शनिवार, जून 19, 2010

सियासी साये में पायरेसी





पायरेसी का मतलब है कि किसी आदमी का किसी भी तरह का श्रम कोई उत्पाद को तैयार करने में लगा उस तक उसका हक पहुंचाए बिना उसका उपभोग करना या आनंद उठाना। भाजपा की बाड़ेबंदी में जो लोग फिल्म ‘राजनीति’ का पायरेटेड वर्जन देख रहे थे, उनमें कुछ को तो यह भान ही नहीं था कि वे कानून का उल्लंघन कर रहे हैं, जिन लोगों को हम चुनकर भेजते हैं उनमें ज्यादातर इस गलतफहमी के शिकार हैं कि वे तो कानून बनाते हैं,लिहाजा उनकी कोई भी हरकत गैर-कानूनी कैसे हो सकती है? लेकिन सच यही है कि यही लोग सबसे ज्यादा गैर-जिम्मेदारी से कानून का मखौल उड़ाते हैं। यह कोई चामत्कारिक और नई बात भी नहीं है जो मैं लिख रहा हूं, क्योंकि हम सबने यह मान ही लिया है कि किसी भी बात पर एक बार हंगामा होना, उस पर बयानबाजी होना और मामले की लीपापोती हो जाना हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी विशेषता है, यदि आप इस विशेषता से अनभिज्ञ हैं तो देखते जाइए कि इस मामले पर भी ऐसा ही होगा। और तो और जिस भोपाल गैस त्रासदी पर पूरे देश का मीडिया शोर शराबा कर रहा है, उसकी परिणति भी लीपापोती में ही होगी और उसकी प्रक्रिया शुरू हो चुकी है।
विषयांतर ना करते हुए पायरेसी पर आते हैं। पिछले दिनों की ही एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में कोई 65 फीसदी सॉफ्टवेयर पॉयरेटेड इस्तेमाल होते हैं और इनकी बाजार में कीमत करीब दो अरब डॉलर के आसपास है। दुनिया के कई छोटे देशों की अर्थव्यवस्था भी इतनी बड़ी नहीं है। इंटरनेट के जमाने में इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि कहां कहां इस तरह की चोरी हो रही है लेकिन अभी तक कोई उल्लेखनीय कार्रवाई नहीं हुई। कारण साफ है। पायरेसी एक कुटीर उद्योग की तरह शुरू होकर एक वृहद उद्योग बन गई है। इसकी आपराधिक शृंखला पूरी दुनिया में फैली है। यहां तक अमेरिका और जापान में जो सबसे कम पायरेसी वाले देश माने जाते हैं, वहां भी पिछले साल कोई बीस इक्कीस प्रतिशत सॉफ्टवेयर पायरेटेड काम लिए जा रहे हैं।
अब सिनेमा पर आइए। आप अपने पड़ोस के किसी भी वीडियो पार्लर में जाइए। आपको तीस रुपए में छह फिल्मों का सैट मिलेगा जिसमें कम से कम तीन या चार फिल्मों के प्रिंट की गुणवत्ता भी ठीकठाक होगी। आप आंख बंद करके किसी भी पार्लर में घुसिए वहां यही दृश्य है। जयपुर में ही कम्प्यूटर और सीडीज के लिए एक विख्याात एक मॉल में आपको क्या नहीं मिलेगा? आप इच्छा व्यक्त करिए। बॉलीवुड हॉलीवुड का ताजा तरीन माल। इस पूरे तंत्र को हिलाने की इच्छाशक्ति किसी में भी इसलिए नहीं है कि वह एक समांतर अर्थव्यवस्था है जिसमें वीडियो पार्लर के मालिक से लेकर, इस माल ढुलाई में लगे लोग और संबंधित इलाके की पुलिस तक शामिल रहती है।
प्रकाश झा जयपुर में स्क्रीनिंग से इतने दुखी हो रहे हैं। उन्हें चार कदम चलकर अंधेरी स्टेशन पहुंचना चाहिए। वहां एक के बाद एक कतार से ठेले लगे हैं, जिन पर आपकी मनचाही फिल्म आपके मनचाहे दामों पर मिल जाएगी। मैंने मेरे एक मित्र को फोन करके सुनिश्चित किया है, वहां राजनीति की डीवीडी भी उपलब्ध है। अंधेरी, गोरेगांव और मलाड के इन ठेलों के आसपास ही पुलिस की चौकियां रहती हैं। लोग सब्जियों की तरह विश्व और भारतीय सिनेमा का मोलभाव करते हैं,जिसका रत्तीभर भी निर्माता तक नहीं पहुंचता। इंडस्ट्री से जुड़े लोग सांगठनिक रूप से इसका विरोध करते रहे हैं लेकिन कई ऐसे भी हैं, जिनके घर यही पायरेटेड डीवीडी का मालवाहक आदमी भरा हुआ बैग लेकर पहुंंचता है और होम डिलीवरी करता है। तो सबसे बड़ा अड्डा तो मुंबई में ही है। तमाम सुरक्षा कवचों के बीच देश की प्रतिष्ठित लैब का जनरल मैनेजर ही एक फिल्म की पायरेसी के लिए जिम्मेदार माना गया था। अब यह बड़ी पूंजी का बाजार हो गया है। मोटे तौर पर देखें तो यूं लगता है कि आम आदमी के पास पहुंचने वाली यह सस्ती चीजें उसके लिए कम से कम फायदेमंद हैं लेकिन समस्या यह है बहुत सारे असामाजिक तत्त्वों के हाथ में इस फर्जी और कुटिल उद्योग की चाबी है। यह केवल निर्माता का ही नुकसान नहीं बल्कि हमें यह भी नहीं पता कि इस अवैध कारोबार की यह बेनामी पूंजी आखिर कहां जाकर किस काम आ रही है?
कुछ कंपनियों ने सस्ती डीवीडी निकालकर पायरेसी उद्योग को ढीला करने की कोशिश भी की लेकिन वे उससे भी सस्ते उत्पाद लेकर आ गए। कंपनी ने जब एक फिल्म की डीवीडी पैंंतीस रुपए में देना शुरू किया तो पायरेटेड आपको पच्चीस से तीस रुपए में मिलने लगी और उसमें छह फिल्में शामिल हैं। आखिर बाजार की इस प्रतिस्पर्धा में कोई कब तक लड़ सकता है, जब हमारे प्रशासनिक तंत्र के पास पायरेसी रोकने की कोई इच्छाशक्ति और सख्त कानून का अभाव हो।
ना केवल सॉफ्टवेयर और सिनेमा बल्कि किताबें भी भीषण रूप से पायरेसी की शिकार हैं। कितनी ही बेस्ट सेलर आपको दिल्ली और मुंबई में मूल किताब की बीस प्रतिशत कीमत पर आसानी से उपलब्ध हैं। अरुंधति रॉय, विक्रम सेठ, किरण देसाई, अरविंद अडिगा, जेके रॉलिंग, चेतन भगत सबकी किताबें आपको यूं की यूं फोटोकॉपी की हुई खुलेआम बिकती मिल जाएंगी।
तो पायरेटेड फिल्म देखने वाले नेताओं का अपराध इसीलिए बहुत बड़ा है कि जब पूरे बाजार में इस कदर पायरेसी छाई है। इन्हें रोकने की कोशिश करनी चाहिए, उस समय ये भी उसी भीड़ और उस फर्जी उद्योग का हिस्सा बन रहे हैं, जिसका अंतत: नुकसान हमारी अर्थव्यवस्था को है। प्रकाश झा कह ही चुके हैं कि उनसे कहा जाता तो वे वैसे ही स्पेशल स्क्रीनिंग करवा देते, पायरेटेड फिल्म देखकर नेताओं ने ठीक नहीं किया। इसलिए मुझे लगता है इन्हें माफ कर देना कतई सही नहीं है। लेकिन इनको सजा मिलने का भी क्या कोई अर्थ है जब इतने बड़े पायरेसी उद्योग को हिलाने में ये रत्तीभर भी मददगार नहीं होगी। आखिर बुराई की जड़ों पर प्रहार करना कब सीखेंगे? आखिर इन नेताओं को इतनी आसानी से डीवीडी ना मिल पाए, यह व्यवस्था कब होगी?

(राजस्‍थान पत्रिका में संपादकीय पेज पर 19 जून 2010 को प्रकाशित)

1 टिप्पणी:

कडुवासच ने कहा…

...प्रसंशनीय लेख!!!