बुधवार, जून 02, 2010

भटकनों में छुपे जिंदगी के मायने



बहुत दिनों तक लगातार मैं एक ही जगह रहते हुए ऊब जाता हूं। सुबह उठते ही वही लोग, दफ्तर में वही चेहरे। वही सब्जी वाला, वही नाई की दुकान पर बजता तेज गाना, परचूनी की दुकान पर मोल-तोल करती मोहल्ले की जानी-पहचानी औरतें। सुबह की वही खुशबू मेरी बालकनी में मिलती है। उगते सूरज को देखने के लिए बालकनी के उसी कोने से देखना पड़ता है। मन कहता है कि कुछ बदलना चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे किचन में रोजाना भिंडी की खुशबू आए, या रोज ही एग करी बनती रहे, तो खाना मजेदार नहीं लगता। दरअसल, इसी ऊब को मिटाने के लिए हमें सफर की जरूरत होती है। मुझे लगता है कभी-कभी बिना मतलब, बिना सोचे समझे निकलना भी निरर्थक नहीं होता है। कवि जगदीश गुप्त की एक कविता है, भटकनों में अर्थ होता है, टूटना कब व्यर्थ होता है।

यदि हम घर से बाहर कोई नई जगह जाएंगे, तो हमारे सामने उतनी ही नई दुनिया खुलती है। गूगल अर्थ पर माउस क्लिक करते हुए मुझे धरती की खूबसूरती पर गर्व होता है। मैं रोमांच से भर जाता हूं। भूगोल में उन टापुओं के किस्से पढ़ते हैं, जहां दिखने में हम जैसे या कुछ अलग लोग रहते हैं। उनका खाना पीना, रीति रिवाज सब कुछ कितना जादुई होता है? जब मैं खुली आंखों से पहाड़ पर बैठे बादलों को देखता हूं तो दिमाग में नई कल्पनाएं, एक नई उम्मीद का संचार होता है।

यह सब मैं एक कमरे में बंद होते हुए महसूस नहीं कर सकता। सैकड़ों किताबें पढ़कर किसी समंदर के बारे में हम वो नहीं जान सकते, जब तक कि मैं उस समंदर के किनारे खुद जाऊंउसे देखूं और किनारे तक उछलती हुई लहरों के बीच जाकर खड़ा हो जाऊं। समंदर में वापस लौटता हुआ लहरों का पानी हमारे पांव के नीचे से थोड़ी सी मिट्टी भी चुराकर ले जाता है। सही मायने में पांव तले से मिट्टी खिसकने का अहसास तब होता है। एक झुरझुरी दिमाग में उठती है। मैं कभी-कभार घर से दूर दूसरे शहर चला जाता हूं। कभी अपने गांव, कभी ननिहाल, कभी रोडसाइड बने ढाबों पर रात का खाने खाने का मन होता है।

हर बार एक ही ढाबे पर क्या खाना? एक ही होटल में बार- बार खाने के लिए क्यों जाना? सिर्फ इसलिए कि उसके खाने के बारे में हमें जानकारी है? हर बार ही एक ही जगह घूमने क्यों जाना? क्या माउंट आबू दूसरी बार जाने में उतना ही खूबसूरत अहसास जगाता है? शायद नहीं। एक ही समंदर को बार-बार देखने में मजा नहीं आता। दरअसल प्रकृति का जादू अनंत है। बहुत से लोग इसे पूंजी से भी जोड़ सकते हैं। इस जादू को महसूस करने के लिए हमें अपने भीतर एक जिज्ञासु को पैदा करना होगा। हमारे आसपास ही कितने खजाने ऎसे हैं, जिन पर हमने गौर ही नहीं किया।

घूमते हुए ही मैंने पाया कि गोवा के लोग इतने मेहमान नवाज हैं कि बीयर पीने के बाद खुल्ले पैसे ना होने के कारण दुकानदार ने बीस रूपए नहीं लिए। बोला, कभी भी देते जाना। घूमते हुए ही मुझे अहसास हुआ कि हवाई अड्डे पर मेरे मणिपुर के एक दोस्त से पासपोर्ट मांग लिया गया और उसे यह साबित करना पड़ा कि वह विदेशी नहीं भारतीय है। यह एक तरह का राजनीतिक सबक भी था कि क्यों अपनी पहचान लिए आदमी संघर्ष करता है। अपने ही देश में किसी के साथ ऎसा बर्ताव कैसे किया जा सकता है? दूसरी ओर यह हमारे देश की विविधता का भी संकेत है। बचपन में पिता के साथ घूमते हुए पाया कि गांव में आधी रात को भी आप किसी का दरवाजा खटखटाएंगे तो लोग सोने की जगह देते हैं, आपसे भोजन की पूछते हैं।

उनके घर में आटा खत्म भी हो गया हो तो एक कटोरी आटा पड़ोस से उधार मांगने में नहीं सकुचाते। कस्बे से गांव जाने वाले फेरीवाले अक्सर जल्दबाजी में सुबह नाश्ता नहीं कर पाते। घूमते हुए ही उन्होंने यह यकीन हासिल कर लिया कि गांव की औरतें सामान भले ही नहीं खरीदें लेकिन उससे खाने की पूछे बिना वापस नहीं आने देंगी। अक्सर लगता है कि दुनिया बहुत बड़ी है, उसे पढ़कर समझने में कई जीवन चाहिए लेकिन यदि घूमते हुए इसे जानें तो शायद एक जीवन से काम चल जाए। कोलंबस, वास्को डी गामा, मार्कोपोलो, फाह्यान, ±वेनसांग ऎसे कितने लोग थे जो घूमने के लिए निकल गए तो दुनिया ने तेजी से एक दूसरे को जाना। वे कारोबार करने में एमबीए की तैयारी में ही आठ दस बरस निकाल देते तो शायद दुनिया एक दूसरे को जानने में और विलंब करती। गांव के कितने ही लोग जवानी के दिनों में ऊंटगाड़ी लेकर कतारियों के साथ निकल जाया करते थे। लौटते में वे अनाज या नमक लाया करते थे। वे एक महीने में बीस दिन चलते ही रहते। वे नरेगा के रजिस्टर में आज भी अंगूठा लगाते हैं लेकिन उनके अनुभवों का संसार, संस्मरणों की दुनिया मुझसे बहुत बड़ी है। यह सब उन्होंने घूमने से ही हासिल किया।

7 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बढिया पोस्ट। जीने मे रोमांच हो तो जीने का मजा ही कुछ अर होता है। अच्छी पोस्ट के लिए आभार।

नीरज मुसाफ़िर ने कहा…

रामकुमार जी,
आज तो आपने मेरे कर्मों को सार्थक कर दिया।
बेहतरीन विचार।

शारदा अरोरा ने कहा…

लेख बहुत पसंद आया ,कहते हैं कि दिमाग हमेशा नया चाहता है और दिल पुराने को ढूंढता रहता है ...बस दोनों का ताल मेल ही जीवन है । ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आईं ...
भटकनों में अर्थ होता है, टूटना कब व्यर्थ होता है।
सचमुच भटकन को एक सबक की तरह लें , सृजन की दिशा दें तो सब सार्थक हो गया न । बहुत बहुत धन्यवाद ।

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) ने कहा…

बहुत ही सुन्दर पोस्ट है.. ये ज़िन्दगी के अनसेड मायने है.. अनबोले से.. और सबको पता है.. मुझे भी ऎसी ही ऊब होती है.. और एक ऎसा सफ़र जैसे ताज़गी भर देता है.. ज़िन्दगी जीने का एक नया उत्साह.. वैसे तमन्ना भारत भ्रमण की भी रखता हू.. देखते है कब :।

अच्छा लगा यहा आकर..

डॉ महेश सिन्हा ने कहा…

बहुत बढ़िया
सागर को देख कर ही जाना जा सकता है पढ़कर नहीं

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा ने कहा…

यायावरी की ये दुनिया मुबारक हो राम सर, जेब में चाहे पैसे हो न हो, लेकिन दिल में इतनी ख्वाहिश तो होनी हो चाहिए, कि भूगोल की किताब में पढ़ी सारी दुनिया तो घूम ही डालें।
(किताबों और कल्पनाओं की दुनिया की तो नहीं कह सकती, उसे घूमने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं)

Ramkumar singh ने कहा…

शुक्रिया दोस्‍तो। आपने र्धय्र से पढा। आप सब नीरज की का ब्‍लॉग जरुर देखें। ये तो तगडे घुमक्‍कड निकले।