प्रकाश झा की तकलीफ यही है कि देश में इस तरह का सिनेमा लोग बनाते भी नहीं हैं। यदि बड़ी संख्या में फिल्में बनने लगें तो इन विरोधियों को पाला भी कमजोर हो लेकिन समस्या यही है कि जिन चीजों से हमारे दर्शकों और जनता को समस्या नहीं है उनसे इन नेताओं को समस्या हो जाती है।
इन दिनों प्रकाश झा के बारे में आप बहुत कुछ पढ सुन रहे हैं। खासकर उनकी फिल्म आरक्षण को लेकर देशभर में उत्सुकता और उत्तेजना है। कुछ विज्ञप्तिबाज नेता तेजी से सक्रिय हो गए हैं और उन्हें अचानक से लगने लगा है कि सवर्ण जातियों के खिलाफ फिल्म में कुछ खराब टिप्पणियां हैं, वैसे ही दलितों को लगता है फिल्म आरक्षण उनके खिलाफ है। बकौल राजस्थानी नेता कि फिल्म यदि आरक्षण के पक्ष में हैं तो दलितों की लड़ाई कमजोर होगी और यदि आरक्षण के विरोध में हैं तो आरक्षण के लिए लड़ रहे लोगों की लड़ाई कमजोर होगी।
रविवार की शाम मैं जयपुर के होटल मैरियट में प्रकाश झा के साथ हूं और वे बताते हैं कि फिल्म को प्रोडक्शन बजट 52 करोड़ रुपए है और प्रचार के बारह करोड और। यानी कुल जमा 64 करोड़ रुपए दांव पर लगे हैं एक गंभीर किस्म के फिल्मकार के जो चुम्मा चाटी या मर्डर सर्डर या लिजलिजी प्रेम कहानी बनाकर उन सब तनावों से बच सकता था जो उसे राजस्थान, महराष्ट्र, उत्तरप्रदेश या दूसरे राज्यों में छुटभैया नेताओं की वजह से मिल रहे हैं। हमारी कमजोर ओर लाचार सी कानून व्यवस्था सारी जिम्मेदारियां फिल्मकार पर ही डालती है कि कुछ पंगा हुआ तो आप ही जिम्मेदार होंगे।
हिंदुस्तान में पॉलिटिकल सिनेमा पर ही यह दिक्कत क्यों होती है? झा कहते हैं, ऐसा किसी भी सिनेमा के साथ हो सकता है। इस देश में कुछ भी हो सकता है। मैं पूछता हूं कि जब आपको पता है आपकी हर फिल्म से किसी न किसी को दिक्कत होती है, हर बार रिलीज से पहले तनाव होता है, लोग पब्लिसिटी स्टंट कहकर काम चला लेते हैं लेकिन एक निर्माता के रुप में हर बार आप तनाव से गुजरते हैं, क्यों नहीं दो भाई, दो लड़कियां, मां बेटे कुंभ के मेले में बिछड़ने टाइप मसाला डाल के बेच सकते हैं तो हर बार यह पंगा क्यों लेते हैं, तो प्रकाश झा मुस्कराते हैं, कहते हैं मैं नहीं बना सकता वो फिल्में। मुझे इसी में मजा आता है।
इस बीच मुंबई से कोई फोन आता है, प्रोड़यूसर्स गिल्ड, सरकार ओर झा की खीझ को लेकर बात होती है। वे इशारा करते हैं कि इन सबको ना रिकॉर्ड करें लेकिन वो बातचीत सुनकर मैं उनके तनाव का अंदाजा लगा सकता हूं। एक रचनात्मक आदमी जो यह कह रहा है कि वो पिछले सात साल से इस विचार के साथ जूझ रहा था और अब जाकर यह मूर्त हुआ है। जो यह कह रहा है कि यदि अमिताभ इस फिल्म के लिए हां नहीं कहते तो मैं फिल्म शुरू ही नहीं करता। जो यह कह रहा है कि उसकी अगली फिल्म की कहानी भी देश के राजनीतिक माहौल के इर्द गिर्द ही होगी तो तनाव के बीच यह हौसला ही साबित करता है कि प्रकाश झा सबसे अलग क्यों हैं?
वे उन लोगों से लड़ रहे हैं, जिनसे जब हमने प्रेस कांफ्रेंस में पूछा कि जब सेंसर बोर्ड ने फिल्म को प्रमाण पत्र दे दिया है तो उन्हें क्या आपत्ति है ओर उनका जबाव है कि सेंसर बोर्ड में भी आदमी बैठते हैं, उनसे गलती हो सकती है, और वे उस गलती को सुधारना चाहते हैं। मुझे पता है वे सब ऐसे नेता है जो इस फिराक में रहते हैं कि कोई मुद़दा हडपें। वे कभी सिनेमा नहीं देखते। वे सिनेमा माध्यम को रत्ती भर भी नहीं समझते।
प्रकाश झा की तकलीफ यही है कि देश में इस तरह का सिनेमा लोग बनाते भी नहीं हैं। यदि बड़ी संख्या में फिल्में बनने लगें तो इन विरोधियों को पाला भी कमजोर हो लेकिन समस्या यही है कि जिन चीजों से हमारे दर्शकों और जनता को समस्या नहीं है उनसे इन नेताओं को समस्या हो जाती है।
झा एक बात और कह रहे हैं कि मैं दावे से कह सकता हूं कि फिल्म रिलीज होने के बाद जब ये लोग देखेंगे तो शायद खुद ही पछताएंगे कि वे क्यों बिना किसी आधार के विरोध कर रहे थे क्योंकि फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है। वो किसी जाति विशेष के खिलाफ नहीं है। यहां तो हालात ही खलनायक की तरह व्यवहार कर रहे हैं। यह एक पूरा तंत्र खड़ा हो गया है, जिसकी ओर फिल्म संकेत करती है, बाकी फिल्म को मूल तो एक इमोशनल कहानी है। पता नहीं लोग क्यों नहीं समझते।
प्रकाश झा पर बौदि़धक तबके का यही आरोप है कि उन्होंने स्टारडम से अलग एक मौलिक सिनेमा बनाने की कोशिश की तो अब वे सितारों वाले सिनेमा की तरफ कैसे मुड़ गए? झा कहते हैं, क्या करूं, जब फिल्म बनाने की लागत वही है और अच्छी कहानी भी मेरे पास है तो मुझे बॉक्स आफिस भी तो देखना है। आप देखिए, अच्छी बनी फिल्मों के क्या हाल हैं। शो कैंसिल हो जाते हैं। तो मैं क्या करूं? और वे प्रकारांतर से कहते हैं कि धारा बदलने वाले सिनेमा का खिताब आप लोगो ने दिया है, मैं तो फिल्मकार हूं अपने तरह की फिल्म बनाता हूं।
भाषा को लेकर वे आश्वस्त हैं, मैंने कहा, राजनीति में इतनी शुद़ध हिंदी कि लगता नहीं आप इस दौर में इस तरह की भाषा इस्तेमाल कर सकते हैं, वे मुस्कराते हुए कहते हैं, यह सब आपको आरक्षण में भी मिलेगा। राजनीतिक सामाजिक उथल पुथल वाले डायलॉग की जटिलता के बारे में कहा तो बोले, बार बार सुनिए ना, समझ में आएगा।
इस पूरे तनाव के बीच भी उनके पास एक विट है, हास्यबोध है। इस बातचीत के बीच भीतर आ गए पत्रकार मित्र ने पूछा कि पर्दे के पीछे से इतना काम किया है, कभी पर्दे पर आने की सोची है। वे कहते हैं, आजकल मैं ही मैं इतना पर्दे पर आया हुआ हूं। लोगों को स्पष्टीकरण दे रहा हूं कि मेरी फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है।
फिर वो कहते हैं, राजनीति में भी मैं एक जगह पर्दे पर था और आरक्षण में भी पर्दे पर नजर आउंगा। मैंने धांसू काम किया है और देखना फिल्म मेरे ही अभिनय के दम पर सुपर डुपर हिट होगी।