मंगलवार, नवंबर 24, 2009

कुर्बान- ऊंची दुकान,सादा पकवान

करण जौहर खेमे के निर्देशक रेन्सिल डिसिल्वा की पहली बहुप्रचारित फिल्म "कुर्बान" की टैगलाइन है कि कुछ प्रेम कहानियां खून से लिखी जाती हैं लेकिन इस फिल्म एक बड़ा हिस्सा "फना" और पिछले साल आई "न्यूयॉर्क" से हूबहू मिलता है। हां, इसमें नया सिर्फ इतना है कि करीना कपूर ने सैफ अली के साथ टॉपलेस अंतरंग दृश्य दिए हैं और फिल्म के प्रचार में इसे भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा है। यह कहानी अवंतिका और अहसान की है जो शादी करके अमरीका में काम कर रहे हैं। यह भूमिका करीना और सैफ कर रहे हैं। अचानक अवंतिका को पता लगता है की उसे इस्तेमाल किया जा रहा है। जो रोल "न्यूयॉर्क" में नील नितिन का है, वह यहां रियाज की भूमिका में विवेक ऑबेरॉय का है, जो एक चैनल में रिपोर्टर है। लेकिन सैफ को अधिक दिखाने की गरज में आधी से ज्यादा फिल्म आतंककारियों का न्यूज लेटर सी लगती है,। बच्चा बच्चा जानता है और यहां दुबारा बताया गया है कि किस तरह से गोरों ने तेल के नाम आतंकवाद पैदा कर दिया है। इस तथ्य में कोई बुराई नहीं है लेकिन दूसरा पहलू फिल्म में बहुत ही दबा हुआ चल रहा है। इस विषय पर पहले से ही इससे इतनी बेहतर फिल्में बन चुकी हैं, चाहे वह "खुदा के लिए" हो या "न्यूयॉर्क।" इस क्रम में कुर्बान तीसरे नंबर पर है।कहानी को जिस तरह आगे बढाया गया है वह सहज नहीं है। जब रियाज को यह पता चलता है कि उसकी प्रेमिका रेहाना के कत्ल में आतंकवादियों का हाथ है तो वह बजाय पुलिस को बताने के बजाय खुद ही उनकी गैंग में शामिल होेने का ढोंग करता है। यह अटपटा लगता है। एक जगह उसे अवंतिका मिलती है ओर आग्रह करती है कि वह उसे इन लोगों के दलदल से निकाले तो बजाय उसे बचाने के वह वापस घर भेज देता है। आखिरकार बम भी फट जाते हैं। लोग भी मरते हैं। आधी फिल्म बीत जाने के बाद यदि करीना का टॉपलेस दृश्य नहीं आ जाता, तब तक एक अजीब सा सन्नाटा दर्शकों में महसूस किया जा सकता है, जैसे वे "आतंकवादी कैसे बनते हैं" विषय पर बुलाई गई एक सेमिनार में बिठा दिए गए हों। लिहाजा आप सोचते हैं कि एक प्रेमकहानी देखने जा रहे हैं तो निराश होंगे। हां, एक पिटे पिटाए से कथानक पर आतंकवाद के मुद्दे पर आपको एक औसत सी फिल्म देखनी है, तो बुरी नहीं है। गाने ठीक हैं और फिल्माए ढंग से गए हैं। फिल्म की कहानी के अलावा फिल्मांकन में कोई कमी नहीं है। बहुत अच्छे से फिल्माया गया है और इसे एक हॉलीवुड थ्रिलर की तरह आप देख सकते हैं। बेशक खूबसूरत अमेरिकन लोकेशन्स और करीना-सैफ की पर्दे से बाहर की इश्किया समीकरणों से फिल्म को प्रांरभिक लाभ मिलेगा लेकिन यह आतंकवाद पर एक सतही सी सोच रखने वाली फिल्म है। आतंकवाद पर एक अधूरी कहानी और प्रेम कहानी तो वैसे भी अधूरी है, क्योंकि प्रेम वो नहीं जिसमें आप अपनी पीठ को नंगा दिखाएं। सैफ-करीना ठीक लगे हैं। ओमपुरी उम्दा हैं। किरण खेर सामान्य हैं।

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