मंगलवार, जुलाई 16, 2013

आम आदमी की अनंत संभावनाओं की कहानी


भाग मिल्खा भाग :



3.5/5 स्‍टार

 इस कहानी में इमोशन है, ड्रामा है, देशप्रेम है, तथ्यगत सच्चाई है। लेकिन इन सबसे ऊपर यह एक मामूली आदमी के अपने आप से लडऩे की कहानी है, जब वह इतनी बाधाएं पार करते हुए फलक पर नाम लिखता है। इस तरह मिल्खा की कहानी एक आम आदमी की अनंत संभावनाओं की कहानी है।

राकेश ओमप्रकाश मेहरा को हम 'रंग दे बसंतीÓ जैसी सार्थक और जानदार फिल्म के लिए जानते हैं। उनकी 'दिल्ली 6Ó भी खराब फिल्म नहीं थी, लेकिन बॉक्स ऑफिस का फैसला कुछ अलग रहा। उनकी नई फिल्म 'भाग मिल्खा भागÓ भारत के मशहूर धावक मिल्खा सिंह के जीवन से प्रेरित है, जिसमें कुछ हिस्सा सिनेमाई जरूरतों के हिसाब से काल्पनिक भी है, लेकिन पूरी फिल्म एक प्रेरक किस्सा है। फिल्म देखते हुए मजा आता है।

यह फिल्म एक आम आदमी के नायक बनने की कहानी है। एक बच्चा, जिसने विभाजन के समय अपने माता-पिता को दंगों में मरते देखा और वह भागकर हिंदुस्तान आया। संघर्षपूर्ण बचपन के बाद वह सेना में दाखिल हुआ। इसके बाद जुनून लिए दौड़ता रहा, लेकिन यकायक कामयाब नहीं हुआ। वह हिम्मत नहीं हारता। मेलबर्न ओलंपिक की हार उसे इतना आहत करती है कि लौटते हुए विमान में जब सब सहयात्री सो रहे हैं, तो उसे नींद नहीं आ रही है। वह अपने कोच को जगाकर पूछता है कि चार सौ मीटर दौड़ का वल्र्ड रिकॉर्ड क्या है? कोच एयर इंडिया के पेपर नेपकिन पर उसे ४५.९ लिखकर देता है और एक दिन वह ४५.८ पर पहुंचकर वल्र्ड चैम्पियन बनता है। इस कहानी में इमोशन है, ड्रामा है, देशप्रेम है, तथ्यगत सच्चाई है। लेकिन इन सबसे ऊपर यह एक मामूली आदमी के अपने आप से लडऩे की कहानी है, जब वह इतनी बाधाएं पार करते हुए फलक पर नाम लिखता है। इस तरह मिल्खा की कहानी एक आम आदमी की अनंत संभावनाओं की कहानी है। एक विश्वसनीय कहानी है कि यह आदमी हमारे समय में पैदा हुआ, उसे हम देख सकते हैं, छू सकते हैं। यह एक आम आदमी के ऐसे सदमे से उबरने की कहानी है कि जिस पाकिस्तान से जान बचाकर बालक मिल्खा सिंह भागा था उसी पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब ने युवा मिल्खा सिंह को फ्लाइंग सिख की उपाधि देकर कहा कि यह उपाधि देते हुए पाकिस्तान को गर्व महसूस होता है।
मिल्खा के दर्द और कामयाबी को पर्दे पर उतारने के लिए निर्देशक मेहरा और लेखक प्रसून जोशी की तारीफ बनती है। आंशिक शिकायतें हैं, लेकिन वे नजरअंदाज की जा सकती हैं। फरहान अख्तर कमाल कर रहे हैं। वे किरदार में रम गए हैं। पवन मल्होत्रा और योगराज सिंह जोरदार लग रहे हैं।

फिल्म की अवधि तीन घंटे के आसपास होने से वह थोड़ी लंबी तथा खिंचती हुई महसूस होती है। तीन घंटे की फिल्म होना गलती नहीं है। गलती यह है कि यह अवधि फिल्म की गति को प्रभावित करती है। प्रसून जोशी के गीत और शंकर-अहसान-लॉय का संगीत दमदार हैं। हां, वे 'रंग दे बसंतीÓ से उन्नीस ही हैं। पूरी फिल्म एक निहायत ईमानदार कोशिश है और इसकी छोटी-मोटी गलतियों की तरफ ध्यान देना अनुचित है। यह जरूर देखने लायक फिल्म है। हम सबके भीतर छुपे एक नायक को उद्वेलित करती है, उसे चुनौती देती है। हमें एक बेहतर इंसान बनने के लिए प्रेरित भी करती है।
-रामकुमार ङ्क्षसह

1 टिप्पणी:

varsha ने कहा…

film ka uddeshya treatment aur pravah itna jabardast hai ki choti moti galtiyan khud b khud ignore ho jti hain.