सोमवार, दिसंबर 27, 2010

गुजरते साल में लफ्जों की चादर ओढ़ के

धुंआ बना के फिजा में उड़ा दिया मुझको

मैं जल रहा था किसी ने बुझा दिया मुझको

खड़ा हूं आज भी रोटी के चार हर्फ लिए

सवाल ये है कि किताबों ने क्या दिया मुझको

शायर का यह कलाम याद करते हुए मैं अपनी उलझनों के जवाब खोज रहा हूं। नई सदी के दस बरस के साथ जब यह साल भी बीत ही जाएगा। नए साल के नए संकल्प लेंगे मैं घोर उदासी में घिरा हुआ पाता हूं। आस्था का संकट तो है ही साथ ही एक नैतिक उलझन भी है कि जिस रास्ते पर सब चल रहे हैं, क्या वही एकमात्र सुखद रास्ता रह गया है? मैं कोई आध्यात्मिक बात नहीं कर रहा। हजारों करोड़ों के घोटालों के साथ इस दशक को विदाई दे रहे हैं, सत्ता के दलालों या लॉबिस्टों के पक्ष में खड़े होने के तर्क खोज रहे हैं, या अरुंधति राय और विनायक सेन को देशद्रोही मान रहे हैं, ईरान के फिल्मकार जफर पनाही को जेल में डाल रहे हैं और उन पर सिनेमा ना बनाने और इंटरव्यू ना देने, किताबें ना पढऩे और पटकथाएं ना लिखने का आदेश दे रहे हैं और आखिरी सांस में सत्ता से मोह रखते हुए मर जाने वाले नेताओं को महान बताने की परंपरा निभा रहे हैं तो मेरी आत्मा पूछती है कि जब सब लोग कमा रहे हैं, मैं क्यों गांधी को याद क्यों करता हूं।

मैं जिस पेशे में हूं, उसमें वीर सांघवी और बरखा दत्त का असर मुझ पर रहा था। अब मेरे मन में उनके प्रति सम्मान घट गया है। लेकिन समस्या यही नहीं है, मेरे उन दोस्तों को क्या करूं, जो सुख-दुख के साथी रहे हैं। वे अपने बेईमान होकर सुखी होने के राज मुझसे बांटते हैं। शहर में रहते हुए मुझे अठारह बरस हो गए हैं। मैं मूलत: गांव का हूं लेकिन अब दावा कर सकता हूं कि मैं एक शहरी वयस्क हो गया हूं। गांव छोड़ते वक्त मां ने कहा था, किसी ब्राह्मण का चिकना अनाज कभी नहीं खाना। दूसरी बात मेरी मरहूम दादी कहती थीं कि दिन बिगड़ गए तो वापस सुधर जाएंगे लेकिन नीयत बिगड़ गई तो उसे कोई सुधार नहीं सकता। प्रकारांतर से मैं ऐसी विरासत को साथ लेकर शहर आया जहां मुझसे यह उम्मीद की गई कि लालच न करूं। इस सांस्कृतिक दुविधा से बुरी स्थिति राजनीतिक विकल्पों की है। सरकार इस बात को व्यावहारिक कठिनाई मानती है कि गोदामों में सडऩे को अभिशप्त अनाज गरीबों और भूखों में बांटा नहीं जा सकता, भले ही आदमी भूख से मर जाए। वो गुनहगार कौन हैं, जिन्होंने मोबाइल के टावर, टूथपेस्ट, गुटखा, साबुन तो दूरदराज के गांवों में पहुंचा दिए हैं, लेकिन सार्वजनिक वितरण प्रणाली का अनाज और पीने का पानी आज तक नहीं पहुंचा पाए। मैं उस कृषि मंत्री को कैसे माफ करूं जबकि मेरे पुरखों की भूख की विरासत मुझे हमेशा याद रहती है कि वे पेड़ों की छालों से अपनी रोटियां बनाकर खाया करते थे। हम अपने ही इतिहास को झुठलाने में लगे हैं। उससे भी बुरी बात यह है कि इतिहास, राजनीति और साहित्य और भाषाओं से इतर शिक्षा के केंद्रीय विषय खाता खतौनी, मैनेजमेंट मार्केटिंग और खरीद फरोख्त के फार्मूलों में उलझ गए हैं, जहां सिर्फ यह सिखाया जाता है कि सरकार का कर कैसे चुराया जा सकता है, कैसे खराब माल को प्रचारित करके बेचा जा सकता है। वे कौन लोग हैं जो हम पर राज करने का सपने देख रहे हैं। उनकी गणना क्या मुमकिन है, जो यह मानने लगे हैं कि सब कुछ बिकाऊ है, सब कुछ खरीदा जा सकता है? अगर ऐसे लोगों की संख्या यदि बढ़ गई है तो मेरा यकीन है हम बर्बर हो गए हैं। ऐसे बर्बर जिनके खिलाफ अब्राहम लिंकन, मार्टिन लूथर, महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला लड़ते रहे हैं। इतिहास अपने आपको दोहराएगा। हमारी पीढ़ी युद्ध के मुहाने पर है। मुझे मशहूर नाइजीरियाई लेखक चिनुआ अचीबी के उपन्यास के एक कबीलाई बुड्ढे का वह वक्तव्य याद आता है, जो यह कहता है कि जिस आदमी के पास अपने लोग हों, वह उनसे भी ज्यादा अमीर होता है जिनके पास धन होता है। मैं आश्वस्त हूं कि सारे दलाल, लॉबिस्ट और भ्रष्ट लोगों को सम्मान से देख पाना मुश्किल है। उनके पास धन है लेकिन अपने लोग नहीं। आज भी जो सच्चा है, वह सबसे ताकतवर है। माना कि मेरी पहचान के दायरे में बेईमानों की भीड़ ज्यादा है लेकिन मैं एक ऐसे जज को जानता हूं, जिसके सीने पर गोली रख दी गई थी, इसके बावजूद उसने फैसला नहीं बदला था। बाद में धमकाने वाले कमजोर पड़ गए थे। मैं ऐसे वकील को जानता हूं, जिसने धमकियों की परवाह नहीं की। ऐसे एक प्रोफेसर को जानता हूं, जिसने अपने ही स्टाफ से दुश्मनी ली, मैं ऐसे एक कलक्टर को जानता हूं मैं जिससे भ्रष्टाचारी थर -थर कांपते हैं और उसका तबादला करने में अब सरकार को भी सोचना पड़ता है। ये सब मेरी जान पहचान में हैं। आप यदि सच के साथ हैं तो अपनी जान पहचान के इन लोगों की इज्जत करें। हमारे बीच ही सुकरात और भगतसिंह पैदा होते हैं। नए साल में मैं उन्हीं को सलाम करता हूं, वे इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए लड़ेंगे, भले ही उन्हें अपनी सुख सुविधाओं और खुद की कुर्बानियां देनी पड़ें। नया साल मुबारक हो।

3 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अवसर हर ओर हैं, सम्हालना मन को पड़ता है। कई बार लगेगा कोई कैसे जान पायेगा, बरखादत्त जैसे मन मसोस कर रह जाना पड़ेगा।

कडुवासच ने कहा…

... prabhaavashaalee abhivyakti ... shubhaa-shubh nayaa saal !!!

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा…

मैं सलाम करता हूं उस शख़्स को, जिसके हाथ में यह सब लिखने की सामर्थ्य रखने वाली कलम है.