शनिवार, जुलाई 31, 2010

नॉस्‍टेल्जिक असर वाली माफियाओं की मुंबई


इतिहास अपने आपको दोहराता है। कुछ कहानियां आप कभी भी चुनकर अपने ढंग से कह सकते हैं। गैँगस्टर्स की कहानियां भी ऎसी ही हैं। वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई निर्माता एकता कपूर और निर्देशक मिलन लूथरिया की ऎसी ही फिल्म है जिसमें मुंबई में माफिया गिरोहों के पनपने की कहानी है।

कहानी में ऎसा संकेत भी दिखता है कि यह हाजी मस्तान और दाऊद इब्राहिम के चरित्रों से प्रेरित हैं। अनाथ बालक सुल्तान मिर्जा एक दिन मुंबई पर राज करने लगता है और उसके पास काम मांगने आया शोएब खान एक दिन उसका सबसे भरोसेमंद आदमी बन जाता है। सुल्तान एक दरियादिल आदमी है, जिसे आप दीवार और मुकद्दर का सिकंदर के अमिताभ, धर्मात्मा के विनोद खन्ना, दयावान के फिरोज खान आदि से मिला सकते हैं। यहां तक कि वह मां को परेशान करने वाले बेटे को भी पीट देता है। तस्कर है लेकिन उन्हीं चीजों की तस्करी करता है जिनके लिए सरकार मना करती है, उनकी नहीं जिनके लिए जमीर मना करता है।

सुल्तान को भी लाल बत्ती का लालच है और दिल्ली में मंत्री से डील करने के लिए जाते समय मुंबई का काम शोएब खान को सौंप गए। शोएब की महत्वाकांक्षाएं ज्यादा बड़ी हैं और इसकी कीमत सुल्तान को अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है। सुल्तान कभी नहीं चाहता था कि शहर में गंदगी फैले। लेकिन शोएब ने खून खराबा आम कर दिया। कहानी एक पुलिस अफसर विल्सन के फ्लैश बैक में चलती है जिसने इस अपराध बोध में आत्महत्या करने की कोशिश की कि वह इस शहर को तबाही तक पहुंचाने के लिए जिम्मेदार बना। वह जानता था कि माफियाओं के गैर कानूनी कामों को रोका जा सकता था लेकिन वह आपसी गैंगवार से उन्हें मारना चाहता था। आज मार्च 93 के दंगों का भगौड़ा हमारी पकड़ में नहीं है।

कुल मिलाकर फिल्म एक पुरानी मुंबई की सैर कराती है और आपको ऊब नहीं होती। लेकिन याद रहे यह सत्या या कंपनी जैसी फिल्म नहीं है। यहां डॉन गंुडा होने के बावजूद मसीहा है। यहां वास्तव का रघु भी नहीं है, जो अपने किए पर एक अंदरूनी यात्रा करता है और पछताता है। प्यार के दृश्यों को भी अच्छा फिल्माया है जब अपनी पसंदीदा अभिनेत्री के लिए सुल्तान मिर्जा एक अमरूद चार सौ रूपए में खरीदकर ले गए। अजय देवगन ने जानदार काम किया है।

इरशाद कामिल के गीत अदभुत हैं और प्रीतम का संगीत भी लोकप्रिय हो ही चुका है। सबसे सुखद अनुभव यही है कि पुरानी सी दिखती मुंबई, पुराने पहनावे, पुराने गहने, सब अच्छे लगते हैं। मिलन लूथरिया की पुरानी फिल्मों से यह बेहतर है लेकिन इसी विषय पर बनी कई और फिल्मों से कमजोर। सत्तर के दशक के डॉयलॉग्स अपने जादू के साथ हैं। जैसे मैं कोयले की खदान में मशाल से रोशनी करने चला था, खदान ही जल उठी। या गुफा में चाहे कितना ही अंधेरा हो किनारे पर रोशनी जरूर होती है। तो एक नॉस्टेल्जिक अनुभव के लिए आप फिल्म देख सकते हैं। यह एक लोकप्रिय मसाला फिल्म है। माफिया पर बनी क्लासिक फिल्म नहीं।

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अच्छी समीक्षा।

Manish Kumar ने कहा…

ramkumar ji aapki film samiksha padhi kuch baatein acchi lagi. acchi baat yeh thi ki aapne santulit samiksha karne ki koshish ki hai.