गुरुवार, नवंबर 26, 2009

चाह नहीं कि नेताओं के माइक पर गाया जाऊं

यह तय बात है कि जिंदगी में कभी फिल्म बनाई तो मैं उसमें देशभक्ति का कोई गाना नहीं रखूंगा। इसलिए नहीं कि इस देश का सम्मान नहीं करता, बल्कि इसलिए कि जब भी चुनाव होंंगे, हमारे नेता उन गानों का दुरुपयोग करेंगे। वे हर चुनाव में ऐसा करते हैं और हमारे मरहूम भले गीतकार प्रदीप, साहिर, मजरूह, कैफी की आत्माएं दुखती होंगी।जिन लोगों की बुनियाद ही जोड़-तोड़, बेईमानी पर टिकी हो वे लोग जनता की सेवा का दावा कैसे कर सकते हैं। हर चुनाव की तरह नगर निकायों के चुनाव में भी इन्हीं गानों का दौर लौट आया है।हमारी कला और सिनेमा के बिंबों का यह दुरुपयोग क्यों नहीं रोका जाना चाहिए? अमरीका की जूतों की कोई कंपनी गणेश का प्रतीक इस्तेमाल करती है तो हम इतना हंगामा खड़ा कर सकते हैं। वंदेमातरम कहा जाए या नहीं, यह बहुत बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा बन सकता है तो क्या हमारी सांगीतिक धरोहरों के दुरुपयोगों पर भी कोई रोक होनी चाहिए। माना कि यह संगीत लोकप्रिय संगीत की श्रेणी में है, लेकिन याद रखें कि जब कांग्रेस ने 'जय होÓ गाने के अधिकार खरीदे थे तो गुलजार साहब ने अपनी आपत्ति दर्ज कराई थी। हम सब इस बात से आहत होते हैं कि 'मेरा रंग दे बसंती चोलाÓ जैसा गाना बजना शुरू होने के साथ हमें भगतसिंह का बिंब दिखता है लेकिन दुर्भाग्य से अगले ही क्षण माइक यह बोलता है कि अमुक नाम के अमुक जाति वाले आदमी को आप वोट दें, क्योंकि यह गाना अब अगली बार पांच साल बाद सुनेंगे। भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि में बनी 'हकीकतÓ फिल्म का गाना 'अब तुम्हारे हवाले वतन साथियोÓ को जब भी मैं अपने म्यूजिक सिस्टम में सुनता हूं, तो मेरी आंखें नम होती हैं, लेकिन यही गाना जब चुनावी मौसम में एक रिक्शे पर बजता है तो मेरी आंखें सवाल पूछती है, ये धूर्त लोग कौन हैं जो एक बार फिर इस बात के लिए झूठ बाले रहे हैं कि वे जान-ओ-तन फिदा कर रहे हैं। ये तो वो लोग हैं जो नामांकन के दिन छह घंटे तक आम लोगों को जाम में फंसा सकते हैं क्योंकि उन्हें शक्ति प्रदर्शन करना है। ये वो लोग हैं जो पैसा खर्च कर पार्टी की टिकट खरीद लाते हैं। इन्हें इस वतन, इस शहर की मिट्टी से क्या लेना देना?देशभक्ति के गीतों के एलबमों की हालत तो यह हो गई है, जैसे ये इन नेताओं के लिए ही खैरात की तरह बनाए गए हैं। ये हमारे महान गीतकारों की विरासत हैं। संगीतकारों की साधना का फल है। उन्होंने इस देश को अपनी साधना से याद किया है।दुर्भाग्य से हमारे यहां कॉपीराइट एक्ट में इतने लोचे हैं कि इन लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई भी नहीं होती।हम सबने बचपन में राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी की एक कविता 'पुष्प की अभिलाषाÓ पढ़ी है, जिसमें फूल यह कहता है कि उसकी इच्छा सुरबाला के गहनों में गूंथे जाने या देवताओं की मूर्तियों पर चढ़ाए जाने की नहीं। उसे तो देश की सेवा में जाने वाले लोगों के रास्ते में फेंक दिया जाए ताकि वह उनके पैरों तले कुचले जाने का सौभाग्य मिले। हमारे इन गानों की खुद जुबान होती तो ये यही कहते, 'चाह नहीं कि नेताओं के माइक पर गाया जाऊं।Ó

3 टिप्‍पणियां:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

बहुत उम्दा सोच है सर , really I like it !

Udan Tashtari ने कहा…

सॉलिड सोच!

काशीराम चौधरी ने कहा…

sir ek bar phir apki kalam aur lekh me chune gaye sarthak shabdo ko salam.
Jai hind.