शुक्रवार, जून 04, 2010

सत्तालोभी अराजक धूसर चेहरे


फिल्म समीक्षा: राजनीति
-रामकुमार सिंह
प्रकाश झा की फिल्म ‘राजनीति’ का गांधी परिवार से कोई लेना देना नहीं है। सारे पात्रों का कथा-सूत्र महाभारत के करीब है। नीति-अनीति, लालच और मूल्यबोध में वे ‘गॉडफादर’ के पात्रों से मिलते हैं। अर्जुन बने रणबीर कपूर और कृष्ण बने नाना पाटेकर भी सत्य की लड़ाई नहीं लड़ रहे, बल्कि एक परिवार की राजनीतिक विरासत को हथियाने में सारे जोड़ तोड़, मार-काट, हत्याएं और नैतिकता की हदें पार कर रहे हैं। सुधार की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही। पर्दे पर भव्यता दर्शाने के लिए भीड़ है लेकिन उसकी एक भी आवाज उभर कर नहीं आती। हमारे दौर की ‘राजनीति’ का कड़वा यथार्थ है कि भाषण के केन्द्र में जनता जरूर है लेकिन हकीकत के धरातल पर सत्ता के मोहरे एक दूसरे से सारे उपलब्ध अनैतिक हथियारों से लड़ रहे हैं। जनता हर पांच साल में उन्हीं धूसर (ग्रे) चेहरों को सत्ता सौंपने के लिए अभिशप्त है। यह फिल्म देखनी चाहिए।
प्रकाश झा एक अच्छी फिल्म के लिए बधाई के पात्र हैं। वे खुशकिस्मत हैं कि उनके पास इस समय के नामी सितारे फिल्म में काम कर रहे हैं, जो दर्शकों को तीन घंटे तक बिठाए रखने की क्षमता रखते हैं।
बड़े भाई को लकवा मार जाने की हालत में उसका महत्त्वाकांक्षी बेटा वीरेन्द्र प्रताप उत्तराधिकारी बनना चाहता है लेकिन मामा ब्रज भूषण की दखल के बाद सत्ता वह अपने छोटे भाई को देता है। चचेरे भाई पृथ्वी और वीरेन्द्र आपस में सत्ता के लिए लड़ रहे हैं, तभी वीरेन्द्र अपना फायदा देखकर दलित नेता सूरज को साथ लेता है, जो असल में पृथ्वी और समर की मां के कोख से पैदा हुई अवैध संतान है। छोटा पृथ्वी का भाई समर अमेरिका से आता है। सत्तालोभ में पृथ्वी के पिता की हत्या होती है और समर अपने अमेरिका लौटना रद्द कर देता है। यहां से राजनीतिक शतरंज की एक अराजक बिसात शुरू होती है, जहां कानून व्यवस्था ताक पर है। पूरी कहानी देखते हुए महाभारत आंखों के सामने नाच रही होती है। उसकी कहानी से मुक्त हो पाना लगभग नामुमकिन है। अपंग और लकवाग्रस्त रिमोट कंट्रोल हाथ में रखने वाला वीरेंद्र का पिता धूतराष्ट्र है। अच्छा एडेप्टेशन।
सत्ता की लड़ाई में कोई भी नायक नहीं दिखता। सब अपने हितों के लिए लड़ रहे हैं। एक सूरज है जो अपने दोस्त का अहसान चुका रहा है, लेकिन फिल्म के दूसरे हिस्से में से वह लगभग गायब है।
राजनीति हमारे राजनीतिक माहौल की कड़वी हकीकत की पोल खोलती है, जहां वंशवाद और लालच चरम पर हैं। किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। अभिनेताओं में अर्जुन रामपाल को छोडक़र सभी प्रभावित करते हैं। अजय अच्छे हैं ही। रणबीर हर फिल्म के बाद और मैच्योर दिख रहे हैं। नसीर छोटे से रोल में हैं लेकिन प्रभावी। नाना पाटेकार ने अद्भुत काम किया है। मनोज वाजपेयी का यह नया अवतार है। कैटरीना ठीक हैं। फिल्म से गाने गायब हैं, उनके संकेत भर हैं। उन्हें बाहर सुनना ही बेहतर है। फिल्मांकन बेजोड़ है। भीड़ के असली दृश्य जादुई है। पिछले कई सालों में इस तरह के दृश्य हिंदी फिल्मों लेने की कोशिश किसी ने नहीं की।
अंजुम राजबली और प्रकाश झा की पटकथा की गति अच्छी है। मुद्दत बाद किसी हिंदी फिल्म में शुद्ध हिंदी के संवाद देखने को मिल रहे हैं। फिल्म बेहतरीन है। बॉक्स ऑफिस पर चल जाए तो यह प्रकाश झा की किस्मत कहिए, क्योंकि थियेटर में दर्शक को दिमाग साथ लेकर जाना होगा। काश, हमारे आम लोग राजनीतिक मुद्दों पर इतने संवेदनशील होते तो ‘राजनीति’ की पटकथा और देश का राजीतिक पटल शायद ऐसा नहीं होता।

5 टिप्‍पणियां:

varsha ने कहा…

achcha likha hai aur achchi batayee hai... ab to dekhni hi hogi.

abhishek ने कहा…

लगता है देख ही ली जाए,,, बढ़िया समीक्षा के लिए साधुवाद,,

Jandunia ने कहा…

अच्छा रिव्यू किया है आपने

दुलाराम सहारण ने कहा…

फिल्‍म के मामले में आपकी बात पर विश्‍वास नहीं करेंगे, पहले हम देखेंगे फिर कुछ कमेंटस करेंगे।

पृथ्‍वी ने कहा…

फिल्‍म का इंतजार था. आपने जिज्ञासा बढा दी है. जल्‍दी ही देखनी होगी. शुक्रिया