मुख्यमंत्री निवास पर ही एक कार्यकर्ता से पूछा, इतनी बदनामी है, इतनी अव्यवस्था है, क्या आप लोगों को बुरा नहीं लगता? तो उसने बताया था कि कुछ भी नहीं है साब, अइसन नहीं है, पक्का काम होता है इधर, रसीद भी देते हैं। और आपने देखा होगा कि फिल्म में मंत्रीजी के यहां अपहरण और फिरौती उद्योग कितना संगठित तरीके से चल रहा है।

सुभाष हरियाणा के रहने वाले हैं और वे कहते हैं कि मुझे पूरी हिंदी बेल्ट की कहानियों में मजा आता है। अगली फिल्म की कहानी भी यहीं से होगी। असल में यहां की जुबान में एक अलग किस्म का ह्यूमर है और ऐरोगेंसी भी।

तो क्या यह माना जाना चाहिए कि अब छोटे बजट की फिल्मों का जमाना है? सुभाष कहते हैं, पहले इक्की दुक्की फिल्में आती थीं और चली जाती थीं। लेकिन पिछले साल एक के बाद एक छह सात फिल्में ऐसी आई जिनकी कामयाबी ने यह बताया है कि यदि आप पैसा बेमतलब नहीं फूंकते हैं तो अच्छा है। लेकिन उसमें भी कंटेंट जरूरी है। तो क्या वे भी अगली फिल्म छोटे बजट की रखेंगे? वे कहते हैं, कोई फिल्मकार नहीं चाहता कि वह समझौते करते हुए फिल्म बनाए। आखिर यह महंगा मीडियम है। जितना कम पैसा होगा आप पर बजट नियंत्रित करने का दबाव उतना ही ज्यादा। मुझे पता है कैसे हमने पैंतीस दिन के सिंगल शिडयूल में फिल्म पूरी की। जाहिर है, मैं कभी नहीं चाहूंगा कि इतनी भागदौड़ से फिल्म बनाऊं।

शुक्रवार, फ़रवरी 04, 2011

बदलते सिनेमा की दमदार आहट

फिल्म समीक्षा: ये साली जिंदगी





फिल्म ये साली जिंदगी एक बेहतरीन रोमांटिक थ्रिलर में ब्लैक कॉमेडी का मिश्रण है। सुधीर मिश्रा जैसे प्रतिभाशाली निर्देशक से आप ऐसी ही अपेक्षा रख सकते हैं। खासकर उस स्थिति में जब वे हजारों ख्वाहिशें ऐसी के फे्रम से बाहर आने के लिए तड़प रहे थे।

एक साधारण सी कहानी को बेहतरीन ट्रीटमेंट, विटी डायलॉग्स और चुस्त संपादन के जरिए किस तरह से कहा जा सकता है इसका उदाहरण है ये साली जिंदगी। कहानी इतनी सी है कि अरुण (इरफान) को प्रीति(चित्रांगदा सिंह) से प्यार हो जाता है और किसी दूसरे लड़के के साथ उसे देख लेता है। अरुण का पार्टनर मेहता (सौरभ शुक्ला) उसे कहता है कि इश्क और बुलेट में फर्क नहीं होता। दोनों सीने को चीर कर जाते हैं लेकिन अरुण प्रीति के लिए एक दलदल में फंसता है और वहां से निकलता भी है लेकिन सब कुछ इतना आसान नहीं होता। पूरी फिल्म में जिंदगी के सारे पात्र इतने धूसर हैं कि भाई ही भाई का सगा नहीं है। ना लड़की सगी है ना लड़का। मिश्रा इसी जिंदगी की कहानी कह रहे हैं जिसे स्वानंद किरकिरे के गीत आगे बढ़ाते हैं, हम कुछ सोचते हैं, ये सोचती कुछ और है, ये साली जिंदगी।

अद्भुत है जब जेल से छूट कर आया कुलदीप (अरुणोदय सिंह) अपनी नाराज पत्नी शांति (अदिति राव)को मनाने पीछे भाग रहा है। ऑटो में बच्चा साथ है उसे आंख बंद करने को कहता है और एक चुंबन शुरू होता है। अगले एक मिनट में उनके मिलने की खूबसूरत कहानी कह दी गई है। सुधीर और मनु ऋषि के संवाद आपको फंस गए रे ओबामा, ओए लकी लकी ओए से आगे नजर आएंगे। यह दिल्ली और उससे सटे हरियाणा की वह खड़ी जुबान हैं जहां गालियां एक खुशबू के झोंके की तरह आती हैं। और वह यादगार दृश्य जिसमें योग करते हुए एक की हत्या होती है और लाश के पेट से गैस निकलती है। कितने ही यादगार दृश्य मिश्रा ने रचे हैं। बहुत सारे पात्रों की भीड़ है जो इंटरवल के बाद आपको थोड़ी ज्यादा लग सकती है। बेहतरीन फोटोग्राफी, संगीत, गीत और सबसे खूबसूरत संवादों के लिए ये साली जिंदगी देखी जानी चाहिए। इसलिए भी देखी जानी चाहिए कि हमारा सिनेमा परंपरागत दीवारें तोड़कर किस तरह अपनी एक नई जुबान तय कर रहा है, जिससे बहुत लोगों को अपच भी होगी लेकिन सिनेमा इसी तरह बदलता है। इरफान बेहतरीन अदाकार हैं। चित्रांगदा, अरुणोदय, अदिति राव, सौरभ शुक्ला, यशपाल सब के सब जोरदार जमे हैं।