रविवार, फ़रवरी 20, 2011

एक था बीबीसी लंदन

हालांकि अब यह तय हो गया है की बीबीसी हिन्दी के सेवायें अभी जारी रहेंगी लेकिन यह लेख उस निर्णय से पहले लिखा गया था और डेली न्यूज़ के सन्डे सप्लीमेंट हमलोग में छापा था.

बीबीसी लंदन भारतीय जनमानस में सिर्फ एक रेडियो सेवा ही नहीं है, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की अनौपचारिक पाठशाला भी रही है यानी भारत में लोकतंात्रिक मुल्यों के विकास में जिन संस्थाओं का परोक्ष परंतु महत्वपूर्ण योगदान रहा है, उनमें बीबीसी लंदन की हिंदी सेवा को पहली कतार में गिना जा सकता है, दूरदराज में जहां अखबार नहीं पहुंचता था, एक गैरतरफदार रेडियो के रूप में बीबीसी ने देश को राजनीतिक और सांस्कृतिक तौर पर बुहत कुछ सिखाया, पढ़ाया है ...

यह अस्सी के दशक के शुरूआती दिन थे जब मेरे हमारे गांव में सड़क नहीं थी। बिजली के खंभे भी गांव के एक ही हिस्से में थे, जहां ट्यूब वेल खुद रही थी। हमारे मोहल्ले के कुएं में ऊंट जोतकर चड़स से पानी खींचा जाता था। और स्कूल शायदी उसी साल पांचवी से आठवीं कर दिया गया था। गांव के कुछ लोग खाड़ी के देशों में मजदूर बनकर जाना शुरू ही किया था और चूंकि उनकी मुद्रा विदेशी होती थी इसलिए जब वे गांव लौटते थे तो गांव उनको अफसरों जैसा सम्मान देता था। वे लोग भी पूरे मजे से गांव के लोगों से मिलने वाली इज्जत का पूरा मजा लेते थे। गांव लौटते में उनके पास एक छोटा सा जादुई डिब्बे जैसा कुछ यंत्र होता था जिसे वे रेडियो कहते थे। 

ट्रांजिस्टर भाषायी लिहाज से शायद सही शब्द है लेकिन सब की जुबान पर वा रेडियो ही रहा है। ऎसा ही एक रेडियो पिताजी के एक भतीजे ने यानी मेरे चचेरे भाई ने उन्हें लाकर दिया था। और पिताजी सबसे पहले स्कूल के मास्टर के यहां गए थे, जिनके पास पहले से ही रेडियो था। उसमें आकाशवाणी तो हम सुनते ही थे लेकिन पिताजी ने बीबीसी लंदन की मीटर वेव पूछ ली थी और बीबीसी लंदन की हिंदी सेवा घर की नई आरती हो गई थी, जिसे सुनना हम बच्चों की शुरूआती दिनों में मजबूरी थी, लेकिन धीरे धीरे आदत बन गई। उसमे मजा आने लगा। सारे गाने बजाने छोड़ शाम सात बजकर चालीस मिनट से पहले आठ दस तक और फिर जब उनका समय बढ़ गया तब साढे सात से साढे आठ तक। कैलाश बुधवार, अचला शर्मा, राजनारायण बिसारिया, ओंकारनाथ श्रीवास्तव, परवेज आलम, शफी नकी जामयी, गौतम सचदेव, विजय राणा। 

आज जिन पंकज पचौरी को आप एनडीटीवी इंडिया पर देखते हैं, वे शायद नब्बे के दशक में इंडिया टुडे छोड़कर बीबीसी गए थे। जयपुर के राजेन्द्र बोहरा थे जिनको मैं बाद में सुनता रहा, उनका एक रूपक आया करता था। इसी तरह बाद के बरसों में ललित मोहन जोशी ने सिनेमा के इतिहास पर एक एक बेहतरीन प्रोग्राम तैयार किया था। सुबह-सुबह वे सीधी बात कराते थे पत्रकारों से और मेरे खयाल में अखबारों में आज क्या छपा है यह सब भी मैं बाद के सालो में सुनता रहा।

बाद में स्कूल में चार साल मैं हॉस्टल में रहा था और वहां रेडियो रखने की मनाही थी। लेकिन मैं एक छोटा सा रेडियो चुपके से अपने कमरे में दबाकर रखा था और बीबीसी हिंदी सुनता था। मेरी बीबीसी के बदले मेरे कमरे के बाकी साथी फिल्मी गाने और क्रिकेट की कमेंट्री सुनते थे। मैं अगर उन्हें रेडियो ना देता तो वे वार्डन से मेरी शिकायत कर सकते थे। इस विवरण का आशय कोई आत्मप्रशंसा या प्रचार नहीं है लेकिन जब से यह खबर मिली है कि बीबीसी की हिंदी सेवा बंद हो रही है, तो मुझे मन ही मन तकलीफ हुई। हालांकि पिछले कुछ साल में मैंने बीबीसी सुनना बंद कर दिया है फिर भी एक भी दिन ऎसा नहीं है जब मैं इंटरनेट खोलूं और बीबीसी की साइट पर ना जाऊं। लेकिन वहां भी मैं रिकॉर्डेड प्रोग्राम इंटरनेट से सुनता हूं। 

खाड़ी युद्ध के दिनों में 
खाड़ी युद्ध हम जैसे दूरदराज के गांवों से आने वाले उन युवाओं के लिए बीबीसी हिंदी आज भी शायद उतना ही उपयोगी हो जितना कभी मेरे लिए रहा है। मुझे खुद पर ताज्जुब होता है, जब हॉस्टल के दिनों में खाड़ी युद्ध पर एक डायरी तैयार करता था जिसमें पैट्रियट और स्कड मिसाइलों के फर्क से लेकर अमेरिका और यूरोप की बिदेश नीति तथा भारत के रवैए से जुड़ी चीजें हुआ करती थी। मैं सुबह के अखबार आने से पहले ही बता दिया करता था आज अखबारों में यह सब छपेगा। 

उसके बाद
हमारे घर के पड़ोस में रहने वाले मेरे चाचा दुलाराम अब सत्तर पार के हो गए हैं लेकिन उनका बेटा कोई डेढ़ दशक पहले सोमालिया गया था। संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना में। वे सुबह नियमित रूप से बीबीसी सुनते थे क्योंकि उसके लिए ऎसा कोई समाचार माध्यम नहीं था जो वहां की नियमित रिपोर्टिग करता हो। हमारे टीवी चैनल्स देखते हुए हमेशा यही लगता है कि दुनिया में हिंदुस्तान ही एक देश है और वहां भी मुंबई, दिल्ली जैसे ही शहर हैं। गांव तो जैसे गायब हैं। बहरहाल बरसों बाद जब हम कॉलेज में थे और उड़ती उड़ती खबर आई थी कि हमारे गांव और आसपास में कुछ लोग जहरीली शराब पीने से मर गए हैं तो हमारे पास बीबीसी हिंदी की रात पौन ग्यारह की सभा सुनने के अलावा कोई मीडियम नहीं था, जहां से पुष्टि हुई और अपने उस कस्बे का नाम मैंने रेडियो पर सुना जहां हम आते जाते बड़े हुए थे। 

कहने का मतलब यह है कि वह मेरे गांव से सोमालिया, यूगोस्लाविया, युगांडा तक की खबरें एक ही मीटर वेव पर सुन लिया करते थे और उनपर भरोसा कर लिया करते थे। आज भी मैं गांव जाता हूं तो कई युवा मुझसे पूछते हैं कि मैं जयपुर में रहता हूं तो क्या नारायण बारेठ को जानता हूं जो बीबीसी पर बोलते हैं और मेरी हां में वे खुश होते हैं। इसका मतलब यह है कि गांव में तमाम आधुनिकता के बावजूद लोग बीबीसी को सुन रहे हैं। आज भी कोई एक करोड़ से ज्यादा लोग बीबीसी हिंदी सुनते हैं। जहां बिजली नहीं है, टीवी नहीं है वहां यही खबरें हैं जो लोगों की मदद करती हैं। 

इंदिरा की मौत का दिन 
मुझे याद है जब इंदिरा गांधी की हत्या की खबर पूरे गांव में एक अफवाह की तरह थी तो हमारे घर में शाम को पुरूषों और महिलाओं का मेला सा लगा था। रेडियो ऑन था और जब यह सबसे पहले बीबीसी पर आई कि इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई है तो महिलाएं रोने लगी थीं और पुरूष मुंह लटकाए आंखें नम किए बैठे थे। इससे पहले सब लोग इस इंतजार में थे कि शायद वे घायल हुई हैं और बच जाएंगी। इसी तरह राजीव गांधी की हत्या की खबर भी रात को पौने ग्यारह बजे की सभा में सबसे पहले बीबीसी से ही मिली थी। 

बाजार में 
समझदार होने के बाद, बाजार और उत्तर आधुनिकता को समझने के बाद यह भी समझ में आने लगा कि किस तरह समाचार मीडिया भी बुरी तरह से बाजार के दबाव में रहा है। यहां तक कि बीबीसी के पूर्व संपादकों ने बीबीसी की निष्पक्षता को भी संदिग्ध भी बताया लेकिन जो एक दृष्टि साम्राज्यवाद के खिलाफ और आम आदमी के हक में समाचारों को सुनते हुए विकसित होती है, उसमें बीबीसी ने मेरे खयाल से बहुत मदद की है। राजनीतिक और सांस्कृतिक विविधता वाली जो चेतना दूर दराज की हिंदी बेल्ट में बीबीसी हिंदी की रेडियो प्रसारण सेवा का मेरे खयाल से बड़ा योगदान रहा है, क्योंकि आकाशवाणी और दूरदर्शन की खबरें भी मैं लगातार सुनता रहा हूं और उनमें ज्यादातर सरकारी महिमागान होता है। दुर्भाग्य से वह बढता ही जा रहा है। 

समकालीन समाचार परिदृश्य में जितने हिंदी के चैनल आ गए हैं उनको देखते हुए यह अफसोस होता है कि यह कहां आ गए हैं हम? एक ऎसे अजूबे देश में जहां भूत प्रेत, साधु संन्यासी, नेता, डकैत, फिल्मवालों की तो खबरें हैं लेकिन आम आदमी की खबरें गायब हैं। ऎसे में बीबीसी आम लोगों के बीच फैला ऎसा माध्यम है, जो लोगों की राजनैतिक, सांस्कृतिक और भाषायी चेतना के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण था और सही अर्थो में इसके बंद होने का नुकसान बीबीसी के उन पत्रकारों से कहीं ज्यादा उन बचे हुए गांव देहात के स्रोताओं का है।

क्योंकि पत्रकारों की जमापूंजी होगी और उन्हें नई जगह काम भी मिल जाएगा लेकिन उन स्रोताओं को दूसरा बीबीसी लंदन नहीं मिलेगा। जिस तरह से साइकिल के गायब होने और मोटरसाइकिल और कार के आने को हम प्रगति समझ रहे थे लेकिन दुनिया के कई देशों में साइकिल पुन: प्रासंगिक हो गई है, वैसे ही रेडियो गायब होने के बाद एफएम के रूप में वो पुन: लोगों के बीच आ गया लेकिन अफसोस तो यह है, वहां बीबीसी जैसे माध्यम में बाजार का दबाव है और वे मोबाइल और इंटरनेट पर जा रहे हैं। 

और ऎसा भी होता है
जयपुर के राजेन्द्र बोहरा को बीबीसी लंदन से मैं स्कूल के दिनों में सुनता था और दूसरे प्रसारकों की तरह उनके भी कई रूपक मुझे याद थे। बरसों बाद जब मैं जयपुर में उनसे मिला था तो उन्हें मेरे लिखे कुछ न्यूज फीचर याद थे। जयपुर में हम एक ही पार्टी में थे, जब एक मित्र ने हमारा परिचय कराया तो वे मेरी तारीफ कर रहे थे और मैं उनकी। मेरी आंखें नम थीं, मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि बचपन से प्रिय मेरे उस प्रसारक से कभी रूबरू मिल पाऊंगा और वह मुझे मेरे नाम से जान रहा होगा जैसे मैं उन्हें उनके नाम से जानता था, चेहरे से नहीं। 

उन्होंने पार्टी में लगे पेय की तरफ इशारा करते हुए पूछा था, लेते हो? और मेरी हां पर वे खुश हुए, बोले, आज मजा आयगा जब मिल बैठेंगे, दो यार। उसके बाद हम लगातार मिलते रहे। कोई चार साल पहले जब बोहरा जी के निधन की खबर आई थी तो मैं बेहद उदास था, जैसे कोई मेरे परिवार से चला गया है। वैसे ही, अब बीबीसी हिंदी रेडियो के अवसान की खबर है, जो सचमुच मुझे उदास कर रही है। 

(डेली न्‍यूज के संडे सप्‍लीमेंट हमलोग में रविवार 20 फरवरी 2011 की कवर स्‍टोरी)

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

हाँ जी ...
कसम से याद है वो जमाना...
जब हमारे पटेल दादा रेडियो बजाते थे तब पूरा मोहल्ला इकट्ठा हो जाता था ..
हम बच्चों के लिए तो ये हमेशा से कोतुहल का विषय था की यार ये इस रेडियो के अंदर है क्या ..
और मैंने तो बचपन में एक बार ताऊ जी के रेडियो के पेच खोल लिए थे .. तब अंदर कुछ दो पैरों वाले ट्रांजिस्टर निकले :)
इतने में कहीं से ताऊ जी निकले और मेरे पे काफी हाथ आजमाए !
ये रेडियो सबकी दिनचर्या का हिस्सा हुआ करता था ..
सब लोग हिंदी प्रसारण से पहले पूरे काम निपटा लिया करते थे..
फौजी लोग पूरा अपडेट रहते थे की कहाँ किस सीमा पे क्या चल रहा है और किसान इसी से पता करते थे की कब कौनसा तूफ़ान या मानसून आने वाला है ....
आज भी मेरे ताऊ जी वो सब सुनते हिन्...
खैर मुझे ज्यादा मौका नहीं मिला था सुन ने का पर बहुत से दूर दराज के लोगों के लिए इस सेवा का बंद होना इस तरह से होगा की जैसे उनका कोई अंग ही निष्क्रिय हो गया हो ...
दुःख हुआ जानकार ...