शनिवार, जुलाई 10, 2010

फार्मूला कहानी में किस्मत का छौंक

फिल्‍म समीक्षा मिलेंगे मिलेंगे
‘मिलेंगे मिलेंगे’ इस हफ्ते रिलीज हुई है। फिल्म के निर्देशक सतीश कौशिक हैं और निर्माता बोनी कपूर। शाहिद कपूर और करीना कपूर की ऑफ स्क्रीन प्रेमकहानी खत्म हो चुकी है और यह फिल्म उसी समय बननी शुरू हुई थी जब दोनों के करीबी रिश्ते थे। जाहिर है इस जोड़ी के खत्म हो चुके रोमांस की वजह से फिल्म को कोई फायदा होगा इसकी ज्यादा अपेक्षा नहीं है।
प्रिया नाम की एक लडक़ी को एक टेरोकार्ड रीडर कहती है कि उसे उसके सपनों का राजकुमार विदेश में किसी समंदर के किनारे महीने की सात तारीख को सुबह सुबह सात रंग के कपड़े पहने मिलेगा। यह बातें उसने डायरी में लिखी और गलती से उसके कमरे घुसे लडक़े इम्मी ने वह डायरी चुरा ली। उसी क्रम से वह समंदर किनारे मिला और प्रिया को उससे प्यार हो गया। अचानक ही प्रिया की चुराई हुई डायरी की फोटोकॉपी इम्मी के कमरे से उसे मिल जाती है। वह समझती है कि उसके साथ धोखा हुआ है। बात बिगड़ जाती है। किस्मत ने ही उन्हें मिलाया है तो वह उसे चुनौती देती है, पचास के नोट पर लडक़े के टेलीफोन नंबर लिखकर और उससे किताब खरीदकर उस किताब पर लडक़ी ने अपने नंबर लिख दिए। किताब उसने किसी और शहर में बुकस्टोर को दे दी। ये जिस दिन एक दूसरे को मिल जाएंगे तो मान लेंगे कि किस्मत हमें मिलाएगी। बाद में दोनों एक दूसरे को ढूंढ़ रहे हैं। सूचना संजाल के आज के जमाने में दिल्ली मुंबई में घूम रहे प्रेमी एक दूसरे को ढूंढ नहीं पा रहे हैं, यह बात जरा हजम नहीं होती। लेकिन शाहिद करीना के फैन चाहें तो इस फिल्म को भी देख सकते हैं।
एक पुराने फार्मूला कहानी पर बनी इस औसत प्रेमकथा कोई चामत्कारिक प्रदर्शन की उम्मीद कम ही है। हालांकि फिल्म को संपादन के लिहाज से चुस्त किया गया है लेकिन डबिंग और कथा प्रवाह की अपनी समस्याएं हैं। फिल्म के बैकग्राउंड स्कोर को भी समकालीन करने की कोशिश की गई है लेकिन कमजोर कहानी ने सब गड़बड़ कर दिया है। हां, करीना और शाहिद बहुत खूबसूरत लगे हैं। वे तरोताजा दिख रहे हैं। हिमेश का संगीत अब आउटडेटेड लग रहा है।

फिल्म: रेड अलर्ट

नक्सलवाद के इर्द गिर्द मानवीय कहानी

खासकर उस समय जब देश के कई जिल नक्सलवाद की समस्या से ग्रस्त है, निर्माता टीपी अग्रवाल और निर्देशक अनंत महादेवन की फिल्म ‘रेड अलर्ट’ नक्सलवाद के भीतर फंसे एक आदमी की कहानी के बहाने उसके मानवीय अमानवीय चेहरे पर बात करते हैं। फिल्म प्रकारांतर से गरीब आदमी के नक्सली बनने और अपने बच्चों के भविष्य को लेकर आशंकित एक पिता की कहानी है। वह पहले ही दिन खाना बनाकर नक्सली कैंप में पहुंचाता है लेकिन पुलिस उसका पीछा करते हुए कैंप पर हमला कर देती है। उसके बाद वह कैंप में फंस जाता है। वहां प्रशिक्षण के दौरान वह लगातार अपने परिवार की चिंता करता रहता है। अतंत: एक दिन वह अपने कैंप कमांडर की हत्या कर वहां से भाग छूटता है। उसके बाद वह सरकारी गवाह बनता है और अपने ही साथियों को मरवाने में सहयोग करता है। इस बहाने निर्देशक ने बताया है कि किस तरह नक्सलियों को पकडऩे के बहाने पुलिस सीधे सादे आम लोगों पर अत्याचार करती है। उन पर दोहरी मार है। प्रकारांतर से नक्सलियों के तरफदारी करते हुए प्रतीत होते हैं, लेकिन उनके सिस्टम पर भी तंज है। जब उनकी टुकड़ी के सैन्य मुखिया बने आशीष विद्यार्थी एक पत्रकार को यह कहते हैं कि हमने विकास कार्य भी कराएं हैं। लोगों को बेहतर पैसा दे रहे हैं, उसी समय कैंप में आया नया नक्सली आकर यह कहता है कि आपने वादा किया था कि महीने के पंद्रह सौ मिलेंगे और अभी तक नहीं मिले।
नक्सलियों के नियम कायदे और भीतरी अंतद्वंद्व को फिल्म दिखाती है। फिल्म को और बेहतर किया जा सकता था। फिल्म के कुछ हिस्से बहुत ही अच्छे हैं। संवाद चुस्त हैं। लगातार किताबें पढने वाले नक्सली नेता से जब नरसिम्हा पूछता है कि अन्ना आप किताबें क्यों पढ़ते रहते हैं,तो वह कहता है, इनमें गोली से भी ज्यादा ताकत होती है। एक अच्छा दृश्य तब बनता है जब स्कूल में पुलिस के छिपाए हथियारों को लूटने के लिए नक्सली
सुनील शेट्टी ने ठीक काम किया है। आशीष विद्यार्थी, सीमा बिस्वास, विनादे खन्ना, सुनील सिन्हा और भाग्य श्री मुख्य भूमिकाओं में हैं।

1 टिप्पणी:

1st choice ने कहा…

सुन्दर लेखन।