सोमवार, फ़रवरी 01, 2010

दिल तो बच्चा है जी

बीते सप्ताह के पंाच दिन कब गुजर गए, पता नहीं चला। जयपुर साहित्य उत्सव अंतरराष्ट्रीय पहचान बना चुका है। शुरूआती सालों के तीन-चार आयोजनों में स्थानीय प्रतिनिघित्व की उपेक्षा, शराबनोशी और अंग्रेजी वर्चस्व जैसी टिप्पणी करने वाले ज्यादातर लोग पस्त नजर आए। हालांकि ये तीनों मुद्दे वैसे ही खड़े हैं। मुद्दा उठाने वाले कुछ लोग तो खुद ही फेस्टिवल के पाले में जाकर बैठ गए। उनसे पूछो तो खिसियाकर कहते हैं, यार, अब फेस्टिवल ही चल निकला है, तो समर्पण में भलाई है। बाजार बहुत क्रूर होता है। निजी मुनाफे के जीवन मूल्य हर आंदोलन पर भारी पड़ते हैं। फेस्टिवल की खूबी यह थी कि देशभर से युवा फिल्मकार, पाठक और साहित्य के विद्यार्थी शामिल हुए। किताबों के काउंटर पर भीड़ थी और ठीक-ठाक बिक्री भी। फेसबुक पर मेरी टिप्पणी से कुछ मित्रों को बुरा लगा। राजस्थानी के सत्र में हिंदी और अंग्रेजी ज्यादा बोली जा रही थी। राजस्थानी अपने ही घर में मेहमान की तरह थी। श्रोताओं को आसानी से समझाने के लिए ऎसा किया गया। तो रसूल हमजातोव को अंग्रेजी में क्यों नहीं लिखना चाहिए था। एक छोटी सी जगह "दागिस्तान" की "अवार" जुबान में लिखी उनकी रचना दुनिया की श्रेष्ठ किताबों में शुमार होती है। पाठकों को पढ़नी होती है तो वे उसके उपलब्ध अनुवाद ढूंढ़ लेते हैं या खुद करते हैं। शेक्सपियर की अंग्रेजी या कालिदास की संस्कृत आप नहीं पढ़ सकते, तो दोनों महान लेखकों को रत्तीभर फर्क नहीं पड़ता।हिंदी प्रेमियों के "दंभी" वक्तव्यों से भावुक होकर मैंने अंग्रेजी साहित्य के बजाय हिंदी पढ़ने को प्राथमिकता दी थी। बाजार के नियम के अनुसार मुझे नुकसान हुआ। मुझे पछतावा नहीं है। मुझे हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले छात्रों से सहानुभूति है। लेकिन ज्यादा सहानुभूति राजस्थानी साहित्य के छात्रों से है जो ऎसे ही किसी मोहपाश में पड़कर इन्हें पढ़ते हैं। वे राजस्थानी का पर्चा इसलिए लेते हैं कि परीक्षा में अंक अच्छे आते हैं। राजस्थानी एक "हाई स्कोरिंग" विषय है। विद्यर्थियों और इसे मान्यता दिलाने वालों के लिए भी। अकादमियों के पुरस्कारों पर बात बेमानी, जहां हरीश भादानी पिछड़ जाते हैं। "मायड़" भाषा का झंडा बुलंद करने वाले आपस में एक मत नहीं है। सांविधानिक मान्यता मिलने से क्या राजस्थानी की चुनौतियां खत्म हो जाएगी? मराठी सिनेमा ऑस्कर तक जाता है। मराठी फिल्मकारों के हौसले की वजह यह है कि एक निश्चित अवघि तक कोई मराठी फिल्म हर सिनेमाघर के लिए चलाना कानूनी अनिवार्यता है। पिछले आठ साल में क्या कोई राजस्थानी फिल्म जयपुर के किसी मल्टीप्लेक्स में चली? वहां तो समोसा बेचने वाला भी अंग्रेजी बोलता है।

हमारी कला-संस्कृति मंत्री बीना काक खुद फिल्मों से जुड़ी रही हैं। क्या वे समझती नहीं है कि किसी जमाने की भरी-पूरी राजस्थानी फिल्म इंडस्ट्री लगभग खत्म हो गई। जब भोजपुरी फिल्में हिट हो सकती हैं, तो राजस्थानी क्यों नहीं? कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में ही शिक्षकों के लिए होने वाली भर्तियां ही क्या राजस्थानी में रोजगार का माध्यम हैं। सिनेमा, संगीत और नाटक में कितनी अकूत संभावनाएं हैं। अनिल मारवाड़ी का नाटक "जयपुर की ज्यौणार" क्या राजस्थानी वालों ने देखा है? ढूंढाड़ी के इस नाटक के सामने जयपुर के रंगकर्मियों का हिंदी नाटक नहीं ठहर सकता। "सफेद ज्वारा" भी उसका ऎसा ही ढूंढाड़ी नाटक है।

हिंदी की चुनौती को गीतकार प्रसून जोशी ने विज्ञापन और फिल्मी दुनिया में महसूस कर कहा कि इस क्षेत्र में लेखकों का घोर अभाव है। इस क्षेत्र में अंग्रेजी पढे-लिखे लचर और छिछले ज्ञान वाले लोग भरे पड़े हैं। मैं खुद भी अंग्रेजी लेखकों को सुनने-समझने ही गया, लेकिन राजस्थानी के सत्र में मंच से जब अंग्रेजी बोली गई, तो मुझे भी बहुत बुरा लगा। दिल तो बच्चा है जी। उसे बुरा लगा, तो लगा।

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