सोमवार, दिसंबर 14, 2009

वल्र्ड क्लास के सपने

किसी शहर को "वल्र्ड क्लास" बनाने के लिए मुझे नहीं लगता कि जेडीए, नगर निगम या सरकार जैसी गैर-जिम्मेदार संस्थाओं की कोई बड़ी भूमिका होती होगी। मुझे "वल्र्ड क्लास" शब्द से आपत्ति है। यह "थर्ड क्लास" जैसा ध्वनित होता है। केंद्र, राज्य और अब शहर की महापौर को भी शामिल करें, तो सारी कवायद एक राजनीतिक भाषण की परिणति है। तो "वल्र्ड क्लास" का मतलब मैं यहां एक "आदर्श, आधुनिक, वैज्ञानिक और मानवीय सोच वाले शहर" से जोड़कर देखता हूं, उसमें सड़कें और पुल तो बहुत मामूली चीजें हैं। सुख-सुविधाओं का संबंध भी आपके पास उपलब्ध धन से है। मॉल का क्या फायदा, अगर आपकी जेब में खरीदारी का पैसा ही ना हो। तो किसी भी शहर को वल्र्ड क्लास बनाते हैं वहां की संस्कृति, विरासत, शहर में रहने वाले लोग, खाने-पीने की स्वस्थ आदतें, प्रदूषण रहित वातावरण, शिक्षा का स्तर, विज्ञान, संगीत और दूसरी कलाओं के लोगों की शहर में दिलचस्पी। नौकरशाहों को कमीशन खिलाने वाली ढांचागत विकास की ज्यादा से ज्यादा योजनाओं की घोषणा करके ये मान लिया गया है, इनके पूरा होते ही शहर "वल्र्ड क्लास" हो जाएगा।शहर की यूनिवर्सिटी में अध्यापकों की बेहद कमी, अस्पतालों में डॉक्टर नहीं, सरकारी स्कूलों में शून्य पढाई। निजी जेबकतरे स्कूलों पर सरकारी वरदहस्त और पढ़ाई का स्तर गिरा हुआ। कॉलोनियां अस्त-व्यस्त और ट्रेफिक दिनोंदिन होता बेकाबू। प्रदूषण बढ़ गया है। लोग सड़क पर पान मसाला पीक थूकते हुए चलते हैं। बदतमीजी से हॉर्न बजाते हैं। मासूम स्कूली बच्चे सड़कें पार करने से डरते हैं। यूरोप में ऎसे समय टे्रफिक रूक जाता है। कभी अजमेर रोड, तो कभी कानोता और कभी जगतपुरा। सरकारें नया जयपुर बसाने की ऎलान करती हैं और भू-माफिया सक्रिय हो जाते हैं। 84-85 में मैं गांव के सरकारी स्कूल में चौथी कक्षा में था। अखबार में पढ़े एक लेख में था कि जयपुर में नई रिंग रोड बनेगी और उसके बाद शहर का नक्शा बदल जाएगा। लेख में वह नक्शा छापा भी गया था। मैंने रिंग रोड शब्द पहली बार सुना था। उसके बाद अठारह साल से इस शहर में रहते कितनी ही बार अखबारों में रिंग रोड के बारे में पढा। लेकिन वो नक्शों में ही चल रही है। कभी दो किलोमीटर पीछे, और कभी चार किलोमीटर आगे। इसे कछुआ चाल कहना भी बुरा है, क्योंकि कछुआ हमारी सरकारों, नीति नियंताओं से कहीं अघिक जिम्मेदार प्राणी है। तो शहर "वल्र्ड क्लास" कैसे बनेगा? जब निगम के ट्रक या तो कचरा गलियों से उठाते नहीं हैं। उठाया तो उसे सड़कों पर फैलता जाता है। आवारा कुत्ते, मवेशी तो बोनस हैं। पांच साल पहले जयपुर आए एक विदेशी फिल्मकार की याद है जिसने यादराम नाम के ट्रेफिक सिपाही से जौहरी बाजार में पूछा कि क्या मैं अपनी कार "नो पार्किग" में खड़ी कर सकता हूं? उसने मना कर दिया था। "पार्किग" की तरफ इशारा करके समझाया कि वह उधर है। विदेशी ने देखा कि जहां "कार पार्किग" लिखा है वहां एक मोटा-तगड़ा सांड बैठा था। उसने सिपाही से सांड को हटाने का आग्रह किया। टूटी फूटी अंग्रेजी में जवाब आया, "दिस इज नोट माई डूटी, दिस वर्क बिलोंग्स टू नगर निगम।" विदेशी को बाद में जयपुर घूमते हुए हर जगह जानवर नजर आए। उसने यादराम को धन्यवाद कहते हुए एक डॉक्यूमेंट्री बनाई, जिसका नाम है, "द एनिमल सिटी।" घटना के पांच साल बाद भी शहर में कुछ नहीं बदला है। यहां सब जानवरों के लिए जगह दिखती है लेकिन आदमी के पैदल चलने के रास्ते पर अतिक्रमण है। इस फिल्म की सीडी फिल्मकार के इस आग्रह के साथ जयपुर आई कि इसे यादराम को जरूर दिखाइएगा, लेकिन यादराम तब तक जीवित नहीं था। एमआई रोड पर ड्यूटी करते समय एक पेड़ के टूटकर गिरने से उसकी मौत हो गई थी।

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