शुक्रवार, दिसंबर 17, 2010

सरकार, सिनेमा और शहर

राजस्‍थान सरकार ने राजस्‍थानी भाषा में बनने वाली फिल्‍मों को अनुदान देने की घोषणा की है। मैं लगातार इस बात की वकालत करता रहा हूं कि सरकारी तौर पर स्‍थानीय स्‍तर पर सिनेमा संस्‍कृति विकसित करने के लिए पहल होनी चाहिए। कुछ समय पहले ही डेली न्‍यूज में लिखे गए कॉलम को अविकल प्रस्‍तुत कर रहा हूं।



मुझे अक्सर हमारी सरकारों के बरसों पुरानी वे घोषणाएं याद आती हैं, जिसमें उन्होंने जयपुर शहर में फिल्म सिटी बनाने का संकल्प था। मामला लगभग ठंडे बस्ते में हैं। लगभग सभी राज्यों में जब क्षेत्रीय सिनेमा नई करवट ले रहा है, तो राजस्थान इस मामले में सबसे ज्यादा फिसड्डी साबित हो रहा है। ज्यादातर राज्यों ने अपने यहां सिनेमा की कल्चर को देखते हुए फिल्म विकास निगम स्थापित किए हैं जिसमें यूपी और मध्यप्रदेश जैसे दक्षिणी राज्य भी हैं। आप केरल जैसे दक्षिणी राज्य की बात करें तो वहां की सरकार फिल्मकारों को ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं दे रही हैं। सरकार वहां सब्सिडी देती है। हमारे यहां संरक्षण से दूर सरकार ने फिल्मों को कमाई का जरिया बनाया है और जो निर्माता पहले से करोड़ों रुपए दांव पर लगा रहा होता है उसे यहां लोकेशन्स पर लाखों रुपए खर्च करने होते हैं। पुलिस और प्रशासन के छोटे मोटे दो नंबरी खर्चे तो खैर पूरे देश में ही एक समान है। मुझे ताज्जुब होता है कि फिलहाल शहर के लिए गैर जरूरी मेट्रो पर निर्णय एक महीने में हो जाता है और फिल्म सिटी पर गंभीरता दिखाने में आठ साल से सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं।

इसकी समस्या कहीं गहरे जुड़ी है। राजस्थान में जो फिल्मकारों का छोटा सा भी समुदाय है, वह इतना कूप मंडूक और आत्ममुग्धता का शिकार है। एक उम्रदराज पुराने जमाने की कामयाब अदाकार आज भी मुख्य भूमिका का लालच रखती है और साथ ही उसी सम्प्रदाय से जुड़े लोग सरकारों पर किसी भी किस्म का दबाव बनाने की कोशिश नहीं करते। यहां तक कि उनके पास अच्छा सिनेमा बनाने की ना दृष्टि है और ना ही जमीन से जुड़ी कहानियां। जो कुछ पैसा राज्य से इंडस्ट्री में लगता है, उसे मुंबइया लोग ले जाते हैं। मराठी फिल्म इंडस्ट्री के कामयाब होने की एक वजह यह है कि सरकार ने वहां के थियेटरों और मल्टीप्लेक्सेज में एक निश्चित समय के लिए मराठी फिल्में लगाना अनिवार्य कर दिया। लेकिन वजह केवल यही नहीं, मराठी सिनेमा को जब यह मंच मिला तो वहां बेहतरीन सिनेमा बनने लगा। आप श्वास को जानते हैं जो ऑस्कर में गई, लेकिन टिंग्या को नहीं जानते जो एक स्वतंत्र फिल्मकार की फिल्म थी और उसने दो साल पहले कामयाबी के झंडे गाड़े। पिछले महीनों में मराठी की गाबरीचा पाउस फिल्म किसानों की आत्महत्या पर भारत में बनी ताकतवर फिल्मों में एक है, लेकिन राजस्थान में गजेंद्र श्रोत्रिय की निर्माणाधीन फिल्म के संवाद जब हिंदी के बजाय हमने राजस्थानी में रखना तय कर लिया तो सब लोगों ने भाषा को लेकर ही आशंकाएं जताई। थियेटर के कई कलाकारों ने काम करने से इसलिए मना कर दिया कि वे राजस्थानी फिल्म में काम नहीं करना चाहते।

जयपुर में कोई चार साल पहले एक बाहरी आदमी ने दो साल तक लघु फिल्मों का उत्सव किया, सरकार से लाखों की मदद ली और जब वह मदद बंद हुई तो उस आयोजक का अता पता नहीं। पिछले तीन साल से एक और फिल्म उत्सव खड़ा करने की कोशिश है लेकिन वह महज दिशाहीनता का शिकार है, अब जिस मोर्चे पर सरकार उसमें घुसी है, उसमें कितना दम बचेगा, यह अभी से कहना नामुमकिन है। यह सब तब हो रहा है, जब हमारे राज्य की कला संस्कृति मंत्री बीना काक ने सिनेमा में अभिनय भी किया है। इसके बावजूद उनके पास राज्य में सिनेमा संस्कृति के लिए किसी पहल या दृष्टि का अभाव चिंतित करने वाला है। मुझे अक्सर लगता है कि यह काम फिल्मकार ही कर सकते हैं, फिल्म के नाम पर दुकान चलाने वाले नहीं।

इस मोर्चे पर पिछले साल भर में कोई सबसे महत्त्वपूर्ण काम हुआ है जिस पर किसी की निगाह नहीं है, वह है जवाहर कला केंद्र में शनिवार को दिखाई जाने वाली फिल्म। बाजार, ब्रांडिंग और प्रायोजकों से दूर सही अर्थों में इसके सूत्रधार संदीप मदान हैं, जो शहर के थियेटर का जाना माना नाम है लेकिन उन्होंने जयपुर में शहर में लगातार बेहतरीन फिल्में लाकर दिखाने का श्रेय दिया जाना चाहिए। इस लिहाज से सिनेमा संस्कृति को बढाने में शहर को संदीप का श्ुाक्रगुजार होना चाहिए। लेकिन इन फिल्मों के बारे में अखबारों में कम छपता है, लोग कम आते हैं क्योंकि सांस्कृतिक पत्रकारों को भी सिनेमा के इस कवरेज में कम दिलचस्पी है। इसके बावजूद शनिवार की इन फिल्मों से शहर में एक देश और दुनिया के बेहतरीन सिनेमा के दर्शक तैयार होगा। मुमकिन है इसमें वक्त लगे। क्योंकि मैं जिन फिल्मों को पहले से ही देख चुका, वे फिल्में मैंने वहां दुबारा देखी हैं। अकीरा कुरोसावा, इशिरो होंडा, इंगमार बर्गमैन, माजिद मजीदी जैसे दुनिया के दिग्गज फिल्मकारों का सिनेमा शहर में आप वहीं देख सकते हैं।

 (डेली न्‍यूज के संडे सप्‍लीमेंट हमलोग में प्रकाशित मेरा कॉलम तमाशा मेरे आगे)

3 टिप्‍पणियां:

कडुवासच ने कहा…

... shaandaar post !!!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

आपकी बात में दम है, प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये।

Mehak ने कहा…

बहुत सुंदर आपका लिखने पढने की दुनिया में स्वागत है..