सोमवार, फ़रवरी 22, 2010

अपनी जुबान के सुख


जब अंडमान की 85 साल की बुजुर्ग महिला बोआ सर की मौत की खबर पढ़ी तो यह झटका देने वाली बात थी कि हम कितने सहज तरीके से अपनी परंपरागत जुबानों की उपेक्षा करते हुए एक लालची और स्वार्थी दौड़ के शिकार हो गए हैं। पूंजी ने हमारी संवेदनाओं को खोखला कर दिया है। भाषा हमारे समय में बजाय संरक्षण के एक बौद्धिक विमर्श का शगल बनकर रह गई है। पिछले ही हफ्ते देश के गृहमंत्री पी.चिदम्बरम अपनी प्रेस कांफ्रेस में पत्रकारों के आग्रह को ठुकराते हुए यह कह चुके कि वे हिंदी नहीं बोल सकते।
यह सब इसलिए याद आ रहा है कि अंडमान में बोआ सर की मौत के साथ ही दुनिया की सबसे पुरानी भाषाओं में एक 'बोÓ हमेशा के लिए खत्म हो गई। यह उस जनजाति की यह भाषा जानने वाली आखिरी महिला थी जो 65 हजार साल पहले अफ्रीका से देशांतर करते हुए अंडमान आकर बस गए थे।


भाषा का इतिहास अपने आपमें एक दिलचस्प अध्ययन है। मुनष्यों ने अपनी बात संप्रेषित करने के लिए इसे ईजाद किया। नदियों की कल-कल, पत्थरों पर गिरते झरने की ध्वनि, ऊंचे पहाड़ों, आग की तपिश, बर्फीली हवाओं से निकलने वाली सी सी जैसे अनगिनत खजाने प्रकृति में रहे हैं, जिन्हें देखते हुए मनुष्य ने अपने संवाद की शैली विकसित की होगी और आज उसे परिपक्वता तक ले आया है लेकिन मेरी पीढ़ी के ज्यादातर लोगों के लिए भाषा और संवेदना का यह इतिहास बेमानी है। उन्हें अपने बच्चों के लिए नौकरी में बेहतर भविष्य चाहिए। अंग्रेजों के उपनिवेश रह चुके दुनिया के ज्यादातर देशो की तरह भारत में भी अंग्रेजी पूरे तांडव के साथ अपना काम कर रही है। हम सबके बच्चे सामथ्र्य के हिसाब के अंग्रेजी मीडियम के स्कूलों में पढऩे लगे हैं। हिंदी मीडियम के सरकारी स्कूल भारी भरकम सरकारी तंत्र के बावजूद दिनोंदिन गर्त में जा रहे हैं। निजी शिक्षा में कारोबार का ऐसा तंत्र खड़ा हो गया है। सरकारों की कोई इच्छाशक्ति ही नहीं है कि सरकारी स्कूल उम्दा तरीके से काम करें और निजी स्कूलों को चुनौती दे। मुझे ऐसा लगता है कि किसी भाषा या बोली को बचाने में शिक्षा अहम भूमिका कतई नहीं निभाती है। हमारी शिक्षा प्रणाली ने स्पष्ट तौर पर स्थानीय भाषाओं और बोलियों पर निर्मम तरीके से प्रहार किया है। अनपढ़ लोगों ने हमारी बहुत सी स्थानीय जुबानों को आज भी बचाए रखा है।


फिल्मकार जगमोहन मूंदड़ा ने कबूल किया कि राजस्थानी मूल के होने के बावजूद वे पहली बार करीब पचास साल की उम्र में राजस्थान तब आए, जब उन्हें अपनी फिल्म बवंडर के लिए लोकेशन्स देखने थे लेकिन आश्चर्यजनक रूप से वे सारा संवाद राजस्थानी में कर रहे थे। उनके पूर्वज बीकानेर के रहे और मूंदड़ा के मुताबिक उनकी दादी से उनका संवाद हमेशा राजस्थानी में होता था। लिहाजा कोलकाता, मुंबई, लॉस एंजेल्स और लंदन में रहते हुए भी मंूदड़ा की संवेदनाओं में उनकी मातृभाषा जिंदा है। उनकी अगली पीढ़ी में क्या यह परंपरा कायम रहेगी? आजकल बहुसंख्यक महानगरीय बच्चों की परवरिश दादा दादी और नाना नानी से दूर होती है। यहां तक कि दादा दादी भी शर्म के बजाय गर्व महसूस करते हैं कि उनके बच्चे तो बातचीत ही अंग्रेजी में करते हैं। यह बहुत खतरनाक स्थिति है कि एक बड़ी पीढ़ी को हम भाषा के संवदेना व अर्थ से परिपूर्ण परंपरागत अतीत के बजाय एक थोपा हुआ भविष्य देने की कोशिश कर रहे हैं।


दुनिया भर की हजारों छोटी भाषाएं और बोलियां अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही हैं। स्पेन के एक छोटे से हिस्से में कातलान एक प्रमुख बोली है। सांस्कृतिक और साहित्यिक रूप से सचेत बहुत कम लोग कातलान के जानकार हैं। वे अब उसके प्रचार प्रसार में जुटे हैं। जयपुर में ही एक कातलान कवि को सुनते हुए मैंने इस भाषा के दर्द और हौसले को सलाम किया। बेहतरीन सर्जन भाषाओं और बोलियों को बचाने में अहम भूमिका निभाएगा। हमारे पास विजयदान देथा हैं तो मैं सरकारों की चरण वंदना नहीं कर सकता कि वे राजस्थानी को बचाएं। हमारी सरकारें ठेकों, पुलों, सड़कों, इमारतों की कमीशनखोरी में इतनी उलझी हुई हैं कि भाषा और बोलियां उनकी प्राथमिकता में नहीं हैं। जो अकादमियां बनाई गई हैं, वहां काम से ज्यादा राजनीति हावी है। सत्ता पाने के बाद हर कोई अपनी कुर्सी बचाने के दाव पेंच में लगता है। स्थानीय बोलियां नेताओं के लिए सिर्फ वोट मांगने की जुबान भर रह गई हैं।
धन कमाने के लिए अपने बच्चों को अंग्रेजी पढाइए लेकिन उन्हें अपनी मातृभाषा से वंचित मत करिए। उन्हें वो जुबान सिखाइए जो पिछले सैकड़ों सालों से उनके पुरखे बोलते आए हैं। इससे वे धन भले ही ना कमाएं लेकिन बेहतर इंसान जरूर बनेंगे। एक राजस्थानी को कोई न्यूयॉर्क की सड़क पर टकराए और कहे, 'राम राम साÓ, इस ध्वनि से होने वाले सुख को क्या आप हजारों डॉलर खर्च करके अपने बच्चों के लिए खरीद पाएंगे? मादरी जुबानें यही सुकून देती हैं।


मातृभाषा की अहमियत समझते हुए दागिस्तान के रसूल हमजातोव फिर याद आते हैं। अवार बोलने वाला एक आदमी बरसों पहले दागिस्तान छोड़कर फ्रांस में बस गया। वहीं शादी कर ली। रसूल जब वहां थे तो वह मिलने आया। उस आदमी की मां जिंदा थी। रसूल ने दागिस्तान लौटकर उसकी बूढ़ी मां को उसके बूढे होते जा रहे बेटे के जिंदा होने की सूचना दी तो वह खुशी से झूम उठी। अचानक मां ने पूछ लिया, 'क्या उसने तुमसे अवार में बात की?Ó रसूल बोला, 'नहीं, मैं अवार बोल रहा था और वो फे्रंच में बात कर रहा था।Ó उस आदमी की बूढ़ी मां ने ऐसी मुद्रा बना ली, जैसी कोई मौत होने पर बनाते हैं। फिर बोली, 'तुम गलत हो रसूल, वो मेरा बेटा नहीं हो सकता। वो अपनी जुबान भूल गया, वो मेरे लिए मर गया।Ó

1 टिप्पणी:

varsha ने कहा…

नदियों की कल-कल, पत्थरों पर गिरते झरने की ध्वनि, ऊंचे पहाड़ों, आग की तपिश, बर्फीली हवाओं से निकलने वाली सी सी जैसे अनगिनत खजाने प्रकृति में रहे हैं, जिन्हें देखते हुए मनुष्य ने अपने संवाद की शैली विकसित की होगी .achcha likha hai aapne.