सुभाष कपूर से बातचीत
पर्दे पर टीवी है, टीवी में ओबामा है, जो कह रहा है कि मंदी ने हालत खराब कर दी है। फिर भी हम दुनिया को बताएंगे कि यस, वी कैन। सामने गैंगस्टर बने संजय मिश्रा हैं जिन्हें सब भाई साब कहते हैं, वो पूछते हैं, ये कौन है और क्या कह रहा है? तो उनका गुर्गा कहता है, भाई साब ओबामा है, अमेरिका का राष्ट्रपति, कह रहा है, हां, हम कर सकते हैं। वहीं बैठा दूसरा आदमी हाथ से एक मादक इशारा करते हुए कहता है, इसमें कौनसी नई बात है, कर तो हम भी सकते हैं। अमेरिका, मंदी, हमारी अंग्रेजी आदि पर तंज वाले इस संवाद को लिखने वाले सुभाष कपूर को मैंने कहा कि यहीं से पता चल गया था कि आगे क्या हंगामा होने वाला है तो उनके चेहरे पर एक विनम्र लेकिन संतोष वाली मुस्कान थी। उसमें दंभ नहीं था, एकदम सादगी। पत्रकार से फिलकार बनने के बाद पहली कामयाबी के बाद एक संघर्ष खत्म होने वाली सादगी।
उनकी पहली फिल्म से सलाम इंडिया चली नहीं थी। और उसके बाद संघर्ष और चुनौतीपूर्ण हो गया था। सुभाष से पूछता हूं कि फंस गए रे ओबामा को आयडिया कैसे आया?
'गुस्सा भरा था मेरे भीतर। जिससे भी मिलने जाता था, कहानी सुनाता था तो उसके पास एक ही बहाना था कि यार, रिसेशन है। पुराने पत्रकार दोस्तों से चर्चा में आया कि मंदी का असर तो सब जगह आ गया है। तो इस गुस्से को निकालना जरूरी था। तो एक दिन बैठ गया, बीस दिन में इसे लिखा। और नतीजा आपके सामने है।Ó
सुभाष कपूर की जिंदगी में 'फंस गए रे ओबामाÓ के पहले और बाद का अपना अनुभव है। वे कहते हैं, हिंदुस्तान में हारे हुए पॉलिटिशियन, फ्लॉप फिल्म और खराब खिलाड़ी को लोग माफ नहीं करते। होंगे आप सौरव गांगुली लेकिन अब आपको कोई नहीं पूछेगा। मेरी ही लो, यह फिल्म चली ना होती तो आप मेरे से बात नहीं करते और दूर खड़ा देखकर मजाक उड़ाते। वैसा ही निर्वासन मैं भोग रहा था और इस एक फिल्म ने सारी चीजें बदल दी। अब यश चौपड़ा को छोड़ दीजिए, इसके अलावा ज्यादातर प्रोड्यूसर अप्रोच कर चुके हैं कि हमारे साथ काम करिए। लेकिन फिलहाल मैं सोचने की प्रक्रिया में हूं। कोई जल्दबाजी नहीं करनी है।
सबसे बड़ी बात यह जिंदगी की छोटी छोटी सच्ची घटनाओं को लेकर बुनी गई कहानी थी। मेरे क्राइम बीट के पत्रकार दोस्तों ने बताया था कि हां, मंदी के चक्कर में फिरौती की जो रकम एक करोड़ हुआ करती थी, वह आजकल पचास लाख हो गई है। मैं पिछले बिहार चुनाव को कवर करने गया था तो लालू मुख्यमंत्री थे। अपहरण, फिरौती की घटनाओं को लेकर सरकार की बदनामी थी। मैंने मुख्यमंत्री निवास पर ही एक कार्यकर्ता से पूछा, इतनी बदनामी है, इतनी अव्यवस्था है, क्या आप लोगों को बुरा नहीं लगता? तो उसने बताया था कि कुछ भी नहीं है साब, अइसन नहीं है, पक्का काम होता है इधर, रसीद भी देते हैं। और आपने देखा होगा कि फिल्म में मंत्रीजी के यहां अपहरण और फिरौती उद्योग कितना संगठित तरीके से चल रहा है।
सुभाष हरियाणा के रहने वाले हैं और वे कहते हैं कि मुझे पूरी हिंदी बेल्ट की कहानियों में मजा आता है। अगली फिल्म की कहानी भी यहीं से होगी। असल में यहां की जुबान में एक अलग किस्म का ह्यूमर है और ऐरोगेंसी भी।
तो क्या यह माना जाना चाहिए कि अब छोटे बजट की फिल्मों का जमाना है? सुभाष कहते हैं, पहले इक्की दुक्की फिल्में आती थीं और चली जाती थीं। लेकिन पिछले साल एक के बाद एक छह सात फिल्में ऐसी आई जिनकी कामयाबी ने यह बताया है कि यदि आप पैसा बेमतलब नहीं फूंकते हैं तो अच्छा है। लेकिन उसमें भी कंटेंट जरूरी है। तो क्या वे भी अगली फिल्म छोटे बजट की रखेंगे? वे कहते हैं, कोई फिल्मकार नहीं चाहता कि वह समझौते करते हुए फिल्म बनाए। आखिर यह महंगा मीडियम है। जितना कम पैसा होगा आप पर बजट नियंत्रित करने का दबाव उतना ही ज्यादा। मुझे पता है कैसे हमने पैंतीस दिन के सिंगल शिडयूल में फिल्म पूरी की। जाहिर है, मैं कभी नहीं चाहूंगा कि इतनी भागदौड़ से फिल्म बनाऊं।
पर्दे पर टीवी है, टीवी में ओबामा है, जो कह रहा है कि मंदी ने हालत खराब कर दी है। फिर भी हम दुनिया को बताएंगे कि यस, वी कैन। सामने गैंगस्टर बने संजय मिश्रा हैं जिन्हें सब भाई साब कहते हैं, वो पूछते हैं, ये कौन है और क्या कह रहा है? तो उनका गुर्गा कहता है, भाई साब ओबामा है, अमेरिका का राष्ट्रपति, कह रहा है, हां, हम कर सकते हैं। वहीं बैठा दूसरा आदमी हाथ से एक मादक इशारा करते हुए कहता है, इसमें कौनसी नई बात है, कर तो हम भी सकते हैं। अमेरिका, मंदी, हमारी अंग्रेजी आदि पर तंज वाले इस संवाद को लिखने वाले सुभाष कपूर को मैंने कहा कि यहीं से पता चल गया था कि आगे क्या हंगामा होने वाला है तो उनके चेहरे पर एक विनम्र लेकिन संतोष वाली मुस्कान थी। उसमें दंभ नहीं था, एकदम सादगी। पत्रकार से फिलकार बनने के बाद पहली कामयाबी के बाद एक संघर्ष खत्म होने वाली सादगी।
उनकी पहली फिल्म से सलाम इंडिया चली नहीं थी। और उसके बाद संघर्ष और चुनौतीपूर्ण हो गया था। सुभाष से पूछता हूं कि फंस गए रे ओबामा को आयडिया कैसे आया?
'गुस्सा भरा था मेरे भीतर। जिससे भी मिलने जाता था, कहानी सुनाता था तो उसके पास एक ही बहाना था कि यार, रिसेशन है। पुराने पत्रकार दोस्तों से चर्चा में आया कि मंदी का असर तो सब जगह आ गया है। तो इस गुस्से को निकालना जरूरी था। तो एक दिन बैठ गया, बीस दिन में इसे लिखा। और नतीजा आपके सामने है।Ó
सुभाष कपूर की जिंदगी में 'फंस गए रे ओबामाÓ के पहले और बाद का अपना अनुभव है। वे कहते हैं, हिंदुस्तान में हारे हुए पॉलिटिशियन, फ्लॉप फिल्म और खराब खिलाड़ी को लोग माफ नहीं करते। होंगे आप सौरव गांगुली लेकिन अब आपको कोई नहीं पूछेगा। मेरी ही लो, यह फिल्म चली ना होती तो आप मेरे से बात नहीं करते और दूर खड़ा देखकर मजाक उड़ाते। वैसा ही निर्वासन मैं भोग रहा था और इस एक फिल्म ने सारी चीजें बदल दी। अब यश चौपड़ा को छोड़ दीजिए, इसके अलावा ज्यादातर प्रोड्यूसर अप्रोच कर चुके हैं कि हमारे साथ काम करिए। लेकिन फिलहाल मैं सोचने की प्रक्रिया में हूं। कोई जल्दबाजी नहीं करनी है।
सबसे बड़ी बात यह जिंदगी की छोटी छोटी सच्ची घटनाओं को लेकर बुनी गई कहानी थी। मेरे क्राइम बीट के पत्रकार दोस्तों ने बताया था कि हां, मंदी के चक्कर में फिरौती की जो रकम एक करोड़ हुआ करती थी, वह आजकल पचास लाख हो गई है। मैं पिछले बिहार चुनाव को कवर करने गया था तो लालू मुख्यमंत्री थे। अपहरण, फिरौती की घटनाओं को लेकर सरकार की बदनामी थी। मैंने मुख्यमंत्री निवास पर ही एक कार्यकर्ता से पूछा, इतनी बदनामी है, इतनी अव्यवस्था है, क्या आप लोगों को बुरा नहीं लगता? तो उसने बताया था कि कुछ भी नहीं है साब, अइसन नहीं है, पक्का काम होता है इधर, रसीद भी देते हैं। और आपने देखा होगा कि फिल्म में मंत्रीजी के यहां अपहरण और फिरौती उद्योग कितना संगठित तरीके से चल रहा है।
सुभाष हरियाणा के रहने वाले हैं और वे कहते हैं कि मुझे पूरी हिंदी बेल्ट की कहानियों में मजा आता है। अगली फिल्म की कहानी भी यहीं से होगी। असल में यहां की जुबान में एक अलग किस्म का ह्यूमर है और ऐरोगेंसी भी।
तो क्या यह माना जाना चाहिए कि अब छोटे बजट की फिल्मों का जमाना है? सुभाष कहते हैं, पहले इक्की दुक्की फिल्में आती थीं और चली जाती थीं। लेकिन पिछले साल एक के बाद एक छह सात फिल्में ऐसी आई जिनकी कामयाबी ने यह बताया है कि यदि आप पैसा बेमतलब नहीं फूंकते हैं तो अच्छा है। लेकिन उसमें भी कंटेंट जरूरी है। तो क्या वे भी अगली फिल्म छोटे बजट की रखेंगे? वे कहते हैं, कोई फिल्मकार नहीं चाहता कि वह समझौते करते हुए फिल्म बनाए। आखिर यह महंगा मीडियम है। जितना कम पैसा होगा आप पर बजट नियंत्रित करने का दबाव उतना ही ज्यादा। मुझे पता है कैसे हमने पैंतीस दिन के सिंगल शिडयूल में फिल्म पूरी की। जाहिर है, मैं कभी नहीं चाहूंगा कि इतनी भागदौड़ से फिल्म बनाऊं।
2 टिप्पणियां:
सच है, फ्लॉप को कोई माफ नहीं करता है।
नमस्कार ,
राज कुमार जी !
सुभाष जी !
गर कहानी अच्छी होतो लागत मायने नहीं रखती '' जो फस गए ओबामा ! वाली बात है . आप को इस के बधाई ! आप निरंतर हमारे समक्ष रखते रहेगे ये आशा है !
सादर
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