गुरुवार, फ़रवरी 18, 2010

निरीह लेखक और ताकतवर निर्माता

कॉपीराईट एक्ट में संभावित संशोधन को लेकर इस समय इंडस्ट्री की असंगठित सी लेखक व गीतकारों की बिरादरी मजबूत तथा संगठित निर्माताओं से अपने हक और रॉयल्टी के लिए संघर्ष कर रही है। जावेद अख्तर और आमिर खान के आमने सामने होने के प्रकरण मात्र से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि लेखक एक बार फिर बैकफुट पर हैं। नए संशोधन के बाद अगर मोटा मुनाफा कमाने वाले निर्माताओं को अपनी कमाई से एक हिस्सा लेखक को देना पड़े तो क्या बुरा है? लेकिन आमिर खान आज के स्टार भी हैं और निर्माता भी। वे लेखक का हक मारने के मामले में अघोषित तौर पर आरोपी भी रहे हैं। उनकी निर्देशित फिल्म तारे जमीन पर के प्रारंभिक निर्देशक उनके पुराने मित्र अमोल गुप्ते रहे और दबे मुंह लोग यह मान भी रहे हैं कि गुणवत्ता और परफेक्शन का बहाना लेकर अमोल को किनारे कर आमिर निर्देशक की गद्दी पर जा बैठे। लिहाजा मुझे उनसे सहानुभूति होने की कोई वजह नहीं है। आमिर खान का यह तर्क कि हमारे यहां फिल्म को सितारे चलाते हैं, लेखक नहीं। इसलिए निर्माता जो चाहे अनुबंध लेखक के साथ रख सकता है। जाहिर है, जो ताकतवर है, वह कमजोर को दबाएगा। निर्माता के पास पैसे हैं, तो उसके पास सितारे भी हैं। पूरी फिल्म इंडस्ट्री का तंत्र भाई भतीजावाद के भारी भरकम कारोबारी संयंत्र के रूप में तब्दील हो चुका है। वहां इमरान खान, रणबीर कपूर, अभिषेक बच्चन की सितारा छवि गढऩे के लिए सारे निर्माता अपने करोड़ों दांव पर लगाने को तैयार हैं। क्योंकि आप इमरान को मौका देंगे तो आपके पास आमिर खान हैं। आप अभिषेक को मौका देंगे तो आपके पास अमिताभ बच्चन हैं। शाहरुख खान भी बीस साल पहले इंडस्ट्री में आ गए। आज मुझे कोई उम्मीद नहीं है कि गैर सितारा छवि वाला और बिना फिल्मी पृष्ठभूमि वाला आदमी आने वाले बरसों में सुपर स्टार बनेगा। मनोज बाजपेयी, आशुतोष राणा, इरफान खान जैसे पचासों नाम आप गिना सकते हैं जिनके अभिनय की आप तारीफ कर सकते हैं लेकिन उनके नाम से वितरक फिल्म खरीदते नहीं। निर्माता अपना धन नहीं लगाते। उनके पास सारा पैसा रणबीर कपूर पर लगाने के लिए है।

सितारों और निर्माताओं के इस गठजोड़ में पटकथा लिखने वाले और गीतकारों की हालत खराब है। क्योंकि पूरी इंडस्ट्री में यही एक ऐसा काम है, जिसके लिए सितारों के घर में पैदा होना जरूरी नहीं। पैदा हो भी जाएं तो यह बस की बात नहीं। आप सलीम खान के बेटे हो सकते हैं लेकिन वीर की कहानी का आडडिया और पटकथा को श्रेय लेने मात्र से फिल्म को नहीं चला सकते। फिल्म को चलाने के लिए सबसे बुनियादी चीज पटकथा है। यदि वही खराब है तो सितारों के बुरे दिन आते देर नहीं लगती। अक्षय कुमार आजकल इसी संकट से जूझ रहे हैं। अमिताभ बच्चन एक बहुत बुरा दौर झेलकर बाहर निकले हैं। मुमकिन है आमिर खान को देर सबेर यह बात समझ में आएगी। जिस दिन फिल्म पिटती है, उस दिन कोई यह नहीं कहता कि इसके लिए अभिनेता या निर्देशक जिम्मेदार थे। निनानवे फीसदी मामलों में हार का ठीकरा लेखक के माथे पर फूटता है, तो ऐसी कौनसी आफत है कि लेखक को फिल्म से पहले भी उसका तय शुल्क नहीं देना चाहते और फिल्म चल निकले तो भी उसके लिए कोई रहम नहीं है।

सितारों को सिरफिरा बनाने का यह तंत्र हॉलीवुड से हमने लिया है लेकिन वहां भी लेखक के लिए फिल्म के बजट का पंद्रह से पच्चीस प्रतिशत तय है। वहां लेखकों का संगठन भी मजबूत है। दो साल पहले जब अपने हकों को लेकर लेखक हड़ताल पर चले गए थे तो निर्माताओं की हालत पतली हो गई थी। अफसोस की बात है कि मुंबई में फिल्म लेखकों का संगठन इतना मजबूत है ही नहीं। यहां तक कि उनकी कहानियां भी उतनी ही चुराई हुई होती हैं लेकिन वहां भी निर्माता का दबाव ज्यादा होता है कि फलां डीवीडी काट दो। वहां फिल्म राइटर्स एसोसिएशन है, जो मुसीबत के वक्त एक एजेंट की तरह तो काम सकती है कि वह लेखक और निर्माता में कोई समझौता करवा दे लेकिन उसके पास कानूनी हक नहीं है। यदि लेखक अपने असली हक की मांग करे तो उसे कोर्ट ही जाना पड़ता है। वहां कॉपीराइट कानून की उलझनें ही उसकी मदद करती हैं। तो कोई संशोधन ऐसा है कि उससे लेखक को उसका वाजिब हक मिले तो इसका स्वागत होना चाहिए। ना केवल फिल्म-लेखकों को बल्कि आम लेखकों को भी इसकी वकालत करनी चाहिए। हिंदी के मुख्यधारा के कितने ही लेखक सिनेमा के लिए भी लिखते रहे हैं और निर्मातओं और सितारों के इस चक्रव्यूह में उनका अनुभव बुरा ही रहा है। चाहे वो उदयप्रकाश हों या बोधिसत्व। लेखकों के साथ ही गीतकार इस बात से जूझ रहे हैं कामयाब गानों से करोड़ों कमाने वाले निर्माताओं को उनका हक भी मिलना चाहिए। क्या किसी खूबसूरत गाने को सितारों पर फिल्माए जाने की कोई मजबूरी हो सकती है?आमिर खान यदि कॉपीराइट संशोधन की बैठक में भारत सरकार के मंत्री का यह समझाने में कामयाब हो जाएं कि भारत में फिल्म तो सितारों की वजह से ही चलती है तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ नहीं हो सकता। क्योंकि हमारे पास रामगोपाल वर्मा हैं जिन्होंने सत्या के जरिए एक नई पहचान भारतीय इंडस्ट्री को दी। एकदम ताजा मनोज वाजपेयी को उन्होंने रातों रात सितारा बनाया। लेखक वैसे भी भावुक होता है। अनुराग कश्यप से जब रामू ने जब सत्या की स्क्रिप्ट की कीमत पूछी तो अनुराग ने कहा था, मेरी तो सिर्फ यह इच्छा है कि इस कहानी पर फिल्म बन जाए। फिल्म बनी और हम सबने बिना सितारों वाली फिल्म की कामयाबी देखी। अनेक उदाहरण भरे हैं। महेश भट्ट आज भी सितारों की छवि से परे सिनेमा बनाने में यकीन करते हैं। यह बात और है कि उनकी ज्यादातर फिल्में हॉलीवुड के सिनेमा से चुराई हुई होती हैं। उनके यहां भी मूल लेखक की इज्जत नहीं है।

दुनिया में क्लासिक सिनेमा बनाने वाले इरानी फिल्मकार सितारों के बोझ से आजाद हैं। फ्रांस के सिनेमा में भी ऐसा ही है। लेकिन हॉलीवुड के फार्मूले ने पूरे यूरोपीय सिनेमा को तबाह कर दिया। हमारी इंडस्ट्री में भी सितारों के दबाव ने घटिया फिल्में देखना हमारी मजबूरी बना दी है। प्रयोगधर्मी फिल्मकार नया सिनेमा रचने से ही डरते हैं। खोसला का घौंसला बनाने वाले दिबाकर बनर्जी को दो तीन साल लग गए, जब वे अपनी फिल्म बेच पाए। भेजा फ्राय ने यह मिथक तोड़ा कि बिना सितारों की फिल्म नहीं चलती। सितारों की फिल्म कमबख्त इश्क डूब ही गई। कहानी नहीं होगी तो सितारों की कामयाबी खतरे में होगी। जेम्स कैमरून ने अपनी अवतार में एनिमेटेड चेहरों को ही सितारा छवि दे दी। आमिर खान को भविष्य की आहट देखनी चाहिए और लेखकों को अपना भविष्य देखते हुए संघर्ष और तेज करना चाहिए।

1 टिप्पणी:

कविता रावत ने कहा…

Ek lekhak ki yatharth parak chehra aapne bakhubi prastut kiya hai. Sachai yahi hai ki aaj bhi ek lekhak wo samman nahi mil paata hai jiska wah hakdaar hai...
Aajis par ek bahas ki jarurat hai, jisse lekhak nirah vastu nahi apitu taakatvar ban sake..
Bahut Shubhkamnayne