शुक्रवार, जनवरी 29, 2010

रण: कांच के जैसे साफ उसूल


कहानी के मोर्चे पर रामगोपाल वर्मा यहां उपदेशात्मक हो गए हैं। रण हालांकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ब्रेकिंग न्यूज बनाने की प्रक्रिया की पोल खोलती है। ऐसा नहीं है कि वर्मा यह बात झूठ कह रहे हैं क्योंकि हमारे देश में इस तरह खबर बनाने के उदाहरण खूब मिलते हैं। लेकिन वर्मा राजनीति और मीडिया के उस खतरनाक ध्रवीकरण की ओर भी संकेत करते हैं, जहां मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है। तो रण में बुराई क्या है? असल में कहानी को इतना सरलीकृत बना दिया है कि कोई भी खबर कहीं भी खरीदी और बेची जा सकती है?कहानी एक ऐसे आदर्शवादी चैनल मालिक की है कि जिसकी ईमानदारी पर सारा देश यकीन करता है। उसी आदर्श के जुनून में एक नया पत्रकार इस चैनल में भर्ती होता है लेकिन टीआरपी की दौड़ में यह चैनल पिछड़ रहा है और इसी चैनल को छोड़कर गए कर्मचारी ने एक नया चैनल खड़ा कर लिया है जो टीआरपी में टॉप पर है। आदर्शवादी पिता का पुत्र चैनल की टीआरपी बढाने के लिए एक राजनीतिक षड्यंत्र में शामिल होता है और जब तक पोल खुलती है, देश की सत्ता पलट चुकी होती है। ईमानदारी से जीने वाला पत्रकार पत्रकारिता छोडऩे का संकल्प लेता है लेकिन आदर्शवादी चैनल मालिक उसे नई कमान सौंपता है। अमिताभ बच्चन ने चैनल मालिक की भूमिका में जान डाल दी है। रितेश देशमुख पत्रकार के रूप बिल्कुल नए लुक में हैं और बहुत अच्छे लगे हैं। सुदीप की तारीफ होनी चाहिए। जन गण मन विवाद के बाद फिल्म में गाना शामिल हुआ है वंदेमातरम। लेकिन पुराने गाने जैसा जादू इसमें नहीं। एक गाना ठीक है, कांच के जैसे साफ उसूल, कांच के जैसे टूट गए। रामगोपाल वर्मा की कहानी पर सवाल उठाए जा सकते हैं लेकिन उनके निर्देशन और शॉट टेकिंग कमाल की है। फिल्म शुरुआत में बहुत ही धीमी रह गई है, हालांकि इंटरवल के बाद हिस्सा थ्रिलर की तरह चलता है लेकिन यह सच है कि अधिक रिसर्च के आधार पर फिल्म को और बेहतर बनाया जा सकता था।

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