सोमवार, जनवरी 18, 2010

रेत में, रेल का सफर





मैंने सुना कि एक टिकट जांचने वाला भी ट्रेन के साथ चलता है। बस के कंडक्टर की तरह उससे टिकट लेकर आप रेल का सफर कर सकते हैं। खूब देखने की कोशिश की लेकिन वह दिखाई नहीं दिया। ज्यादातर यात्री मेरी ही तरह इसी उम्मीद में यात्रा पूरी कर गए कि
टिकटवाला दिखे तो टिकट खरीदें। बहुत से ऎसे भी थे जो दुआ कर रहे थे कि वो दिखे ही
नहीं, ताकि टिकट खरीदना ही ना पड़े।


चूरू जिले में सरदारशहर में रेलवे पटरी का आखिरी छोर है। यह रतनगढ़ से जुड़ा है। चूरू-रतनगढ़-जोधपुर मार्ग पर ब्रॉडगेज का काम चल रहा है। लिहाजा इन दिनों एक टे्रन सरदारशहर और रतनगढ़ के बीच ही फंसी है। यानी यह रेल भारतीय रेल के विशाल नेटवर्क के एकदम कटी हुई है। एक तरफ रतनगढ़, एक तरफ सरदारशहर। पिछले कई महीनों से एक रेल और तीन इंजन उस पटरी पर ही बंद हैं। अगले कई महीने वे ऎसे ही रहेंगे। चार डिब्बों की वाली यह रेल दिन में तीन बार रतनगढ़ से सरदारशहर जाती है और वहां से वापस आती है। तीन इंजन बारी बारी रेल को लाते, ले जाते हैं। रात को पूरी रेल रतनगढ़ रेलवे स्टेशन पर अकेले रहती है। रतनगढ़ रेलवे स्टेशन के सामने एक मित्र के घर में तीन दिन तक रहा। इसी दौरान सरदारशहर की यात्रा भी की। खूबसूरत मरूस्थलीय लैंडस्कैप जादुई लगे। डीजल के इंजन से छुक-छुक की आवाज तो नहीं आती, लेकिन डिब्ब्ाों के पहियों से आने वाली "घड़मच्च, घड़मच्च" आवाज वैसी ही है। मार्ग में ग्रामीण स्टेशनों से लोग चढ़ते उतरते रहते हैं।

मैंने सुना कि एक टिकट जांचने वाला भी ट्रेन के साथ चलता है। बस के कंडक्टर की तरह उससे टिकट लेकर आप रेल का सफर कर सकते हैं। खूब देखने की कोशिश की, लेकिन वह दिखाई नहीं दिया। ज्यादातर यात्री मेरी ही तरह इसी उम्मीद में यात्रा पूरी कर गए कि टिकटवाला दिखे तो टिकट खरीदें। बहुत से ऎसे भी थे जो दुआ कर रहे थे कि वो दिखे ही नहीं, ताकि टिकट खरीदना ही ना पड़े। करीब पैंतीस किलोमीटर लंबी इस पटरी पर सिर्फ एक ही रेल है। उस रेल में आप इस भरोसे के साथ बैठ सकते हैं कि वह सामने आने वाली किसी रेल से टकराएगी नहीं, ना ही पीछे से आ रही कोई रेल उसे टक्कर मार सकती है। कम टिकटों की बिक्री की वजह से हो रहे घाटे के कारण रेलवे ने यह गाड़ी बंद कर दी थी और एक डिब्बे वाली रेल बस चलाई थी। लोगों ने धरना दिया, आंदोलन किया तो इस रेल को फिर से शुरू किया गया।

रेल बचपन से आकर्षित करती रही है। ननिहाल के पास से गुजरती रेलवे लाइन पर हम अक्सर खेलते रहे हैं। दस पैसे के सिक्के को रेल आने से ठीक पहले पटरी पर रख दिया करते थे ताकि पहियों के भारी भरकम बोझ से वह फैल जाए। अक्सर थरथराती पटरियों पर वह पहियों के नीचे आने से पहले ही लुढ़क जाता। लेई, गोंद, फेविकोल चुराकर हम उसे पटरी से चिपकाए रखने का जतन करते थे। हमारी पॉकेटमनी के कई दस पैसे रेल से कुचलकर हादसे के शिकार हुए। मेरी पहली रेल यात्रा के समय मैं छह साल का था और मेरे कान में पहना सोने का "बाला" पड़ोस में बैठी महिला की "लुगड़ी" में उलझ गया था। मेरा कान खून से रंग गया था। मैंने दो तीन मुक्के उस महिला को जमा दिए थे। मेरी इस हरकत पर मां ने मुझे डांटा था। आज भी रेल की यात्रा के दौरान वो दर्द याद आता है। रतनगढ़ से सरदारशहर वाली रेल एक दिन तो खूबसूरत लगती है लेकिन फिर उतनी ही भयावह। एक ऎसा सफर जिसमें सब कुछ तय हो, फेरे, स्टेशन, डिब्बे, लोग, ड्राइवर, टीटीई, गार्ड, थमना, चलना तो वह उबाऊ हो जाता है। क्या हम इतना एकाकी जीवन जीते हुए खुश रह सकते हैं? मेरी उस रेल से सहानुभूति है कि जल्दी से ब्रॉडगेज का काम पूरा हो और दो स्टेशनों के बीच फंस चुकी उस रेल और उसके तीन इंजनों को मुक्ति मिले।

एक पीढ़ी को बदलते हुए

जयपुर के क्रिस्टल पाम मॉल में सबसे महंगे मल्टीप्लेक्स आइनॉक्स में लगभग हर शुक्रवार मैं फिल्म का पहला शो देखता हूं। मुझे सुखद आश्चर्य होता है कि वहां सबसे उम्रदराज दर्शक मैं ही होता हूं। वहां लड़के-लड़कियां समूह में होते हैं। हर समूह का खर्च लगभग दो हजार के आसपास हो जाता है। वे टिकट के अलावा कोल्ड ड्रिंक्स, पॉपकॉर्न आदि पर उतना ही खर्च कर देते हैं, बिना किसी हिचक के। उनके अपने पीयर ग्रुप्स के साथ सपनीली दुनिया के कुछ खूबसूरत ख्वाब भी। अंदाजा करता हूं कि इनमें कोई तीस फीसदी युवक-युवतियां अपने घरवालों को बताकर आते हैं कि वे अपने फ्रेंड्स के साथ फिल्म देखने जा रहे हैं। जब भी टीवी कैमरे पर फिल्म के बारे में दर्शकों की राय लेने की बारी आती है तो वे कैमरे के सामने आने से बचते हैं। डर यही होता है कि शाम को सिटी न्यूज बुलेटिन में मम्मी पापा उनकी शक्ल न देखलें।

इसके बावजूद वे अपने दोस्तों के समूह में सर्वाघिक खुश और आत्मविश्वास से लबरेज नजर आते हैं। लेकिन आने वाले वक्त में वे अपने दोस्तों के साथ फिल्म देखने में अपराधबोध का बोझा उठाकर नहीं जाएंगे। मेरे यकीन का आधार यह है कि तीस से चालीस की उम्र के मेरे ज्यादातर दोस्त इस पीढ़ी को देखकर यह अफसोस जाहिर करते हैं कि वे इस पीढ़ी से एक दशक बड़े हैं। उनमें ज्यादातर अपने बच्चों की परवरिश खुले दिमाग से कर रहे हैं।

डेली न्यूज़ के हमलोग में १७ जनवरी को प्रकाशित कॉलम तमाशा मेरे आगे

4 टिप्‍पणियां:

समयचक्र ने कहा…

रेत में रेल का सफ़र . बढ़िया संस्मरण

Udan Tashtari ने कहा…

अच्छा संस्मरणात्मक आलेख.

काशीराम चौधरी ने कहा…

sir bahut hi achchha likha hai, kuchh literature festival par bhi likhen. Pratiksha me....

VISHWANATH SAINI ने कहा…

sir....brodgage ka kaam pargati par hai...jald hi us train ko mukti mil jayegi...