सोमवार, जून 07, 2010

उस खोई हुई बात की खोज


कितनी ही बार इस सीजन में आम खाते हुए आप सोचते होंगे कि आम की मिठास अब वैसी नहीं रही जो पहले हुआ करती थी। होली खेलते हुए भी हम कहते हैं, होली खेलने में अब वो बात नहीं। और तो और गोभी और आलू की सब्जी तक के स्वाद से हमें शिकायत है कि अब वो बात नहीं रही। आखिर वह सब क्या था, जो हुआ करता था। उलझन होती है कि हम ही बदल गए हैं या होली, आम, सब्जियां, हवाएं सब बदल गई हैं। हर साल यही कहते हैं, ऎसी गर्मी कभी नहीं देखी। रही सही कसर मौसम विभाग के वे आंकड़े पूरी कर देते हैं, जिन्हें खुद अपना मौसम भी पता नहीं होता। कुछ हद तक आशंकाएं सही भी हो सकती हैं लेकिन उससे भी बड़ी वजह है कि हमारी आदतें तेजी से बदल रही हैं। हमने उत्सवप्रियता, खान-पान और रहन-सहन को स्टेटस सिंबल बना लिया है। अपने चारों तरफ तकनीक और आधुनिकता की एक ऎसी लौह आवरण वाली चादर लपेट ली है, जिसमें हम किसी का झांकना बर्दाश्त नहीं कर सकते। याद करिए, आपने पिछली बार कब अपने पड़ोसी का पीपी नंबर देकर किसी को बताया हो कि मेरा फोन बंद या खराब हो तो वहां संपर्क करें। बहुतों को तो पड़ोसी के फोन नंबर भी याद नहीं। हमें उनके दुख से उतनी तकलीफ नहीं, जितनी उनके सुख से ईष्र्या होती है। पुरानी पीढ़ी के लोग कैसे भूल सकते हैं, जब मोहल्ले के एक ही टीवी पर चित्रहार देखने का इंतजार होता था। जिस घर में टीवी होता था, वह अपना टीवी बैडरूम में नहीं रखता था। घर के सबसे बड़े कमरे में उसे रखता था। कमरा छोटा होता तो वह ऎसे कोने में रखते कि दरवाजा खुला रहे तो चौक मे बैठे लोग भी टीवी का सुख ले सकें। श्वेत-श्याम पर्दे पर नाचते उन अभिनेता अभिनेत्रियों को देखकर जो मनोरंजन होता था, वह आज के रंगीन एलसीडी, एलईडी पर्दे से गायब दिखता है। कितने ही बुजुर्ग और अधेड़ गृहिणियां पूरा दिन टीवी के सामने बैठे हुए निरर्थक बिताती हैं और सोने से पहले चर्चा करती हैं, "टीवी के कार्यक्रमों में अब वो बात नहीं रही जो पहले हुआ करती थी।" शादी से सात दिन पहले "बान" यानी बिंदायकजी बिठा दिए जाते। गांव के सारे करीबी लोग दूल्हे, बिंदायक और घरवालों को "बनोरी" के लिए बुलाया करते। हम लोगों को हलवा पूरी खाने के इस मौके का इंतजार रहता था। सात दिन तक मीठा खाने से एक ऎसी ऊब होती थी कि सालभर का कोटा पूरा। बान के बाद औरतें देर रात तक बनोरी गाया करती थीं। उन गीतों की लय पर नाच होता। युवा लड़कियां और वधुएं नए गीतों का सृजन करती और बुजुगोंü में सुनाकर स्वीकृति पाती थीं जैसे नया कवि वरिष्ठों की तरफ उम्मीद से देखता है, लेकिन अब शहर और गांव में "बान" एक रस्म भर रह गया है। सारा रोमांच अब गायब हो गया। पैसा खर्च हो रहा है। दिखावा हो रहा है। रोमांच के मायने बदल गए हैं।

याद है जिन घरों में प्रिया स्कूटर, हमारा बजाज होता था, वे कितने अलग और असरदार माने जाते थे। अब हमें कोई असरदार लगता ही नहीं। नए अमीरों में भी वो बात नहीं। उस पूंजी की कीमत थी क्योंकि हमें उसके सूत्र पता थे कि वह कहां से आ रही है। अब आ रही पूंजी आवारा है। इसके खतरे ज्यादा हैं। दिखावा-लालच ज्यादा है। प्रेमिका तक दिल की बात कहने के लिए रिसर्च करनी होती थी कि कैसे कही जाए? फोन नहीं, पीपी नंबर नहीं। पहले सहेली को भरोसे में लो, फिर मिलने की जगह तय हो। चेहरे और हाव भाव से अंदाजा लगाओ कि प्यार है भी कि मियां, यूं ही मरे जा रहे हो। अब प्रेमिका तक पहुंचने में बाथरूम तक जाने से कम समय लगता है। स्पीड डेटिंग हो गई। क्या अब प्रेम में भी वो बात नहीं रही जो पहले हुआ करती थी। खाने में इतनी नई रेसिपीज शामिल कर ली हैं कि दही अब दही नहीं रहा, आलू में आलू कम है उससे बनने वाली रेसिपी ज्यादा। रोटी का विकल्प बेस्वाद ब्रेड बन रही है। मैकडॉनल्ड के ऊबाऊ बर्गर का सेलिब्रेशन है। गन्ने के रस वाले को हमने जीवन से बेदखल कर दिया है। हमने अपनी सरहदें खींच लीं और अब दम घुट रहा है तो कहते हैं, किसी भी चीज में अब वो बात नहीं रही जो पहले हुआ करती थी। और अंत में, इस सारी नाउम्मीदी के बीच मेरे ज्यादातर मित्र यह मानते हैं कि रेखा की खूबसूरती और गुलजार के गीतों में अब भी वही बात है। अपने आसपास आप भी ढूंढिए, बची हुई वही दुनिया जिसके लिए हम कहें, वाह, इसमें तो आज भी वही बात है।

3 टिप्‍पणियां:

माधव( Madhav) ने कहा…

बहुत बढ़िया

शानदार

Udan Tashtari ने कहा…

सही कहा..सकारात्मक रवैया तो यही होगा!

sudhakar soni,cartoonist ने कहा…

आपकी लेखनी में "आज भी वो ही बात है "