मंगलवार, जून 07, 2011

सौ बरस के अमर अकीरा कुरोसावा



अकीरा कुरोसावा जापान के फिल्‍मकार थे लेकिन विश्‍व सिनेमा को उनका अदभुत योगदान है। कुरोसावा अपने समय के सबसे आधुनिक और प्रयोगशील सिनेमा के लिए जाने जाते हैं। मुझे वे इसलिए भी ज्‍यादा लुभाते हैं कि उन्‍होंने सिनेमा बनाने में हर वक्‍त जोखिम ली। खासकर उस दौर में जब हॉलीवुड के सिनेमा अपना व्‍याकरण विकसित करके विश्‍व सिनेमा को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा था उस दौर में जापानी समाज को लेकर कुरोसावा के उल्‍लेखनीय काम ने सबकी आंखें खोल दी। बाद में हॉलीवुड सिनेमा कुरोसावा के प्रभाव से बच नहीं पाया।
जापान इस मामले में आगे रहा है कि इस छोटे से देश के सांस्‍कृतिक सामाजिक परिदृश्‍य को पूरी दुनिया में पहचान दिलाने में यहां के लेखकों और फिल्‍मकारों की महत्‍त्‍वपूर्ण भूमिका रही है। दूसरे विश्‍वयुद़ध के दौरान परमाणु हमला झेलने के बाद तो वैसे भी जापान पूरी दुनिया के केंद्रीय चिंतन में था और वहां के सिनेमा में इस त्रासदी का असर देख सकते हैं।
कुरोसावा टोक्‍यो के नजदीक तेईस मार्च 1910 को पैदा हुए थे। वे अपने मां बाप की सातवीं संतान थे। उनक पिताजी एक सैनिक अफसर थे और मां व्‍यापारी परिवार से थी। उसके पिता काफी सख्‍त थे और उन्‍हें अपनी पारंपरिक समुराई तलवार बहुत प्रिय थी। वे अपनी पत्‍नी से नाराज होते थे कि वह सब कुछ समुराई परंपरा के मुताबिक नहीं करती थी।
कुरोसावा जब छोटे थे तो उन्‍होंने एक सपना देखा था कि वे एक रेलवे ट्रेक एक तरफ हैं और उनका परिवार दूसरी तरफ। एक कुत्‍ता है जो दोनों के संदेश एक दूसरे को पहुंचा रहा है। इसी दौरान रेल के आने से कुत्‍ता कट गया। उन्‍हें लगा जैसे वह टुना फिश की तरह कटा है। इसके बाद वे तीस साल तक इस समुद्री मछली को खा नहीं पाए थे।
वे अपने स्‍कूल में रोते बच्‍चे कहलाते थे। 1930 में अपनी सेना भर्ती की शारीरिक परीक्षा उत्‍तीर्ण नहीं कर पाए थे। वे वॉनगॉग और सीजेन से प्रभावित थे और एक पेंटर बनना चाहते थे लेकिन जल्‍द ही उन्‍हें यह अहसास हो गया कि इसमें वे कुछ नया नहीं कर पा रहे हैं तो उनका रुझान साहित्‍य की तरफ हुआ लेकिन जल्‍द ही यहां भी उन्‍हें कुछ जमा नहीं। हम उनके सिनेमा पर गौर करते हैं तो पाएंगे कि वहां पेंटिंग्‍स और पाश्‍चात्‍य साहित्‍य का गहरा असर दिखता है। वे अपने हर फिल्‍म का स्‍टोरीबोर्ड बनाकर काम करना पसंद करते थे।

सिनेमा के अलावा उन्‍हें वे खाने के बेहद शौकीन थे। खाली समय में उन्‍हें अध्‍ययन ओर गोल्‍फ खेलना पसंद था। जब उनकी मृत्‍यु हुई तो उनके बेटे ने उनके कफन में गोल्‍फ कोर्स रखा था। वे अक्‍सर अपने स्‍टोरीबोर्ड पैंट करते थे और उनमें ज्‍यादातर रेखांकनों के बजाय कलाकृतियों की तरह लगते हैं।
कुरोसावा अकसर कहते थे, हर आदमी वह पाता है जिसे वह प्‍यार करता है। वे कहते थे, पहले यह तय करो कि आपके लिए सबसे महत्‍त्‍वपूर्ण क्‍या है। अगर आप यह तय कर पाएं कि यही चीज आपकी जिंदगी में सबसे ज्‍यादा महत्‍त्‍वपूर्ण तो फिर अपनी पूरी ऊर्जा के साथ उसे हासिल करने के लिए जुटना चाहिए। जाहिर है, कुरोसावा ने ऐसा ही किया था।
कुरोसावा फिल्‍मों में अपने बड़े भाई की मदद से आए थे। वे मूक फिल्‍मों के नैरेटर थे और कुरोसावा के प्रवेश लगभग उसे दौर का है जब बोलती फिल्‍मों को दौर शुरू हो रहा था। कुछ समय सहायक निर्देशक के रूप में काम करने के बाद उन्‍होंने अपनी पहली फिल्‍म निर्देशित की सुगाता सनशिरो (1943)। उस समय उनकी उम्र बत्‍तीस साल थी। यह फिल्‍म सेंसर में अटक गई। दूसरे विश्‍वयुद्ध के दौरान उन्‍होंने राष्‍ट्रवादी फिल्‍में बनाई। सही मायनों में 1948 में आई ड्रंकन एंजल उनकी पहली फिल्‍म थी जो कुरोसावा की फिल्‍म कही जा सकती है। इसी फिल्‍म में उनके पसंदीदा हीरो तोशिरो मिफुन ने काम किया, जो कई फिल्‍मों में बाद भी उनके साथ रहा। जब भी मैं कुरोसावा की यह फिल्‍म देखता हूं मुझे कहीं ना कहीं राजकुमार हिरानी के मुन्‍नाभाई और डा.अस्‍थाना याद आते हैं। कोई भी शायद इस बात से इत्‍तेफाक नहीं रख सकता और यहां रिलेशनशिप अलग किस्‍म की है लेकिन मुझे हमेशा लगता है कि एक डॉक्‍टर और मरीज के एक रिश्‍ते की कुरोसावा की वह सबसे मौलिक कल्‍पना थी ओर मुमकिन है राजू हिरानी कुरोसावा के इन चरित्रों से प्रभावित रहे हों। इस फिल्‍म ने कुरोसावा को एक नए व्‍याकरण वाले सिनेमा के निर्देशक के रुप में पहचान दिलाई और उसक अगले साल आई फिलम स्‍ट्रे डॉग में क्रिमिनल माडंड की पड़ताल अदभुत है। अगले ही ही साल उनकी फिल्‍म स्‍केंडल भी आई लेकिन इसी साल रिलीज उनकी दूसरी फिल्‍म राशोमन ने उन्‍हें विश्‍व ख्‍याति दिलाई जहां एक हत्‍या के अलग अलग चश्‍मदीद अपने ढंग से उसकी व्‍याख्‍या करते हैं और उसमें असली हत्‍यारे को तलाशना चुनौती बन गया है। फिल्‍म अपनी कहानी से भी ज्‍यादा मौलिक नैरेशन के लिए चर्चित रही और कुरोसावा की एक नई पहचान के साथ सामने आए।
कुरोसावा का सिनेमा कालातीत है। उनकी कुछेक फिल्‍मों के अलावा मैंने उनकी लगभग फिल्‍में देखी हैं और हर फिल्‍म में वे एक नए भाव बोध के साथ सामने आते हैं।
वे मानवीय भावनाओं और मस्तिष्‍क में चल रहे द्वंद्व के अप्रतिम चितेरे हैं। उनकी फिल्‍में अपनी विधा से आगे एक कलाकृति, एक उच्‍च किस्‍म की साहित्यिक कृति या दस्‍तावेज की तरह सामने आती हैं।

हाई एंड लो (1963) याद करते हुए मैं उन दो पिताओं और एक अपराधी के अंतरसंघर्ष को याद करता हूं जहां निचली बस्‍ती में रहने वाले क्रि‍मिनल ने एक अमीर के बेटे का अपहरण करने के बजाय गलती से उनके नौकर के बेटे का अपहरण कर लिया है। अपराधी अपनी फिरौती की रकम लेने को आमादा है और अमीर व्‍यवसायी इस दुविधा में है कि उसके बेटे के दोस्‍त और नौकर के बेटे को बचाया जाय या नहीं। ना केवल कथ्‍य के स्‍तर पर बल्कि सिनेमाई थ्रिल भी अंत तक कायम रहता है, जो आपको आखिर तक जाते जाते भावुक कर देता है। यह कहानी नहीं बल्कि तत्‍कालीन जापानी समाज एक डॉक्‍यूमेंट्री की तरह प्रतीत होता है। जिस बेहतर ढंग से कुरोसावा समाज के भीतर चल रहे संघर्षों और परिवर्तनों को देख पाते थे, वह उनकी महान सिनेमाई दृष्टि का प्रमाण है।
सेवन समुराई (1954) को सोलहवीं सदी के कालखंड में वे ले गए हैं जहां एक गांव के लोगों को डाकुओं से मुक्ति दिलाने के लिए गांव वाले समुराई लेकर आते हैं। वो जिस तरह से पूरे गांव वालों को डाकुओं के खिलाफ एकजुट करते हैं। करीब साढे तीन घंटे लंबी यह फिल्‍म हर मायने में उतनी ही आधुनिक और प्रामाणिक लगती है, जो निर्विवाद रूप से उन्‍हें महान फिल्‍मकारों की अगली कतार में रखता है। समराई श्रेणी में उनकी फिल्‍म योजिम्‍बो (1961) एक और महत्‍त्‍वपूर्ण और चर्चित फिल्‍म है जिसमें एक अकेला समुराई डाकुओं से भिड़ता है।

असल में कुरोसावा जापानी समाज एक प्रामाणिक चितेरे हैं जो जापान से ज्‍यादा बाहर लोकप्रिय हुए और स्‍थानीय स्‍तर पर उन्‍हें ऐसी आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा कि वे अपनी समाज की कहानियां विदेशों में बेच रहे हैं। अगर हम याद करें तो एक बड़ा तबका हमारे यहां लगभग ऐसी ही सोच सत्‍यजीत राय की फिल्‍मों के प्रति रखता है।
लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि कुरोसावा की कहानियों कालांतर में हॉलीवुड को भी गहरे प्रभावित किया। कुरोसावा की फिल्‍म रान के कई दृश्‍य कालांतर में अमेरिकन एक्‍शन‍ फिल्‍मों में इस्‍तेमाल किए गए। सेवन समुराई से प्रभावित रही मैग्‍नीफिशिएंट सेवन और रिटर्न ऑव मैग्‍नीफिशिएंट सेवन। राशोमन के असर में आउट्रेज बनी। कुरोसावा की हिडन फोर्ट्रेस ने जॉर्ज लुकाज की स्‍टार वार्स की कहानी को आधार दिया। यह कबूलनामा खुद जॉर्ज लुकाज ने बाद में किया भी।
योजिम्‍बो से शेन और हाई मून प्रभावित रहीं। क्लिंट ईस्‍टवुड अभि‍नीत एक फिल्‍म का पूरा चरित्र तोशिरो मिफुन के योजिम्‍बो में दिखाए चरित्र से मेल खाता था और एक बार इस बाबत जब ईस्‍टवुड से पूछा गया तो उनके पास कोई जवाब नहीं था। 1999 में आई फिल्‍म लास्‍ट मैन स्‍टेंडिंग भी कुरोसावा की कहानी से प्रभावित थी।
यानी कुरोसावा कालातीत होने साथ भौगोलिक सीमाओं को भी लांघते हैं और ना केवल अपने समकालीन सिनेमा को बल्कि उसके बाद कई सालों तक वे हालीवुड के मुख्‍यधारा के सिनेमा को प्रभावित करते रहे हैं।

प्रसंग चल ही रहा है तो यह भी उल्‍लेखनीय है कि कुरोसावा की बहुत सी फिल्‍मों में अभिनेता तोशिरो मिफुन मुख्‍य भूमिका में रहे हैं। उनकी सारी भूमिकाएं चर्चित भूमिका कुरोसावा की फिल्‍मों में हैं जिसमें क्‍लासिक फिल्‍में सेवन समुराई, योजिम्‍बो और राशोमन भी हैं। मुफीन पैदा 1920 में चीन में पैदा हुए थे और वे सिर्फ एक साल के लिए जापान आए थे। उसी दौरान संयोग से उनकी मुलाकात कुरोसावा से हुई और ये साथ लंबा चला। राशोमन में तोशिरो के समुराई डाकू की भूमिका को देखकर चीनी निर्देशक झांग यिमु ने उसे बीसवीं सदी के सबसे ताकतवर अभिनय की श्रेणी में माना था। लगभग वैसा ही जैसे मर्लिन ब्रेंडो या जेम्‍स डीन की भूमिकाएं रही हैं।

1971 में सोवियत यूनियन में कुरोसावा ने आत्‍महत्‍या की कोशिश की और बच गए। माना जा रहा है कि 1970 में उनकी पहली कलर फिल्‍म डोडेस का डेन (1970) को समीक्षकों ने बुरी तरह उड़ाया और फिल्‍म चली ही नहीं। कुरोसावा बेहद आहत हुए। दूसरा एक कारण यह भी माना जाता है कि उन्‍होंने यह प्रयास इसलिए भी किया कि जो तीन नए डायरेक्‍टर एक नई फिल्‍म कम्‍पनी के लिए उनके साथ जुड़ थे, उन्‍हें कुरोसावा की वजह से नुकसान हुआ है। गौर करने की बात यह है कि कुरोसावा के जिस भाई ने उन्‍हें फिल्‍मों में जाने में मदद की थी उसने 27 साल की उम्र में आत्‍महत्‍या कर ली थी क्‍योंकि उसकी नौकरी चली गई थी। अपने आत्‍महत्‍या के प्रयास के बाद कुरोसावा पैसे के लिए ज्‍यादातर विदेशी फिल्‍मकारों और निर्माताओं पर निर्भर रहे मसलन स्‍पीलबर्ग, लुकाज, कोपोला आदि। उनकी आखिरी फिल्‍मों की समीक्षकों ने कोई खास तारीफ भी नहीं की।
अपने करियर को देखते हुए कुरोसावा ने 1985 में कहा था, कि मैं पहले कहानियां बुनता हूं और फिर फिल्‍म बनाता हूं। मैं भाग्‍यशाली हूं कि कहानियां जिंदगी से आती हैं और ये लोगों के अपील कर सकती हैं तथा फिल्‍में कामयाब होती हैं।

हालांकि कुरोसावा की बाद की फिल्‍मों की उतनी तारीफ नहीं हुई। समीक्षकों ने यह माना कि वे बहुत इमोशनल हो गई थीं इसके बावजूद वे लगातार मुख्‍यधारा में रहे। उनकी फिल्‍म देरसु द ट्रेपर रुसी भूगोलशास्‍त्री वी के अर्नेव की किताब पर आधारित थी और इस फिल्‍म ने बेस्‍ट फॉरेन लेंगवेज फिल्‍म का ऑस्‍कर जीता लेकिन जापान के लिए नहीं बल्कि सोवियत यूनियन के लिए।
कुरोसावा क्‍योटो के होटल में फिसल गए थे और अपनी रीढ की हड़डी ओर टांग तुड़वा बैठे थे। इसके तीन साल बाद वे 1998 में उनकी मौत हो गई। उस समय भी वे अपनी अगली फिल्‍म द सी वॉज वाचिंग की तैयारी कर रहे थे।
तो कुल मिलाकर कुरोसावा का खुद का जीवन भी एक महागाथा की तरह चलता है और वा इस सदी के नहीं सर्वकालिक महान फिल्‍मकारों की श्रेणी में माने जाएंगे।
उनके साथ काम करने वाले ज्‍यादातर सहायक बाद में स्‍वतंत्र फिल्‍मकार बने और उन्‍होंने ख्‍याति भी अर्जित की लेकिन वैसी ख्‍याति नहीं जो अकीरा कुरोसावा को मिली। उन्‍हीं के सहायकों में एक इशिरो होंडा भी हैं जिनका भी यही साल जन्‍म शती साल है और मुझे याद आता है कि वे गोडजिला सीरिज की पहली फिल्‍म उन्‍होंने ही बनाई थी और मैंने बाद में बनी अठाईस गोडजिला में कुछ देखी हैं। उनमें सबसे बेहतर आज भी इशिरो होंडा की फिल्‍म है। जो जापानी लोक कथा के रूपक को आधार बनाते हुए परमाणु विकिरण तक पहुंचते हैं। यह उनकी बेहतरीन कृतियों में से एक है। जन्‍म शती वर्ष पर दोनों ही फिल्‍मकारों को विनम्र श्रद्धांजलि।   -रामकुमार सिंह

(this article is published in literary magazine from JAIPUR named KURJAAN.. edited by premchand gandhi)

2 टिप्‍पणियां:

ish madhu talwar ने कहा…

wah...! kya baat hai...!

Manoj K ने कहा…

हाई एंड लो के बारे में मैंने भी सुना है..देखनी है..

कुरोसोवा के बारे में ज़बरदस्त जानकारी दी है आपने !!